वर्ष - 27
अंक - 45
27-10-2018

जैसे जैसे चुनाव का महत्वपूर्ण मौसम नजदीक आ रहा है, संघ-भाजपा की साजिश की रूपरेखाएं दिनों-दिन और भी स्पष्ट होती जा रही हैं. 2019 के महासमर से पहले प्रकट हो रहे भाजपा के एजेन्डा और प्रचार अभियान के हम चार प्रमुख संकेतकों की शिनाख्त कर सकते हैं. आरएसएस द्वारा इस बात पर जोर कि मोदी सरकार को अयोध्या में उसी स्थल पर, जहां 6 दिसम्बर 1992 तक बाबरी मस्जिद मौजूद थी, राम मंदिर के निर्माण को सुगम बनाने के लिये कानून बनाना होगा ऋ सबरीमाला मंदिर में सभी आयु-वर्गों की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भाजपा द्वारा अपनी पूर्व की स्थिति को बिल्कुल उलट देना और फैसले का विरोध करना तथा केरल में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लागू करने से रोकने के लिये हिंसक अभियान चलाना ऋ  आने वाले कुम्भ मेले से पहले ही आदित्यनाथ सरकार द्वारा इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने का ‘तुगलकी फरमान’ ऋ और आजाद हिंद फौज की घोषणा की 75वीं वर्षगांठ के स्मृति-समारोह के मौके पर मोदी द्वारा सुभाष चन्द्र बोस की विरासत को हड़पने की बेताब कोशिशें - इन सभी का लक्ष्य संघ-भाजपा द्वारा संघ की फासीवादी विचारधारा के अनुरूप भारत की पुनर्रचना को जायज ठहराने के लिये मिथकों और इतिहास का एक तेज नशीला सम्मिश्रण तैयार करना है.

संघ ब्रिगेड के राम मंदिर अभियान का लक्ष्य कभी भी केवल राम के नाम पर एक भव्य मंदिर तैयार करना नहीं रहा, इसका मतलब रहा था बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाना. और इसका मकसद सोलहवीं सदी की किसी कल्पित घटना का हिसाब चुकाना कत्तई नहीं था बल्कि तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय और संसद को ठेंगा दिखाना था. अगर 1992 का मकसद सर्वोच्च न्यायालय और संसद की अवहेलना करना था, तो 2018 में यह मकसद सर्वोच्च न्यायालय और संसद को अपनी उंगली पर नचाना है. संघ संसद द्वारा बनाये गये कानून के जरिये राम मंदिर का निर्माण करना चाहता है - अर्थात् या तो सर्वोच्च न्यायालय इस इशारे को समझ ले और इसके अनुसार ही निर्णय सुनाये, अन्यथा सरकार संसद में अपने बहुमत का इस्तेमाल करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ठुकरा दे. इसका असली मकसद तो सर्वोच्च न्यायालय, संसद और संविधान पर अपनी शर्तें थोपना है, भारतीय राज्य की हिंदू राष्ट्र के रूप में पुनर्रचना करना है.

आरएसएस ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बरक्स भी इसी रवैये को खुलेआम जाहिर किया है. भागवत कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को उन परम्पराओं के अनुसार करना चाहिये था जिनका निर्धारण समुदाय के वर्चस्वशाली हिस्से की आवाज करती है, उसे आजादी और समानता के संवैधानिक उसूलों के आधार पर यह निर्णय नहीं करना चाहिये था. ये वही लोग हैं जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के प्रति न्याय के नाम पर तत्काल तीन तलाक को खारिज करने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत किया था और इस हद तक चले गये थे कि तीन तलाक को आपराधिक कृत्य ठहराने के लिये एक अध्यादेश भी लागू कर दिया था. इस संदर्भ में यह उल्लेख करना भी एक सबक होगा कि पूजा स्थल में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर सबरीमाला मंदिर बोर्ड और हाजी अली दरगाह ट्रस्ट ने परस्पर विपरीत रुख का प्रदर्शन किया है. जहां हाजी अली दरगाह ट्रस्ट ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सिर झुकाकर मान लिया, वहीं ट्रावनकोर देवास्वम बोर्ड सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की धज्जियां उड़ा रहा है, यहां तक कि इस फैसले को “सेक्स टूरिज्म” के लिये प्रोत्साहन बता रहा है, जबकि केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े सर्वोच्च न्यायालय पर हिंदू धार्मिक आस्थाओं एवं भावनाओं से खिलवाड़ करने का आरोप लगा रहे हैं. यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि अगर मुस्लिम समुदाय ने तीन तलाक और हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश के सवाल पर इसी किस्म का रवैया अपनाया होता तो आरएसएस, भाजपा और मोदी सरकार ने उसके खिलाफ क्या प्रतिक्रिया जाहिर की होती.

उत्तर प्रदेश में, जहां कानून के शासन की जगह अब इन्काउंटर राज का अत्याचारी शासन चल रहा है, और सरकार सभी मोर्चों पर लस्तपस्त भहराकर गिर पड़ी है, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ नाम बदलने की उछल-कूद कर रहे हैं. मुगलसराय का नाम बदलकर दीन दयाल उपाध्याय नगर रखने के बाद अब उत्तर प्रदेश ने इलाहाबाद के प्रतिष्ठित शहर और जिले का नाम बदलकर प्रयागराज रख दिया है, जो कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक प्रमुख स्थल रहा है. अगर नाम बदलने की कवायद विस्तारित होकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय और विश्वविद्यालय तक पहुंचेगी, तो इस कसरत की कीमत हजारों करोड़ रुपयों की राशि से चुकानी होगी. यह तो नोटबंदी की तरह ही अनावश्यक खर्चीला और सनकी कदम होगा, जिसके साथ-साथ सांस्कृतिक कट्टरपंथ और बेवकूफी का आयाम भी जुड़ा है. इलाहाबाद और प्रयाग के जुड़वां शहर सदियों से साथ-साथ बसे रहे हैं, मगर मुगल काल से चली आ रही किसी भी परम्परा या इतिहास तो इन बर्बर गुंडों के लिये अभिशाप समान है, जो केवल जीवन और समाज के हर क्षेत्र में बेलगाम बर्बरता के तांडव में लिप्त रहने के लिये ही सत्ता की कमान अपने हाथों में लिये हुए हैं. इस नाम बदलने के अभियान को राम मंदिर के लिये अभियान के नये पैकेज के एक अंग के बतौर ही देखा जाना चाहिये, और आने वाले दिनों में वाराणसी में होने वाला अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) का समागम तथा इलाहाबाद में कुम्भ मेला, इन सभी का 2019 के चुनाव की तैयारी के काल में भावनात्मक उन्माद पैदा करने और प्रचार का तूफान खड़ा करने के लिये भरपूर इस्तेमाल करने की कोशिश की जायेगी.

सांस्कृतिक राजनीति के इस परिदृश्य के बीच मोदी सरकार ने सिंगापुर की धरती पर अस्थायी आजाद हिंद सरकार की घोषणा की 75वीं वर्षगांठ मनाने के नाम पर सुभाष चन्द्र बोस की विरासत को हड़प लेने का बेताबीभरा अभियान छेड़ दिया है. सरकार दावा कर रही है कि इसके पहले की तमाम सरकारों ने नेताजी की भूमिका और उनके योगदान को अनदेखा कर दिया था और अब वह सुभाष चन्द्र बोस के एकमात्र सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में नरेन्द्र मोदी को पेश करने की कोशिश में जुटी हुई है, क्योंकि वे ही आखिरकार भारत के स्वाधीनता आंदोलन के इस महान नेता को उनके उपयुक्त सम्मान दे रहे हैं. ठीक जैसे इस सरकार ने गांधी को स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर अपने प्रचार अभियान के प्रतीक चिन्ह में सीमित कर दिया है, उसी तरह सुभाष चन्द्र बोस को भी काट-छांट कर अपने लायक बनाने की कोशिश चल रही है. बोस की वामपंथी राजनीति, आर्थिक योजना पर उनका पथप्रदर्शनकारी जोर, उनका समेकित दृष्टिकोण और सावरकर की हिंदू महासभा की साम्प्रदायिक कट्टरता तथा फूटपरस्त राजनीति का कठोर निषेध - इन सभी चीजों को भुलाकर उन्हें केवल एक करिश्माई नेता के रूप में पेश किया जा रहा है जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत की स्वाधीनता के लिये जर्मनी और जापान से हाथ मिलाकर सशस्त्र युद्ध छेड़ा था.

हां, जरूर कम्युनिस्टों ने बोस के कार्यनीतिक तौर पर हिटलर, मुसोलिनी और तोजो से हाथ मिलाने से सहमति नहीं जाहिर की थी और यहां तक कि कठोर शब्दों में उनकी आलोचना भी की थी, मगर कम्युनिस्ट और कांग्रेस आजाद हिंद फौज (आईएनए) के योद्धाओं की रिहाई के लिये चलाये गये देशव्यापी अभियान की अगली कतार में भी शामिल रहे थे. आजाद हिंद फौज और अस्थायी आजाद हिंद सरकार, दोनों की संरचना भारत की सामाजिक विविधता और बहुलता को प्रतिबिम्बित करती थी और आईएनए के योद्धाओं की रिहाई की मांग भारत की आजादी की लड़ाई के अंतिम प्रहार के लिये रणघोष बन गया था. आईएनए के कई नेता कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गये और ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक, वह राजनीतिक पार्टी जिसे सुभाष चन्द्र बोस ने आईएनए की स्थापना के पूर्व स्थापित किया था, स्वाधीनता के बाद वामपंथी खेमे का एक घटक बन गई. कैप्टन लक्ष्मी सहगल, जो आजाद हिंद फौज में झांसी की रानी रेजिमेंट की प्रमुख थीं, जो केवल महिलाओं को शामिल करके बनाई गई एक लड़ाकू रेजिमेंट थी, वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की एक वरिष्ठ सदस्य बनीं थीं और एनडीए सरकार के प्रथम शासन काल में भारत के राष्ट्रपति पद के लिये विपक्ष की उम्मीदवार भी बनी थीं. यहां याद रखना चाहिये कि जहां सुभाष चन्द्र बोस ने वास्तव में भारत की आजादी के लिये लड़ाई लड़ी थी, आरएसएस और हिंदू महासभा भारत के ब्रिटिश शासकों से सांठगांठ करने में व्यस्त थे, और सावरकर ने तो हिंदू राष्ट्रवाद के सैन्य सुदृढ़ीकरण और विकास के लिये, जिसे वे हिंदुत्व कहते थे, हिंदुओं से ब्रिटिश सेनाओं में “बाढ़ की तरह लबालब भर जाने” को कहा था. सुभाष चन्द्र बोस के योगदान को अनदेखा करने का दूसरों पर आरोप लगाने से पहले मोदी और आरएसएस-भाजपा के नेताओं को स्वतंत्रता आंदोलन के साथ खुद अपनी गद्दारी और ब्रिटिश शासकों के साथ सांठगांठ के अपने इतिहास की सफाई देनी चाहिये.

जब भारत की जनता आसमान छूती महंगाई, भारी बेरोजगारी और गहराते कृषि संकट के बोझ तले पिस रही है, तथा भ्रष्टाचार और पिट्ठू पूंजीवाद, जिसे मोदी सरकार बढ़ावा दे रही है, रोजाना की खबर बनता जा रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा खुद चुन-चुन कर नियुक्त किये गये सीबीआई के शीर्षस्थ अधिकारियों से घूस लेने के आरोप में पूछताछ की जा रही है, मोदी और उनके चट्टे-बट्टों के पास पिछले साढ़े चार साल के शासन में हर मोर्चे पर इस कदर विफलता और उनके द्वारा पैदा की गई इस अव्यवस्था का कोई जवाब नहीं है. इसीलिये वे जनता के अंदर फूट डालने और उनका ध्यान भटकाने के रास्ते तलाश रहे हैं. जनता को इस संकट का समाधान करने की अपनी लड़ाई में डटकर खड़ा होना होगा और एकता बनाये रखनी होगी. संघ-भाजपा शासन की फूटपरस्त और ध्यान भटकाने वाली नापाक साजिशों को शिकस्त देनी ही होगी और इन शासकों को, जिन्होंने खुद को देश के लिये इतना बड़ा स्थायी हादसा साबित कर दिया है, वैसा ही जोरदार धक्का देकर गद्दी से खदेड़ बाहर करना होगा जैसे उन्होंने 1977 में इमरजेन्सी शासन को दंडित किया था.