वर्ष - 28
अंक - 35
17-08-2019

[ 30 जुलाई 2019 को नेताजी इनडोर स्टेडियम कोलकाता में हुए 'संगठित रहो, मुक़ाबला करो!' जन कन्वेशन में कॉ. दीपांकर भट्टाचार्य का उद्घाटन वक्तव्य ]

सम्मानित अतिथियों और साथियों,

आप सब का इस जन कन्वेशन में गर्मजोशी भरा स्वागत है. मैं भाकपा-माले की केंद्रीय कमेटी की ओर से इस जन कन्वेंशन में भागीदारी करने के लिए आपको सलाम पेश करता हूँ. यह कन्वेंशन 'संगठित रहो और मुक़ाबला करो!' की आज की ज़रूरत में हमें एक-दूसरे के साथ खड़ा करेगा. जुलाई के इस आख़िरी समय में मुझे कुछ ऐसे नाम याद आ रहे हैं जो आज की चुनौतियों का सामना करने में हमारे लिए शक्ति और प्रेरणा का स्रोत हो सकते हैं. 28 जुलाई को कॉमरेड चारु मजूमदार का शहादत दिवस है. इस साल हम उनका सैंतालीसवां शहादत दिवस मना रहे हैं. 29 जुलाई ईश्वरचंद विद्यासागर का स्मृति-दिवस है. उन्होंने 19वीं शताब्दी में भी जाति और जेंडर की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए सबके लिए शिक्षा को सुलभ कराने की दिशा में अग्रणी काम किया था. 31 जुलाई हिंदी-उर्दू के महान लेखक प्रेमचंद का जन्मदिन है जिनकी लेखनी ने ग़ुलामी के तले पिसते भारत को उपनिवेशवाद और सामाजिक जकड़न, दोनों से मुक्ति के लिए ताक़त दी.

आधुनिक भारत के इतिहास में कोलकाता शहर का विशेष स्थान है. इस शहर ने कई महान संघर्षों की शुरुआत की और कई बड़े जन आंदोलनों का गवाह रहा. उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद ने आज़ादी के आंदोलन में इस शहर की महत्त्वपूर्ण भागीदारी सुनिश्चित की. 1947 के बाद भारतीय जनता के हर बड़े आंदोलन, लोकतंत्र पर घातक हमलों के ख़िलाफ़ जन प्रतिरोध, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादी हस्तक्षेप, युद्ध और क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ चले हर आंदोलन की गूँज कोलकाता में सुनाई पड़ी. हम कोलकाता और बंगाल के गौरवशाली प्रगतिशील इतिहास का निर्माण करने वाले महान चिंतकों, लेखकों, समाज सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, कम्युनिस्ट नेताओं और अगणित शहीदों को श्रद्धांजलि पेश करते हैं.

कोलकाता बड़ी त्रासदियों का भी शिकार रहा है. 1940 के दशक में भयानक अकाल, विभाजन के दिनों में साम्प्रदायिक हिंसा, सिद्धार्थ रे के दमनकारी दौर में जनसंहार और हिरासत में हत्याएँ और अब हर दिन बढ़ती हुई संघ गिरोह की गुंडागर्दी. इस शहर ने यह सब कुछ झेला है. लेकिन कोलकाता ने इन त्रासदियों के सामने कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया. विरोध और प्रतिवाद की आवाज़ यहाँ की फ़िज़ाओं में गूँजती रही है. आज जब पश्चिम बंगाल में फासीवादी लिंच मॉब अपना सर उठा रहा है और विरोध की हर आवाज़ को ख़ामोश करने की कोशिश की जा रही है तब हम यहाँ इकट्ठा होकर संगठित तौर पर इस फ़ासीवादी हमले का विरोध कर रहे हैं. हम अपनी एकता को और मजबूर बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. हम यहाँ लड़ने और जीतने की अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा करते हैं.

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हम यहाँ भारत के हर कोने से आए हैं. हम अलग ज़ुबानें बोलते हैं, हम अलग-अलग धर्म मानते हैं, हमारे लिबास अलग-अलग हैं, हमारा खाना अलग-अलग है. यह विविधता हमारी सामूहिक पहचान है और हमें इस पर गर्व है. हम किसी भी संगठन, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, या किसी भी सरकार, चाहे वह कितनी ही ताक़तवर क्यों न हो, को इस बात की इजाज़त नहीं दे सकते कि वह हम पर थोपे कि हम कौन सी ज़ुबान बोलेंगे, कौन सा लिबास पहनेंगे, कौन सा खाना खाएँगे या हमें कौन से नारे लगाने होंगे. हमारी एकता की जड़ें हमारी विविधता में धंसी हुई है और हम किसी को भी इस बात की इजाज़त नहीं दे सकते कि वह इस विविधता को ध्वस्त करके हमें एकरूप बना दे.

हम विविधताओं का सम्मान करते हैं और अपनी विविधता पर नाज़ करते हैं. संघ-भाजपा के लोग इन भिन्नताओं को विकृत करके उन्हें एक-दूसरे के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह और घृणा में बदल देना चाहते हैं. वे इन विविधताओं को हिंसा और भय में बदल देना चाहते हैं. अपनी विविधताओं के बावजूद हम एक समान भारतीय हैं. हकीकत तो यह है कि हमारी भिन्नताएँ और विविधताएँ हमारे सांस्कृतिक क्षितिज का विस्तार करती हैं और भारत की जनता के बतौर हमारी एकता को मजबूत बनाती हैं. वहीं इसके उलट मोदी सरकार सारी शक्तियों का केंद्रीकरण करके हमारे गणतंत्र के संघीय ढाँचे को लगातार कमजोर कर रही है. यह आक्रामक क़िस्म का केंद्रीयतावाद भारतीयों के बड़े समुदायों को अलगाव में डाल रहा है और हमारे देश को कमजोर कर रहा है. इसलिए हम इस प्रवृत्ति को तत्काल उलट देना चाहते हैं और विविधता, बहुलता व संघीयता के ज़रिए भारतीयता के इंद्रधनुष को आगे बढ़ाना चाहते हैं.

आज़ादी के आंदोलन के दौरान साम्प्रदायिकता के उभार ने हमारी एकता को कमजोर किया और इसके चलते देश का बँटवारा हुआ. इतिहास की इस त्रासदी से हम यह सीख ले सकते हैं कि इसे दोहराया न जाए. हम साम्प्रदायिकता को देश के और भी टुकड़े करने की इजाजत नहीं दे सकते. हमें अपनी एकता के आधार के बतौर धर्मनिरपेक्षता और भाई-चारे को और भी मजबूत करना होगा. इससे हमारा लोकतंत्र और भी परिपक्व होगा. आज संघ-भाजपा गिरोह हमारे गणतंत्र की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को उलट देना चाहता है. हम इस विघटनकारी सोच को ध्वस्त करने के लिए दृढ़-संकल्प हैं.

यह देश हम सबका है. 1857 का लोकप्रिय गीत 'हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा' हमारे इस दावे को साफ शब्दों में सामने रखता है. डॉक्टर अम्बेडकर की अगुवाई में तैयार किया गया भारत का संविधान 'हम भारत के लोग' की उद्घोषणा के जरिए भारत की संप्रभुता को बयान करता है. संघ-भाजपा परिवार देश पर बराबर के हक़ की इस बुनियादी भावना से इंकार करता है और अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना चाहता है. एनआरसी और नागरिकता संशोधन क़ानून के जरिए यह भारत के निवासियों के एक हिस्से की नागरिकता छीन लेना चाहता है और उन्हें स्थायी तौर पर उत्पीड़न और भय के कारागार में धकेल देना चाहता है. हम यहाँ इस विभाजनकारी खाके को नकारते हैं. भारतीय नागरिकता की कोई धार्मिक परीक्षा नहीं हो सकती. भारतीय नागरिकों के लिए कोई डिटेंशन कैम्प नहीं हो सकते. बांग्लादेश के साथ किसी द्विपक्षीय समझौते के बग़ैर किसी को भी ज़बरन बाहर नहीं निकाला जा सकता.

मोदी सरकार भारत के समस्त संसाधनों को एक प्रतिशत धनी लोगों के हाथों में सौंप कर ग़रीबों को भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, जीविका और सामाजिक सुरक्षा जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित कर देना चाहती है. वे जितना ही राष्ट्रवाद की बात करते हैं, उतना ही वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का विनिवेश करके उन्हें निजी हाथों में सौंप देना चाहते हैं. वे वन क़ानून में बदलाव करके लाखों आदिवासियों और जंगल में रहने वाले लोगों से उनकी पुश्तैनी ज़मीनें छीन लेना चाहते हैं. यदि सरकार भारत को अम्बानी और अडानी के हाथों गिरवी रखना चाहती है तो सिद्धू-कानू और बिरसा की संतानें उनके इन मंसूबों को ध्वस्त कर देंगी. हम यहाँ पर प्रतिरोध के अपने उस गीत के प्रति फिर से अपना विश्वास प्रकट करने के लिए इकट्ठा हुए हैं जो बेदख़ली के ख़िलाफ़ चलने वाले आंदोलनों का पहले ही कंठहार बन चुका है: 'जंगल ज़मीन छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नाहीं!'.

आज से कुछ हफ़्तों बाद हम अपना 72वाँ स्वाधीनता दिवस मनाएँगे. मोदी सरकार का दावा है कि उसने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की ताक़त बढ़ाई है लेकिन अब ट्रम्प कह रहे हैं कि मोदी ने उनसे भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने की गुज़ारिश की है. हमारे बजट में प्रावधान किया गया है कि विदेशी निजी करदाताओं से डॉलर उधार लिए जाएँगे. आज अमेरिका की यह हैसियत हो गयी है कि वह हमारे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की शर्तें तय कर रहा है. वह तय कर रहा है कि हम तेल या गैस किस देश से ख़रीदें और किस देश से न ख़रीदें. यह और कुछ नहीं बहुत मुश्किल से हासिल की गयी हमारी आज़ादी में सेंधमारी है. हमारे गौरवपूर्ण और लम्बे चले स्वाधीनता आंदोलन में संघ गिरोह की कोई भूमिका नहीं रही है. उनका इतिहास केवल अंग्रेज़ शासकों का सहयोग करने का रहा है. उनके नायक सावरकर ने जेल से बाहर आने के लिए अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगी थी. वहीं दूसरी तरफ़ हमारे नायक भगतसिंह और अन्य अगणित शहीद हैं जिन्होंने अपने देश की जनता की मुक्ति के लिए ख़ुद को कुरबान कर दिया. वे आज भी हमारे मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत हैं.

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हमें अपने स्वाधीनता आंदोलन की विरासत पर गर्व है. हम आज़ादी के सीमांतों का विस्तार करना चाहते हैं. साम्राज्यवाद की बेड़ियों से मुक्ति के साथ ही साथ हर तरह की सामाजिक ग़ुलामी, उत्पीड़न और भेदभाव से मुक्ति ज़रूरी है. संविधान द्वारा न्याय, आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के प्रति लिए गए संकल्प को खाप पंचायतों, लिंच मॉब और पार्टी के पार्टी प्रतिबद्ध राज्य के हाथों गिरवी नहीं रखा जा सकता. मनुस्मृति और पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवाद संघ-परिवार के लिए आदर्श हो सकता है लेकिन आधुनिक भारत को सामाजिक ग़ुलामी के अतीत में नहीं लौटने दिया जा सकता. फुले, अम्बेडकर, पेरियार समेत सामाजिक बराबरी और जेंडर-न्याय के अन्य नायकों-नायिकाओं के विचार हमें एक न्यायपूर्ण समाज की ओर आगे ले जाएँगे. जहाँ तक लिंच मॉब का सवाल है तो हमें पता है कि ये उसी दिन ग़ायब हो जाएँगे जब राज्य, संविधान द्वारा प्रदत्त क़ानून लागू करने की ज़िम्मेदारी निभाना शुरू कर देंगे. यदि सरकार सांस्थानिक अराजकता में पतित हो जाती है तो सचेत नागरिक के बतौर हम वह हर क़दम उठाएँगे जिससे सरकार को क़ानून आधारित शासन को ज़िम्मेदार ठहराया जा सके.

हम ऐसे आज़ाद नागरिक के बतौर आगे बढ़ना चाहते हैं जिसके अधिकारों का हनन न किया जा सकें. वहीं मोदी सरकार हमारे ऊपर भय, दमन और पाबंदियों के ज़रिए शासन करना चाहती है. नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों को उलटने के लिए यह सरकार उपनिवेशवादी क़ानूनी ढाँचे को फिर से लागू करना चाहती है. 1919 का बदनाम रोलेट ऐक्ट, 2019 में यूएपीए संशोधन क़ानून के ज़रिए फिर से ज़िन्दा किया गया है. हमारे यहाँ ऐसे बहुतेरे मामले हैं जिनमें झूठे आतंक के आरोप लगाकर दशकों तक जेल में बंद रखा गया और वे बेगुनाह साबित हुए. लेकिन यूएपीए में संशोधन के ज़रिए सरकार को यह ताक़त मिल गयी है कि वह नागरिकों को आतंकवादी के बतौर देखे और उन्हें बिना मुक़दमे व न्यायिक समीक्षा के जेलों में ठूँस दे. इस समय झूठी ख़बरों और घृणा आधारित प्रचार अभियानों की बाढ़ आयी हुई है व सूचना माँगने के अधिकार, पारदर्शिता और जवाबदेही को दफ़न कर दिया गया है. लोकतंत्र हमारा संवैधानिक अधिकार है और हम यहाँ घोषणा करते हैं कि अपनी पूरी ताक़त के साथ हम इस अधिकार के लिए लड़ेंगे.

1970 के दशक में सिधार्थ शंकर रे के दौर में पश्चिम बंगाल को भारी नुक़सान उठाना पड़ा लेकिन लोकतंत्र की भावना ने दृढ़ संकल्प के साथ संघर्ष किया. 'यह मृत्यु की घाटी नहीं है मेरा देश, यह जल्लादों के उल्लास का मंच नहीं है मेरा देश' का नारा 1970 के दशक की प्रतिरोध की आवाज़ बन गया था. लोकतंत्र की बहाली के बाद वामपंथ का तेज़ उभार हुआ और दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन गए. भूमि सुधार, बर्गा अधिकार और पंचायती राज ने ग्रामीण बंगाल में वामपंथी सरकार के लिए बड़ा और स्थायी आधार मुहैय्या कराया. इतिहास की गति ही है कि तीन दशक बाद किसान अधिकारों और लोकतंत्र के सवाल पर ही वाम मोर्चे की सरकार सत्ता से बाहर हुई. लोकतंत्र के वायदे के साथ सत्ता में आयी तृणमूल सरकार ने पश्चिम बंगाल को आतंक, अराजकता और भ्रष्टाचार का शासन दिया है. अब भाजपा पश्चिम बंगाल की सत्ता हथियाना चाहती है. उसके अभियान में आतंक के साथ-साथ साम्प्रदायिकता और हिंसा का ज़हर भी भारी मात्रा में घुला हुआ है.

हमें विश्वास है कि पश्चिम बंगाल के लोकतंत्र पसंद प्रगतिशील लोग इस मौक़े पर हस्तक्षेप करेंगे और पश्चिम बंगाल को साम्प्रदायिक हिंसा, फ़ासीवादी आतंक और गुंडागर्दी की प्रयोगशाला बनाने से बचाएँगे. पश्चिम बंगाल की वामपंथी ताक़तों के सामने त्रिपुरा का आँख खोल देने वाला उदाहरण है जहाँ फ़ासीवादी उत्पात की शुरुआत हो चुकी है. हम पूरे देश में 2014 से ही लोकतंत्र पर बढ़ते हुए हमले के साक्षी हैं.

पश्चिम बंगाल हमेशा ही प्रगतिशील विचारों, साम्प्रदायिक भाईचारे, लोकतांत्रिक अधिकारों व सामाजिक बदलाव के जन आंदोलनों का गढ़ रहा है. पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र, सामाजिक प्रगति और जन अधिकार दाँव पर लगे हुए हैं. इसलिए आज हम यहाँ आप के साथ एकताबद्ध ढंग से खड़े होकर लोकतंत्र, सामाजिक प्रगति व जनता के बीच भाईचारे के लिए आपके संघर्ष के साथ पूरी तरह एकजुटता का अपना संकल्प दोहरा रहे हैं.

भाकपा-माले ने इसी कोलकाता शहर से अपनी शुरुआत की थी. कॉमरेड चारु मजूमदार की पुलिस हिरासत में हत्या इसी शहर में हुई थी. आज हमारी पार्टी पचास साल की हो गयी है और हम कॉमरेड चारु का जन्म शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. आज कोलकाता के इस ऐतिहासिक जन कन्वेशन के मंच से हम सच्चे लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण व संघीय भारत के लिए अपने संकल्प को दोहराते हैं और लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा जन अधिकारों के लिए संघर्षरत सभी ताक़तों के साथ ख़ुद को एकजुट करते हैं.

आज संसद में भले ही विपक्ष कमजोर हो, और सरकार बिना किसी संसदीय समीक्षा के अपने सभी नए क़ानून धड़ल्ले से पारित कर ले जा रही हो लेकिन हम इस बात की गारंटी करेंगे कि भारत की सड़कें फ़ासीवादी एजेंडे के ख़िलाफ़ हर क़दम पर विपक्षी ताक़तों से भरी हों. आइए, हम एकजुट रहें और अपनी पूरी ताक़त के साथ मुक़ाबला करें. हम ज़रूर ही कामयाब होंगे.