वर्ष - 28
अंक - 36
24-08-2019

अगर आप इसे कोई दूसरा जुमला से ज्यादा ही कुछ कहना चाहें, तो मसविदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (डीएनईपी) को एक खूबसूरत लेबेल के साथ शराब की पुरानी बोतल में सिरका के अलावा कुछ नहीं कह सकते. यह सरकारी वित्त-पोषित शिक्षा को बंद कर देने की ही एक अन्य योजना है जिसका लाभ सिर्फ निजी ‘निवेशक’ को होगा.

5 वर्ष से भी ज्यादा समय के बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति को आखिरकार सार्वजनिक किया गया और इस पर प्रतिक्रिया देने की अंतिम तिथि 31 जुलाई 2019 निर्धरित की गई.

जिस शासन के अंतर्गत यह नीति लाई गई है, उसकी प्रकृति के मुताबिक ही 484 पृष्ठों का यह मसविदा अतिशयोक्तियों और चलताऊ बयानों से भरा हुआ है जिसमें ईमानदारी, सामाजिक रूप से संवेदनशील प्रतिबद्धता या गंभीर शोध का अंश मात्र भी मौजूद नहीं है. इसमें दावा किया गया है कि सलाह-मशविरे की प्रक्रिया से गुजरते हुए इसे तैयार किया गया है, लेकिन शिक्षा के मुद्दे पर सक्रिय किसी भी छात्र या शिक्षक संगठन से कोई सलाह नहीं ली गई. एक से भी नहीं. अलबत्ता, उन्होंने आरएसएस की लंपट छात्र शाखा एबीवीपी से जरूर मशविरा किया है.

‘नीति’ के अपने प्रस्तावना में ही वर्णित इस दस्तावेज के पीछे निहित दर्शन के उद्धरण से हम शुरू करते हैं, ‘हमने शैक्षिक ढांचे, इसके नियमन और प्रशासन के तमाम पहलुओं के संशोधन और पुननिर्माण का प्रस्ताव किया है, ताकि ऐसी प्रणाली निर्मित की जा सके जो 21वीं सदी की शिक्षा के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के अनुकूल हो और साथ ही, भारत की परंपराओं तथा मूल्य प्रणालियों के साथ संगतिपूर्ण भी बनी रहे.’

समूचे दस्तावेज को पढ़ने और इसके सभी बिंदुओं को मिलाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में मौजूदा शिक्षा प्रणाली के तमाम पहलुओं के पुनर्निर्माण का मकसद है निजीकरण का रास्ता साफ करना और यह वास्तव में वैश्विक शिक्षा माफियाओं को भारत में शिक्षा बेचने के लिए खुला निमंत्रण है. ‘21वीं सदी के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों’ का मतलब है भारतीय युवाओं को असुरक्षित व अमर्यादित भविष्य की ओर धकेलना. उच्च शिक्षा वाले खंड में साफ-साफ कहा गया है कि ‘उच्च शिक्षा का मकसद होगा अपने छात्रों को सिर्फ पहले रोजगार के लिए नहीं, बल्कि अपने दूसरे, तीसरे और अपने सुपूर्ण जीवन काल में भविष्य के अन्य रोजगारों के लिए भी तैयार करना.’ इससे दस्तावेज का मकसद स्पष्ट हो जाता है – मौजूदा शिक्षा प्रणाली के पुनर्निर्माण का लक्ष्य है भारत के नौजवानों को ऐसे सस्ते श्रम में तब्दील करना जो ठेकाकृत रोजगार बाजार में ‘हायर एंड फायर’ मानदंड का अनुपालन कर सके. उनके लिए यही 21वीं सदी का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है.

डीएनईपी 2019: राज्य वित्त-पोषित स्कूल प्रणाली के विध्वंस की ओर अगला कदम

भारत की मौजूदा स्कूली प्रणाली बच्चों को उनकी शुरूआती जिंदगी से ही भेदभाव और असमानता की दुनिया में ले जाती है. बच्चों की विभिन्न किस्म की शिक्षा तक पहुंच इस बात पर निर्भर करती है कि वे जिन परिवारों में जन्मे हैं उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत क्या है. सरकारी वित्त-प्रदत्त स्कूलों में बुनियादी ढांचे का व्यवस्थागत विध्वंस और निजी स्कूलों को फूलने-फलने की खुली छूट स्कूली शिक्षा में व्याप्त असमानता की मूल वजह है. स्कूली प्रणाली में इस असमानता पर ध्यान देने के बजाय, डीएनईपी में ऐसा खाका प्रस्तावित किया गया है जिसमें संसाधनों के अधिकतम उपयोग के नाम पर सरकारी वित्त-प्रदत्त स्कूलों को बंद ही कर दिया जाएगा. यह दस्तावेज शिक्षा देने के नाम पर निजी स्कूलों को फूलने फलने और मुनाफा कमाने की खुली छूट देता है.

स्कूली शिक्षा का एक खतरनाक खाका

हजारों सरकारी विद्यालयों की बंदी: मोदी सरकार की पहली पारी के बाद से अब तक देश भर में विलय के नाम पर हजारों स्कूल बंद किए जा चुके हैं. शिक्षा के बारे में ‘नीति’ आयोग के दस्तावेज और साथ ही, इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकारी विद्यालयों को बंद करने के पक्ष में तर्क दिए गए हैं. इसी नीति परिप्रेक्ष्य को डीएनईपी 2019 में बुलंद किया गया है जिसके जरिये संसाध्नों के अध्कितम उपयोग को बहाना बनाकर राज्य द्वारा वित्त-प्रदत्त स्कूलों को बंद करने की बात कही गई है. इन स्कूलों से अभी ड्राॅप-आउट की उफंची दर का मतलब है कि गाुणवत्तापूर्ण बुनियादी ढांचा और राज्य की ओर से और ज्यादा सहयोग आज वक्त की मांग है. बहरहाल, इस दस्तावेज में सरकार को इस जिम्मेदारी से मुक्त करने की कोशिश की गई है, और इसके बजाय प्रस्ताव किया गया है कि सरकार द्वारा संचालित स्कूलों को बंद कर दिया जाए ताकि निजी निवेशकों के लिए मैदान और ज्यादा खाली किया जा सके जो उन्हीं क्षेत्रों और वर्गों के बीच पहुंचेंगे जहां मुनाफा कमाना संभव होगा. इससे अनिवार्यतः वर्गीय व जातीय सीढ़ी पर नीचे रहने वाले सामाजिक तबकों के बीच, तथा उन क्षेत्रों में – जहां पक्की सड़क और रेल के रूप में ‘विकास’ की रोशनी नहीं पहुंची है – और ज्यादा निरक्षरता बढ़ेगी.

निजी स्कूलों को खुली छूट

सरकारी विद्यालयों को जिन समस्याओं ने घेर रखा है, उनके समाधान के बतौर डीएनईपी 2019 बारंबार सिफारिश करता है कि स्कूली प्रणाली में निजी और ‘लोकहितैषी’ हस्तक्षेप को बढ़ावा दिया जाए. दस्तावेज में कहा गया है कि निजी विद्यालयों को अपनी फीस तय करने की छूट होगी. इसके अलावा इसमें यह प्रस्ताव भी है कि निजी विद्यालयों को आर्थिक रूप से कमजोर तबकों से 25 प्रतिशत छात्रों को भर्ती लेने की जिम्मेदारी से भी मुक्त कर देना चाहिए. यह गौरतलब है कि उच्च शिक्षा की संस्थाओं को अनिवार्य रूप से 10 प्रतिशत छात्रों की अतिरिक्त भर्ती आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के बीच से करनी होगी – जो आरक्षण को धीरे-धीरे खारिज करने की दिशा में ही एक कदम है. विश्वविद्यालयों के मामले में इस पद्धति का इस्तेमाल आरक्षण नीतियों को नष्ट करने और साथ ही मौजूदा ढांचे पर अतिरिक्त दबाव डालने के लिए किया जा रहा है. इसी के साथ, निजी निवेशकों के लिए जगह बनाई जा रही है और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी फंडिंग को लगातार कमतर किया जा रहा है.

शिक्षा अधिकार के प्रावधनों को कमजोर बनाना

डीएनईपी 2019 में शिक्षा अधिकार कानून, 2009 के प्रावधानों को खत्म किया जा रहा है, जो कानून भारत में हर बच्चे के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार की मान्यता देता है. साथ ही, स्कूल परिसरों के निर्माण के नाम पर शिक्षक-छात्र संख्याओं के अनुपात को भी कम करने की कोशिश की गई है.इस नीति में प्रवासी मजदूरों के बच्चों के बारे में जो एकमात्र बात कही गई है, वो ये कि उन्हें दूरस्थ और खुली शिक्षा प्रदान की जाएगी, जबकि ये बच्चे समाज के सबसे कमजोर तबके से आते हैं और इन्हें कक्षाओं में बिठाकर काफी एहतियात के साथ शिक्षा देने की जरूरत है.

सरकारी काॅलेजों की बंदी

डीएनईपी 2019 में देश में मौजूद काॅलेजों और विश्वविद्यालयों की संख्या को एक समस्या के बतौर देख गया है. इनकी संख्या बढ़ाने की मंशा से नहीं. बल्कि इसके बजाय, इस संख्या को टुकड़े-टुकड़े में बंटी संख्या समझा गया है. जिस देश में ड्राॅप-आउट की दर स्कूल से उच्च शिक्षा की ओर जाने पर बढ़ती जाती हो, और जहां 18-23 वर्ष की आयु-वर्ग में छात्रों का प्रतिशत महज 24.5 हो, वहां यह शिक्षा नीति काॅलेजों और विश्वविद्यालयों की इस संख्या को अति विशाल समझ रही है. बड़े और बहु-विषयक विश्वविद्यालय बनाने के नाम पर इस नीति में सरकारी वित्त-पोषित काॅलेजों और विश्वविद्यालयों को बंद करने का रोड मैप दिया गया है. और तो और, इस दस्तावेज में बड़े विश्वविद्यालय बनाने के लिए काॅलेजों को बंद करने के अपने बदनीयती-भरे तर्क को जायज ठहराने के लिए ‘नालंदा’ और ‘तक्षशिला’ का हवाला भी दिया गया है.

जहां अर्ध-शहरी इलाकों में छात्रों की पहुंच वाले भारतीय विश्वविद्यालयों को बंद कर दिया जाएगा, वहीं इस नई शिक्षा नीति के जरिये भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को पांव पसारने की न्योता दिया जाएगा. यहां तक कि इस नीति में विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने के लिए कानून बनाने की भी चर्चा की गई है.

निजी विश्वविद्यालयों को बढ़ावा और वित्तीय सहायता देने की नीति

डीएनईपी 2019 बारंबार शिक्षा में निजी निवेश के महत्व पर जोर डालता है. यह न केवल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना व्यवसाय फैलाने के लिए निजी उद्यमों को खुला बुलावा है, बल्कि यह निजी विश्वविद्यालयों को सरकारी सहायता का भी वादा करता है. इसके अलावा, इस नीति में उच्च शिक्षा की नई संस्थाएं खोलने के लिए कायदे-कानूनों में ढील देने की बात भी की गई है. जहां एक ओर मान्यता और स्टैंडर्ड के नाम पर डीएनईपी में सार्वजनिक वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों को बंद करने की बात है, वहीं दूसरी ओर इसमें नए विश्वविद्यालय खोलने के लिए गुणवत्ता और स्टैंडर्ड की कोई परवाह न करने का वादा किया गया है. हमें याद है कि किस तरह निता और मुकेश अंबानी की ‘जियो युनिवर्सिटी’ को उसके खुलने के पहले ही ‘उत्कृष्ट विश्वविद्यालय’ का दर्जा दे दिया गया था. निजी उद्यमों को अपनी गुणवत्ता प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है, जबकि सरकारी संस्थाओं को गैर-जरूरी और निम्न गुणवत्ता वाली संस्था घोषित कर दिया जाता है.

डीएनईपी में सलाह दी गई है कि निजी विश्वविद्यालयों को नए प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय शोध संस्थान’ से फंड प्रदान किया जा सकता है. ये विश्वविद्यालय समावेशिता और आरक्षण लागू करने की कोई प्रतिबद्धता के बगैर ही सार्वजनिक कोष तक अपनी पहुंच बना लेंगे.

मिशन नालंदा – श्रेणीबद्ध स्वायत्तता और सेल्फ फायनेंसिंग का नया नाम

पिछले ही वर्ष देश भर के छात्र और शिक्षक तब प्रतिवाद में उठ खड़े हुए थे जब शिक्षा मंत्रालय ने विश्वविद्यालयों के लिए श्रेणीबद्ध स्वायत्तता की घोषणा की थी. श्रेणीबद्ध स्वायत्तता का फार्मूला विश्वविद्यालयों पर सेल्फ-फायनेंसिंग पाठ्यक्रम लादने का ही तरीका है जिससे इन नए पाठ्यक्रमों में भारी फीस वृद्धि होगी. यह नई शिक्षा नीति श्रेणीबद्ध स्वायत्तता के फार्मूले को नई भाषा में सामने ला रही है. इसमें टाइप-1, टाइप-2 और टाइप-3 विश्वविद्यालय बनाने की चर्चा है. टाइप-1 विश्वविद्यालय पहले विश्वविद्यालय होंगे जिन्हें वित्तीय स्वयत्तता या सेल्फ फायनेंसिंग की अनुमति मिलेगी.

सामाजिक न्याय में भारी कटौती

सार्वजनिक वित्त-पोषित उच्च शिक्षा की कीमत पर निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देने का मतलब यह भी होगा कि शिक्षा में हाशिये पर खड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व काफी कम हो जाएगा. डीएनईपी 2019 में एससी/ एसटी/ओबीसी के लिए निजी संस्थाओं में आरक्षण लागू करने की कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई है. यह नाति आरएसए अथवा किसी अन्य शीर्ष नियामक निकाय में एससी/एसटी/ओबीसी या महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में भी खामोश है.

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग - शिक्षा के फासिस्ट अधिग्रहण के लिए केंद्रीकरण

यह नई शिक्षा नीति यूजीसी को समाप्त करने तथा नियामक कार्यों को अनुदान देने के कार्य से अलग करने का प्रस्ताव करती है. और मान्यता, नियमन तथा अनुदान के लिए बनाए गए विभिन्न निकायों को राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (आरएसए) द्वारा नियंत्रित किया जाएगा. स्वयं प्रधान मंत्री इस आरएसए की अध्यक्षता करेंगे. दस्तावेज में राज्यों के लिए राज्य शिक्षा आयोग के गठन का भी प्रस्ताव है जो आरएसए के साथ समन्वित रहेगा.

सत्ता के नशे में चूर मौजूदा सरकार अब शिक्षा प्रणाली का संपूर्ण राजनीतिक अधिग्रहण कर लेना चाहती है. जो प्रधान मंत्री कुछ खास काॅरपोरेशनों को मदद करने के लिए अपने केंद्रीय मंत्रियों को भी दरकिनार कर महत्वपूर्ण फैसले लिया करते हैं, वही प्रधान मंत्री विश्वविद्यालयों के स्टैंडर्ड, बुनियादी ढांचे और अनुदान आदि का समग्र मूल्यांकन करने में सक्षम यूजीसी जैसी संस्थाओं की शक्ति को समाप्त कर शिक्षा प्रणाली पर नियंत्रण कायम करना चाहते हैं.

डीएनईपी का रंग भगवा है और इसकी अंतर्वस्तु और मंशा है निजी व वैश्विक पूंजी के मुनाफे के लिए रास्ता खोलना. प्राचीन भारत का बार-बार उल्लेख करते हुए यह मसविदा वर्तमान बड़बोली सरकार के छद्म राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करता है; जबकि वास्तव में वह भारत के भविष्य के लिए सुलभ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के संपूर्ण विध्वंस का खाका पेश कर रहा है. डीएनईपी में कई बार भारतीय शिक्षा में लोकहितैषी संगठनों की भूमिका की भी चर्चा हुई है. हम जानते हैं कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद किस प्रकार हमारे शैक्षिक पाठ्यक्रम और ढांचे में आरएसएस को गौरवपूर्ण जगह मिल गई है. अब, लोकोपकार के नाम पर यह मसविदा हमारी शिक्षा प्रणाली में आरएसएस जैसे प्रतिगामी संगठनों की राजनीतिक तौर पर प्रेरित घुसपैठ को जायज बनाना चाहता है.

संक्षेप में, डीएनईपी 2019 इस देश के बच्चों और युवाओं के साथ विश्वासघात का एक दस्तावेज है.