Environmental Activists Of Uttarakhand


अदालत को पर्यावरण कार्यकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सजा देने वाले आदेश देने से बचना चाहिए

नयी दिल्ली, 15 जुलाई  

उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा पाँच पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर, उनके द्वारा दाखिल की गयी एक जनहित याचिका के लिए प्रति व्यक्ति दस हजार रुपया जुर्माना लगाने का आदेश,ऐसे सामाजिक और पर्यावरणीय सवाल उठाने से भयभीत करने वाला है, जो  बड़ी कॉर्पोरेट परियोजनाओं के हितों के खिलाफ जाते हों.

07 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा और धौलीगंगा के संगम पर जोशीमठ से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रैणी गांव, ऋषिगंगा नदी में ग्लेशियर और मलबे के भयानक बहाव से आई बाढ़ का गवाह बना, जिसमें ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना ध्वस्त हो गयी और साइट पर काम करने वाले तीस से अधिक मजदूरों को बहा दिया.    

मलबे और पानी का यह प्रचंड बहाव आगे चला तो इसने 530 मेगावाट की  निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना को भी मलबे से भर दिया और परियोजना में काम करने वाले लगभग 170 मजदूर मारे गए.

स्थानीय नागरिक और एक्टिविस्ट पहाड़ी नदियों पर बनाए जाने वाली बड़ी परियोजनाओं की भारी मानवीय और पर्यावरणीय कीमत को लेकर दशकों से चिंता जाहिर करते रहे हैं. उनके द्वारा दी गयी चेतावनियों को निरंतर अनदेखा किया जाता रहा है , जबकि 07 फरवरी 2021 जैसी दुर्घटनाएँ, उनकी चिंताओं को वाजिब ठहराती रही हैं. चूंकि सत्ता में बैठे हुए लोग अपने वर्ग और बड़ी पूंजी के त्वरित लाभ के लिए, दूरदृष्टि हीन योजनाएं बनाते हैं, इसलिए वे सामाजिक और पर्यावरणीय चिंताओं की अपेक्षा कर देते हैं. ऐसे में यह न्यायालयों का काम है कि ऐसे मामलों में पर्यावरणीय कानूनों, व्यापक जनहित और आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करे.

इसीलिए पाँच लोगों - रैणी गांव के संग्राम सिंह, सोहन सिंह और भवान सिंह हैं तथा जोशीमठ के  अतुल सती व कमल रतूड़ी ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल करके ऋषिगंगा और तपोवन-विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजनाओं को निरस्त करने की मांग की. दुर्भाग्य से उच्च न्यायालय ने उक्त जनहित याचिका को “दुराग्रह से प्रेरित” करार देते हुए तथा याचिकाकर्ताओं को किसी “अज्ञात कठपुतली नचाने वाले के हाथ की कठपुतली” करार देते हुए उन पर जुर्माना लगा दिया. ऐसी भाषा, याचिकाकर्ताओं से संबंधित वास्तविक तथ्यों के बजाय पर्यावरणीय एक्टिविज़्म के प्रति वैचारिक द्वेष से अधिक उपजी हुई प्रतीत होती है क्यूंकि याचिकाकर्ता तो उत्तराखंड के जाने-पहचाने और सम्मानित एक्टिविस्ट हैं.

यह भी ज्ञातव्य है कि मार्च 2021 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय की इसी खंडपीठ ने एक याचिकाकर्ता पर पचास हजार रुपये का जुर्माना इसलिए लगा दिया क्यूंकि उसने जनहित याचिका दाखिल करके सहायक वन संरक्षक के पदों की भर्ती परीक्षा को कुम्भ मेले की बाद आयोजित करवाने की मांग की ताकि कुंभ के चलते राज्य के बाहर के श्रद्धालुओं की बढ़ती भीड़ से उक्त परीक्षा के परीक्षार्थी कोरोना संक्रमण की चपेट में न आयें. अदालत ने उक्त याचिका को इस बेहद सतही तर्क की आधार पर खारिज कर दिया कि कुंभ मेला शुरू होने के दो हफ्ते पहले परीक्षा आयोजित हो रही है. तथ्य यह है कि लाखों श्रद्धालु मेले की औपचारिक शुरुआत से पहले ही उत्तराखंड आ चुके थे. आज तो हम यह अच्छे से जानते हैं कि उक्त याचिका में याचिकाकर्ता का मंतव्य सतही नहीं था, यह स्थापित है कि कुंभ सुपर स्प्रेडर बना, जिसने कोरोना की दूसरी लहर में पूरी देश में मरने वालों लाखों लोगों की संख्या में इजाफा करने में भरपूर भूमिका अदा की.

हम अदालतों से आग्रह करेंगे कि लोगों के जीवन-मरण से जुड़े जनहित के मसले उठाने वाली याचिकाओं को ख़ारिज करने में अत्याधिक जल्दबाज़ी न करें. प्रश्नगत प्रकरण  में हम,  भाकपा(माले) नेता अतुल सती के साथ ही संग्राम सिंह, सोहन सिंह ,भवान सिंह राणा और कमल रतूड़ी पर जुर्माना किए जाने का पुरजोर विरोध करते हैं. हिमालयी नदियों और पहाड़ों को बचाने की इनकी कोशिशों के लिए इनका सम्मान किया जाना चाहिए, कृतज्ञता व्यक्त की जानी चाहिए क्यूंकि ये भारत में हमको याद दिला रहे हैं कि हम नदियों और पहाड़ों के मालिक नहीं हैं ; यदि कार्ल मार्क्स के शब्दों को इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं कि “ हम महज इनके धारक हैं, लाभार्थी हैं और इन्हें बेहतर दशा में भावी पीढ़ियों को सौंपना है.”


कविता कृष्णन
भाकपा(माले) केंद्रीय कमेटी की ओर से