वर्ष - 29
अंक - 13
21-03-2020

जब भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भाजपा सरकार द्वारा राज्य सभा की सदस्यता के रूप में दिये गये उपहार को खुशी-खुशी ग्रहण कर लिया, तो उनके सहयोगी रह चुके सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर ने उस पर सही टिप्पणी करते हुए कहा, “कुछ समय से अटकलें लगाई जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा. ऐसे में उनका मनोनयन आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन जो आश्चर्य की बात है, वह यह है कि फैसला इतनी जल्दी आ गया. यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को नये सिरे से परिभाषित करता है. क्या आखिरी किला भी ढह गया है?”

रंजन गोगोई के एक अन्य पूर्व सहयोगी सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि उनको यह देखकर “आश्चर्य” हो रहा है कि उन्होंने (रंजन गोगोई ने) “कैसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के उत्कृष्ट सिद्धांतों की कीमत पर समझौता कर लिया.” उन्होंने यह भी कहा कि “मेरे विचार के अनुसार भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश द्वारा राज्य सभा की सदस्यता के लिये मनोनयन स्वीकार करने से आम आदमी के मन में न्यायपालिका, जो भारत के संविधान के आधारभूत ढांचों में से एक है, की स्वतंत्रता पर विश्वास निश्चित रूप से डिग गया है.” उन्होंने आगे कहा, “जैसे ही लोगों का यह विश्वास डिग जायेगा, जैसे ही लोगों में यह धारणा बलवती होगी कि न्यायाधीशों का एक तबका पक्षपात करता है, या भविष्य में कुछ पाने की आशा रखता है, वैसे ही जिस ठोस आधार पर हमारा राष्ट्र का ताना-बाना खड़ा है, वही हिल जायेगा.”

इसी प्रकरण पर टिप्पणी करते हुए रंजन गोगाई के एक और पूर्व सहयोगी, सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ पूर्व न्यायाधीश जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने अमरीका के द्वितीय राष्ट्रपति जाॅन एडम्स को उद्धरित करते हुए कहा, “अभी तक ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं हुआ जिसने आत्महत्या न की हो.”

आश्चर्य की बात यह भी है कि एक साल पहले 27 मार्च 2019 को न्यायाधिकरणों के कार्यकलाप सम्बंधी वित्त अधिनियम में संशोधनों को दी गई चुनौती की सुनवाई करते हुए पांच जजों की एक बेंच की अगुवाई करते हुए खुद चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि “सेवानिवृत्ति के बाद की गई नियुक्तियां न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर धब्बा हैं.” इसके अलावा, 12 जनवरी 2018 में जब सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों – जस्टिस गोगोई, जस्टिस जोसेफ, जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस मदन लोकुर ने ठीक इसी सवाल पर तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के आचरण के खिलाफ आरोप लगाते हुए एक अभूतपूर्व प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाई थी जिसमें न्यायपालिका की सरकार से स्वतंत्रता ही मुख्य विषय था. उस समय रंजन गोगोई का कहना था कि ऐसा करके “हमने राष्ट्र का कर्ज अदा किया है.”

मगर यह सब सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनने के पहले की बातें हैं, हालांकि जस्टिस जोसेफ बताते हैं कि उन्हें इस पर आश्चर्य हुआ था क्योंकि उस समय रंजन गोगोई चीफ जस्टिस बनने की कतार में सबसे आगे थे. दरअसल उनके “विद्रोही” तेवरों के बावजूद असम में एनआरसी लागू करवाने में उनकी भूमिका को देखते हुए नरेन्द्र मोदी ने उनको चीफ जस्टिस बनाने पर आपत्ति नहीं की, क्योंकि यह भाजपा का अहम एजेंडा था. आखिर जुमलेबाज एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं. रंजन गोगोई ने भी नरेन्द्र मोदी को कभी निराश नहीं किया. खासकर अत्याचारी तीन तलाक कानून पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर लगाने, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने के चीफ जस्टिस दीपक मिश्र वाली बेंच के आदेश को स्थगित करके मामले को संविधान बेंच को भेजकर लटका देने, और सर्वोपरि राम मंदिर पर सब कुछ मानते हुए भी अयोध्या में बाबरी मस्जिद समेत समूची जमीन को राम मंदिर के हवाले कर देने के आश्चर्यजनक फैसले से रंजन गोगोई की संविधान और धर्मनिरपेक्षता के तमाम उसूलों को ताक पर रखने की प्रवृत्ति जगजाहिर हो गई. उधर राफेल सौदे में पूर्णतः अपारदर्शी तरीका अपनाकर मोदी सरकार को साफ बरी करने, चुनावी बौंड स्कीम पर स्थगनादेश लगाने से इन्कार करने, और कश्मीर में धारा 370 लागू करने, उसे विभाजित करके राज्य के बजाय केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा देने, तथा पूरे राज्य में लाकऑउट, इंटरनेट और प्रेस की बंदी, भारी तादाद में सेना की तैनाती और सभी बड़े-छोटे राजनेताओं की गिरफ्तारी – इन कदमों पर सरकार का समर्थन, और यहां तक कि न्याय के बुनियादी उसूलों के उल्लंघन ने उन्हें मोदी सरकार का चहेता बना दिया.

राफेल सौदे में रंजन गोगोई ने रिव्यू पिटीशन पर सरकार से सीलबंद लिफाफे में दस्तावेज मांगे, जो कभी उजागर नहीं हुए, और उसके आधार पर वायु सेना के अधिकारियों से बात करके रिव्यू पिटीशन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वास्तविक खरीद के विवरण को सार्वजनिक करना “राष्ट्रहित” में नहीं होगा. फिर कश्मीर के मामले में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाओं पर (मसलन, माकपा के विधायक मोहम्मद यूसुफ तारिगामी को पेश करने के लिये माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी द्वारा दायर की गई याचिका पर) रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली बेंच ने सुनवाई करके न्याय के स्थापित उसूलों के अनुसार बंदी को अदालत में हाजिर करने का पुलिस को निर्देश देने के बजाय, और नजरबंदी सही है या गलत इस पर निर्णय सुनाने के बजाय, सीताराम येचुरी को कश्मीर जाकर तारिगामी से मिल लेने को कहा. इसके साथ ही येचुरी को कश्मीर में अन्य किसी गतिविधि में भाग न लेने तथा लौटकर एक रिपोर्ट फाइल करने का निर्देश भी दियौ.

चीफ जस्टिस रहते हुए रंजन गोगोई के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की एक महिला कर्मचारी, जो गोगोई की जूनियर असिस्टेंट रह चुकी हैं, ने यौन शोषण का मामला उठायाअद्भुत बात यह है कि उस आरोप की जांच करने के लिये जस्टिस गोगोई ने खुद अपने नेतृत्व में तीन सदस्यीय बेंच को नियुक्त किया और खुद को बरी घोषित कर दिया. जब इस पर खूब हल्ला मचा कि आरोपी खुद अपने खिलाफ मामले की सुनवाई कैसे कर सकता है, तब उन्होंने मजबूर होकर इस मामले को जस्टिस बोबडे (जो आजकल भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं) के नेतृत्व में दूसरी बेंच के हवाले कर दिया. यह और भी दुर्भाग्यजनक बात है कि जस्टिस बोबडे वाली बेंच ने सुनवाई में अत्यंत अपारदर्शी तरीका अपनाया. यह स्पष्ट कर दिया गया कि बंद कमरे में सुनवाई होगी और पीड़िता का बयान रिकार्ड तक नहीं किया जायेगा. यौन उत्पीड़न की शिकार महिला ने, जो नेशनल लाॅ इंस्टीट्यूट की टाॅपर रही हैं, दीक्षांत समारोह में डिग्री लेने से इन्कार कर दिया और कोर्ट में बेंच के सामने बयान देने से भी इन्कार कर दिया. जस्टिस बोबडे ने तुरंत एकतरफा फैसला सुनाकर रंजन गोगोई को बरी कर दिया. इस बीच न सिर्फ यौन उत्पीड़न की शिकार महिला को सर्वोच्च न्यायालय से निकाल दिया गया था बल्कि उनके परिजनों को भी नौकरी से निकाल दिया गया था. मगर जैसे ही मामला खत्म हुआ और गोगोई रिटायर हो गये. उस महिला को सर्वोच्च न्यायालय में और उसके परिजनों को उनकी जगह पर बहाल कर दिया गया. बस शर्त यह है कि वह महिला इस मामले को फिर से न उठाये.

ऐसा नहीं कि कांग्रेस के जमाने में सरकार ने न्यायपालिका में हस्तक्षेप नहीं किया हो या फिर न्यायाधीशों को पुरस्कृत नहीं किया हो. इंदिरा गांधी ने 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को लांघकर अपनी पसंद के ए. एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया और बदले में ए.एन. रे ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को उलटकर इंदिरा गांधी के चुनाव को वैध करार दिया. प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारत के पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए 1984 के दंगों की जांच करने के लिये नियुक्त आयोग की जिम्मेदारी सौंपी थी और रंगनाथ मिश्र ने 1987 की रिपोर्ट में कांग्रेस को क्लीन चिट दे दी थी. बाद में रंगनाथ मिश्र को कांग्रेस के टिकट पर राज्य सभा का सदस्य बनाया गया. दूसरी ओर जस्टिस बहरुल इस्लाम पहले कांग्रेस के टिकट पर राज्य सभा के सदस्य बने और फिर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने. उन्होंने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को बरी किया था. सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद वे फिर राज्य सभा के सदस्य बने.

लेकिन रंजन गोगोई का मामला इन सबसे इस बात में भिन्न है कि जहां उपरोक्त न्यायधीशों ने इक्के-दुक्के मामले में पक्षपात किया, वहीं रंजन गोगोई ने साम्प्रदायिक एवं रणनीतिक मामलों में भाजपा सरकार का पक्ष लेकर अपने कार्यकाल में न्यायपालिका को सरकार के पास गिरवी रख दिया. उनको राज्यसभा का सदस्य बनाकर भाजपा ने अपनी साम्प्रदायिक राजनीति, खासकर सीएए-एनआरसी-एनपीआर की रणनीति के पक्ष में एक प्रवक्ता को राज्य सभा में भेजा है. वर्तमान में सीएए का सबसे तीखा विरोध असम में ही हो रहा है क्योंकि असम आंदोलन की निगाह में ‘बाहरी’ लोगों के बीच धार्मिक भेदभाव नहीं था, जिसे सीएए लाया हैरंजन गोगोई सीएए के प्रवक्ता के बतौर असम के जनमत की आवाज को दबाने का काम करेंगे. और सरकार ने सीएए के खिलाफ दायर याचिकाओं के बरक्स केन्द्र का पक्ष रखते हुए समूचे भारत में एनआरसी लागू करने के केन्द्र सरकार के “दायित्व” और अधिकार को भी रेखांकित किया है. कोई अचरज नहीं कि एनआरसी लागू करने की प्रक्रिया में रंजन गोगोई को सरकार जल्द ही और बड़ी जिम्मेदारी दे दे.

यह सच है कि लोकतंत्र में आम लोगों को विधायिका एवं कार्यपालिका (जो अक्सर असहाय विधायिका को दरकिनार कर देती है) की तुलना में न्यायपालिका का भरोसा ज्यादा होता है. चौथे खम्भे मीडिया पर भी पहले भरोसा रहता था, पर उसकी मुख्यधारा अब गोदी मीडिया बन चुकी है. मगर जब न्यायपालिका इस कदर कार्यपालिका के सामने आत्मसमर्पण कर देगी तो लोगों के सामने खुद ही लोगतंत्र का पुनरुद्धार करने का काम अपने हाथों लेना होगाहम, भारत के लोगों को, जिन्होंने संविधान को अपने आपको प्रत्यर्पित किया है, खुद ही उस संविधान की रक्षा करनी होगी और यह लड़ाई मुख्यतः खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, सड़कों चौराहों तथा अन्य तमाम संस्थानों में ही लड़ी जा सकती हैै.