वर्ष - 30
अंक - 1
01-01-2021


– शौभीक घोषाल

[ विद्यासागर की आवक्ष मूर्ति पर स्मृतिलेख में रवीन्द्रनाथ का निम्नोक्त उद्धरण लिखित है: “उनका सर्वोच्च गुण न तो दूसरों के प्रति उनकी करुणा थी, न ही उनकी विद्वता, बल्कि उनका अजेय पुरुषार्थ और अशेष मानवीयता था. उन्होंने शिक्षा को जनसाधारण के जागरण और सशक्तिकरण के औजार के बतौर देखा था.” विद्यासागर ने कहा था, “शिक्षा का अर्थ केवल विद्वता, पढ़ाई-लिखाई और अंकगणित ही नहीं होता. शिक्षा को सर्वव्यापी ज्ञान प्रदान करना चाहिये. भूगोल, ज्यामिति, साहित्य, प्राकृतिक दर्शन, नैतिक दर्शन, शरीर रचना विज्ञान, राजनीतिक अर्थशास्त्रा, इत्यादि की शिक्षा बेहद जरूरी है. हमें ऐसे शिक्षक चाहिये जो बांग्ला और अंग्रेजी, दोनों भाषाएं जानते हों, और इसके साथ ही वे किसी भी धार्मिक पूर्वाग्रह से मुक्त हों.” प्रस्तुत है इतिहासकार के बतौर प्रशिक्षित शौभीक घोषाल द्वारा इस महान शिक्षाविद्, साहसी समाज सुधारक, सहानुभूतिपूर्ण परोपकारी एवं आधुनिक बांग्ला गद्य के प्रणेता के जीवन और कार्यों के बारे में एक संक्षिप्त लेखा-जोखा – सं.]

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2019 के लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण के दौरान, कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का रोड शो हुल्लड़बाजी में बदल गया और उसमें शामिल गुंडा तत्वों ने कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रतिवाद कर रहे छात्रों पर पत्थर फेंके. बाद में उन्होंने निकटस्थ विद्यासागर काॅलेज में जबर्दस्ती फाटक तोड़कर प्रवेश किया और विद्यासागर की मूर्ति को ध्वस्त कर दिया.

विद्यासागर अपने जन्म के लगभग 200 वर्ष बाद भी आज साम्प्रदायिक फासीवादी ब्रिगेड के कोप का निशाना क्यों बन गये? क्या इस कारण से कि उन्होंने धार्मिक मामलों में जरा भी रुचि नहीं ली और अपना पूरा जीवन प्रगतिशील सामाजिक सुधारों को, आधुनिक शिक्षा के प्रसार को और जनसाधारण की भौतिक प्रगति को समर्पित कर दिया? इस सवाल का सही जवाब पाने के लिये हमें उस व्यक्ति के बारे में और बंगाल में ब्रिटिश शासन के शुरूआती वर्षों के सामाजिक परिदृश्य में उनकी विरासत के बारे में जरूर जानना होगा.

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1757 में प्लासी की लड़ाई ने बंगाल में ब्रिटिश शासन कायम कर दिया और बंगाल प्रेसीडेन्सी भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद स्थापना का आधार बन गई. टीपू सुल्तान जैसे लोगों, मराठों और सिखों, आदिवासियों और किसानों द्वारा खड़े किये गये बहादुराना प्रतिरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विस्तार के रथचक्र को रोकने में नाकाम रहे. कुछ वर्षों तक ‘द्वैत शासन की नीति’ (जिसके तहत राजनीतिक सत्ता तो नाममात्र को या प्रतीयमान रूप से बंगाल के नवाबों के हाथ में रही जबकि पूरा अर्थतंत्र ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के नियंत्रण में आ गया था) चलाने के बाद कम्पनी ने राजकाज के सारे कामों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण अपने हाथों ले लिया.

ब्रिटिश नौकरशाही यह कोशिश कर रही थी कि भारत में पहले से स्थापित कानूनों, शिक्षा प्रणाली और पारंपरिक सामाजिक रीति-रिवाजों पर उनको पकड़ हासिल हो जाये ताकि वे एक छोटी सी सैन्यशक्ति और प्रशासनिक बल के जरिये इस विराट उप-महाद्वीप पर शासन कर सकें. इसी क्रम में शिक्षा की एक नई शाखा के बतौर इंडोलाॅजी (भारत-विषयक अध्ययन) का विकास हुआ. शुरूआत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसरों ने भारत में धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति अपनाई क्योंकि उन्हें डर था कि भारत की जनता में इसके खिलाफ विपरीत प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी. मगर, मिशनरी, उदारवादी तत्वों, प्राच्य विद्या के विद्वानों, उपयोगितावादियों इत्यादि के दबाव में कम्पनी को तटस्थता की स्थिति का परित्याग करना पड़ा और शिक्षा को बढ़ावा देने की जिम्मेवारी लेनी पड़ी. मगर कम्पनी के प्रशासनिक अधिकारी इस सवाल पर दो मतों में विभक्त थे कि क्या कम्पनी को लोगों को पश्चिमी शिक्षा देनी चाहिये या प्राच्य शिक्षा, जिससे प्राच्यवादी-आंग्लवादी (ओरियंटलिस्ट-एंग्लिसिस्ट) विवाद उत्पन्न हुआ.

जो लोग मौजूदा फ्प्राच्यय् विद्याध्ययन संस्थानों को ही जारी रखने और भारत की शास्त्राीय परम्परा को बढ़ावा देने के पक्ष में थे, उन्हें प्राच्यविद कहा गया. वे चाहते थे कि ब्रिटिश अधिकारियों को स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों की जानकारी रहे ताकि वे अपना काम बेहतर दक्षता के साथ सम्पन्न कर सकें. वारेन हेस्टिंग्स द्वारा 1781 में कलकत्ता मदरसा की स्थापना, विलियम जोन्स द्वारा 1784 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना, 1791 में जोनाथन डनकैन द्वारा बनारस संस्कृत काॅलेज की स्थापना और 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण पहलकदमियां थीं. प्राच्यविद् देशीय समाज के कुलीनों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध विकसित करने के भी इच्छुक थे; और एक ओर कलकत्ता मदरसा की स्थापना तथा दूसरी ओर बनारस संस्कृत काॅलेज की स्थापना के पीछे यही मुख्य कारण था.

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जहां शुरूआती दौर में प्राच्यविदों को ही प्रधानता मिली, वहीं इंगलैंड में विभिन्न समूहों, जैसे इंजीलवादियों (ईसाई धर्म पुस्तक के प्रचारकों), उदारपंथियों और उपयोगितावादियों द्वारा इसके खिलाफ एक शक्तिशाली विपक्ष खड़ा किया गया. ईसाई धर्म के विचारों और पश्चिमी ज्ञान एवं संस्थानों की श्रेष्ठता पर इन लोगों का पक्का यकीन था. इस विचार का सबसे अग्रणी पक्षपोषक एक प्रभावशाली ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ टाॅमस बैबिंगटन मैकाॅले था. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत में शिक्षा नीति का लक्ष्य अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा देना होना चाहिये.

इन तमाम ग्रुपों का, जिन्हें सम्मिलित रूप से आंग्लवादी (एंग्लिसिस्ट) कहा गया, पक्का यकीन था कि केवल अंग्रेजी भाषा के माध्यम से प्रश्चिमी शिक्षा ही भारतीय लोगों को उनके शैक्षिक और सांस्कृतिक पिछड़ेपन के गढ़े से बाहर निकाल सकती है. चूंकि जनसाधारण के लिये शिक्षा काफी खर्चीली थी, अतः इसका अपेक्षाकृत कम खर्चीला तरीका यही था कि पहले एक ऐसे समूह के लोगों को शिक्षित किया जाये जो धीरे-धीरे बाकी समाज में भी शिक्षा का प्रसार करेंगे. दूसरे शब्दों में, शिक्षा जनसमुदाय से कुलीनों को छानकर अलग करने का काम करेगी.

जब यह तर्क-वितर्क चल ही रहा था तब उन्नीस वर्षीय युवा ईश्वर, बेहतर शिक्षा और बेहतर भविष्य की तलाश में अपने पिता ठाकुरदास बंद्योपाध्याय के साथ बंगाल के एक अनचीन्हें से गांव बीरसिंह से चलकर कलकत्ता आ रहे थे. यह वर्ष 1829 की बात है. यह केवल एक पिता और पुत्र की यात्रा नहीं थी. यह घटना बंगाली भद्रलोक के बीच एक बढ़ रही प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व कर रही थी. समय बदल रहा था और कलकत्ता – जो उस समय ब्रिटिश भारत की राजधानी था – बड़ी तेजी से आधुनिक शिक्षा और साहित्यिक-सांस्कृतिक-पत्रकारिता की गतिविधियों के केन्द्र के रूप में उभर रहा था, पुराने और नये विचारों के बीच की रणभूमि तथा सामाजिक उथल-पुथल के प्रमुख केन्द्र के बतौर उभर रहा था. निस्संदेह रूप से बंगाली या भारतीय समाज केवल एक छोटा सा हिस्सा ही इस नई किस्म की शिक्षा और सामाजिक आलोड़न के दरपेश था, मगर फिर भी इसका असर दूरगामी और व्यापक होने वाला था.

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वर्ष 1841 में विद्यासागर ने संस्कृत काॅलेज से ग्रैजुएट परीक्षा पास की और उन्हें फोर्ट विलियम कालेज में अध्यापक के बतौर नियुक्त किया गया. पांच वर्ष बाद उन्होंने फोर्ट विलियम कालेज को छोड़ दिया और सहायक सचिव के रूप में संस्कृत कालेज में नियुक्त हो गये. उन्होंने तत्कालीन पाठ्यक्रम का आधुनिकीकरण करने के लिये उसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन करने का प्रस्ताव दिया. इसकी वजह से कालेज के सचिव रसमय दत्त, जो एक कट्टर प्राच्यविद थे, के साथ उनकी गंभीर तकरार हो गई. अंततः 1849 में उन्होंने संस्कृत कालेज से इस्तीफा दे दिया और हेड क्लर्क के बतौर पुनः फोर्ट विलियम में नियुक्ति ले ली.

फरवरी 1853 में मैकाले ने ‘मिनट ऑन इंडियन एजूकेशन’ (भारतीय शिक्षा पर स्मरणार्थ लेख) प्रस्तुत किया जिसमें ‘नेटिव्स’ (देशी) लोगों को अंग्रेजी शिक्षा दिये जाने की वकालत की गई थी. शिक्षा के मामले में पुराने वाद-विवाद का अंततः आंग्लवादियों के पक्ष में समाधान हो गया. यह तय किया गया कि पश्चिमी विज्ञानों और साहित्य की शिक्षा देने के लिये सरकार के सीमित संसाधनों का इस्तेमाल किया जायेगा. सरकार ने धीरे-धीरे स्कूलों और कालेजों में अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बना दिया और कुछेक अंग्रेजी स्कूल और काॅलेज भी खोल दिये.

इस पृष्ठभूमि में विद्यासागर एक बार फिर संस्कृत कालेज में नियुक्त हो गये और अंततः उसके प्रधानाध्यापक बन गये. शिक्षाविद् के बतौर उनके उत्साह को मान्यता देते हुए बंगाल सरकार ने उनको विशेष विद्यालय निरीक्षक के बतौर नियुक्त कर दिया. मगर जैसा कि हम आगे देखेंगे, आधुनिक शिक्षा के मामले में उनकी अपनी ही विचारधारा थी. उनका लक्ष्य था अशिक्षा के खिलाफ लड़ाई और ‘प्राच्य’ और ‘पश्चिमी’, दोनों विद्याओं की सर्वोत्तम शिक्षाओं को व्यापक जनसमुदाय को उपलब्ध कराना.

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मगर यह कोई आसान कार्यभार नहीं था. इससे पहले 1830 के दशक में एक स्काॅटिश मिशनरी विलियम एडम से कहा गया था कि वे बंगाल और बिहार के जिलों का दौरा करें और शिक्षा की तत्कालीन स्थिति पर एक रिपोर्ट पेश करें. एडम को पता चला कि स्थानीय स्तर के स्कूलों, जिन्हें पाठशाला कहा जाता था, में शिक्षण की प्रणाली की स्थिति सचमुच दयनीय थी. उनमें कोई तयशुदा फीस नहीं ली जाती थी, न ही उनमें बेंच और कुर्सियां थीं, अलग-अलग कक्षाओं की कोई व्यवस्था नहीं थी, न तो वार्षिक परीक्षाएं होती थीं. कई मामलों में तो कक्षाएं किसी बरगद के पेड़ के नीचे, अथवा गांव की दुकान में (‘पथेर पांचाली’ फिल्म का वह दृश्य याद कीजिये जिसमें अपू को इसी प्रकार की एक खास पाठशाला में पढ़ते दिखाया गया है) अथवा किसी मंदिर में या फिर किसी शिक्षक के घर में  आयोजित की जाती थीं. शिक्षण मौखिक रूप से होता था और यह तय करना कि क्या पढ़ाया जाए और कैसे पढ़ाया जाये, शिक्षक के ऊपर ही छोड़ दिया जाता था.

एडम की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए बंगाल की सरकार ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में 101 प्राइमरी स्कूलों की स्थापना करने का निर्णय लिया और विद्यासागर ने व्यापक पैमाने पर वर्नाकुलर (देशी भाषा) माध्यम से जनसमुदाय तक शिक्षा पहुंचाने के लिये एक विस्तृत योजना सरकार को सौंप दी. सरकार से प्रोत्साहन मिलने पर उन्होंने विभिन्न जिलों में कई माॅडल स्कूलों की स्थापना की. उन्होंने कई उत्तम पाठ्य-पुस्तकों, जैसे जाॅन मार्शल द्वारा लिखित ‘हिस्ट्री ऑफ बेंगाल’ पर आधारित ‘बांग्लार इतिहास’ (1848); ‘जीबन चरित’ (1849) (चैम्बर्स बायोग्राफिकल डिक्शनरी, जिसमें बहुतेरे पश्चिमी वैज्ञानिकों के जीवन-चरित्र का वर्णन था, से चुनिंदा अनुवाद); बोधोदय (1851), कथामाला (1856), आख्यान मंजरी (1863) की प्रस्तुति व रचना की. संस्कृत और अंग्रेजी स्रोतों से उनके द्वारा संग्रहित नीति-उपदेशात्मक कथाओं और विमर्शों से व्यापक जनसमुदाय के जागरण के प्रति उनकी चिंता झलकती है.

(अगले अंक में समाप्य)