वर्ष - 30
अंक - 7
13-02-2021


8 फरवरी के दिन राज्य सभा के मंच से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण फासीवादी प्रचार का सुपरिचित शास्त्रीय नमूना है. वह मौका था जब प्रधान मंत्री बजट सत्र में राष्ट्रपति के उद्घाटन भाषण पर दिए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब दे रहे थे. राष्ट्रपति महोदय के रिवाजी उद्घाटन भाषण में बेशक, सरकार की सफलताओं के तमाम दावों पर उनकी बधाइयों का तांता था. लेकिन मोदी ने अपने भाषण में सांसदों द्वारा उठाए गए बहस के सभी बिंदुओं को नजरअंदाज करके सरकार के दावों को ही दुहराया और समूचे विपक्ष की लानत-मलामत की; और यह कहा कि देश जब 2047 मेें अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी मनाएगा, तब वह उनके कदमों की सराहना करेगा ! वर्तमान के तमाम प्रतिवाद दिगभ्रमित हैं, और जो लोग आज उनका विरोध कर रहे हैं वे भविष्य में उनकी तारीफ करेंगे, मोदी ही जानते हैं कि भारत के लिए सर्वोत्तम क्या है – यह एक निरंकुश शासक का अभिलाक्षणिक बचाव है जो खुद को एक दयालु अधिपति के रूप में पेश करना चाहता है.

मोदी ने अपने भाषण में एक अच्छा-खासा समय विनाशकारी कृषि कानूनों को छोटे व सीमांत किसानों के लिए फायदेमंद साबित करने में खर्च किया. यह तथ्य विवाद से परे है कि जोत का औसत आकार कम होता जा रहा है, और छोटे व सीमांत किसानों की संख्या और अनुपात लगातार बढ़ते जा रहे हैं. सच तो यह है कि एक के बाद दूसरी बनने वाली सरकारों ने छोटे व सीमांत किसानों की भलाई के लिए आवश्यक प्रगतिशील भूमि सुधारों और सहकारी खेती का एजेंडा छोड़ दिया. कृषि और संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर बढ़ते काॅरपोरेट नियंत्रण, जो इन तीन कृषि कानूनों की सारवस्तु है, से इन छोटे किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है – इससे न तो कृषि के अंदर उनकी आमदनी बढ़ेगी, और न विनिर्माण अथवा सेवा क्षेत्र में कृषि-आधारित आबादी के एक हिस्से को समाहित कर कृषि क्षेत्र पर पड़ रहे बोझ को ही कम किया जा सकता है.

जहां प्रधान मंत्री ने अपने भाषण में छोटे किसानों के लिए घड़ियालू आंसू बहाए, वहीं उनकी सरकार ने कृषि और संबद्ध मदों में बजट आबंटन को कम कर दिया है. यहां तक कि बहु-प्रचारित ‘प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि’ (पीएम-किसान) – जिसके तहत जमीन के स्वामित्व का पर्चा रखने वाले छोटे किसानों को तीन खेप में 6000 रुपये की तुच्छ राशि देय है – में भी इस वर्ष के बजट में 10,000 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गई है. भूमिहीन किसान, अपनी जमीन जोतने वाले छोटे किसान या पट्टे पर ली गई जमीन उपजाने वाले पट्टेदार किसान – इन सब को किसान सम्मान के नाम पर दानस्वरूप मिलने वाली इस तुच्छ सहायता से भी वंचित कर दिया गया है. प्रधान मंत्री ने कर्ज माफी को ‘किसान एजेंडा’ के बजाय ‘चुनावी एजेंडा’ कह कर इसका मखौल उड़ाया. उन्होंने इस बात पर दुख जताया कि छोटे किसानों को बैंक ऋण नहीं मिल पाता है. अगर किसानों को बैक ऋण नहीं मिल पाता है तो इससे किसानों के प्रति सरकार की स्वघोषित चिंता ही बे-नकाब होती है.

ऋणग्रस्तता और साथ ही, कर्ज लौटाने के लिए होने वाले उत्पीड़न की समस्या ही वह सबसे बड़ा कारक है जिसके चलते भारत में सैकड़ों हजार किसानों को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा है. इसी त्रासद स्थिति में कर्ज माफी की मांग उभरी है. केवल एक क्रूर तानाशाह शासक ही किसी जीवन-रक्षक मांग को ‘चुनावी मुद्दा’ कहकर उसका मखौल उड़ा सकता है. और अगर कर्ज माफी चुनावी एजेंडा है, तो पीएम-किसान और भी बड़ा चुनावी मुद्दा है. आसन्न चुनाव वाले राज्य पश्चिम बंगाल में मोदी ने वहां भाजपा के सरकार में आने के साथ इसे साफ-साफ जोड़ दिया है – काफी कुछ उसी तरह, जिस तरह कि उनकी पार्टी ने बिहार में कोविड-19 के टीकाकरण के मुद्दे को उनकी चुनावी जीत के साथ जोड़ा था. किसान आन्दोलन में 500 रुपये की प्रतीकात्मक मासिक सहायता की मांग कभी नहीं उठी है, उसकी प्रमुख मांग तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप उचित एमएसपी के निर्धारण और उसकी सुनिश्चितता ही रही है.

‘एमएसपी था, एमएसपी है और एमएसपी हमेशा रहेगा’ के पीएम के खोखले आश्वासन में उसी तरह के आश्वासन की गूंज सुनाई दे रही है जो उन्होंने भारत-चीन वास्तविक सीमा रेखा पर हुए टकराव के बाद दिया था – ‘न कोई घुसा था, न कोई घुसा हुआ है’. किसान तो एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं ताकि सभी किसान उचित एमएसपी पर अपनी फसलें बेच सकें. सरकार जानती है कि अधिकांश राज्यों में किसान, खासकर छोटे किसान, जिनके नाम पर मोदी अपने विनाशकारी कृषि कानूनों को लादना चाहते हैं, अपनी फसलों की आपदा बिक्री के शिकार बनते हैं. अधिकांश मामलों में मौजूदा बाजार मूल्य सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से काफी कम हैं; और, इन छोटे व वंचित किसानों को एमएसपी और एपीएमसी ढांचे के लाभुकों के खिलाफ खड़ा करके सरकार दरअसल एमएसपी-एपीएमसी ढांचे को ही फालतू की चीज बना देना चाहती है. यह एक अन्य क्षेत्र है, जहां सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाना चाहती है और आम जनता के हितों को काॅरपोरेट मुनाफा और सत्ता की बलिवेदी पर कुर्बान कर देना चाहती है.

बहरहाल, राज्य सभा में मोदी के भाषण में सबसे दुष्टतापूर्ण बात बेशक यह थी कि उन्होंने विरोध की हर कार्रवाई को शैतीनीभरी हरकत बताया, आन्दोलनकारियों को ‘परजीवी’ और ‘षड्यंत्रकारी’ के बतौर चित्रित किया, और न्याय व लोकतंत्र के लिए लड़ाई को ‘फाॅरेन डेस्ट्रक्टिव आइडियोलाॅजी (विदेशी विनाशकारी विचारधारा)’ द्वारा प्रेरित साजिश करार देकर लोकतांत्रिक संघर्षों के खिलाफ धर-पकड़ को उकसावा दिया. ये तो एक बौखलाए निजाम के शब्द हैं जो अपने कानूनों के जरिये किसानों को छलने में असफल रह गया है, किसान आन्दोलन के खिलाफ जिसका समवेत प्रचार आम जनता की आंख में धूल झोंकने में नाकामयाब हो गया है, और जिसका किसानों तथा किसान आन्दोलन के प्रति बढ़ती लोकतांत्रिक एकजुटता का भय दुनिया भर की नजरों के सामने उजागर हो गया है. जो शासन खुद को बचाने के लिए कंक्रीट के अवरोध व कंटीले तारों के बाड़े लगवा रहा हो, सड़कों पर बड़े-बड़े गड्ढे खुदवा रहा हो और उनपर बड़ी-बड़ी कीलें ठुकवा रहा हो, और जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित गायकों व कलाकारों के चंद ट्वीटों का मुकाबला करने के लिए मंत्रियों, फिल्मस्टारों, क्रिकेटरों और अन्य प्रतिष्ठित हस्तियों की पूरी फौज उतार दे रहा हो, वह भय में जीने वाला शासन है. वह अपने संकट और भय को किसानों और व्यापक जनता पर लादने की कोशिश कर रहा है. हम, भारत के लोग, दृढ़ता से कहेंगे कि इस बौखलाए शासन ने अपनी जमीन खो दी है.