वर्ष - 30
अंक - 11
13-03-2021

 

भारत में इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस कठिन और डरावनी परिस्थितियों में मनाया गया. भारत के मौजूदा शासक “महिला शक्ति”, “महिला सशक्तीकरण” और “महिलाओं की उपलब्ध्यिों” का खटराग अलापते रहे और इसी के मार्फत महिलाओं की सामाजिक भूमिका पर फासिस्टों की संहिताओं में वर्णित भावनाओं का इजहार करते रहे. लेकिन समूचे भारत में महिला आन्दोलन के लिए यह ‘महिला दिवस’ अपनी एकजुटता को मजबूत करने और अपने अस्तित्व पर अबतक के सबसे बदतरीन राजनीतिक हमलों के प्रतिरोध का संकल्प लेने का अवसर था. केंद्र में मोदी निजाम और अनेक राज्यों में भाजपा शासन के अंतर्गत महिलाओं के आन्दोलनों पर जैसे हमले हो रहे हैं, वैसे अब तक के इतिहास में कभी नहीं हुए थे.

महिला दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट करके “अदम्य नारी शक्ति” का नमन किया और “हमारे देश की महिलाओं की उपलब्ध्यिों पर गर्व” जताया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस मौके पर वही संदेश दिए जो नाजियों और मनुवादियों की किताबों में वर्णित है. प्रशंसा की ओट में उन्होंने अपने उपदेशात्मक संदेश में महिलाओं को हिंदू वर्चस्ववादियों द्वारा उनके लिए निर्धरित सामाजिक भूमिका और दायित्वों का स्मरण कराया. उन्होंने कहा कि मलिाओं को “परिवार और घर निर्मित करना होगा, बच्चों का लालन-पालन करना होगा और उन्हें अच्छा नागरिक बनाना होगा”, ताकि वे फ्आदर्श परिवार, आदर्श समाज और आदर्श राज्यय् का निर्माण कर सकें. इस संदेश में नाजियों के नारे की गूंज मिलती है जिसमें महिलाओं को “किंडर, कुचे, किर्चे” (बच्चों, रसोईघर और चर्च) तक खुद को सीमित कर राष्ट्र की सेवा करने पर जोर दिया गया था. उनके संदेश में 2009 में प्रकाशित उनके लेख का ही सारांश था जिसमें उन्होंने इस आधर पर विधानसभाओं और संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण का विरोध किया था कि पुरुषों के नियंत्रण के परे राजनीतिक व अन्य क्षेत्रोें में महिलाओं की स्वतंत्रता परिवार की संस्था को खतरे में डाल देगी और स्त्रियों को दानव बना देगी.

योगी-शासित जिस उत्तर प्रदेश को भाजपा हिंदू राष्ट्र की प्रयोगशाला बताती रहती है, वहां बारंबार बलात्कार की भयावह वारदात हो रही है और जिसमें पुलिस और भाजपा के नेतागण मिलजुल कर अपराधियों की हिफाजत करते हैं और बलात्कार पीड़ितों, उनके परिजनों और न्याय के लिए संघर्षों को डराते-धमकाते हैं और उन्हें खामोश करने का प्रयास करते हैं. वह ऐसा राज्य है जो अंतर्धमिक विवाहों के नियमन और दमन के लिए कानून बनाने में अव्वल रहा है, और जो हमें नाजी जर्मनी और नस्ली भेदभाव ग्रस्त दक्षिण अफ्रीका में अंतर्नस्लीय विवाह के खिलाफ कानूनों की याद दिला देता है.

खुद 8 मार्च को, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर, भारत के सर्वाच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने अपनी एक टिप्पणी का बचाव करते हुए अपनी फिर से गरिमा को गिरा दिया जिसमें उन्होंने एक बलात्कार-आरोपी व्यक्ति को कहा था, “क्या तुम उसके (पीड़िता) के साथ शादी करोगे? अगर तुम करोगे तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं. अगर नहीं, तो तुम्हारी नौकरी चली जाएगी और तुम जेल जाओगे.” मुख्य न्यायाधीश के स्वर से स्वर मिलाते हुए सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत के महाधिवक्ता ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश के लिए बलात्कार-आरोपी से यह पूछना ‘बिल्कुल वाजिब’ था कि क्या वह पीड़िता से शादी करेगा. जले पर नमक छिड़कने वाले ये बचाव वाले बयान लगभग 10,000 हस्ताक्षरों वाली उस खुली चिट्ठी के ठीक बाद आए जिसमें बोब्डे से मांग की गई थी कि वे मुख्य न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दें, क्योंकि उस पद पर रहते हुए बलात्कार पर उनकी वह टिप्पणी तमाम महिलाओं के लिए अपमानकारी और खतरनाक है. इस पर कोई खेद प्रकट करने के बजाय मुख्य न्यायाधीश और महाधिवक्ता मिलकर असमर्थनीय चीज का बचाव करने लगे. भारत में तमाम न्यायिक पूर्व-निर्णयों और बेहतरीन आचरणों की अवहेलना करते हुए भारत की मौजूदा कार्यपालिका व न्यायपालिका के ये दो प्रतिनिधि अड़ गए कि किसी बलात्कार-आरोपी द्वारा दायर जमानत अर्जी पर फैसला लेने के लिए उससे यह पूछना प्रासंगिक है कि वह पीड़िता के विवाह करना चाहता है या नहीं.

एकमात्र यह मुख्य न्यायाधीश प्रकरण ही यह बताने के लिए काफी है कि भारत में महिलाओं के बुनियादी अधिकार और उनकी मर्यादा उन खतरनाक विचारधाराओं की दया पर निर्भर हो गए हैं जो आज भारतीय राज्य के स्तंभों को अपने कब्जे में लेकर उनपर नियंत्राण कर रही हैं. जब बोब्डे जैसे शीर्ष-पदासीन लोग सर्वाधिक अपमानजनक और खुल्लमखुल्ला नारी-द्वेष दिखाकर भी बच निकलते हों, तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय पर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि वह महिलाओं की आजादी की हिफाजत कर पाएगा जिसपर भाजपा-नीत सरकारें और भाजपा-नियंत्रित विधायिकाएं रोज-ब-रोज हमले कर रही हैं?

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की परंपरा सौ वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है जब कामगार महिलाएं और कम्युनिस्ट स्त्रियां अपने अधिकारों की दावेदारी करती थीं और अपने मुक्ति संषर्षों को स्मरण करती थीं. आज समूचे भारत में सरकारी स्कीमों, कारखानों व खेतों तथा नगर निकायों में काम करने वाली महिलाएं कानूनी संरक्षा के क्षरण के खिलाफ लड़ रही हैं. उनकी उत्पीड़कारी कार्य-स्थितियां 19वीं सदी के पूंजीवाद की याद दिला देने वाली हैं. कृषक महिलाएं आज किसान आन्दोलन की अग्रिम पांत में खड़ी हैं जो अडानी-अंबानी जैसे मोदी क्रोनियों की अगुवाई में ‘कंपनी राज’ द्वारा जबरिया हड़प के खिलाफ कृषि को बचाना चाहता है. महिलाओं ने सीएए-विरोधी आन्दोलनों की भी रहनुमाई की थी जिस कानून के जरिये भारतीय संविधान को तहस-नहस कर नागरिकता की ऐसी धारणा सामने लाई जा रही थी जो धर्मनिरपेक्षता और जम्हूरियत के खिलाफ जाती है. इन महत्वपूर्ण आन्दोलनों का नेतृत्व करने वाली अनेक महिलाएं – सुधा भारद्वाज से लेकर शोमा सेन, सफूरा, इशरत, गुलफिशा, नताशा और देवांगना तकच दिशा रवि से लेकर निकिता जैकब और नवदीप कौर तक – आज मोदी शासन द्वारा काले यूएपीए कानून के अंतर्गत जेलों में बंद कर दी गई हैं.

किशोर वय की जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के भाव को संक्षेप में रखते हुए कह सकते हैं कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर और हर दिन महिलाएं सिर्फ बधाइयां और समारोह नहीं चाहती हैं, बल्कि उन्हें बराबरी और आजादी चाहिए, और उन्हें फासीवादी व नारीवाद-विरोधी ताकतों के खिलाफ समानता व स्वतंत्रता के लिए उनकी लड़ाई में समर्थन और सहयोग चाहिए.