वर्ष - 30
अंक - 43
26-10-2021


[ आजाद भारत अपने 75वें वर्श में प्रवेश कर चुका है. समकालीन लोकयुद्ध इस मौके पर अत्यंत विविधरूपात्मक स्वतंत्रता संग्राम की अनके विशेषताओं को लेकर सामने आ रहा है, जिनमें खास तौर पर उस संग्राम के वैसे पहलुओं और अध्यायों का जिक्र किया जाएगा जिनको ज्यादा अहमियत नहीं मिली है, लेकिन जो हमारे देश और जनता के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए काफी प्रेरणादायी हैं. हम यहां स्मरण दिलाने का प्रयास करेंगे कि मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित, महिलाएं करिश्माई नेताओं के ‘अनुयायी’ मात्र नहीं थे, बल्कि वे इतिहास के असली निर्माता थे, अपने आप में नेता थे. भाकपा(माले) महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के आलेख ‘इंडियाज मार्च टु फ्रीडम : द अदर डायमेन्शंस’ (लिबरेशन प्रकाशन, जुलाई 1997) में कहा गया है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के अधिकांश प्रमुख, आधिकारिक विमर्श में साधारण जनता, मजदूरों और किसानों को “कभी भी ऐसे पुरुषों व महिलाओं के बतौर संघर्ष करते नहीं दिखाया गया है जो अपने सपनों, अपनी गत्यात्मकता और पहलकदमी के साथ लड़ रहे थे और जो अपनी सामूहिक नियति के नियंता बनने की कोशिश कर रहे थे. इस प्रकार, मेहनतकश अवाम को न केवल वर्तमान में उचित महत्व नहीं दिया जा रहा है, बल्कि अतीत में भी उनकी भूमिका के महत्व को नकार दिया गया था. उन्हें उनके अतीत से विच्छिन्न कर देने और उन्हें इतिहास के हाशिये पर धकेल दिए गए स्थायी शरणार्थी में बदल देने के प्रयास किए जा रहे हैं.” इस अंक में हम ‘इंडियाज मार्च टु फ्रीडम’ से चंद संपादित अंश पेश कर रहे हैं, ताकि स्वतंत्रता संग्राम में मजदूर वर्ग की भूमिका सामने आ सके.]

भारतीय मजदूर वर्ग का आगमन

भारतीय मजदूर वर्ग के पदचाप की पहली आहट उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सुनी जा सकती थी. 1853 में रेलवे की शुरूआत होने के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में टेक्सटाइल्स और जूट तथा साथ ही कोयला खनन और चाय बागान जैसे उद्योग उभरने लगे. अपनी उत्पीड़नकारी जीवन और कार्य स्थितियों के खिलाफ श्रमिकों के द्वारा संगठित होकर विद्रोह करने के शुरूआती दृष्टांत लगभग उसी समय से शुरू हो जाते हैं. कहारों और महारों जैसे गैर-औद्योगिक मजदूरों की हड़तालें भी उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में दिखाई पड़ी थीं.

यह समझा जा सकता है कि वास्तविक ट्रेड यूनियनों के गठन के पूर्व आम तौर पर गैर-श्रमिक परोपकारी लोगों के द्वारा विभिन्न किस्म के कल्याणकारी संगठनों का निर्माण किया गया था. ऐसे समय में, जब मजदूर वर्ग अपनी शैशवावस्था में ही था, और ट्रेड यूनियन अथवा फैक्टरी ऐक्ट या श्रम कानून जैसी कोई चीज नहीं थी, संगठन के विभिन्न रूपों और मांगों की श्रेणियों के बीच स्पष्ट फर्क होना प्रायः संभव नहीं था. लेकिन चूंकि कारखाना प्रबंधन करीब-करीब पूरी तरह सफेदपोश होता था और नस्लवादी औपनिवेशिक शासन के हाथों मजदूरों को अपमान और नफरत झेलना पड़ता था, इसीलिए मजदूरों को संगठित करने और उनकी मांगों को सूत्रबद्ध करने की शुरूआती कोशिशें भी बेशक, राजनीतिक महत्व धारण कर लेती थीं.

स्वदेशी : मजदूर वर्ग ऐक्शन में पहला उभार

बंगाल के विभाजन और उसके बाद स्वदेशी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में मजदूर वर्ग की कार्रवाइयों में पहला उभार देखा गया. 1905 में कर्जन ने बंगाल के विभाजन का फरमान जारी किया. भारत के एक सर्वाधिक संवेदनशील प्रांत में ‘बांटो और राज करो’ की ब्रिटिश रणनीति के इस जघन्य क्रियान्वयन ने इसके तदंतर 1947 में देश के कई टुकड़ों में बंट जाने की पूर्वपीठिका तैयार कर दी थी. बंगाल विभाजन ने न केवल बंगाल के अंदर, बल्कि सुदूर महाराष्ट्र में भी तीखे विस्फोटों को जन्म दिया, जो लोकप्रिय राष्ट्रीय चेतना के अभ्युदय के साफ लक्षण थे.

लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल (प्रख्यात लाल-बाल-पाल की तिकड़ी) के नेतृत्व में इंडियन नेशनल कांग्रेस के तथाकथित गरमपंथी धड़े के अगुवाई में दो-तरफा मुहिम शुरू हुई, जिसमें एक ओर तो जनता से ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया गया और दूसरी ओर स्वदेशी सामानों के ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग की अपील की गई. अधिकांश स्वदेशी नेताओं ने जन समुदाय को गोलबंद करने के लिए धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया. तिलक ने गणेश और शिवाजी उत्सव मनाने का आह्वान किया.

यह क्रांतिकारी आतंकवादियों के भी रंगमंच पर आने का दौर था. उनके इस शुरूआती चरण में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा 30 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर में कुख्यात ब्रिटिश मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड पर किया गया हमला सर्वाधिक विख्यात आतंकवादी कार्रवाई थी. लेकिन धार्मिक पुनरुत्थनवाद और क्रांतिकारी आतंकवाद की इस आमने-सामने की अग्रगति के परे, ‘स्वदेशी’ में स्पष्ट मजदूर वर्ग आयाम भी निहित था.

सरकारी छापेखानों (प्रेस) में जुझारू हड़तालों के दरम्यान 21 अक्टूबर 1905 को पहला वास्तविक ट्रेड यूनियन गठित किया गया. जुलाई-सितंबर 1906 के दौरान ईस्ट इंडियन रेलवे के बंगाल सेक्शन में मजदूरों ने लगातार कई हड़तालें कीं. 27 अगस्त को जमालपुर रेलवे वर्कशॉप में मजदूरों की भारी दावेदारी देखी गई. मई और दिसंबर 1907 की अवधि में रेल मजदूरों की हड़तालें ज्यादा व्यापक और निर्णायक थीं जो आसनसोल, मुगलसराय, इलाहाबाद, कानपुर और अंबाला तक फैली हुई थीं. 1905 और 1908 के बीच बंगाल की जूट मिलों में भी काफी हड़तालें हुईं. मार्च 1908 में तत्कालीन मद्रास प्रांत के तिरूनेलवेल्लि जिले में तूतिकोरिन स्थित विदेशी मालिकाने वाली कोरल कॉटन मिल्स में मजदूरों ने एक सफल हड़ताल आयोजित की. कोरल मिल मजदूरों के दमन के प्रयासों ने न केवल नगरपालिका मजदूरों, सफाई कर्मियों और गाड़ी ढोने वालों के प्रतिवादों को जन्म दिया; बल्कि आम लोगों ने तिरूनेलवेल्लि में नगरपालिका कार्यालयों, कचहरियों और थानों पर भी हमले कर दिए.

इससे भी महत्वपूर्ण यह कि ‘स्वदेशी’ ने एक राजनीतिक शक्ति के बतौर मजदूर वर्ग के आगमन का संकेत दे दिया, और देश के मजदूर छात्रों और किसानों के साथ मिलकर आजादी और लोकतंत्र की मांग पर सड़कों पर उतरने लगे. शीघ्र ही सड़कों पर जुझारू झड़पें रोजमर्रा का दस्तूर बन गईं. मई 1907 के पहले सप्ताह में रावलपिंडी वर्कशॉप के लगभग 3000 श्रमिक और अन्य कारखानों के सैकड़ों साथी मजदूर ‘राजद्रोहात्मक’ चीजें छापने के आरोप में ‘पंजाबी’ पत्रिका के संपादक को दी गई सजा के खिलाफ छात्रों के साथ विशाल प्रतिवाद प्रदर्शनों में शामिल हो गए. आसपास के गांवों के किसान भी इस जुझारू रैली में शरीक हुए और ब्रिटिश हुकूमत से जुड़ी लगभग हर चीज पर हमले किए गए.

लेनिन ने भारतीय मजदूरों के राजनीतिक जागरण का स्वागत किया

इसी बीच, 1905 की रूसी क्रांति विफल हो चुकी थीऋ किंतु उसने संपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग आन्दोलन को एक नई दृष्टि और एक बिल्कुल नए हथियार - जन राजनीतिक हड़ताल - से उत्प्रेरित कर दिया था. जब बिपिन चंद्र पाल को गिरफ्तार किया गया, तो कलकत्ता में छपने वाली पत्रिका ‘नवशक्ति’ ने 14 सितंबर 1907 को लिखा, “रूस के मजदूर आज दमन के समयों में दुनिया को कारगर प्रतिवाद के तरीके सिखा रहे हैं - क्या भारत के श्रमिक उससे नहीं सीखेंगे ?”

जल्द ही यह आशा बंबई में फलीभूत हुई. 24 जून 1908 को तिलक की गिरफ्तारी ने न सिपर्फ बंबई में, बल्कि नागपुर व शोलापुर जैसे अन्य औद्योगिक केंद्रों में भी प्रतिवाद का तूफान खड़ा कर दिया. जब अदालती कार्रवाइयां चल ही रही थीं, मजदूरों की जमात प्रतिवाद में फूट पड़ते थे और पुलिस व सेना के साथ झड़पें शुरू हो जाती थीं. 18 जुलाई को ऐसी ही एक सड़क मुठभेड़ में कई सौ मजदूर घायल हुए और कई लेग मारे गए. अगले ही दिन 60 से ज्यादा कारखानों के लगभग 65,000 मजदूर हड़ताल पर चले गए. 21 जुलाई को बंबई के गोदी (बंदरगाह) मजदूर भी आन्दोलन में शामिल हो गए. 22 जुलाई को तिलक को 6 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई. इसके प्रतिवाद में हड़ताली मजदूरों ने 6 दिनों तक बंबई को वास्तविक युद्ध का मैदान बना दिया था.

लेनिन ने बंबई मजदूरों की इस ऐतिहासिक दावेदारी को विश्व राजनीति में एक ज्वलनशील सामग्री के बतौर स्वागत किया : “.... भारत में सड़कें अपने लेखकों और राजनीतिक नेताओं के पक्ष में उठ खड़ी हो रही हैं. भारतीय जनवादी तिलक के खिलाफ ब्रिटिश सियारों द्वारा सुनाई गई कुख्यात सजा ने .... सड़क प्रदर्शन की लहर और बंबई में हड़ताल पैदा की है. भारत में भी सर्वहारा वर्ग ने सचेतन राजनीतिक जन संघर्ष विकसित किया है – और अगर ऐसा है, तो भारत में रूसी-किस्म-की ब्रिटिश हुकूमत के दिन लद गए हैं!”

‘स्वदेशी’ के परिणामस्वरूप बंगाल में पहले ही क्रांतिकारी उग्रवाद में बड़ा उभार दिखाई पड़ा था. ‘युगांतर’ और ‘अनुशीलन’ नाम के इसके दो प्रमुख केंद्र उभर कर सामने आए. और, दिसंबर 1911 में विभाजन को निरस्त कर दिये जाने के बावजूद बंगाल के उग्रवादी मजबूत और लोकप्रिय बनते गए. इस धारा के सर्वप्रमुख नेता जतीन मुखर्जी (बाघा जतीन) सितंबर 1915 में उड़ीसा तट पर बालासोर के निकट एक वीरनायक के बतौर शहीद हुए.

ब्रिटिश कोलंबिया और अमेरिका में प्रवासी भारतीयों, अधिकांशतः सिखों, के बीच भी क्रांतिकारी उग्रवाद ने मजबूत जड़ें जमाई थीं. 1913 में सन फ्रांसिस्को में विख्यात गदर आन्दोलन शुरू हुआ. आरंभिक बंगाली उग्रवादियों की हिंदू अनुगूंजों के विपरीत इन गदरपंथियों ने 1857 की हिंदू-मुस्लिम एकता की विरासत को फिर से जिंदा किया. इन आतंकवादियों और गदरपंथियों में से बहुतेरे लोग बाद में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बन गए.

प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के साथ ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में अपना आतंक का राज तेज कर दिया. युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भी ब्रिटिश हुकूमत तथाकथित रॉलेट ऐक्ट बना कर बुनियादी अधिकारों के युद्ध-कालीन स्थगन को जारी रखने और इसे  वैध बनाने की कोशिश करती रही - इसके खिलाफ भारतीय जनता के विभिन्न तबकों ने लोकप्रिय हमला छेड़ दिया.

क्रूर दमन और मजदूर-किसान कार्रवाइयों में उभार

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने सिर्फ दमन के सहारे युद्धोत्तर लोकप्रिय उभार को दबाने की हर-चंद कोशिशें कीं. इस अवधि में दमन की बदतरीन मिसाल थी 13 अप्रैल 1919 के दिन अमृतसर में जालियांवाला बाग जनसंहार. इस जनसंहार को अंजाम देने वाले कुख्यात जनरल डायर ने “नैतिक असर पैदा करने” के शब्दों में इसका औचित्य बताया और उसने एकमात्र अफसोस यह जताया कि अगर उसके पास गोलियां खत्म नहीं हुई होतीं, तो वह और भी कई लागों को मार सकता था! इस किस्म के चरम राज्य दमन तथा गांधीवादी ढुलमुलपन और कमजोरी के रहते अगर भारतीय जनता ब्रिटिश शासकों पर एक भिन्न ‘नैतिक असर’ डालने में सफल हुई, तो इसका मुख्य कारण था मजदूर वर्ग की शक्तिशाली पहलकदमी और किसान विक्षोभ की व्यापकतर अभिव्यक्तियां. किसान आन्दोलन में उभार के समानांतर, देश भर में हड़तालों की शक्तिशाली लहरें भी फैल रही थीं.

मजदूर संगठन ने अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण किया

मजदूर वर्ग की इसी किस्म की शक्तिशाली देशव्यापी दावेदारी के बीच भारतीय श्रमिकों का पहला केंद्रीय संगठन अस्तित्व में आया. 31 अक्टूबर 1920 को बंबई में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ऐटक) की स्थापना हुई. ऐटक के निर्माण के पीछे तिलक मुख्य प्रेरणा-स्रोत थे, लेकिन इस संगठन के वास्तविक गठन के तीन महीना पूर्व 1 अगस्त 1920 को उनका निधन हो गया.

इसका उद्घाटन सत्र सर्वहारा की नव-निर्मित पहचान से लबरेज था, किंतु वह कांग्रेस के संवैधानिक सुधारों के गतिपथ से बाहर नहीं निकल पाया. अपने अध्यक्षीय भाषण में लाल लाजपत राय ने पूंजीवाद और साथ ही “पूंजीवाद की जुड़वां संतानां .... सैन्यवाद और  साम्राज्यवाद” के विष-नाशक के बतौर संगठित श्रम की भूमिका पर जोर दिया और “अपने श्रमिकों को संगठित करने (तथा) उन्हें वर्ग-सचेत बनाने” की जरूरत को रेखांकित किया; लेकिन ब्रिटिश सरकार के संबंध में उन्होंने कहा कि उसके प्रति श्रमिकों का रवैया फ्न तो समर्थन का होना चाहिए, न ही विरोध का”.

इस अवसर पर ऐटक के प्रथम महासचिव दीवान चमन लाल द्वारा जारी किए गए “भारत के श्रमिकों के लिए घोषणापत्र” में  “भारत के श्रमिकों” का आह्वान किया गया कि वे “अपने देश के नियंता के बतौर अपने अधिकार जताएं”. उसमें उन्हें यह स्मरण कराया गया था कि उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन का “अभिन्न अंग” बने रहना होगा और यह अपील की गई कि वे “अपनी तमाम कमजोरियों को त्याग दें और ... सत्ता व आजादी के रास्ते पर चल पड़ें”. बहरहाल, उपाध्यक्ष जोसेफ बापतिस्ता ने “साझेदारी के उच्च विचार” के बारे में लंबी-चौड़ी बात कही और जोर दिया कि कारखाना मालिक और श्रमिक “साझेदार और सह-कर्मी हैं, न कि श्रम के विक्रेता और खरीदार हैं”.

ऐटक का दूसरा सम्मेलन (30.11.1921 - 02.12 1921) आज के बिहार में धनबाद जिले के झरिया में आयोजित हुआ था और उस सम्मेलन में मजदूरों और आम जनता के लक्ष्यों पर ज्यादा जोर दिया गया था (दुर्भाग्यवश, बीसीसीएल द्वारा अंधाधुंध और गलत तरीके से खनन की वजह से यह ऐतिहासिक मजदूर वर्ग केंद्र तहस-नहस हो गया है, जहां दिसंबर 1928 में ऐटक का 9वां अधिवेशन संपन्न हुआ था जिसमें भारत को एक समाजवादी गणतंत्र बनाने का आह्वान किया गया था). सम्मेलन ने घोषणा की, “जनता द्वारा स्वराज हासिल करने का समय आ गया है”. यह दूसरा अधिवेशन एक असाधारण घटना थी - श्रमिक शक्ति के इस अभूतपूर्व प्रदर्शन में लगभग 50 हजार लोगों ने हिस्सा लिया, जिनमें अधिकांशतः आसपास के इलाके के कोयला खनिक, अन्य मजदूर और उनके परिजन शामिल थे.

अगुवा मजदूरों ने साम्यवादी विचार ग्रहण किया

1920 के दशक में लगभग सभी प्रमुख मजदूर वर्ग केंद्रों में राजनीतिक सक्रियता की लहर पैदा हो गई. मजदूर वर्ग आन्दोलन के दायरे में नए-नए राज्य आते गए. मई 1921 में असम के चाय बागानों में, खासकर सुरमा घाटी के चारगोला में, चाय मजदूरों का एक बड़ा उभार देख गया जिसके चलते कोई 8000 मजदूरों को उस घाटी से बाहर निकाल दिया गया. दिसंबर 1921 में दारंग और शिवसागर जिलों के चाय बागानों से भी छिटपुट संघर्षों की खबरें मिली थीं. 17 नवंबर 1921 को बंबई, कलकत्ता और मद्रास के श्रमिकों ने प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन के प्रतिवाद में सफल देशव्यापी हड़ताल (आम हड़ताल) संगठित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी. इसके ठीक पहले मद्रास में जुलाई से अक्टूबर तक बकिंघम एंड कैमेटिक मिल्स में 4 महीने की तीखी हड़ताल आयोजित की गई थी. इस हड़ताल के दौरान पुलिस ने कम से कम 7 मजदूरों को मार डाला था. 1 मई 1923 को मद्रास के बुजुर्ग वकील और श्रमिक नेता सिंगारवेल्लु चेट्टियार ने मद्रास समुद्र तट पर भारत का पहला ‘मई दिवस’ संगठित किया. सिंगारवेल्लु गांधी द्वारा अ-सहयोग आन्दोलन को बार-बार रोकने की आलोचना करते थे, और वे देश के पहले अग्रणी कम्युनिस्ट बने. उत्तर पश्चिमी रेलवे में एक बड़ी हड़ताल हुई जो अप्रैल से जून 1925 तक चली थी. कपड़ा मिल के मजदूर तो कुछ-कुछ समयांतराल पर बंबई को लगातार हड़तालों से थर्राते ही रहते थे.

यही वह समय था जब भारतीय मजदूर वर्ग आन्दोलन में कम्युनिस्ट विचारधारा का अनुप्रवेश होना शुरू हुआ. प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ देश के अंदर भी कम्युनिस्ट सर्कल काम करने लगे. 26 दिसंबर 1925 को देश के अंदर सक्रिय विभिन्न कम्युनिस्ट सर्कल के नेता कानपुर में जुटे और औपचारिक तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया. 1920 के दशक में ‘मजदूर-किसान पार्टी’ नामधारी संगठनों के साथ-साथ, यहां तक कि कांग्रेस के अंदर से भी ये कम्युनिस्ट अपना काम करते थे. मजदूर-किसान पार्टियां बंगाल, बंबई, पंजाब, यूपी और दिल्ली में काफी सक्रिय और लोकप्रिय थीं. पंजाब में वह कीरती किसान पारटी के नाम से जानी जाती थी और उसका गठन अमृतसर के जालियांवाला बाग में उस कुख्यात जनसंहार की 9वीं बरसी के मौके पर किया गया था.

मजदूरों ने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की

मजदूर वर्ग आन्दोलन के बढ़ते ज्वार को नियंत्रित करने के लिए बरतानवी सरकार 1926 में अत्यंत प्रतिबंधात्मक ‘ट्रेड यूनियन ऐक्ट’ को लेकर सामने आई. इस ऐक्ट ने दरअसल, तमाम अ-पंजीकृत यूनियनों को अवैध घोषित कर दिया और राजनीतिक मकसद से फंड इकट्ठा करने वाली ट्रेड यूनियनों पर सब किस्म के प्रतिबंध लगा दिए. विडंबना यह है कि यह बात ब्रिटेन में मौजूद मानदंडों के बिल्कुल उलट थी, जहां ट्रेड यूनियनें वहां की लेबर पार्टी की मुख्य ताकत थी और वे देश की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाती थीं. बहरहाल, यह प्रतिगामी और प्रतिबंधात्मक पाखंडपूर्ण कानून मजदूर वर्ग आन्दोलन के बढ़ते तेवर को तनिक भी कमजोर नहीं कर सका.

फरवरी 1928 को सायमन कमीशन के आगमन के खिलाफ 20,000 मजदूरों ने बंबई में मार्च किया. लिलुआ रेलवे वर्कशॉप में जनवरी से जुलाई 1928 तक एक बड़ा संघर्ष चला; 18 अप्रैल से सितंबर 1928 तक ‘टिस्को’ के मजदूरों ने लंबी हड़ताल की. बंबई में एक बार फिर कपड़ा मिलों में भारी हड़ताल हुई जो अप्रैल से अक्टूबर (1928) तक चलती रही. जुलाई 1928 में साउथ इंडियन रेलवे में छोटी, किंतु बहुत तीखी हड़ताल हुई. इन हड़तालों के प्रमुख नेताओं, सिंगारवेलु और मुकुंदलाल सरकार को जेल की सजा दे गई, जबकि एक हड़ताली मजदूर पेरुमल को आजीवन काला पानी (अंडमन द्वीप समूह) का दंड दिया गया. मेहनतकश अवाम की सबसे विशाल दावेदारी कलकत्ता में देखी गई, जहां दिसंबर 1928 में बंगाल की मजदूर-किसान पार्टी के नेतृत्व में हजारों मजदूर कांग्रेस के अधिवेशन में मार्च कर गए, अधिवेशन के पंडाल पर दो घंटे तक कब्जा जमाए रखा और ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग पर प्रस्ताव पारित किया.

(अगले अंक में जारी)