वर्ष - 30
अंक - 44
30-10-2021


- दृप्ता सारंगी

सुजीत सरकार की 2021 की बायोपिक फिल्म सरदार उधम (2 घंटा 44 मिनट) में उधम (विक्की कौशल अभिनीत) से उनके ब्रिटिश साथी एलीन ने पूछा कि वह सबकी आजादी की लड़ाई न लड़कर केवल अपने ही मुल्क के लोगों की आजादी के लिए क्यों लड़ रहे हैं? इसका जवाब देते उधम कहते हैं कि अंग्रेजी शासन से आजाद होने के बाद ही वह खुद को एलीन के बराबर होने का दावा कर सकते हैं, जो हर किसी की आजादी की मांग कर सकता है, लेकिन उधम को पहले अपने मुल्क के लोगों के लिए स्वतंत्रता की मांग करनी होगी.

स्कूली पाठ्य पुस्तकों में उधम सिंह के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को चंद वाक्यों में निपटा दिया जाता है. हमें सिर्फ बताया जाता है कि वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और गदर पार्टी के सदस्य थे और उन्होंने  जलियांवाला बाग नरसंहार के जिम्मेदार पंजाब के कुख्यात लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर को मारा था. इस कारवाई के लिए अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर लटका दिया था – और तब से वे आजादी आंदोलन के शहीदों में से एक रहे हैं.

भारत के आजादी आंदोलन के सेनानियों की जीवनी पर पर बनी फिल्में (बायोपिक) में हमेशा नायक को महामानव, स्वेच्छाचारी और मर्दाना छवि के रूप में चित्रित करने की परंम्परा रही है. अंध देशभक्ति से सराबोर ये फिल्में लोगों और उनकी अपनी मान-सम्मान के लिए उनके अथक संघर्ष को, चाहे वह औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता की गरिमा हो या उनके श्रम की प्रतिष्ठा हो, इसको न चित्रित कर आजादी आंदोलन के वास्तविक नायकों को भूला देती है. स्वतंत्रता संग्राम आधारित  फिल्मों में हम देखते हैं कि भारत को मां के रूप में दिखाया जाता है और उसके बेटों का फर्ज है कि उसकी जंजीरों को तोड़कर उसे ‘फिरंगी’ अंग्रेजों के जुल्म से बचाये.

सरदार उधम फिल्म ने इस रुझान को तोड़ा है. इस फिल्म में देश को मां की प्रतीकात्मक इकाई के रूप में कल्पना करने की जरूरत नहीं है. देश यहां वास्तव में मौजूद है – अपने लोगों के साथ और उनके शोषित श्रम से भारत में पैदा किये धन को परजीवी ब्रिटिश साम्राज्य की अवैध हड़प के साथ.

इस फिल्म में उधम सिंह एक ऐसे निडर युवक के रूप में सामने आते हैं, जिनका कैक्सटन हाॅल में एक मीटिंग में शामिल निर्दयी डायर की हत्या का मकसद महज बदले या सिर्फ गुस्से में की गयी कारवाई नहीं है. बल्कि, यह प्रतिरोध की ऐसी प्रतीकात्मक कारवाई है जो 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में हजारों लोगों के नरसंहार से पैदा हुए आक्रोश को फिर से जगाती है. यह नरसंहार की यादों को फिर से  जिंदा करने और देश की आजादी के लिये संघर्षरत क्रांतिकारियों को प्रेरित करने में असरदार तरीके से कारगर है.

उधम को उनकी जवानी के अंतिम दिनों में एक हृदय विदीर्ण व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है जिसका मन जलियांवाला बाग नरसंहार के गवाह के बतौर, शहीद भगत सिंह के पूर्व साथी के रूप में और अपने लोगों व साथियों की हत्याओं की यादों से लथपथ है. फिर भी उसकी आंखें अभी भी क्रांति का सपना देखती हैं और अपने देश में क्रांति की लपटों को सुलगाने के लिये सहयोगियों को खोजने में उसका उत्साह देश, महाद्वीप या जाति की सीमाओं को तोड़ता है.

फिल्म और उधम के चरित्र के बारे में  खास  दिलचस्प बात यह है कि उधम सिंह को सिर्फ देशभक्त भारतीय नहीं बल्कि कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित क्रांतिकारी दिखाया गया है. यह फिल्म हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी या एचआरएसए के साम्यवादी वैचारिक पक्षों, पार्टी के आदर्शों और सोच को बिना किसी लाग-लपेट के दिखाती है. ब्रिटिश हिरासत में जब उन्हें जालिमाना तरीके से प्रताड़ित कर पूछताछ की जा रही थी – उस समय उधम को राम मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से जाना जाता है. इनमें से पहले तीन नाम दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के तीन सबसे प्रमुख धार्मिक पहचानों (हिंदू, मुस्लिम, सिख) को दर्शाते हैं, जिन्हें औपनिवेशिक और सांप्रदायिक नेताओं द्वारा बार-बार एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाया जाता है. ये तीन नाम अंत में एक नाम ‘आजाद’ द्वारा एक साथ हो जाते हैं – जिसका अर्थ है ‘स्वतंत्रता’ और यह वह नाम भी है जिसके द्वारा एचएसआरए के साथी चंद्रशेखर को जाना जाता है.

आज यह नाम भारतीय दर्शकों के बीच अजीब ढंग से गूंजता है. हम इस फिल्म को हिंदू वर्चस्ववादियों द्वारा शासित भारत में देख रहे हैं, और हर रोज हम ऐसी घटनाओं की खबरें सुनते हैं जिनमें मुस्लिम अल्पसंख्यकों को जुल्म से दबाया जाता है, जलील किया जाता है, गाली दी जाती है और कत्ल कर दिया जाता है. इसी तरह पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश (और म्यांमार और श्रीलंका में भी) में अल्पसंख्यकों को लगातार अपमान और मौत का सामना करना पड़ रहा है. ‘आजादी’ (स्वतंत्रता) के साढ़े सात दशक बाद भी हम उस भारत या दक्षिण एशिया को हासिल करने से काफी दूर हैं जिसके लिए ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’ ने अपने जीवन का बलिदान दिया. इसके बजाय ऐसा लगता है कि हम अब उलटी दिशा में जा रहे हैं. लेकिन नाम भी एक कारगर याददिहानी है कि आज हमें उधम सिंह और उनके साथियों के सपने को साकार करने के लिए अवश्य संघर्ष करना होगा.

फिल्म में गैर लकीरी तरीके से उधम की और जलियांवाला बाग नरसंहार के जिंदा तजुर्बा की दास्तान बार-बार पीछा करती है – 1919 के अमृतसर का दर्दनाक विवरण, कत्लेआम, यातना, रात के कर्फ्यू के बावजूद वालंटियर्स द्वारा कभी खत्म न होने वाला थकाऊ राहत अभियान, फ्रंटलाइन मेडिकल पेशेवरों द्वारा बेहोश कर सधा ऑपरेशन. इस फिल्म के सिर्फ आखिरी 45 मिनटों में है जब उधम अपने मामले को देखने वाले ब्रिटिश जासूस को उस दिन और उस रात की घटनाओं का ज्वलंत और जीता-जागता विवरण याद कर सुनाते हैं.

फिल्म में जलियांवाला बाग की जीवंत यादें हमें इस हालात का सामना करने के लिए विवश करती हैं कि जलियांवाला बाग वास्तव में अतीत की बात नहीं है. यह आज के भारत की एक जीती-जागती हकीकत है जहां हुक्मरान उधम सिंह या भगत सिंह या यहां तक कि अंबेडकर या गांधी के नक्शेकदम पर चलने वालों को खामोश कराने और कैद करने के लिए औपनिवेशिक जमाने के कानूनों का प्रयोग करना जारी रखते हैं और संघर्षरत मजदूरों या किसानों या आदिवासियों की पुलिस बल या सत्ताधारी दल के गुर्गों द्वारा निर्मम हत्या कर दी जाती है.

क्रांति के विचारों को दफन नहीं किया जा सकता. मौत की सजा सुनाने के बाद जब उन्हें अदालत से ले जाया जा रहा है – तब उधम का नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ फिल्म खत्म होने के लंबे समय तक गूंजता रहता है. यह फिल्म दिलासा दिलाने के साथ चुनौतियां भी पेश करती है.

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