वर्ष - 28
अंक - 43
05-10-2019

क्या आपको झारखंड के एक गरीब मजदूर तबरेज अंसारी की याद है, जो अपनी आजीविका चलाने के लिये पुणे में काम कर रहे थे और अपनी शादी के लिये घर वापस आये थे, जबकि नरेन्द्र मोदी इतने जोरदार बहुमत से सत्ता में वापस आ रहे थे? उनकी शादी यकीनन कोई अखबार में छपने वाली खबर नहीं थी, लेकिन उस शादी के चंद हफ्तों बाद ही तबरेज घर-घर में चर्चित नाम बन गया. ठीक दादरी के मोहम्मद अखलाक, मेवात के पहलू खान और रामगढ़ के अलीमुद्दीन अंसारी की ही तरह तबरेज को भी बिजली के खंभे से बांध दिया गया और भीड़ द्वारा घंटों तक पिटाई की गई और ‘जय श्रीराम’ और ‘जय हनुमान’ के नारे लगाने पर मजबूर किया गया. इस समूचे दृश्य को पूरी बेशर्मी के साथ वीडियो में कैद किया गया और देखने के लिये समूची दुनिया के पास भेज दिया गया. मरणासन्न तबरेज को अस्पताल नहीं ले जाया गया बल्कि एक साइकिल चुराने के आरोप में स्थानीय पुलिस थाने के हवाले कर दिया गया. अस्पताल पहुंचाने का काम कई घंटों बाद किया गया ताकि डाक्टर उनकी जान निकल जाने की घोषणा कर सकें.

तबरेज की हत्या एक बार फिर तब हुई जबकि झारखंड पुलिस ने उन आरोपियों के खिलाफ, जिन्हें भीड़-हत्या के दृश्य वाले वीडियो में साफ-साफ पहचाना जा सकता है, हत्या का आरोप वापस ले लिया. पुलिस के अनुसार मेडिकल रिपोर्ट में तबरेज की मृत्यु का कारण पिटाई से घायल होना नहीं बल्कि हृदयगति का रुक जाना बताया गया है, और इस वजह से आरोपियों पर इरादतन हत्या का आरोप नहीं लगाया जा सकता बल्कि गैर-इरादतन मानव हत्या का आरोप लगाना चाहिये. केवल जब इसके खिलाफ व्यापक प्रतिवाद हुए और तबरेज अंसारी की पत्नी शाइस्ता परवीन ने घोषणा कर दी कि वे अपनी मौत तक उपवास पर बैठी रहेंगी, पुलिस द्वारा इरादतन हत्या का आरोप वापस लगाया गया. मगर तबरेज को न्याय दिलाने का संघर्ष अभी शुरू ही हुआ है, खासकर तब जब कि भीड़-हत्या के अन्य कई मामलों में हम देख रहे हैं कि आरोपियों को बरी कर देने और उनका स्वागत समारोह मनाने की बाढ़ आई हुई है.

भीड़ हत्या के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के संघर्ष की असली चुनौती मौजूदा राजनीतिक वातावरण में निहित है जहां संघ-भाजपा द्वारा प्रस्तुत किये गये ढेर सारे बहानों (जिनमें उल्लेखनीय रूप से दो सबसे ज्यादा प्रचारित बहानों लव-जिहाद और गौ-हत्या के आरोपों से लेकर राजद्रोह और अवैध आप्रवासन के आरोप तक शामिल हैं) का इस्तेमाल कर जनता के विभिन्न समूहों को निशाना बनाया जाता है और उनके खिलाफ हत्यारे भीड़-गिरोहों को भड़काया और गोलबंद किया जाता है, और आरोपियों को प्रणालीगत रूप से संरक्षण और दंड-भय मुक्ति का आश्वासन दिया जाता है. अब हमारे सामने एक और तत्व आ गया है – भीड़-हत्या के खिलाफ प्रतिवाद की आवाज उठाने वालों का उत्पीड़न करने, धमकाने और उन पर कलंक लगाने की बेशर्मीभरी कोशिश.

ऐसा ही वाकया हमने हाल में देखा जब 49 जानी-मानी सांस्कृतिक हस्तियों को इसलिये निशाना बनाया गया कि उन्होंने भीड़-हत्या की बढ़ती घटनाओं के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खुली चिट्ठी लिखी; और जब प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने ‘जय श्रीराम’ का रणघोष की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ बयान दिया तो उनको सलाह दी गई कि वे खुद को अर्थशास्त्र तक सीमित रखें. यह निशाना बनाने की परिघटना बढ़ती ही जा रही है जिसका उदाहरण मुजफ्फरपुर के चीफ जुडीशियल मेजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया गया एक निर्देश है जिसमें खुली चिट्ठी के हस्ताक्षरकर्ताओं के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर करने को कहा गया है. और अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरएसएस के स्थापना दिवस पर अपने भाषण में एक बेशर्मीभरा और धूर्ततापूर्ण तर्क देकर इस शैतानीभरे अभियान में अपनी भागीदारी साबित कर दी है.

मोहन भागवत के अनुसार भीड़-हत्या एक ‘पश्चिमी परिघटना’ है, जिसको भारत के बाहर पैदा होने वाले धर्मों ने बढ़ावा दिया और उस पर अमल किया है. भारत में भीड़-हत्या के बारे में कोई बात करना भारत-विरोधी और हिंदू-विरोधी मानहानिकारी विमर्श है. इस तरह भागवत ने मोदी के कथन को और गहरा अर्थ दे दिया है – याद करें कि मोदी ने कैसे अपनी रहनुमाई में रचाये गये 2002 के जनसंहार का विरोध करने वाली हर आवाज को ‘गुजरात के गौरव’ पर हमले के बतौर चित्रित किया था, और उससे ज्यादा नजदीक की घटना है कि कैसे उन्होंने झारखंड में भीड़-हत्या की बाढ़ के खिलाफ बढ़ती सार्वजनिक आलोचना को झारखंडी पहचान के अपमान के बतौर चित्रित किया था. भीड़-हत्या की अवधारणा और उस पर अमल को ईसाई और इस्लाम धर्मों (जो दो प्रमुख धर्म भारत में बाहर से आये हैं और भागवत के अनुसार जिन धर्मों ने भारत पर हमला किया है) के मत्थे मढ़ने के जरिये भागवत ने अन्य धर्मों को उनके सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास और दार्शनिक परम्परा के लिहाज से घटिया या नीचे दर्जे का प्रदर्शित करने के हिंदू श्रेष्ठतावादी नजरिये की आंच को और सुलगा दिया है.

भागवत इस बात से वाकिफ हैं कि मोदी सरकार द्वारा लोकतंत्र के खिलाफ चलाये जा रहे युद्ध के खिलाफ, खासकर कश्मीर के संदर्भ में, अंतर्राष्ट्रीय आलोचना बढ़ रही है, इसलिये उन्होंने खुद लोकतंत्र को ही एक प्राचीन भारतीय प्रणाली के बतौर परिभाषित किया है! उन्होंने भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को रेखांकित करने वाले सर्वविदित सूत्र ‘विविधता में एकता’, जो विविधता और बहुलवाद को भारत की मूल चारित्रिक विशिष्टता के बतौर स्वीकार करता है, को भी उलटते हुए, ‘एकता में विविधता’ के नये मुहावरे का ईजाद किया है, जो ‘विविधता’ को एकता में मौजूद कुछ सतही किस्म की भिन्नताएं ही मानता है, जबकि एकता को समांगीकरण और एकसार बनाने के अर्थ से परिभाषित किया गया है! अर्थतंत्र के बारे में की जा रही चिंताओं को निराशावाद बताया जा रहा है और मंदी को वैश्विक अर्थतंत्र में चल रही प्रवृत्तियों के मत्थे मढ़ दिया गया है.

यह पहली बार है कि आरएसएस के स्थापना दिवस के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि कारपोरेट जगत से किसी को बनाया गया – हिंदुस्तान कंप्यूटर्स लिमिटेड के मालिक खरबपति व्यवसायी श्री शिव नाडार ने आकर मोदी सरकार की तारीफ की और मोदी सरकार की ‘न्यूनतम शासन’ की लाइन की पैरवी की, जो वास्तविक जीवन में ‘अधिकतम निजीकरण’ का भला सा नाम है. नागपुर में आरएसएस के मुख्यालय का दौरा करना अब बड़ी तेजी से भारत के जाने-माने कारपोरेट चेहरों की पसंदीदा तीर्थयात्रा बनता जा रहा है – अगर अडानी और अम्बानी मोदी सरकार से सर्वाधिक सुविधाएं बटोर ले रहे हैं, तो उधर रतन टाटा और राहुल बजाज जैसे परम्परागत व्यवसायी सम्राट भी नागपुर के सत्ता केन्द्र को खुश करने में लगे हैं.

मोदी की ह्यूस्टन में “सब कुछ ठीक-ठाक है” की नाटकबाजी से लेकर भागवत के नागपुर में भाषण तक, जिनमें मोदी-शाह जोड़ी के शासन में देश में बिगड़ती सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जलवायु के बारे ज्यादा से ज्यादा भारतीयों द्वारा अपनी चिंताएं जाहिर किये जाने को तुच्छ सी बात करार दिया गया है, संघ-भाजपा प्रतिष्ठान भारत की गुलाबी तस्वीर चित्रित करने में व्यस्त है जबकि करोड़ों भारतवासी न्यूनतम आजीविका पाने और बुनियादी मानवीय सम्मान एवं अधिकार हासिल करने के लिये लड़ाई लड़ रहे हैं. चाहे भारतीय अर्थतंत्र की संकटपूर्ण स्थिति हो या फिर कश्मीर घाटी के लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार देने से पूरी तरह इन्कार और उनको गुलामों की तरह कैद में डालना, या फिर पटना जैसे शहर में लगातार बारिश के बाद बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होना – भारत की वास्तविक स्थिति यकीनन बहुत ज्यादा संगीन और विस्फोटक है, जिसे मोदी-शाह-भागवत के छलावे भरे और धूर्ततापूर्ण भाषणों द्वारा नहीं टाला जा सकता है.

ज्यों ज्यों दिन गुजर रहे हैं, संघ-भाजपा प्रतिष्ठान भारत को चरम और सर्वव्यापी विध्वंस के दलदल की गहराई में धंसाता जा रहा है. भारत को इसके खिलाफ जवाबी लड़ाई लड़नी होगी और हर सम्भव उपाय अपनाकर इस विध्वंस पर जीत हासिल करनी होगी.