वर्ष - 28
अंक - 30
13-07-2019

मोदी शासन ने बारंबार ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ अथवा ‘एक राष्ट्र एक भाषा’ के अपने संघी एजेंडा को घुसाने की कोशिश की है. 2014 में मोदी शासन ने अपनी पहली पारी में सबसे पहले जो काम किये उनमें से एक था यह कि उसने तमाम केंद्रीय मंत्रियों,  विभागों, निगमों या बैंकों से अपने-अपने सोशल मीडिया अकाउंट में हिंदी को प्राथमिकता देने का निर्देश दे डाला. इसके बाद इस सरकार ने मंत्रियों, राज्यपालों और अन्य विशिष्ट लोगों को अपना भाषण हिंदी में देने को कहा. भाजपा नेता और तत्कालीन मंत्री वेंकैया नायडू – जो तेलुगू भाषी हैं – ने हिंदी में कहा था, “हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है”. यह बयान गलत था, क्योंकि भारत में कोई एक “राष्ट्रीय” भाषा है ही नहीं. मोदी शासन-1 में विदेश मंत्री रहीं सुषमा स्वराज ने कहा था कि उनकी सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी को “आधिकारिक दर्जा” दिलाने की कोशिश कर रही है, जिसका मतलब यह हुआ कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा है. पहली पारी में मोदी शासन ने तमिलनाडु में हाइवे (उच्च पथों) पर गड़े मील के पत्थरों पर अंग्रेजी की जगह हिंदी लिखवाने का प्रयास किया. अब, अपनी दूसरी पारी में भी खबर है कि मोदी सरकार अपनी नई शिक्षा नीति के मार्फत हिंदी एजेंडा उठाने की कोशिश कर रही है – इस नीति में पूरे भारत के स्कूलों में अभी लागू दो-भाषा के फार्मूले को हटाकर तीन-भाषा वाला चलाने की सिफारिश की गई है. फिलहाल तो मोदी सरकार ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया है. लेकिन गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा लादने के चोरी-छिपे प्रयास जारी हैं.

तथ्य तो यह है कि “हिंदी” – यानी, सरकारी कामों में प्रयोग किया जाने वाला हिंदी संस्करण – तथाकथित “हिंदी बेल्ट” में भी बोली जाने वाली स्वाभाविक भाषा नहीं है. वह तो हिंदी-उर्दू अथवा हिंदुस्तानी बोली का एक संस्कृतनिष्ट अपभ्रंश है. इस बात को समझने के लिए, कि फारसी अथवा अरबी मूल शब्दों को हटाकर यह संस्कृतनिष्ठ “सरकारी” हिंदी कैसे अस्तित्व में आई, हमें भारतीय राष्ट्रवाद के साथ-साथ हिंदू तथा हिंदी राष्ट्रवाद पर भी एक नजर डालनी होगी.

हिंदी राष्ट्रवाद का इतिहास

बरतानवी औपनिवेशिक ताकतें हिंदू और उर्दू को अलग-अलग ध्रुरवीकृत करना चाहती थीं – हिंदी को हिंदुओं के साथ और उर्दू को मुसलमानों के साथ जोड़कर. इसके बावजूद, हिंदुस्तानी भाषा – जो कृत्रिम रूप से संस्कृतनिष्ठ बनाई गई “हिंदी” और फारसीनिष्ठ बनाई गई उर्दू के विपरीत एक जीवंत भाषा थी – पनपी और फूली-फली. 1920 और 1930 के दशकों में हिंदी और हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति भारतीय राष्ट्रवाद पर हावी होने की जद्दोजहद करने लगी. 1905 में बाल गंगाधर तिलक ने सुझाव दिया कि देवनागरी (‘नागरी’) लिपि में हिंदी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आधिकारिक भाषा बना दिया जाए. 1939 में हिंदू महासभा ने मांग उठाई कि ‘हिंदुस्तानी’ नहीं, बल्कि ‘हिंदी’ को भारत की “राष्ट्रीय भाषा” बनाया जाए. यह विवाद फैलते-फैलते संविधान सभा में भी पहुंच गया. ऐतिहासिक रूप से, नेहरू और गांधी अंग्रेजी के साथ-साथ नागरी और फारसी, दोनों लिपियों में “हिंदुस्तानी” को आधिकारिक भाषा बनाने की वकालत करते थे; लेकिन उनकी सलाह नागरी लिपि में “हिंदी” के हक में अमान्य कर दी गई. हिंदू-हिंदी, राष्ट्रवादी गुट यह लड़ाई जीत गया.

नवंबर 1949 में आॅल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) ने अचानक “हिंदुस्तानी में समाचार” की जगह “हिंदी में समाचार” कहना शुरू कर दिया. प्रसारण (ब्राॅडकास्टिंग) के लिए उपयोग की जाने वाली भाषा भी बदल दी गई – इतनी बदली गई कि 1948 में नेहरू ने शिकायत कर दी कि वे अंग्रेजी में दिए गए अपने भाषण का प्रसारण के लिए किया गया हिंदी अनुवाद नहीं समझ पा रहे हैं.

हिंदी और उर्दू, दोनों में लिखने वाले विख्यात हिंदी लेखक प्रेमचंद के पोते आलोक राय ने बारंबार यह बताया कि आधिकारिक संस्कृतनिष्ठ हिंदी ब्राह्मणवादी हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति की उपज है और उसका संवाहक भी है. आलोक राय ने ‘ट्रैक्ट्स फाॅर द टाइम्स’ सीरीज (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2000) के लिए ‘हिंदी नेशनलिज्म’ नामक एक छोटी किताब लिखी, जिसमें जन-भाषा हिंदी के प्रति “हिंदी” (शुद्ध हिंदी) के नाम पर संस्कृतवादी कब्जावरों द्वारा किए गए अत्याचार की पड़ताल की गई थी. उस किताब में दिखाया गया है कि कैसे “19वीं सदी के अंतिम हिस्से में भारतीय और हिंदी राष्ट्रवाद ने आपस में गुंथ कर अति-संस्कृतनिष्ठ “शुद्ध हिंदी” को जन्म दिया जो आज भारत की सरकारी भाषा बन गई है और जो हमारी शिक्षा-प्रणाली की तह तक पहुंच गई है.”

राय ने दिखाया है कि ‘नागरी’ (वह लिपि जिसमें आज हिंदी लिखी जाती है) का पुराना नाम वास्तव में ‘बाभरी’ था, जो ब्राह्मणों की लिपि थी. शुरू में ‘कैथी’ और ‘बाभनी’ के बीच लड़ाई थी कि ‘हिंदुस्तानी’ के लिए फारसी के बजाय “भारतीय” लिपि का इस्तेमाल किया जाए – और इस लड़ाई में बाभनी (नागरी) की जीत हुई. (‘अ डिबेट बिटविन आलोक राय एंड शाहिद अमीन रिगार्डिंग हिंदी, तहलका का इंटरनेट संस्करण).

1960 के दशक में, जहां उत्तरी भारत में हिंदीभाषियों पर अंगजी लादने के खिलाफ लोहियावादी-समाजवादी अंगज्री-विरोधी आंदोलन चले, वहीं तमिलनाडु में हिंदी लादने के खिलाफ हिंदी-विरोधी आंदोलन भी उठ खड़े हुए थे. यह रोचक बात है कि जब ये हिंदी-अंग्रेजी-तमिल संघर्ष केंद्र-स्थल में आ रहे थे, तब कई जगहों पर अन्य भाषाई झगड़े भी सामने आए. 1969 में पंजाब से टूटकर हरियाणा बनने के बाद वहां हरियाणवी के बाद द्वितीय आधिकारिक भाषा के बतौर पंजाबी को लोग नापसंद करने लगे और वहां तमिल को अपना लिया गया ! हरियाणा के सरकारी स्कूलों में तमिल की पढ़ाई होती है.

आलोक राय हिंदी (उत्तरी भारत में बोली जाने वाली जीवंत गतिशील, सृजनात्मक संपर्क भाषा) को उस “हींदी” से अलग करते हैं जो बांझ, संस्कृतनिष्ठ, फारसी-मुक्त भाषा है और जो वर्चस्वशाली राजनीति एजेंडा की खातिर उत्तर भारतीय सवर्ण कुलीन वर्ग के द्वारा गढ़ी गई है. दुख की बात यह है कि स्कूलों में यही “हिंदी” पढ़ाई जाती है.

आधिकारिक “हिंदी” उत्तर भारत के लिए भी पराई और डरावनी है.

“हिंदी” का लादा जाना सिर्फ पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल या कर्नाटक के लिए ही चिंता का विषय नहीं है. आधिकारिक संस्कृतनिष्ठ “हिंदी” उत्तर भारत के विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी जितनी ही पराई है.

‘हिंदी नेशनलिज्म’ में आलोक राय दिखाते हैं कि “स्कूली हिंदी” किस तरह उत्तर भारत में भी डरावनी चीज है. वे लिखते हैं, “खुद हिंदी बेल्ट में हिंदी में फेल करने वाले छात्रों की भारी तादाद इस बात की दुखद साक्षी है कि इस “हिंदी” ने उनसे अपनी मातृ भाषा को छीन लिया है.”

एक कहावत है, “कोस कोस पर बदले पानी, और चार कोस पर बानी”. चीन के फूजियान प्रांत में ऐसी ही एक कहावत है, “अगर आप फूजियान में चार मील चलो तो वहां संस्कृति बदल जाएगी, और 10 मील चलो तो भाषा बदल जाएगी.”

आधिकारिक हिंदी को भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, वज्जिका, बुंदेली, अवधी, संथाली, गोंडी आदि बोलियों (उपभाषाओं) से घिन आती है और उन छात्रों पर लानत भेजती है जो अपनी मातृभाषा के रूप में इन बोलियों का प्रयोग करते हैं. राय तर्क करते हैं कि ऐसे छात्रों के लिए “हिंदी” गरीब आदमी की ‘अंग्रेजी’ जैसी चीज हो गई है – सत्ता और ऊंचा उठने के लिए जरूरी भाषा !

जब मैथिली ने यह अधिकार जताया कि साहित्य अकादमी जिन भाषाओं में पुरस्कार देती है, उन भाषाओं की सूची में उसे भी शामिल किया जाए, तो राय कहते हैं कि “हिंदी वाले काफी घबड़ा गए क्योंकि पिछले कई दशकों से यही भ्रम बरकरार रखा गया था कि मैथिली तो हिंदी की ही एक उपभाषा है. जिस क्षण यह इतिहास सामने आया कि किस तरह उपभाषाओं को मानक हिंदी में समाहित कर लिया गया है, तो झगड़े का पूरा इतिहास भी खुलकर जाहिर हो गया. और वे नहीं चाहते थे कि यह इतिहास खुलकर सामने आए, इसीलिए वे इसे इतना ढक-तोप कर रखे हुए थे.” (‘अ डिबेट बिटविन आलोक राय एंड शाहिद अमीन रिगार्डिंग हिंदी).

राय तर्क देते हैं कि “हिंदी” वास्तव में हिंदी की सबसे बड़ी दुश्मन है. वे कहते हैं कि उत्तर भारत की उन अन्य बोलियों – तथाकथित “उपभाषाओं” (जिनके लिए जीएन देवी ने भाषा शब्द को ही पसंद किया है) के साथ फिर से जोड़ कर ही हिंदी में जान फूंकी जा सकती है, क्योंकि ये बोलियां ही वास्तव में समृद्ध, जीवंत भाषा हैं जिनमें सृजनात्मक अभिव्यक्ति संभव है.

राय अपनी किताब के अंत में नक्सलपंथी हिंदी कवि धूमिल का उद्धरण देते हैं जिन्होंने 1965 में ‘भाषा की रात’ शीर्षक से एक कविता लिखी थी. राय लिखते हैं कि यह गौरतलब है कि 1965 में उत्तर और दक्षिण भारत में ध्रुवीकृत अंग्रेजी-विरोधी और हिंदी-विरोधी आंदोलनों के उफान के बीच धूमिल ने पूरी संवेदनशीलता के साथ लिखा :

“हाय! जो असली कसाई है?/उसकी निगाह में/तुम्हारा यह तमिल-दुःख/मेरी इस भोजपुरी-पीड़ा का/भाई है/भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है/जो सड़क पर और है/संसद में और है/इसलिये बाहर आ!/संसद के अंधेरे से निकलकर/सड़क पे आ!/भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक कर/आ, आ अपने चौदहों मुंहों से बोलते हुए.”

आगे का रास्ता

राय ने लिखा कि “‘हिंदी की राष्ट्रीय हैसियत’..... प्रतीकात्मक बनी रहने को बाध्य है. (और) यकीनन ऐसा तब तक बना रहेगा, जब तक कि वह खुद के अनुरूप एक ‘राष्ट्र’ – हिंदू सवर्ण, ब्राह्मणवादी, शुद्ध ... – न बना ले ” (‘हिंदी राष्टंवाद’). मोदी शासन के अंतर्गत, निश्चय ही, आरएसएस पूरी कोशिश कर रहा है कि भारत को वैसा ही अपने सपनों का हिंदू सवर्ण, ब्राह्मणवादवादी ‘राष्ट्र’ बना दिया जाए. और यही वजह है कि, चाहे नई शिक्षा नीति हिंदी लादने की कोशिश करे या न करे, मोदी शासन हमेशा ही हिंदी लादने के अपने एजेंडा को घुसेड़ने का प्रयास करता रहेगा. इसका प्रतिरोध करने के लिए यह महत्वपूर्ण तो है, मगर काफी नहीं, कि गैर-हिंदी भाषाओं की भाषाई गरिमा व पहचान के लिए दावेदारी जताई जाए. अहम बात यह है कि हिंदी थोपने के खिलाफ यह संघर्ष तमिलनाडु, केरल या यहां तक कि पश्चिम बंगाल और असम तक ही सीमित न रहे. ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के खिलाफ मजबूत संघर्ष के एक अंग के बतौर समूचे भारत में हिंदी लादने के खिलाफ संघर्ष विकसित करना जरूरी है. इस किस्म के संघर्ष के दौरान आप्रवासी मजदूरों के जरिए विभिन्न भाषाओं के स्वाभाविक प्रवाह (चाहे वे उत्तर पूर्व और जम्मू-कश्मीर में बंगाली और हिंदी भाषी मजदूर हों, तमिलनाडु और कर्नाटक में हिंदी भाषी श्रमिक हों, अथवा मुंबई और दिल्ली में तमिल या भोजपुरी बोलने वाले प्रवासी मजदूर हों) का सम्मान किया जाना चाहिए. इस तरह के संघर्ष में हर बच्चे के इस अधिकार की दावेदारी होनी चाहिए कि उसे अपनी ही मातृभाषा में स्कूली शिक्षा मुहैया कराई जाए. ऐसे संघर्ष के दौरान उत्तर भारत के स्कूलों में ऐच्छिक भाषाओं के बतौर तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगू और उर्दू की पेशकश की जानी चाहिए. इस किस्म के संघर्ष में संपूर्ण भारत में व्याप्त और भारत के हर अंचल व राज्य में मौजूद भाषा, संस्कृति, आस्था व भोजन-पानी की विविधता को आत्मसात करना होगा. इसे प्रवासी मजदूरों तथा बीफ के नाम पर मुस्लिमों के खिलाफ होने वाली हिंसा का, और साथ ही साथ हिंदी लादने का भी प्रतिरोध करना होगा.”

क्या किसी अनिवार्य राजकीय भाषा का होना जरूरी है ?

वी. आई. लेनिन
( संपूर्ण भारत में हिंदी को सरकारी भाषा के रूप में लादने को लेकर चल रहे विवाद की रोशनी में हम यहां रूस में अनिवार्य राजकीय भाषा लादे जाने के खिलाफ 1914 में प्रकाशित लेनिन की एक वाद-विवाद मूलक छोटी टिप्पणी प्रस्तुत कर रहे हैं जो आज के भारत में हम लोगों को भी अंतर्दृष्टि प्रदान करती है – सं )

प्रतिक्रियावादियों से उदारतावादियों का फर्क यह है कि ये लोग कम से कम प्राथमिक विद्यालयों में वहां की स्थानीय भाषा में शिक्षण के अधिकार को मान्यता देते हैं. लेकिन ये लोग प्रतिक्रियावादियों से एकमत हैं कि एक अनिवार्य राजकीय भाषा का होना जरूरी है.

अनिवार्य राजकीय भाषा का क्या मतलब होता है ? व्यवहार में इसका मतलब यह है कि “विराट रूसियों”, जो रूस की संपूर्ण आबादी का अल्पसंख्यक हिस्सा हैं, की भाषा को रूस की अन्य तमाम आबादी पर लाद दिया जाए. हर स्कूल में राजकीय भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य बना दिया जाएगा. तमाम सरकारी कामकाज स्थानीय आबादी की भाषा में नहीं, बल्कि इस राजकीय भाषा में किए जाएंगे.

अनिवार्य राजकीय भाषा की वकालत करने वाली पार्टियां किस आधार पर इसकी जरूरत को उचित बताती हैं?

“यमदूत सभाइयो” (ब्लैक हंड्रेडस) का तर्क यकीनन कठोरतापूर्ण है. वे कहते हैं : तमाम गैर-रूसियों पर सख्ती से शासन किया जाना चाहिए, ताकि वे हाथ से बाहर न निकल सकें. रूस को अखंड रखना होगा और तमाम आबादियों को “विराट रूसी” शासन के अधीन रहना पड़ेगा, क्योंकि ये “विराट रूसी” ही हैं जिन्होंने रूस देश का निर्माण किया है और इसे एकताबद्ध किया है. इसीलिए, शासक वर्ग की भाषा ही अनिवार्य राजकीय भाषा होगी. पुरुश्केविच जैसे लोग तो “स्थानीय भाषाओं” को प्रतिबंधित किए जाने का भी बुरा नहीं मानेंगे, जो भाषाएं रूस की 60 प्रतिशत आबादियों द्वारा बोली जाती है.

उदारतावादियों का रवैया थोड़ा अधिक “सभ्य” और “परिष्कृत” है. वे लोग कुछ खास हद तक (मसलन, प्राथमिक विद्यालयों में) स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल की इजाजत देते हैं. साथ ही, वे अनिवार्य राजकीय भाषा की भी वकालत करते हैं, जो उनके शब्दों में “संस्कृति” के हक में, “एकताबद्ध” और “अखंड” रूस के हित में आवश्यक है, आदि आदि.

“राज्य की स्थिति (स्टेटहुड) सांस्कृतिक एकता की अभिपुष्टि है. ... एक राजकीय भाषा राज्य संस्कृति का मौलिक अंग है. ... राज्य का अस्तित्व प्राधिकार की एकता पर निर्मित होता है. राज्य के अस्तित्व के अन्य रूपों की भांति यह राजकीय भाषा भी उसी किस्म की अनिवार्य और सार्विक रूप से उत्पीड़नकारी शक्ति रखती है...”

“अगर रूस को एकताबद्ध और अखंड बने रहना है, तो हमलोगों को रूसी साहित्यिक भाषा की राजनीतिक समीचीनता पर दृढ़तापूव र्क  जोर देना होगा.”

राजकीय भाषा की जरूरत के बारे में किसी उदारवादी का यही विशिष्ट दर्शन है.

उपर्युक्त उद्धरण हमने उदारतावादी अखबार ‘द् येन’ (अंक-7) में प्रकाशित श्रीमान् एस. पत्राश्किन के लेख से लिए हैं. इसकी वजह बिलकुल समझ में आती है कि यमदूत सभाई पत्रिका ‘नोवोये व्रेम्या’ ने इन विचारों के लेखक को गर्मजोशी भरे चुंबन का पुरस्कार दिया. मेंशिकोव के अखबार (अंक 13588) ने लिखा कि श्रीमान् पत्राश्किन ने “बहुत उत्तम विचार” जाहिर किए हैं. ऐसे ही बहुत “उत्तम” विचारों के लिए यमदूत सभाई एक दूसरे अखबार राष्ट्रीय-उदारवादी रुस्सकाया मिस्ल की भी लगातार तारीफें करते हैं.  और वे कैसे ये तारीफें करते हैं, जबकि अपने “सभ्य” तर्कों के सहारे ये उदारवादी ऐसी चीजों की पैरवी करते हैं जो ‘नोवोये व्रेम्या’ लोगों के लिए इतना प्रिय है?

उदारवादी लोग हमें बताते हैं कि रूसी भाषा महान और सामर्थ्यवान भाषा है. क्या आप नहीं चाहते हैं कि रूस के सीमा क्षेत्रों में रहने वाला हर व्यक्ति इस महान और सामर्थ्यवान भाषा को जाने ? क्या आप यह नहीं समझते हैं कि रूसी भाषा से गैर-रूसियों का साहित्य समृद्ध होगा और संस्कृति के विशाल भंडार तक उनकी पहुंच बनेगी, आदि इत्यादि ?

हम उदारवादियों के जवाब में कहते हैं – यह सब तो सच है, भद्र लोगों. हम आपसे बेहतर जानते हैं कि तुर्गनेव, तोल्सतोय, दोब्रोल्युनोव और चेर्निशेव्स्की की भाषा महान और सामर्थ्यवान भाषा है. हम आपसे ज्यादा यह चाहते हैं कि रूस में रहने वाले तमाम राष्ट्रों के उत्पीड़ित वर्गों के बीच निकटतम संभव आदान-प्रदान हो और भाईचारापूर्ण एकता बने. और, बेशक, हम इस बात के पक्ष में हैं कि रूस के प्रत्येक निवासी को महान रूसी भाषा तक पहुचंने का मौका मिले.

हम जो बात नहीं चाहते. वह है उत्पीड़न का तत्व. हम नहीं चाहते हैं कि लोगों को लाठी मार कर स्वर्ग में खदेड़ा जाए; क्योंकि चाहे आप “संस्कृति” के बारे में कितने ही सुंदर मुहावरे बोलें, अनिवार्य राजकीय भाषा में उत्पीड़न का तत्व शामिल रहता है, लाठी का इस्तेमाल शामिल रहता है. हम ऐसा नहीं सोचते हैं कि महान और सामर्थ्यवान रूसी भाषा के लिए यह जरूरी है कि कोई इसे बाध्यतावश अध्ययन करे. हम अच्छी तरह समझते हैं कि रूस में पंजूीवाद का विकास और आम तौर पर सामाजिक जीवन का पूरा दौर तमाम राष्ट्रों को नजदीक से नजदीकतर लाने की ओर उद्धत है. सैकड़ों हजार लोग रूस के एक सिरे से दूसरे सिरे की ओर आवाजाही कर रहे हैं; विभिन्न राष्ट्रीय आबादियां परस्पर घुलमिल रही हैं, पार्थक्य और राष्ट्रीय रूढ़िवादिता अवश्य खत्म हो जाएंगे. जिन लोगों का जीवन और कार्य स्थितियां उनके लिए रूसी भाषा को जानना जरूरी बना देगी, वे लोग उन्हें बाध्य न किए जाने पर भी यह भाषा सीख लेंगे. लेकिन उत्पीड़न का एक ही नतीजा होगा: इससे महान और सामर्थ्यवान रूसी भाषा के अन्य राष्ट्रीय समूहों में फैलने की राह में बाधाएं पैदा होंगी; और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इससे वैर-भाव तीखा हो जाएगा, अनेकानेक रूपों में टकराव उत्पन्न होंगे विक्षोभ और आपसी गलतफहमियां बढ़ेंगी, आदि इत्यादि.

कौन लोग इस तरह की चीज चाहते हैं ? रूसी जनता नहीं, रूसी लोकतंत्रवादी नहीं. ये लोग किसी भी रूप में, यहां तक कि “रूसी संस्कृति और राज्यत्व के हित में” भी राष्ट्रीय उत्पीड़न को मान्य नहीं करेंगे.

इसी वजह से रूसी मार्क्सवादी कहते हैं कि कोई अनिवार्य राजकीय भाषा नहीं होनी चाहिए, कि विभिन्न आबादियों के लोगों को ऐसे स्कूल मुहैया कराए जाएं जहां तमाम स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई की जाए, कि संविधान में एक मौलिक कानून यह शामिल किया जाए जो किसी एक राष्ट्र के तमाम विशेषाधिकारों को और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों के तमाम उल्लंघनों को अवैध घोषित कर दे.