वर्ष - 30
अंक - 41
09-10-2021


-- क्लिफ्टन डी रोजेरियोजाति

भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक असमानताओं के रूप में जाति प्रकट होती है; फिर भी दलितों और आदिवासियों (सरकारी शब्दावली में, एससी और एसटीद) की जनगणना – जो हर दस साल में (सबसे हाल में 2011 में) संपन्न की जाती है – को छोड़कर कोई आधिकारिक जाति जनगणना मौजूद नहीं है. दरअसल, मुकम्मल जातीय जनगणना 90 साल पूर्व 1931 में की गई थी. इधर, अंतिम जाति जनगणना – सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना, 2011 (एसईसीसी) – की कोशिशें 2011 में चलाई गई थीं, जिसका मकसद था जातीय जनगणना करने के साथ-साथ ग्रामीण व शहरी परिवारों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का पता लगाना; लेकिन इस प्रयास को चुपचाप दबा दिया गया. जातीय आंकड़ों को छोड़ते हुए एसईसीसी के इन आंकड़ों को 2016 में दो मंत्रालयों के द्वारा अंतिम रूप दिया गया और उन्हें प्रकाशित कराया गया. कच्चे जातीय आंकड़ों को सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय को सौंपा गया, जिसने उन आंकड़ों के वर्गीकरण और श्रेणीकरण के लिए ‘नीति’ आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगारिया के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया. उसके बाद मामला ठप्प पड़ गया.

यहां दो महत्वपूर्ण सवाल पैदा होते हैं: पहला, जातीय जनगणना की जरूरत क्यों हुई? और दूसरा, 1931 के बाद से यह जनगणना क्यों नहीं चलाई गई?

प्रथम दृष्टया, जातीय जनगणना का औचित्य यह है कि जातियों और आबादियों के विस्तृत विवरण तथा उनके सामाजिक पिछड़ेपन और उनकी शैक्षिक व आर्थिक स्थितियों के बारे में आंकड़ों के संग्रह से वर्गीय/जातीय असमानताओं से निपटने के लिए मुकम्मल खाका तैयार करने का ठोस आधार मिल सकता है. असल में देखा जाये तो जातीय जनगणना से हासिल जातियों के आंकड़े आरक्षण के रूप में संविधान द्वारा स्वीकृत सामाजिक सुधारों के उदारवादी दिखावों के मद्देनजर, और कार्यक्रम निर्माण के लिए भी, काफी अहमियत रखते हैं. बहरहाल, जातीय सर्वेक्षण की ढांचागत और राजनीतिक जरूरतें अपरिहार्य हैं.

जाति, वर्गीय गतिशीलता और गरीबी

भारत में चरम किस्म की गरीबी लगातार बढ़ती जा रही है, और यह देश दुनिया में गरीब आबादी का सबसे बड़ा आवास बनता जा रहा है. रंगराजन समिति द्वारा गरीबी रेखा के निर्धारण (गरीबी रेखा का निर्धारण शहरों में 1407 रुपये और गांवों में 972 रुपये प्रति व्यक्ति मासिक खर्च पर किया जाता है) को मानकर चलें, तो यह अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्ष 2021-22 में लगभग 51-56% ग्रामीण आबादी और 40-43% शहरी आबादी गरीब है. इस प्रकार, गरीबी मापने के भारतीय राज्य के अत्यंत निम्न मानकों के अनुसार भी देश में व्यापक रूप में गरीबी छाई हुई है. इसका मतलब यह हुआ कि भारतीयों की अधिकांश आबादी को अपर्याप्त भोजन व निम्न कोटि के आवास हासिल हैं, उन्हें समुचित स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाएं नहीं मिलती हैं और वे अमानवीय व अस्वास्थ्यकर स्थितियों में अत्यंत असुरक्षित जीवन बिताते हैं.

ये गरीब कौन हैं? भारत में आय और संपत्ति विषमता पर एक अध्ययन इस पर रोशनी डालता है:

संपूर्ण आबादी में एससी/एसटी/ओबीसी के प्रतिशत के मुकाबले संपत्ति के स्वामित्व और उपभोग में उनका प्रतिशत काफी कम है.

भारत में औसत पारिवारिक आमदनी 1,13,222 रुपये थी. प्रभुत्वशाली जाति समूह में ब्राह्मणों की आमदनी राष्ट्रीय औसत से 48 प्रतिशत अधिक थी, जबकि गैर-ब्राह्मण प्रभुत्वशाली जातियों की आमदनी इस औसत से 45% अधिक थी. दूसरी ओर, एसटी और एससी जातियों की आय राष्ट्रीय औसत से क्रमशः 34 और 21% कम थी. ओबीसी समूह की आमदनी राष्ट्रीय औसत से 8 प्रतिशत कम थी.

संपत्ति स्वामित्व के मामले में – 50% ब्राह्मण, 31% राजपूत, 44% बनिया और 57% कायस्थ सबसे धनी श्रेणी में आते हैं. अन्य जाति समूहों में सिर्फ 5% एसटी, 19% एससी और 16% ओबीसी सबसे धनी श्रेणी में आते हैं.

एक दूसरे अध्ययन (‘वेल्थ इनइक्वलिटि, क्लास एंड कास्ट इन इंडिया, 1961-2021’) में निष्कर्ष निकाला गया कि सकल राष्ट्रीय परिसंपत्ति का 41% सवर्ण हिंदुओं के स्वामित्व में, 31% ओबीसी, 7.6% एससी और 3.7% एसटी के स्वामित्व में है. संपत्ति के स्वामित्व और उपभोग के उच्च्तर संस्तरों में एससी/एसटी/ओबीसी की हिस्सेदारी पिछले 40 वर्षों में घटी है. वस्तुतः, वर्ग की ऊर्ध्व गतिशीलता भी एक जातीय कारक ही है. यह असमानता का भारतीय स्वरूप है.

बाबा साहब अंबेडकर के अनुसार, जाति और वर्ग एक दूसरे के करीबी पड़ोसी हैं – जाति एक समावृत (एनक्लोज्ड) वर्ग है (‘कास्ट इन इंडिया’). जाति, श्रेणीक्रम और ओहदा बुनियादी सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का नियमन करते हैं. इसमें आश्चर्य नहीं कि आर्थिक हैसियत जाति श्रेणीक्रमबद्धता का अनुगमन करती है (प्रभुत्वशाली जातियों के बीच आर्थिक रूप से वंचित तबकों के चंद अपवादों को छोड़कर) और आमदनी/संपत्ति का वितरण जातीय श्रेणीक्रम को प्रतिबिंबित करता है. गरीब लोग प्रमुखतः एससी/एसटी/ओबीसी समुदायों से आते हैं; जबकि उच्च्तर सामाजिक वर्गों में ज्यादातर प्रभुत्वशाली जातियों के लोग पाये जाते हैं.

आधुनिकीकरण ने जाति और वर्ग के बीच के रिश्ते को खत्म करना तो दूर, उसे पर्याप्त रूप से कमजोर भी नहीं किया है. नव-उदारवाद ने न केवल जातीय श्रेणीबद्धता को बरकरार रखा है, बल्कि इसकी नई-नई अभिव्यक्तियों के लिए जमीन भी तैयार की है जिससे ऊर्ध्व गतिशीलता की संभावना और भी सीमित हो गई है. इससे नव-उदारवाद के पैरोकारों का यह दावा झूठ साबित हो जाता है कि पूंजीवाद ने ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों के आर्थिक सशक्तीकरण को अंजाम दिया है. सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि मुकेश अंबानी, जिन्होंने कोविड महामारी के दौरान 90 करोड़ रुपया प्रति घंटा की दर से कमाया, ने आर्थिक उदारीकरण के 30 वर्ष के अवसर पर एक काॅलम में दुख प्रकट करते हुए लिखा कि भारत में तीस वर्षों के उदारीकरण ने नागरिकों को असमान रूप से फायदा पहुंचाया है, और कि विकास के “भारतीय माॅडल” की जरूरत है जिसमें पिरामिड के निचले तल पर संपत्ति निर्माण के लिए कोशिशें केंद्रित की जा सकें!

केंद्र और राज्यों में एक के बाद दूसरी बनने वाली सरकारों की विफलता यह संकेत करती है कि प्रभुत्वशाली जातीय हित सम्मिलित होकर आम राजनीतिक सहमति का निर्माण करते हैं. वस्तुतः, जाति-आधरित जनगणना से यह पता चल जाता कि इस उदारीकरण के चलते प्रभुत्वशाली जातयिों ने समाज के अन्य ऐतिहासिक रूप से अधीनस्थ तबकों की कीमत पर कितना लाभ बटोरा है.

जातीय उन्माद

भारत के इतिहास में सांस्कृतिक और राजनीतिक, दोनों तरह से कर्नाटक का एक प्रमुख स्थान रहा है. कर्नाटक 3 अंचलों में बंटा हुआ है – बंबई कर्नाटक, कल्याण कर्नाटक और दक्षिणी कर्नाटक. [कल्याण कर्नाटक को पहले बंबई कर्नाटक के बतौर जाना जाता था जिसमें सात जिले आते थे. 17 सितंबर 2019 को कर्नाटक सरकार ने हैदराबाद कर्नाटक अंचल को कल्याण कर्नाटक का नाम दे दिया. हैदराबाद कर्नाटक में 6 जिले और दक्षिणी कर्नाटक में शेष 7 जिले आते हैं] आर्थिक संवृद्धि और मानव विकास के लहाज से इन अंचलों में काफी विषमताएं मौजूद हैं. आबादी के मामले में कर्नाटक आठवां सबसे बड़ा राज्य है. 2011 की जनगणना के मुताबिक कर्नाटक की आबादी 6.11 करोड़ थी – धार्मिक लिहाज से, 5.1 करोड़ (84%) हिंदू, 78 लाख (12.92%) मुस्लिम, 11 लाख (1.78%) इसाई, 440280 (0.72%) जैन, 95710 (0.16%) बौद्ध और 28773 (0.05%) सिख. शेष 0.02% लोग अन्य धर्मों के थे और 0.27% लोगों ने अपना धर्म नहीं बताया था.

जैसा कि पहले बताया गया, 10 वर्ष में होने वाली जनगणना में एससी और एसटी की आबादी भी गिनी जाती है; और 2011 की जनगणना के मुताबिक कर्नाटक में एससी की आबादी कुल आबादी का लगभग 16.2% और एसटी की आबादी लगभग 6.6% थी.

जातीय आबादी का विवरण हमें ‘कर्नाटक तृतीय पिछड़ा वर्ग आयोग (जस्टिस ओ. चिनप्पा रेड्डी आयोग)’ की रिपोर्ट (अप्रैल 1990) में भी मिलता है. वेंकटस्वामी आयोग की रिपोर्ट (1984) को आधार बनाकर इस रिपोर्ट में वर्ष 1988 के लिए जातीय आबादियों को पेश किया गया है, जो इस प्रकार है: अनुसूचित जातियों की आबादी कुल जनसंख्या का 16.7% थी, लिंगायत 15.3%, मुस्लिम 11.7%, वोक्कालिगा 10.8%, अनुसूचित जनजाति 6.7%, कुरुबा 6.3%, ब्राह्मण 3.5% और इसाई 2.1% थे.

इन दिनों कर्नाटक में रूढ़िवादी जातीय राजनीति की जहरीली दावेदारी देखी गई है और इसके जरिये जातीय श्रेणीबद्धता तथा प्रभुत्वशाली जातियों के लिए विशेषाधिकारों को संस्थाबद्ध किया जा रहा है. ब्राह्मणों, मराठों और वीराशिव-लिंगायतों के लिए जाति-आधारित विकास बोर्ड स्थापित किए जा रहे हैं. ये जाति अैर उप-जाति समूह अब विशेष हैसियत और आरक्षण की मांग कर रहे हैं. कई दूसरी जातियां और उप-जातियां भी उनके स्वर में स्वर मिला रही हैं.

इन जातीय गोलबंदियों की अगुवाई उन जाति समूहों के धर्मिक नेता कर रहे हैं, तथा उन्हें तमाम किस्म के प्रमुख राजनीतिक नेताओं का समर्थन मिल रहा है. इससे उन्हें न सिर्फ राजनीतिक लाभ मिल रहा है, बल्कि उन जातियों की मोरचाबंदी भी मजबूत हो रही है. आरएसएस द्वारा की गई जातीय गोलबंदियों ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी चुनावी जीत दिलाई और बिहार में भी उनका कद बढ़ा दिया है. जातीय राजनीति कर्नाटक के लिये कोई नई बात नहीं है, किंतु धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के बीच हमलावर संश्रय एक नया दौर शुरू कर रहा है और उससे जातीय राजनीति को नित नए औजार मिल रहे हैं.

जातीय जनगणना ऐसा एजेंडा है जिसने कर्नाटक के दो सबसे प्रभुत्वशाली जातियों को एकजुट कर दिया है. ‘वोक्कालिगा वीराशिव-लिंगायत वेदिका’ का गठन हुआ है जिसका एकमात्र एजेंडा है कंठराज आयोग की जाति जनगणना रिपोर्ट (2016) को खारिज करना – राज्य सरकार भी इससे अपने पांव पीछे खींचने की जुगत कर रही है. इस रिपोर्ट से रिस कर बाहर आ रही कुछ बातों से पता चलता है कि इस राज्य की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों का अनुपात 19.5% है, मुस्लिम 16% हैं, जबकि लिंगायतों और वोक्कालिगों के अनुपात क्रमशः 14% और 11% हैं. ओबीसी में अकेले कुरुबा जाति का अनुपात 7% है, और अन्य ओबीसी जातियों का अनुपात 20% है. इससे यह विचार खंडित हो जाता है कि लिंगायत और वोक्कालिगा मिलकर कर्नाटक में संख्या के लिहाज से सबसे मजबूत जातियां हैं. इस प्रकार, यह रिपोर्ट काफी विस्फोटक है; और निस्संदेह, इस रिपोर्ट का प्रकाशन खासकर ‘अहिंदा’ राजनीति की संभावित उभार के मद्देनजर कर्नाटक के राजनीतिक विमर्श को पूरे तौर पर बदल दे सकता है.

इस राज्य की राजनीति और प्रशासन में जाति काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. और, जातीय राजनीति का मूल मकसद है जातियों को वाट बैंक में तब्दील करना और इसके सहारे सत्ता हासिल करना. लिंगायत और वोक्कालिगा जातियों ने यहां की राजनीति पर दबदबा बना रखा है, और इस राज्य के अधिकतर मुख्यमंत्री इन्हीं समुदायों से आते रहे हैं तथा शेष मुख्यमंत्री पिछड़े वर्गों के और ब्राह्मण रहे हैं. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से अबतक कोई मुख्यमंत्री नहीं बन पाए हैं. इस राज्य की 50% सांसद व विधायक सीटें इन्हीं दो जातियों के हिस्से में जाती रही हैं, चाहे सत्ता में कोई भी पार्टी क्यों न रही हो. राजनीतिक सत्ता पर इस एकाधिकार को एक बड़ी चुनौती सिद्धारमैया की ‘अहिंदा’ (अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों और दलितों के लिए कन्नड शब्दों का संक्षिप्त रूप) राजनीतिक विचारधारा की तरफ से मिल रही है. कर्नाटक में पिछड़े वर्गों के पहले नेता देवराज उर्स ने ‘अहिंदा’ शब्द गढ़ा है. ‘अहिंदा’ के जरिये उन्होंने जिस राजनीतिक संश्रय का निर्माण किया है, उसका जातीय संयोजन राज्य की राजनीति पर लिंगायतों और वोक्कालिगा समुदायों की अबतक की परंपरागत पकड़ का असरदार मुकाबला कर सकता है. कहा जाये तो, सिद्धाररमैया के इस ‘अहिंदा’ उभार के चलते ही 2013 में कर्नाटक के चुनावों में कांग्रेस को जीत मिली थी. हालांकि, एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि भाजपा से अलग होने के बाद येदियुरप्पा द्वारा गठित ‘कर्नाटक जनता पक्ष’ के मुख्य लिंगायत वोट काफी हद तक उससे खिसक गए थे. जेडी(एस) भी वोक्कालिगा समुदाय की ही पार्टी रही और उसने भी 2013 के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया. बाद में, येदियुरप्पा और श्रीरामुलु की भाजपा में वापसी तथा मोदी कारक ने 2018 के चुनावों में भाजपा को अच्छे नतीजे दिए. भाजपा के हिंदुत्व ने ‘अहिंदा’ पर जीत दर्ज की, और भाजपा ने न केवल लिंगायत वोटों को सुदृढ़ किया, बल्कि गैर-प्रभुतवशाली पिछड़े वर्गों तथा दलितों और आदिवासियों समेत अन्य हिंदुओं के वाटों पर भी कब्जा जमा लिया. कंठराज आयोग की रिपोर्ट अथवा जातीय जनगणना रिपोर्ट से यह सही-सही उजागर होगा कि कर्नाटक में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी वर्चस्वशाली लिंगायत व वोक्कालिगा समुदयों की आबादी से ज्यादा है; और इससे सिद्धारमैया के ‘अहिंदा’ राजनीतिक आन्दोलन को आवेग मिलेगा.

इसी के साथ, एससी का एक तबका, मडिगा समुदाय, जस्टिस एजे सदाशिव समिति रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रहा है. उस रिपार्ट में सभी अनुसूचित जातियों को चार समूहों – दायां समुदाय, बायां समुदाय, गैर-अछूत और अन्य अनुसूचित जातियां – में पुनर्वर्गीकृत करने तथा एससी को मिलने वाले सकल आरक्षण के समतामूलक विभाजन की अनुशंसा की गई है. 2012 में यह रिपोर्ट तत्कालीन मुख्यमंत्री सदानंद गौडा को सौंपी गई थी, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. मई 2018 में समाज कल्याण मंत्री बी. श्रीरामुलु ने कहा था कि एक कैबिनेट उप-समिति गठित की जाएगी जो सदाशिव समिति रिपोर्ट का अध्ययन करेगी, और फिर सरकार आंतरिक आरक्षणों के बारे में विचार करेगी; लेकिन इसके लिए उन्होंने कोई समय-सीमा तय नहीं की. यह अभी तक अस्पष्ट है कि इस दिशा में कोई प्रगति हुई है या नहीं.

इनके अलावा, जस्टिस एचएन नागमोहन आयोग रिपोर्ट (जुलाई 2020) भी है जिसमें एससी के लिए आरक्षण को मौजूदा 15% से बढ़ाकर 17% करने तथा एसटी के लिए आरक्षण को 3% से बढ़ाकर 7% करने की बात की गई है. अखबारी रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि आयोग की रिपोर्ट में उल्लेख है कि मौजूदा आरक्षण के बावजूद इन समुदायों के अच्छे-खासे हिस्से को प्राथमिक शिक्षा तक की सुविधा नहीं मिल पाती है और नतीजतन वे बेरोजगारी के शिकार बने हुए हैं. साथ ही, आयोग की रिपोर्ट में आंतरिक आरक्षण, क्रीमी लेयर तथा निजी क्षेत्र व प्रोन्नति में भी आरक्षण पर विचार किया गया है.

कर्नाटक में जातीय जनगणना के इर्द-गिर्द जो राजनीति खेली जा रही है, उससे हमें यह तो पता चलता ही है कि, अगर और जब भी, पूरे देश में जातीय जनगणना कराई जाएगी तो देश में कैसी परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है.

‘आर्थिक रूप से कमजोर तबके’ के लिए 10% आरक्षण के जरिये अगड़ी जातियों को फायदा देना

अगड़ी जातियों के बीच ‘आर्थिक रूप से कमजोर तबके’ के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण देने के भाजपा के प्रमुख विधायन (कानून) की रोशनी में जातियों के बीच, और उनके अंदर, आमदनी व संपत्ति की भारी असमानता काफी मायने रखती है. जनवरी 2019 में भाजपा ने एससी/एसटी/ओबीसी से इतर अन्य ‘गरीब तबकों’ के लिए इस 10% आरक्षण को लागू करने के मकसद से 103रा संविधान संशोधन किया.

ये आशंका सही है कि यह कोशिश आगे चलकर एससी/एसटी/ओबीसी कोटा को खत्म करने का दरवाजा खोलने की छुपी चाल है, जिसकी मांग आरएसएस लंबे समय से कर रहा है. इसकी एक वजह तो यह है कि इससे सिर्फ आर्थिक वंचना के आधार पर नहीं, बल्कि व्यवस्थाजन्य सामाजिक व शैक्षणिक भेदभाव और बहिष्करण की बुनियाद पर आरक्षण देने का संवैधानिक तर्क ही ध्वस्त हो जाएगा. दरअसल, यह तो जाति, सामाजिक हैसियत और आर्थिक शक्ति के बीच की कड़ी को ही मिटा देने की कोशिश है.

इसके अलावा, इससे उन समुदायों को भी आरक्षण मिल जाएगा जो आबादी के लिहाज से बहुत ही कम हैं. अभी कर्नाटक में एससी के लिए 15%, एसटी के लिए 3% और ओबीसी के लिए 32% आरक्षण की व्यवस्था है. इस आरक्षण के दायरे में मुस्लिम, इसाई और जैनियों समेत 101 अनुसूचित जातियां, 50 अनुसूचित जनजातियां और 207 ओबीसी आते हैं. ब्राह्मण, वैश्य और मुदलियार समेत मुट्ठी भर समुदाय ही हैं जिन्हें कर्नाटक में आरक्षण नहीं मिल रहा है, जिनका कुल आबादी में अनुपात बहुत कम है. राज्य में अपनी सम्मिलित संख्या के लिहाज से उन्हें अब ज्यादा ही आरक्षण मिल रहा है.

एक दूसरा पहलू भी है. हमने पहले देखा कि गरीबी मापने का मानक कितना संकीर्ण है. अब इसकी तुलना उस आर्थिक मानपदंड से कीजिए जो आरक्षण के लिए ‘आर्थिक रूप से कमजोर तबकों’ को निर्धारित करने हेतु बनाया गया है:

- 8,00,000 रुपया के कम वार्षिक अर्थात् 66,000 रुपया से कम मासिक आमदनी;

- जिनके पास 5 एकड़ से कम जमीन है, जिसके अंतर्गत लघु, सीमांत तथा अर्ध-मंझोली जोतें आती हैं जो कुल मिलाकर कृषि जोतों का 89% होती हैं;

- जिनके पास नगरपालिका क्षेत्र में 1000 वर्गफुट से कम का घर हो अथवा 900 वर्गफुट से कम की आवासीय जमीन हो, अधिकांश घर इससे कम रकबे के ही होते हैं.

इस प्रकार, यह मानदंड स्पष्टतः अगड़ी जातियों के मध्यम वर्ग को आरक्षण का लाभ देने के लिए ही बनाया गया है.

जातीय जनगणना के राजनीतिक नतीजों की जरा कल्पना कीजिए जो यह उजागर कर देगी कि ‘आर्थिक रूप से कमजोर तबकों’ को आरक्षण के नाम पर किस तरह प्रभुत्वशाली जातियां इसका फायदा लेंगी.

जाति-मुक्त धार्मिक समुदाय?

जातीय जनगणना प्रश्न के गिर्द एक अहम विवाद अन्य (गैर-हिंदू) धर्मों में जाति की अभिव्यक्ति को लेकर उठता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में अधिसूचित अल्पसंख्यक समुदायों की संख्या देश की कुल आबादी का 19.3% है – मुस्लिम (14.2%), इसाई (2.3%), सिख (1.7%), बौद्ध  (0.7%), जैन (0.4%) और पारसी (0.006%).

भारत में इस्लाम, इसाई और सिख समेत लगभग अन्य सभी धार्मिक पंथों में भी जातियां देखी जाती हैं. रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट (जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट, मई 2007) में कहा गया है कि “वर्ण व्यवस्था भारत में हर जगह पाई जाने वाली सामाजिक परिघटना है और वह भारत में हर धर्म के समुदायों के बीच दिखाई पड़ती है...”, और कि “कई खास जातियां तो एक साथ विभिन्न धार्मिक समुदायों में पाई जाती हैं, और उन्हें अपने ही धर्म के अनुयाइयों तथा दूसरे मतवलंबियों के हाथों भी सामाजिक अवमानना और दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है...”. और, इसीलिए आयोग ने अनुशंसा की है कि  “वर्ण व्यवस्था को समग्र रूप से भारतीय समाज की आम सामाजिक चारित्रिक विशेषता समझा जाना चाहिए, चाहे किसी खास धर्म का दर्शन अथवा शिक्षाएं उसे मानते हों या नहीं”.

सैद्धांतिक रूप से ये धर्म समतावाद का पाठ पढ़ा सकते हैं, लेकिन व्यवहार में वे जाति-प्रणाली और श्रेणी-क्रम को लागू करते हैं. दरअसल, इन धार्मिक समूहों में दलित और आदिवासी समुदाय तीन किस्म के भेदभाव का सामना करते हैं: स्वयं अपने मुल्लों-पुरोहितों के हाथों, व्यापकतर समाज के हाथों और सरकार के जरिये. और इसीलिए, एक मांग यह भी है कि जातीय जनगणना सिर्फ हिंदुओं तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि भारत में तमाम धर्मों के बीच भी यह गणना होनी चाहिए.

आरक्षण और जातीय जनगणना के प्रति आरएसएस का ऐतिहासिक विरोध

आरएसएस ने आरक्षण पर बहस शुरू करने के लिए हमेशा मौका तैयार किया है.जनवरी 2017 में जयपुर साहित्य उत्सव के अवसर पर बोलते हुए आरएसएस के विचारक मनमोहन वैद्य ने कहा कि भारत में आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि उससे समाज में अलगाव और टकराव को बढ़ावा मिलता है. इसके उलट, और हाल में, आरएसएस के संयुक्त महासचिव दत्तात्रोय होसाबले ने कहा कि आरक्षण की लरूरत है, क्योंकि समाज में सामाजिक और आर्थिक विषमता मौजूद है. फिर, दत्तात्रोय होसाबले के इस बयान के एक महीना पहले अगस्त 2021 में आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण के समर्थकों और आरक्षण के विरोधियों के बीच “सामंजस्यपूर्ण वार्तालाप” का आह्वान किया. ये सब कोई ईमानदार भूलें अथवा अचेतन में अपनाई गई आत्म-विरोधी स्थितियां नहीं हैं. यह सब मौजूदा जाति-आधारित आरक्षण नीति को बदलने की अपनी गहरी प्रतिबद्धता को जताते हुए आरक्षण पर वैकल्पि विमर्श पेश करने का ही आरएसएस का सुचिंतित और संगठित प्रयास है.

हालांकि आरएसएस ने जातीय जनगणना के बारे में कोई हालिया बयान नहीं दिया है, लेकिन 24 मई 2010 को आरएसएस के तत्कालीन नेता सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा था कि, “हमलोग श्रेणियों को दर्ज करने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन हम जातियाों को दर्ज करने का विरोध करते हैं”, और यह भी कहा कि जाति-आधारित जनगणना जाति-विहीन समाज के विचार का विरोध करती है और उससे सामाजिक सामंजस्य पैदा करने के प्रयास कमजोर होंगे.

20 जुलाई 2021 को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में कहा, “भारत सरकार ने नीतिगत रूप से फैसला किया है कि जनगणना में एससी और एसटी के अलावा जाति-आधारित आबादी की गणना नहीं करवाएगी.” बहरहाल, इसके पूर्व 31 अगस्त 2018 को तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक, जिसमें 2021 की जनगणना की तैयारियों की समीक्षा की गई थी, के बाद प्रेस सूचना ब्यूरो ने एक वक्तव्य में कहा, “यह भी सोचा गया है कि पहली बार ओबीसी के आंकड़े भी इकट्ठा किए जाएंगे.” फिर 2019 के आम चुनावों के कुछ ही माह पूर्व सितंबर 2018 में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में घोषणा की कि 2021 की जनगणना में ओबीसी के आंकड़े भी दर्ज कराए जाएंगे.

जातीय जनगणना के सवाल पर मोदी सरकार के दुहरेपन को समझना उतना ही जरूरी है, जितना कि भारत में तमाम जातियों की गणना की स्पष्ट आवश्यकता को समझना जरूरी है. बहरहाल, यह भी स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने जिस इच्छा शक्ति के साथ आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए आरक्षण को लागू किया है, वह इच्छा शक्ति जाति जनगणना के मामले में बिल्कुल गायब है.

इसका कारण स्पष्ट है. आरएसएस/भाजपा को डर है कि जाति जनगणना से एससी/एसटी/ओबीसी की वास्तविक संख्या तथा उनकी वंचना और उत्पीड़न उजागर हो जाएंगे; और साथ ही, अगड़ी जातियों की आबादी तथा उनका वर्चस्व भी प्रकट हो जाएंगे. इसका राजनीतिक नतीजा यह होगा कि अनेक राज्यों में अगड़ी जातियों के वर्चस्व के अंतर्गत आरएसएस/भाजपा ने सावधानीपूर्वक खासकर, गैर-वर्चस्वशाली ओबीसी तथा एससी/एसटी के साथ जो जातीय संश्रय निर्मित किया है, उसकी जड़ें खुद जाएंगी. इसके अलावा, अगर ओबीसी की वास्जविक जनसंख्या सामने आ जाती है तो आरक्षण प्रणाली को नष्ट करने और अंततः उसे खत्म करने की उनकी ब्राह्मणवादी परियोजना को निर्णायक धक्का लगेगा; क्योंकि 90 वर्ष पुराने आंकड़े पर आधारित मौजूदा आरक्षण ढांचे को पुनर्गठित करने की मांग और जोर पकड़ लेगी.