वर्ष - 31
अंक - 5
29-01-2022

वर्ष 2022 भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक पुरुषों को हड़पने की हताशा-भरी कोशिशों में मोदी सरकार ने 23 जनवरी, सुभाष चंद्र बोस की जयंती, को भारतीय गणतंत्र दिवस समारोह की आधिकारिक शुरूआत का दिन घोषित कर दिया है और यह फैसला सुनाया है कि इंडिया गेट पर इस प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी की विशाल प्रतिमा स्थापित की जाएगी. बोस की पुत्र के कथन से हम जान रहे हैं कि बोस की 125वीं जयंती समारोह की योजना बनाने के लिए गठित कमेटी की बैठक ही नहीं हो सकी, और असली मूर्ति निर्माण को स्थगित कर उनकी होलोग्राम (खास किस्म की रोशनी से बनाई जाने वाली) प्रतिमा स्थापित करने का फैसला पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पेश की गई सुभाष चंद्र बोस की झांकी को खारिज करने के बाद लिया गया है. प्रतीक पुरुषों को हड़पने का युद्ध शायद इतना विद्रूप कभी नहीं हुआ था.

हड़पने के इस युद्ध से कहीं ज्यादा खतरनाक बात तो यह है कि हमारे इतिहास को झूठे तरीके से रचने की कोशिश की जा रही है और हमारे गणतंत्र के संवैधानिक ढांचे तथा उसकी मूल भावना को तहस-नहस किया जा रहा है. मोदी सरकार ने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आजादी के संदर्भ से विच्छिन्न करना शुरू कर दिया है. सरकार लगातार बड़े जोर-शोर से लंबे स्वतंत्रता आन्दोलन का मिथकीय आख्यान गढ़ रही है जो उसके शब्दों में ‘हिंदू भारत’ पर ‘मुस्लिम आक्रमण’ के सैकड़ों साल के दौरान चलता रहा था. मध्यकालीन भारत में मुस्लिम बादशाह और हिंदू शासक के बीच की लड़ाई के दृष्टांतों अथवा हिंदू तीर्थस्थलों के निर्माण - इन तमाम चीजों को स्वतंत्रता की दीर्घकालीन लड़ाई के इस आख्यान का अंग बना दिया जा रहा है.

भारत सरकार प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (पीआइबी) के प्रकाशन ‘न्यू इंडिया समाचार’ ने हाल ही में भक्ति आन्दोलन को 1857 विद्रोह का पूर्ववर्ती बताकर, और भक्ति आन्दोलन के प्रतीक पुरुष के बतौर रमण महर्षि (1857-1950) तथा स्वामी विवेकानंद (1863-1902) को चैतन्य महाप्रभु (1486-1534) के साथ नत्थी कर बड़ा ही हैरतअंगेज दावा कर दिया. बाद में, पीआइबी ने इन तीनों को नत्थी करने को ‘अनजाने में हुई भूल’ बताया, लेकिन भक्ति आन्दोलन को स्वतंत्रता संघर्ष की बुनियाद बताना जारी रखा है. भक्ति आन्दोलन मुख्य रूप से जातीय उत्पीड़न और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ प्रतिवाद आन्दोलन के बतौर उभरा था और उसने समरसता, समन्वय और मानवता का संदेश प्रचारित किया था. अगर भक्ति आन्दोलन और 1857 के बीच कोई साझा कड़ी है तो वह सांप्रदायिक समरसता का यही मजबूत जुड़ाव है. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक भारतीय जनता के इसी एकताबद्ध उभार से खौफजदा थे और उन्होंने 1857 के बाद सांप्रदायिक विभाजन को चौड़ा करने और उसे तीखा बनाने की हरचंद कोशिश की, जो अंततः 1947 में भारत को बंटवारे की ओर ले गया.

भारतीय राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संघर्ष के इस झूठे विकृत आख्यान को दुष्टतापूर्वक गढ़ने के अलावा संविधान की भावना और उसके ढांचे पर लगातार हमले किये जा रहे हैंसरकार दिनरात संवैधानिक उद्देश्यों और प्रतिबद्धताओं के खिलाफ काम कर रही है. जहां इस गणतंत्र को धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और लोकतंत्रा की विपरीत दिशा में धकेला जा रहा है, वहीं नागरिकों के अधिकारों को प्रणालीबद्ध तरीके से छीना जा रहा है. नरेंद्र मोदी बारंबार तथाकथित रूप से ‘अधिकारों पर अतिशय जोर’ को सुधारने का आह्वान कर रहे हैं. वे हमें कहते हैं कि जनता के रूप में हम अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहने में अपना समय जाया करते रहे हैं. वे कर्तव्यों को मौलिक बनाकर और अधिकारों को चयन तथा शर्तों के अधिकाधिक अधीन लाकर अधिकारों को कर्तव्य के मातहत कर देना चाहते हैं. नागरिकों पर उनके कर्तव्यों का बोझ लादना भी राज्य और सरकार को नागरिकों के अधिकारों की गारंटी करने के उसके खुद के संवैधानिक कर्तव्य से मुक्त करने की ही एक चालाकीभरी साजिश है.

राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संघर्ष का झूठा आख्यान तथा संविधान का बढ़ता विध्वंस – अपने 75वें साल में भारत इस दुहरे आंतरिक घेरेबंदी के साथ-साथ गिरते अर्थतंत्र और तमाम बाहरी खतरों तथा वर्तमान समय की वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहा है. 72 वर्ष पहले, जब भारत का संविधान लागू हुआ था, तो हम भारत के लोगों ने भारत को संप्रभु समाजवादी लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाने का तथा इसके सभी नागरिकों के लिए मुकम्मल इंसाफ, स्वतंत्रता और समानता की गारंटी करने का संकल्प लिया था. इस लोकप्रिय संकल्प के सामने आज सबसे बड़ी परीक्षा की घड़ी आ गई है और आधुनिक भारत का भविष्य इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने की हमारी क्षमता पर निर्भर कर रहा है. हम इस लड़ाई को हार नहीं सकते हैं. हमें हर हाल में जीत हासिल करनी होगी.