वर्ष - 31
अंक - 6
05-02-2022

जन-संहार और लोकतंत्र की हत्या से भारत को बचाने के लिए
सावरकर-गोलवलकर-गोडसे की संतानों को सत्ता से निकाल बाहर करें

 – अरिंदम सेन

इस वर्ष की सर्दी के मौसम में धर्म संसदों तथा अन्य हिंदू सभाओं/गिरोहों/व्यक्तियों के जरिये लगातार दिये जाने वाले तीखे नफरती भाषणों और मुस्लिमों के जन-संहार के आह्वानों से हमलोगों के मन में 1947-48 के शरदकाल और सर्दियों में पैदा हुई नारकीय सांप्रदायिक आग की याद ताजा हो उठती है जिसने एमके गांधी समेत भारी संख्या में लोगों की जान ले ली थी.

वह चिर-प्रतीक्षित स्वतंत्रता के ठीक बाद का समय था. अभी स्वतंत्रता के 75वें साल का समय है. उस वक्त हिंदुत्ववादी ताकतें, जो सत्ता से बहुत दूर थीं, हताशोन्मत्त ढंग से एकाश्म आक्रामक हिंदू अखंड भारत के अपने सपने को साकार करने में अपनी विफलता का बदला लेने की कोशिश कर रही थीं. अभी जब वे सत्ता में हैं तो वे निराशा से भरकर – और अपनी ही सत्ता के तहत हर तरह का संरक्षण पाकर – अभी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के राज्यों में, तथा दो वर्ष बाद राष्ट्रीय स्तर पर, अपनी सरकार पर मंडराते खतरे को टालने का प्रयास कर रही हैं; ताकि वे अपने कट्टर हिंदुत्ववादी एजेंडा के अगले तथा और भी भयावह पड़ाव की ओर बिना रुके बढ़ सकें. अगर हम भारत के लोगों को इस काली संभावना को रोकना है तो हमें अपने अतीत से और भी पूर्णता के साथ सीख लेनी होगी तथा अधिक दृढ़तापूर्वक व निर्णायक ढंग से काम करना होगा.

गांधी ही क्यों ? नेहरू या जिन्ना क्यों नहीं ?

नाथूराम गोडसे और उसके राजनीतिक आकाओं ने एक ‘सनातनी हिंदू’ गांधी को क्यों अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के रास्ते का सबसे बड़ा अवरोधक समझा? स्वतंत्रता पूर्व के जिन्ना अथवा स्वतंत्रता के बाद उदारवादी अर्ध-समाजवादी नेहरू को उन्होंने क्यों नहीं निशाना बनाया, जिनके (नेहरू के) हाथों में सरकार की कमान थी, और जो अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के मुकाबले ‘बहुसंख्यक सांप्रदायिकता’ को बड़ा खतरा घोषित करने की हद तक चले गए थे, क्योंकि उनकी निगाह में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता खुद को भारतीय राष्ट्रवाद के बतौर पेश कर जनता को दिगभ्रमित करने की क्षमता रखती थी. या फिर अंबेडकर क्यों नहीं निशाना बने, जिन्होंने दलित (महार) सत्याग्रह के साथ ही अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया था जिसमें मनुस्मृति को जलाने का जोरदार आह्वान किया गया था, और जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए दलितों को संगठित करने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी थी और यहां तक कि हिंदू धर्मग्रंथों को डायनामाइट से उड़ा देने का आह्वान कर डाला था?

इसलिए, क्योंकि हिंदुत्ववादी गिरोह की बुनियादी परियोजना थी मुस्लिमों को राष्ट्र (यानी, हिंदू राष्ट्र) के दुश्मन के बतौर निशाना बनाना और परंपरागत सामाजिक कुलीनतंत्र के वर्चस्व को बदले बगैर हिंदुओं के सभी तबकों/जातियों को (यहां तक कि दलितों और आदिवासियों को भी) मुस्लिमों के खिलाफ गोलबंद करना. और, उनकी इस परियोजना को व्यावहारिक धरातल पर (वैचारिक और सैद्धांतिक दृढ़ता के लिहाज से नहीं) और कोई नहीं, बल्कि ‘महात्मा’ (जैसा कि टैगोर ने उन्हें कहा था) और ‘राष्ट्रपिता’ (जैसा कि सुभाष चंद्र बोस ने 1944 में सिंगापुर से अपने रेडियो संदेश में उन्हें कहा था और आजादी के लिए हथियारबंद युद्ध में सफलता के लिए उनसे आशीर्वाद चाहा था) की तरफ से ही सबसे कड़ी टक्कर मिल सकती थी. उनके पास वह इच्छाशक्ति थी, विश्वास का साहस था, पंथ-जाति-वर्ग से परे आम जन तक उनकी बातों की पहुंच थी और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उनकी प्रबल क्रियाशीलता थी जिसने दंगाग्रस्त कलकत्ता, नोआखाली, दिल्ली और अन्य जगहों पर चमत्कारिक असर दिखाया था.

सच पूछिये तो आरएसएस ने अपने जन्मकाल से ही गांधी को अपना सर्वप्रमुख निशाना बना रखा था. केबी हेडगेवार ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर आरएसएस बनाया था, क्योंकि उनके विचार से ‘अ-सहयोग के दूध पर पलने वाले यवन सर्प अपनी जहरीली फुफकार के साथ राष्ट्र में दंगे भड़का रहे हैं.’ गांधी के नेतृत्व में चले अ-सहयोग आन्दोलन ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ‘खिलाफत आन्दोलन’ के साथ हाथ मिलाया था और अभूतपूर्व स्तर पर व्यापक हिंदू-मुस्लिम एकता (हालांकि यह एकता कम समय तक ही टिक पाई थी) हासिल की थी. इस अ-सहयोग आन्दोलन पर आरोप लगाकर हेडगेवार दरअसल गांधी और उनकी ‘तुष्टीकरण’ की नीति पर सवालिया निशान खड़ा करना चाहते थे.

बेलगाम नफरती मुहिम से दंगे भड़के और गांधी की हत्या हुई

पूर्व की भांति, स्वतंत्रता के बाद भी आरएसएस और हिंदू महासभा ने जहां कहीं संभव हुआ, सांप्रदायिक हिंसा भड़काना और संगठित करना जारी रखा, जैसा कि 1947 के सितंबर माह में दिल्ली में हुआ था. उस महीने के अंत में नेहरू ने पटेल को लिखा :

“जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, सरकार को गिराने अथवा कम से कम इसके चरित्र को नष्ट करने के लिए चंद सिख और हिंदू फासिस्ट तत्वों के बिल्कुल स्पष्ट और सुसंगठित प्रयास का हमें सामना करना पड़ा है. यह सांप्रदायिक बखेड़ा से कुछ ज्यादा ही बढ़कर था. इनमें से अनेक लोग ... शुद्ध आतंकवादी की तरह काम करते रहे हैं. बेशक, वे जनमत के लिहाज से अनुकूल माहौल में ही सफलतापूर्वक काम कर सकते थे. और, उन्हें यह माहौल मिला.

इन गिरोहों को अबतक नष्ट नहीं किया जा सका है, हालांकि उनके खिलाफ जरूर कुछ कार्रवाइयां की गई हैं, और वे अभी भी बड़ी खुराफात करने में सक्षम हैं.”

अपनी तमाम कमियों और गलत समझ वाली राजनीति के बावजूद जवाहरलाल इस मामले में बिल्कुल सही थे. सिलसिलेवार सांप्रदायिक बखेड़ों के पीछे ‘सरकार को गिराने अथवा कम से कम इसके (धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक) चरित्र को नष्ट करने के लिए चंद सिख और हिंदू फासिस्ट तत्वों के बिल्कुल स्पष्ट और सुसंगठित प्रयास’ ही निहित थे; यद्यपि वे यह जोड़ना भूल गए अथवा यह बताना जरूरी नहीं समझा कि इस प्रयास का मकसद धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक सरकार की जगह हिंदू राष्ट्र स्थापित करना था. शायद वे अपने दाहीने हाथ पटेल को, जो आरएसएस के प्रति नरमी रखने वाले जाने जाते थे, यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि उन फासिस्ट तत्वों के खिलाफ और उन्हें फूलने-फलने का मौका देने वाले ‘अनुकूल माहौल’ को खत्म के लिए ज्यादा कड़े कदम उठाने की फौरी जरूरत थी.

बहरहाल, पटेल से जितनी आशा की जा रही थी, उतनी तेजी से वे कार्रवाई नहीं कर रहे थे, क्योंकि वे उस समय भी आरएसएस को कांग्रेस की छतरी तले लाने के भ्रम से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए थे. यहां तक कि 6 जनवरी 1948 को भी, यह पूरी तरह जानते हुए कि दंगों और नफरती मुहिमों में आरएसएस की सक्रिय भूमिका थी, उन्होंने लखनऊ की एक सभा में कहा :

“कांग्रेस के अंदर जो लोग सत्ता में हैं, वे महसूस करते हैं कि अपने प्राधिकार के बल पर वे आरएसएस को रोक देंगे. ‘डंडा’ के सहारे आप किसी संगठन को नहीं दबा सकते हैं. इसके अलावा, डंडा तो चोरों और डाकुओं के लिए होता है. डंडे के इस्तेमाल से कुछ खास फायदा नहीं होगा. जो भी हो, आरएसएस के लोग चोर और डकैत तो नहीं हैं. वे देशभक्त हैं. वे अपने देश से प्यार करते हैं. सिर्फ उनकी विचार-प्रवृत्ति अलहदा है. कांग्रेस के लोगों ने उन्हें प्यार से अपने पक्ष में किया है.”

अपने सहकर्मी के इस कतिपय दुहरे रुख को देखते हुए नेहरू ने उन्हें फिर से लिखा, “हिंदू महासभा और आरएसएस के रवैये के मद्देनजर उनके प्रति निरपेक्ष बना रहना मुश्किल होता जा रहा है.”

हिंदुओं के हितों के साथ गद्दारी करने का आरोप खुलेआम लगाते रहे थे. वे धमकियां दे रहे थे कि नेहरू, पटेल और (मौलाना) आजाद को फांसी दे दी जाएगी, और ‘गांधी मुर्दाबाद’ महासभा की बैठकों में आम नारा ही बन गया था.

8 दिसंबर 1947 को 2500 स्वयंसेवकों की एक सभा में गोलवलकर ने कहा कि संघ पाकिस्तान को खत्म कर देगा, और अगर कोई उनके रास्ते में बाधा उत्पन्न करेगा तो वे उन्हें भी समाप्त कर डालेंगे. उन्होंने खास तौर पर अपने मुख्य निशाने का नाम भी लिया : “महात्मा गांधी उन्हें (हिंदुओं को) अब और ज्यादा नहीं भटका सकते हैं. हमारे पास वे साधन हैं जिसके जरिये ऐसे लोगों को तुरंत खामोश किया जा सकता है. हिंदुओं का बैरी होना हमारी परंपरा नहीं है. लेकिन अगर हमें बाध्य किया गया तो हम वह रास्ता भी अपना सकते हैं.”

यह चरम किस्म की नफरत और डाह क्यों थी, जो गोडसे (बॉक्स देखें) और सावरकर (जिसने कभी सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं किया, क्योंकि उसने औपनिवेशिक आकाओं को राजनीति में भाग न लेने का वचन दिया था) की सोच से बिल्कुल मेल खाती थी ?

बात यह है कि सांप्रदायिक थैली – और यह मुस्लिम सांप्रदायिकता के साथ भी लागू होता है – के तमाम चट्टे-बट्टे एक समान होते हैं, जो अपनी सर्वसत्तावादी हुकूमत हासिल करने या उसे बरकरार रखने के लिए किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक दुश्मन के विरुद्ध एक ठोस समांगी खेमे के बतौर समूची नृ-जातीय/धार्मिक समुदाय को गोलबंद करने का प्रयास करते हैं. आरएसएस के मामले में यह उस वक्त भी सच था जब वह चुनावी राजनीति में सीधी शिरकत नहीं कर रहा था; और यह अब भी सच है जब वह तमाम हिंदुओं को अपनी राजनीतिक शाखा के लिए अ-विभाजित वोट बैंक के बतौर पेश करने और संगठित करने का प्रयास कर रहा है. इस सामाजिक ब्लॉक/जनाधार/वोट बैंक को विस्तारित व सुदृढ़ करने की खातिर संघ परिवार के तमाम नेता लगातार नए-नए मौकों (पुलवामा हमले के बारे में सोचिये) की तलाश करते रहते हैं, बारीकी से षड्यंत्र और रणनीतियां रचते हैं (इसका एक उदाहरण दशकों तक खिंचने वाला मंदिर-मस्जिद विवाद है) और उनकी राह में बाधा बनने वाली शक्तियों (व्यक्ति या समूह – इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह ‘दुश्मन’ खेमे का है, या फिर ‘उनके अपने लोग’ हैं) को निशाना बनाते हैं. हाल के वर्षों में अगर दाभोलकर, पनसारे, कलबुरगी, लंकेश या फिर भीमा कोरेगांव मामले में जोलों में बंद ‘अरबन नक्सलाइट’ जैसे विचारवान लोग उनके निशाना बने हैं, तो शायद इस किस्म का पहला अंतरराष्ट्रीय स्तर का कुख्यात फासिस्ट-आतंकी हमला हमारे देश में 30 जनवरी 1948 को किया गया था.

यह हत्या किसी उन्मादी पागल की करतूत नहीं थी, जैसा कि आरएसएस/हिंदुत्ववादी गिरोह दावा करते रहे हैं या अभी भी करते हैं. सच तो यह है कि सावरकर के पुराने भक्त गोडसे ने खुद को कभी आरएसएस से अलग नहीं किया और उसने सावरकर और गोलवलकर द्वारा निर्मित सांप्रदायिक वैचारिक खाके को ही उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया था. सरदार पटेल ने हत्या के बाद गोलवलकर को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट कहा, “उनके (आरएसएस के नेताओं के) तमाम भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे होते थे. ... इस जहर के अंतिम नतीजे के बतौर देश को गांधीजी के बहुमूल्य जीवन की कुर्बानी चुकानी पड़ी है. ... आरएसएस के लोगों ने गांधीजी की मृत्यु के बाद खुशी जाहिर की और मिठाइयां बांटीं.”

लगभग उसी समय, पटेल ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखा, “जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा का ताल्लुक है. ... हमारी रिपोर्ट पुष्ट करती हैं कि इन दो संगठनों, खासकर आरएसएस, की हरकतों की वजह से देश में वह माहौल पैदा हुआ जिसमें ऐसी जघन्य त्रासदी संभव हो सकी.”

पटेल ने सही समझा कि पूरा का पूरा हिंदुत्ववादी गिरोह इस हत्या पर खुशी मना रहा था. लेकिन यह खुशी का माहौल तब एक खौफ में बदल गया, जब 31 जनवरी को व्यापक प्रतिशोध की कार्रवाइयां शुरू हो गईं. गुस्साये स्थानीय लोगों ने तड़के सुबह गोडसे के घर पर धावा बोल दिया, जब वह पुलिस हिरासत में था. आरएसएस के कार्यकर्ताओं और कार्यालयों पर अनेकानेक हमले हुए और उन कार्यालयों को फौरन बंद कर दिया गया (प्रकटतः ‘उस पूज्य व्यक्ति’ के सम्मान में, जैसा कि चतुर सरसंघचालक ने घोषणा की). डर से कंपकंपाये और अपनी चमड़ी बचाने की उधेड़बुन में गोलवलकर और सावरकर ने बयान जारी कर इस हत्या की भर्त्सना की और गोडसे को अपने से अलग दिखाया.

गोलवलकर ने लिखित बयान में कहा, “इस भयावह त्रासदी के सामने मैं आशा करता हूं कि लोग इससे सबक लेंगे तथा प्रेम और सेवा के सिद्धांत पर आचरण करेंगे. ... मैं अपने सभी स्वयंसेवक बंधुओं को निर्देश देता हूं कि वे सब के प्रति प्रेमपूर्ण रवैया बनाये रखें .... यह गलत समझ वाला उन्माद भी उस असीम प्यार और सम्मान की ही अभिव्यक्ति है जो समूचा देश उस महान महात्मा को देता था, जिन्होंने दुनिया में हमारी मातृभूमि का नाम ऊंचा किया है.”

आरएसएस और हिंदू महासभा के रवैये में इस भारी बदलाव से गोडसे को सदमा पहुंचा. उस खबर से भी वह मर्माहत हुआ कि गोडसे के प्रति सहानुभूति की लहर पैदा होने के बजाय उस हत्या ने उसके खिलाफ और महाराष्ट्र के ब्राह्मणों के साथ-साथ आरएसएस और हिंदू महासभा के खिलाफ भी प्रतिशोध का हिंसक और व्यापक तूफान खड़ा कर दिया था. एक हीरो के बतौर गोडसे का सम्मान करने के बजाय (उसे तो यह उम्मीद थी कि मुस्लिमों और पाकिस्तान के प्रति गांधी की तथाकथित तुष्टीकरण की नीति से प्रभावित सिख और हिंदू शरणार्थी भी उसका सम्मान करेंगे) उसे अब शांति का खलनायक समझा जा रहा था, जबकि गांधी अब कहीं बड़े कद के अंतरराष्ट्रीय प्रतीक-पुरुष बन गए थे.

मुकदमे के दौरान गोडसे और आप्टे को मृत्युदंड सुनाया गया तथा छह अन्य लोगों को उम्र कैद की सजा दी गई. सावरकर पर इस साजिश का सरगना होने का अभियुक्त बनाया गया था, लेकिन उसकी संलिप्तता का कोई सीधा साक्ष्य न होने के कारण उसे रिहा कर दिया गया. गोडसे ने अपने कुछ महीने टूटे मन से जेल में बिताये. 15 नवंबर 1948 को आप्टे के साथ वह फांसी के तख्ते की तरफ लड़खड़ाते कदमों से जाने के पहले अपनी घबराहट को छिपाने की नाकाम कोशिश में आरएसएस का संकल्प गान गा रहा था.

आरएसएस पर विलंब से लगा प्रतिबंध, लेकिन जल्द ही हटा लिया गया

उस हत्याकांड के बाद बुद्धिमानी दिखाते हुए गृह मंत्रालय ने शीघ्र ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया और गोलवलकर समेत उसके तमाम नेताओं और हजारों स्वयंसेवकों को जेल में बंद कर दिया. सांप्रदायिक गतिविधियों में संलिप्तता का रेकॉर्ड रहने के बावजूद हिंदू महासभा को प्रतिबंधित नहीं किया गया.

सावरकर के पदचिन्हों पर ही चलते हुए गोलवलकर ने शीघ्र ही पटेल और नेहरू के साथ चिट्ठी-पतरी शुरू कर दी. 1948 के अंत में लिखी अपनी एक चिट्ठी में उसने बर्मा, इंडोचीन और कुछ अन्य देशों में ‘खतरनाक घटना-क्रम’ का हवाला देते हुए कम्युनिस्ट खतरे की तरफ ध्यान खींचा. उसने सरकार को चेताया कि भारतीय नौजवान बड़ी तादाद में कम्युनिस्ट संगठन में शामिल हो रहे हैं, क्योंकि इसे रोक पाने में एकमात्र सक्षम संगठन – आरएसएस – अब परिदृश्य से अनुपस्थित हो चुका था. इसीलिए उसने एक बड़ी पेशकश की : अगर आप अपनी सरकारी ताकत और हम अपनी संगठित संस्कृतिक शक्ति के साथ हाथ मिला लेते हैं, तो हम इस खतरे का जल्द ही प्रतिकार कर सकेंगे. इसका कोई त्वरित प्रत्युत्तर तो नहीं मिला, लेकिन किसी न किसी तरह से वार्ता जारी रही. इसके कोई 9 महीने बाद, ठीक कहें तो 12 जुलाई 1949 को आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया. अगर किसी को पूछना हो कि इतनी जल्दी क्यों, तो इसका जवाब यही हो सकता है कि इस समय तक पटेल की सहमति गोलवलकर के साथ बन चुकी थी कि सांप्रदायिक ताकतों के मुकाबले कम्युनिस्ट ही बड़ा खतरा हैं. दरअसल उस समय बड़ी संख्या में कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा रहा था; और वे पटेल को चिट्ठियां नहीं लिख रहे थे, बल्कि वे जेलों में भी प्रतिवाद चला रहे थे.

आरएसएस को सामाजिक-राजनीतिक मुख्यधारा में स्थापित करने के लिए अगला कदम खुद नेहरू ने उठाया. “भारत का चीन युद्ध” (1962 युद्ध पर नेविल्ले मैक्सवेल की प्रशंसित पुस्तक का नाम) के दौरान गोलवलकर ने फिर से लिखना शुरू किया. आरएसएस के कम्युनिस्ट-विरोधी रेकॉर्ड का उदाहरण देते हुए उसने कम्युनिस्ट शत्रु के साथ युद्ध में हर संभव सहायता देने की इच्छा जाहिर की. प्रधान मंत्री ने फौरन वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. स्वयंसेवकों को दिल्ली में ट्रैफिक कंट्रोल जैसे छोटे कामों में लगाया गया, लेकिन बड़ा फायदा यह हुआ कि कम से कम सरकारी खेमों में आरएसएस पर लगा कलंक धुल गया. अगले वर्ष नेहरू ने गणतंत्र दिवस की पैरेड में अपनी झांकी के साथ आरएसएस को शामिल होने की इजाजत दे दी.

जहां तक कि कांग्रेस का सवाल था, तो अब चक्र पूरा हो गया था. अगले दशकों में शासक वर्ग की अन्य पार्टियों ने जनसंघ-भाजपा को कैसे गले लगाया और संघ परिवार को आज की वर्चस्वशाली स्थिति तक पहुंचाने में कैसे मदद की, वह कहानी इतनी सर्वज्ञात है कि उसे यहां दुहराने की जरूरत नहीं.

हमें सबक सीखना है, लड़ाई हमें लड़नी है और जीतना भी है

लगभग सौ वर्षों से भी ज्यादा समय के भरतीय अनुभवों से यह बिल्कुल स्पष्ट है और दक्षिण एशिया तथा अन्य जगहों के अनुभव भी इससे मेल खाते हैं कि अगर आप सांप्रदायिक/नस्ली या इसी किस्म के अन्य रोगाणुओं के साथ निर्णायक तौर पर शुरू से ही नहीं निपटते हैं, अगर आप प्रथम धीमे लक्षणों और संख्याओं को हल्के में लेते हैं और उस समय तेज कदम उठाते हैं जब स्थिति आपके हाथ से बाहर चली जाए, तो आपको त्रासद विफलता ही हाथ लगेगी. वस्तुतः, कई मामलों में हमारे देश में सांप्रदायिक महामारी लगभग कोविड-19 महामारी के समान ही दिखती है. फर्क सिर्फ यह है कि सांप्रदायिक महामारी अतुलनीय रूप से ज्यादा कठोर और चिरस्थायी बनी हुई है, और वह दशकों तक अंतहीन लहरों के साथ पूरे देश में फैली हुई है तथा सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत नुकसानों के लिहाज से कहीं ज्यादा विनाशकारी साबित हो रही है. इन दोनों के बीच एक और कुत्सित समानता भी गौरतलब है : अरबों लोगों की अकथनीय पीड़ा से मुट्ठी भर आर्थिक धनकुबेर और राजनीतिक कुलीन तबका मालामाल हो जाते हैं.

ऐसे धनकुबेरों और राजनीतिक कुलीन तबके ने, जो दरअसल समाज के कूड़े-कचरे हैं और राष्ट्र के दुश्मन हैं, इस तरह से नफरती मुहिमों, दंगों और अंततः जन संहारों के विनाशकारी चक्र को बढ़वा देने में अपने निहित स्वार्थ बना लिए हैं. इसकी रोकथाम और इलाज का एकमात्र तरीका है खून चूसने वाले इन बदमाशों और सांप्रदायिक वायरस फैलाने वाले इन पेशेवरों को बेनकाब करना, उन्हें अलग-थलग करना और उनसे मुक्ति पाना. और सिर्फ एक बार नहीं, हमें यह काम बारंबार करना होगा – जिस क्षण नागपुर प्रयोगशाला में इस वायरस का नया कोई रूप सामने आता है और दसियों लाख शाखाओं तथा अन्य ढांचों के जरिये समाज में प्रणालीगत ढंग से फैलाया जाता है, उसी क्षण उसका प्रतिकार करना होगा.

आज, विधान सभा और संसद के सिलसिलेवार चुनाव शुरू होने के पहले हम ठीक ऐसे ही माहौल से गुजर रहे हैं. हमें जनता के न्यायालय में इस अपराधी को, हत्यारे आरएसएस-भाजपा समूह को अवश्य दंडित करना होगा और, इसके लिए जन आन्दोलनों से लेकर चुनावी लड़ाइयों तक, सांस्कृतिक और वैचारिक विमर्श से लेकर बौद्धिक व राजनीतिक बहसों तक, हर किस्म के तरीके अपनाने होंगे; तथा हमारे जीवन, आजीविका और हमारे जीवन-मूल्यों पर कुठाराधात करने की उनकी स्थिति से उन्हें हटा देना होगा2002 में गुजरात के मुख्य मंत्री एक बड़ा जन संहार रचाने के बाद भी बच निकले, इस बार हम भारत के प्रधान मंत्री और उनके चट्टे-बट्टों को वैसी तिकड़म करने की इजाजत हर्गिज नहीं दे सकते हैं.

पादटिप्पणी : 1. उपवास का घोषित मकसद था दिल्ली में हिंदुओं पर दबाव बनाना कि वे गरीब मुस्लिमों पर हमले बंद करें. दूसरा मकसद था भारत सरकार को बाध्य करना कि वह समझौते के तहत पाकिस्तान को दी जाने वाली 50 करोड़ रुपये की राशि उसे भुगतान कर दे. गांधी ने अपना उपवास तभी खत्म किया जब हिंदू, सिख और पारसी समुदायों के प्रतिनिधियों ने मुस्लिमों पर हमले बंद करने का लिखित आश्वासन दे दिया और भारत सरकार ने वह राशि देने के फैसले की घोषणा कर दी.

Dethrone the Progenies of Savarkar


नाथूराम गोडसे : उसकी सोच और कार्रवाइयों की एक झलक

25 जून 1934 को नारायण आप्टे के साथ मिलकर गोडसे ने एक कार पर हैंडग्रेनेड फेंका, जिसपर गांधी बैठने वाले थे. इस बार हरिजनों के हक में गांधी के अभियान से वह भड़क उठा था.

उन दोनों ने मिलकर 1942 में ‘हिंदू राष्ट्र दल’ (हिंसक सैनिकों का दल) गठित किया था. न तो हिंदू महासभा ने और न ही आरएसएस ने इस नए गिरोह को मान्यता दी थी, लेकिन छिपे तौर पर दोनों का समर्थन इसे हासिल था और अपने साझा उद्देश्य में इसका इस्तेमाल करने का प्रयास भी किया था.

जुलाई 1944 में हिंदू महासभा और आरएसएस के कार्यकर्ता पंचगढ़ी के एक स्कूल में इकट्ठा हुए और उनलोगों ने गांधी के खिलाफ नारे लगाये, जो एक प्रार्थना सभा में भाग लेने वाले थे. अचानक उस भीड़ से गोडसे उठा और छुरा लेकर गांधी की ओर लपका, लेकिन उसे जल्द ही काबू में कर लिया गया. उसने ऐसा ही प्रयास सितंबर माह में भी किया था, जब गांधी बंटवारे को टालने की कोशिश में जिन्ना से बात करने के लिए एक ट्रेन से जाने वाले थे. इस बार भी वह असफल रह गया और छुरा उसके हाथ से छीन लिया गया. गोडसे की पत्रिका ‘अग्रणी’ में 12 अप्रैल के दिन छपा : “क्या सत्ता के मद में अंधा सुलतान हिंदू लोगों को कौड़ी का मोल भी नहीं लगाता है, जिससे कि यह बनिया इन हमलावर राक्षसों की रक्त-पिपासा को संतुष्ट करने के लिए नए-नए तरीके ईजाद कर रहा है?” पत्रिका में गांधी को यह सलाह भी दी गई थी कि अगर उनमें कोई आत्मसम्मान बचा है तो वे आत्महत्या कर लें. अगर नहीं, तो वे भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए विदा कह दें.

20 जनवरी 1948 को नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में गांधी की प्रार्थना सभा के दौरान गोडसे समेत छह लोगों ने फिर हमला का प्रयास किया; लेकिन दहशत के कारण और तालमेल के अभाव में यह योजना भी नाकाम हुई. दस दिन बाद आप्टे के साथ मिलकर गोडसे ने उसी बिड़ला भवन में अंतिम हमला किया, जब गांधी अपनी प्रार्थना सभा के बाद बाहर निकल रहे थे. इस बार गोडसे विदेश से मंगाये 9एमएम बोर की बेरेट्टा पिस्तौल से लैस था जो उस समय का सबसे अच्छा पिस्तौल माना जाता था और जो तथाकथित रूप से सावरकर ने उसे दिया था, और इस प्रयास में गोडसे सफल हो गया. भीड़ ने उसकी धुनाई करने के बाद उसे पुलिस के हवाले कर दिया.

मई 1958 में एक स्पेशल कोर्ट में अपने मुकदमे के दौरान गोडसे ने कहा, “गांधीजी तुष्टिकरण की उसी नीति पर चल रहे थे, मेरा खून खैल उठा और मैं उन्हें अब और बर्दाश्त नहीं कर सका. ... मुस्लिमों के अत्याचार से हिंदुओं को बचाने का एकमात्र प्रभावी तरीका मेरी समझ से यही था कि मैं गांधीजी को दुनिया से विदा कर दूं.

”मई 1949 में पंजाब उच्च न्यायलय में प्रस्तुत एक याचिका में गोडसे ने नई दिल्ली स्थित भंगी कॉलोनी में हिंदू मंदिर के सामने प्रार्थना सभा में गांधी पर कुरान पढ़ने का आरोप लगाया, और कहा : “मेरे मन में वर्षों से जमा विक्षोभ उनके द्वारा मुस्लिमों के पक्ष में किए गए अंतिम उपवास1 से उबल पड़ा और अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि गांधीजी के अस्तित्व को अब फौरन खत्म कर देना चाहिये. जब गांधीजी की सहमति से कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने देश को – जिसे हम पूजा का स्थल मानते हैं – बांट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिये तो मेरा मन दुस्साहसपूर्ण गुस्से से भर गया. मैंने महसूस किया कि गांधीजी के न रहने से भारतीय राजनीति निश्चय ही व्यावहारिक बनेगी, और वह बदला लेगी...”