वर्ष - 31
अंक - 41
08-10-2022

2024 के आम चुनाव में अब दो वर्ष से भी कम समय रह गया है और अर्थतंत्र तेजी से ढलान पर सरक रहा है. ऐसी स्थिति में मोदी शासन हताशोन्मत्त ढंग से अपनी परीक्षित व विश्वसनीय सांप्रदायिक रणनीति पर अमल कर रहा है, ताकि लोगों का ध्यान सामान्य भारतीयों के सबसे ज्वलंत मुद्दों – आसमान छूती कीमतों, विलुप्त होते रोजगार और घटती आमदनी – से भटका दिया जा सके. जुलाई माह में बिहार के बिहारशरीफ व अन्य जगहों पर एनआइए के छापे, जिस दिन भारत अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह मना रहा था उसी दिन गुजरात में बिलकिस बानो केस में बलात्कार व हत्या के अभियुक्तों की रिहाई और उनका स्वागत, और अब पीएफआई तथा उससे संबद्ध संगठनों पर प्रतिबंध, ये सभी चीजें हमें बता रही हैं कि संघ-भाजपा ब्रिगेड किस तरह आने वाले चुनावों – इस वर्ष के अंत में गुजरात व हिमाचल, तथा 2023 में अनेक राज्यों के विधानसभा चुनाव और फिर 2024 की महत्वपूर्ण लड़ाई – की तैयारी कर रहा है.

2002 में गोधरा के बाद हुए गुजरात जनसंहार के पश्चात मोदी ने अपने शासन के प्रति वैश्विक भर्त्सना को गुजरात की पहचान और प्रतिष्ठा पर ही हमला बताया, तथा अपनी सत्ता बचाए रखने की खातिर ‘गुजरात गौरव’ को अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बना लिया. बीस वर्ष पूर्व शक्ति संतुलन और मुख्यधारा मीडिया के विमर्श का चरित्र बिल्कुल भिन्न किस्म का बना हुआ था – जहां मोदी तो गुजरात में बने रहे, लेकिन वाजपेई और आडवाणी को अपनी हाई-वोल्टेज ‘इंडिया शाइनिंग’ मुहिम के बावजूद उसकी कीमत चुकानी पड़ी. किसान आत्महत्याओं और आर्थिक संकट की चिंताजनक सच्चाई के अलावा गुजरात में जनसंहार वाजपेई-आडवाणी युग के अंत का प्रमुख कारण बन गया.

बहरहाल, गुजरात के अंदर मोदी भारत के बड़े कॉरपोरेटों का निष्ठापूर्ण समर्थन हासिल करने में सफल रहे जो ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के झंडे तले मोदी के इर्द-गिर्द गोलबंद हो गए थे. सत्ता की शक्ति – बेलगाम कार्यपालिका द्वारा संचालित स्वच्छंद पुलिस राज्य – ने सांप्रदायिक विचारधारा और कॉरपोरेट हितों के संलयन को पूरा कर दिया और उसे समाज पर जोंक की तरह चस्पां कर दिया. आरएसएस द्वारा राजतिलक लगाए गए इस सर्वोच्च नेता का निर्बाध शासन सुनिश्चित करने के लिए गुजरात मॉडल को अब अखिल भारतीय स्तर पर विस्तार दिया जा रहा है. सर्वोच्च नेता के जीवन पर तथा हिंदू समुदाय और एक देश के बतौर भारत पर तथाकथित खतरे को समय-समय पर सामने लाना इस विस्तार-योजना का केंद्रीय तत्व है.

1970-दशक के मध्य के घोषित आपातकाल के दौरान हमने एक नारा सुना था जिसमें इंदिरा, उस समय की सर्वोच्च नेता, को भारत के समतुल्य बताया जा रहा था. आज इस समतुल्यता को खींचकर इसके बीच में हिंदू पहचान को भी घुसा दिया गया है, क्योंकि यह नेता ‘हिंदू सम्राट’ के रूप में भी जाना जाता है. इस शासन, और इसकी विषैली नीतियों व विनाशकारी कारनामों के आलोचकों पर अब लगातार राष्ट्र-विरोधी के साथ-साथ हिंदू-विरोधी अथवा हिंदू-भीतिक होने का भी आरोप लगाया जाता है. निश्चय ही, यह संघ ब्रिगेड द्वारा भारत को हिंदू राष्ट्र के बतौर परिभाषित करने का ही नतीजा है. सरकार निरंतर बाहरी अथवा अंदरूनी खतरों की चर्चा करती रहती है, और असहमति जाहिर करने वाले नागरिकों को विभिन्न श्रेणी के नामजद आंतरिक दुश्मनों के रूप में वर्गीकृत कर रही है. ‘अरबन नक्सलों’ के खिलाफ शोर-शराबे ने भारत के कुछ सर्वाधिक सक्रिय मानवाधिकार रक्षकों की गिरफ्तारी और यहां तक कि उनकी हाजती हत्याओं तक का माहौल बनाया, और अब पीएफआई तथा संबद्ध संगठनों पर प्रतिबंध भारतीय मुस्लिमों की अंधाधुंध धर-पकड़ के नए चरण की शुरूआत का संकेत दे रहा है.

आपातकाल के दौरान भारतीय प्रेस पर सेंसरशिप लगा दिया गया था, और विभिन्न किस्म के विपक्षी नेताओं व कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया था. इसीलिए लोकतंत्र की पुनर्बहाली प्रमुख नारा बन गया और व्यापक स्तर पर इसकी जरूरत महसूस की जा रही थी. आपातकाल के हटने और निरंकुश शासन की शिकस्त के बाद राजनीतिक बंदियों की रिहाई और 1974 की रेलवे हड़ताल के दौरान सेवा से बर्खास्त कर दिए गए कर्मचारियों को फिर से बहाल करने की जोशीली मुहिम देखी गई थी. इस बार, मुख्यधारा के अधिकांश मीडिया को इस शासन के प्रचार तंत्र के रूप में प्रभावी ढंग से बदल दिया गया है, और गिरफ्तारी मुहिम अभी तक ज्यादातर गैर-पार्टी कार्यकर्ताओं तक ही सीमित है – जम्मू और कश्मीर इसका अपवाद है, जहां धारा 370 खत्म किए जाने के बाद समूचे राजनीतिक विपक्ष को गिरफ्तार अथवा नजरबंद कर लिया गया.

शायद इससे अंशतः यह समझा जा सकता है कि धरपकड़ पर रोक और प्रबुद्ध कैदियों की रिहाई अबतक संसदीय विपक्ष की मूल मांग के बतौर क्यों नहीं सामने आई है. एक यह भी पुराना गलत विश्वास है कि विपक्ष को सिर्फ अर्थतंत्र पर केंद्रित रहने की जरूरत है. नरसिम्हा राव का प्रचलित विचार था कि बाजार भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडा को संकुचित कर देगा, लेकिन मोदी परिघटना के उदय ने यह स्पष्ट दिखला दिया कि बाजार में रूढ़िवाद और सांप्रदायिक फासीवाद के बीच गठबंधन बनने की तमाम अनुकूल स्थितियां पैदा हो सकती हैं. समय आ गया है कि भारत का संसदीय विपक्ष राजनीतिक स्वतंत्रत को अपने एजेंडा का प्रमुख तत्व बनाने की जरूरत के प्रति सजग हो जाए. जब भाजपा संविधान को ध्वस्त करने और भारत में विपक्ष-मुक्त एकदलीय राज-व्यवस्था लाद देने पर तुली हुई है, तो विपक्ष को बिना किसी हिचकिचाहट के लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए उठ खड़ा होना चाहिए. फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में लोकतांत्रिक एजेंडा को स्थगित करना या उसमें कांट-छाट करना हर्गिज सही नहीं होगा.