वर्ष - 31
अंक - 46
12-11-2022

ऊंची जातियों को आरक्षण देने के मकसद से उन जातियों के आर्थिक रूप से गरीब तबकों (ईडब्लूएस) के लिए 10 प्रतिशत कोटा निर्धारित करने के मोदी सरकार के फैसले को बरकरार रखने वाला सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय भारतीय संविधान की मूल भावना में निहित आरक्षण के उद्देश्य और मकसद का स्पष्ट उल्लंघन है. यह निर्णय वंचित तबकों के खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय को मजबूत ही बनाता है. यही बात न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट ने भी दुहराई थी, जब उन्होंने ईडब्लूएस आरक्षण फैसले के संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित के साथ मिलकर असहमतिपूर्ण फैसला दिया था. उन्होंने कहा कि, “... इस कोर्ट ने, गणतंत्र के सात दशकों के इतिहास में पहली बार, खुलकर अपवर्जनात्मक और भेदभावमूलक उसूल को मान्यता दी है. हमारा संविधान अपवर्जन (बहिष्करण) की भाषा नहीं बोलता है. मेरे सुचिंतित विचार से यह संशोधन अपने अपवर्जन की भाषा के साथ सामाजिक न्याय के तानेबाने और इस प्रकार से, उसके बुनियादी ढांचे को ही घ्वस्त कर देता है.”

जैसा कि आज हम जानते हैं कि जब हमारे संविधान को ठोस शक्ल दी जा रही थी, तब इसमें वंचित तबकों के लिए आरक्षण की नीति को सन्निहित किया गया ताकि समतामूलक भारत का निर्माण किया जा सके. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यही बात प्रतिबिंबित होती है, जब उसमें “हैसियत और अवसर की समानता” को सुनिश्चित किया गया. हजारों साल के जातीय भेदभाव ने ओबीसी, दलितों और आदिवासियों जैसे अभिवंचित तबकों को समाज के हाशिये पर धकेल दिया था और उनसे सारे अधिकार और अवसर छीन लिए थे. तथ्यतः आरक्षण का मतलब होता है प्रतिनिधित्व; और इसके मूल में निहित है ऐतिहासिक अन्याय और भेदभाव के चलते बहिष्कृत रखे गए तबकों को प्रतिनिधित्व और समान अवसर प्रदान करना. उस असहमतिपूर्ण फैसले में इसी बात को इन शब्दों में कहा गया है: “संवैधानिक रूप से मान्य नागरिकों के पिछड़े वर्गों, और सबसे चरम रूप से, एससी / एसटी समुदायों का पूर्ण और निरपेक्ष अपवर्जन और कुछ नहीं, बल्कि ऐसा भेदभाव है जो समानता की संहिता, और खासकर भेदभाव-हीनता के उसूल को घ्वस्त कर देने के स्तर पर पहुंच जाता है.”

सर्वोच्च न्यायालय का यह विषम फैसला भारतीय वर्ण व्यवस्था की जमीनी हकीकत और वंचित समुदायों की दैनंदिन की जिंदगी में इसकी अभिव्यक्तियों से बिल्कुल अलग-थलग है. “पिछड़े” समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई अथवा आरक्षण को, जैसा कि संविधान में उल्लिखित है और जिसपर 1948 की संविधान सभा की बहसों में विस्तार से चर्चा की गई थी, गरीबी हटाने के तरीके के बतौर नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय हासिल करने के तरीके के बतौर स्वीकार किया गया था. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला, इस प्रकार से, भारतीय संविधान की मूल भावना का ही साफ उल्लंघन है.

जनवरी 2019 में, आम चुनावों के ठीक पहले मोदी सरकार ने ईडब्लूएस आरक्षण को लागू करने के लिए कदम उठाया और संसद में संविधान (एक सौ तीसरा) संशोधन अधिनियम, 2019 पारित करवाया. इससे राज्य को उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों के मामले में सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की शक्ति मिल गई. इस अधिनियम ने संविधान की धारा 15 और 16 में संशोधन करके धारा 15(6) और 16(6) प्रविष्ट कराया और सवर्ण जातियों के लिए आरक्षण को शामिल कर लिया.

इसका मकसद था एससी / एसटी / ओबीसी कोटा को भंग करना, जैसा कि आरएसएस लंबे समय से मांग कर रहा था. दरअसल, जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस परदीवाला, जिन्होंने जस्टिस दिनेश माहेश्वरी के साथ मिलकर बहुमत फैसला दिया था, ने अपने सहमतिपूर्ण विचार में आरक्षण पर समीक्षा करने और इसे जारी रखने की समय-सीमा निर्धारित करने की बात कही. आज की सच्चाई तो यही है कि आरक्षण की प्रणाली विलंबों, त्रुटियों और अ-क्रियान्वयन की घटनाओं से भर गई है, और अब शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में तेजी से बढ़ते निजीकरण से यह लगातार खत्म होते जा रही है.

हमारा संविधान सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को ही आरक्षण का मानदंड मानता है. दूसरे शब्दों में, संविधान इस सिद्धांत को मानता है कि आरक्षण आर्थिक अभिवंचना के समाधान का औजार नहीं है – यह एक हद तक सिर्फ प्रणालीगत सामाजिक व शैक्षणिक भेदभाव व अपवर्जन का ही समाधान कर सकता है. इस दावे पर समीक्षा करने की जरूरत नहीं है कि ऊंची जातियों के गरीब तबके भी प्रणालीगत भेदभाव, अपवर्जन और निम्न-प्रतिनिधित्व झेलते हैं. रोजगारहीनता और गरीबी अलग समस्याएं हैं, जिसे रोजगार सृजन और बेहतर मजदूरी के जरिये ही हल किया जा सकता है – और, मोदी सरकार इस मामले में बिल्कुल विफल साबित हुई है.

ईडब्लूएस के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण वास्तव में एक छलावा है, यह सिर्फ ऊंची जातियों के लिए आरक्षण है जिसका मकसद है अभिवंचित तबकों के लिए सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को कमजोर बना देना. दरअसल, दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को ईडब्लूएस आरक्षण का लाभ लेने से वंचित कर दिया गया है. यहां तक कि इसके लिए अर्हता कट-ऑफ भी एक ढोंग ही है. ईडब्लूएस आरक्षण के क्रियान्वयन के लिए बनाए गए नियमों के मुताबिक यह अर्हता 8 लाख रुपया वार्षिक (लगभग 67 हजार रुपया मासिक) है. यह तथ्य ऐतिहासिक जातीय नाइंसाफी से उत्पन्न उत्पीड़ित समुदायों की चरम गरीबी का मखौल उड़ाता है. यह मानदंड गरीबी की परिभाषा को व्यर्थ बना देता है; और ऊंची जातियों के गरीबों व बेरोजगारों को प्रभावी ढंग से शामिल नहीं कर पाता है.

बहरहाल, मोदी पहले व्यक्ति नहीं हैं जो रोजगार व शैक्षणिक सीटों में एससी-एसटी-ओबीसी से इतर आर्थिक रूप से अन्य वंचितों के लिए आरक्षण का विचार पेश कर रहे हैं. नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में इसी तरह का कदम उठाते हुए “आर्थिक रूप से पिछड़े जनता के अन्य तबकों, जो आरक्षण की मौजूदा योजनाओं के दायरे में नहीं आते हैं” के लिए 10 प्रतिशत सरकारी पदों को आरक्षित कर दिया था. सर्वोच्च न्यायालय की 9 जजों वाली एक संविधान पीठ ने यह कहते हुए उसे निरस्त कर दिया कि सिर्फ गरीबी को ही पिछड़ेपन का पैमाना नहीं समझा जा सकता है, और कहा कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन ही आरक्षण के लिए एकमात्र संवैधानिक आधार बन सकता है.

सामाजिक न्याय का सवाल और आरक्षण परस्पर गुंथे हुए हैं, उन्हें पृथक-पृथक करके नहीं देखा जा सकता है. एससी और एसटी के लिए सकारात्मक कार्रवाई अथवा प्रतिनिधित्व का विचार डा. बीआर अंबेडकर की सामाजिक न्याय और अभिवंचित समुदायों की सामाजिक अग्रगति की भविष्य-दृष्टि का मूलतत्व था. एक ओर, मोदी सरकार और आरएसएस अंबेडकर को हथिया लेने में मशगूल हैं, जबकि दूसरी ओर उत्पीड़ित जातियों के लिए आरक्षण की जरूरत के बारे में उनके बुनियादी चिंतन को खारिज भी कर रहे हैं.

इस प्रकार, ईडब्लूएस आरक्षण स्वयं आरक्षण ढांचे के अंदर एक समानानंतर खाका तैयार कर रहा है. जातीय प्रणाली को लागू रखना और समाज में ऐतिहासिक रूप से अभिवंचित तबकों के खिलाफ भेदभाव को मजबूत करना इसका साफ मकसद है.

मोदी सरकार, जो नए रोजगार सृजित करने और अर्थतंत्र को पुनर्जीवन प्रदान करने में पूरी तरह विफल हो गई है, हताश होकर ध्यान भटकाने की कार्यनीति के बतौर ईडब्लूएस आरक्षण का इस्तेमाल कर रही है. सकारात्मक कार्रवाई ने रोजगार खत्म नहीं किया है – जैसा कि मोदी और आरएसएस लोगों को यकीन दिलाना चाहते हैं. लोगों की जिंदगी की ही तरह, सरकार ने रोजगार को भी कॉरपोरेट मुनाफाखोरी और देश के संसाधनों की उनके द्वारा लूट की वेदी पर कुर्बान कर दिया है. आज भारत में बेरोजगारी की दर 7.77 प्रतिशत तक पहुंच गई है, और रोज-ब-रोज अधिकाधिक संख्या में लोगों को बेरोजगार बनाकर गरीबी की गर्त में धकेला जा रहा है.

हमें निश्चय ही 10 प्रतिशत ईडब्लूएस आरक्षण का मजबूती से विरोध करना चाहिए, क्योंकि यह संविधान की भावना और सामाजिक न्याय के सिद्धांत का घोर उल्लंघन है. गरीबी के खिलाफ लड़ाई के लिए अधिक रोजगार और आर्थिक पुनरुद्धार की जरूरत है, जो मोदी सरकार की अंधाधुंध कॉरपोरेट-परस्त और निजीकरण दौड़ पर लगाम लगाकर ही हासिल की जा सकती है.