वर्ष - 29
अंक - 15
28-03-2020

कोरोना संक्रमण और उससे हुई मौतों के तेजी से बढ़ते मामलों की खबरों के बीच हम 24 मार्च की शाम को प्रधान मंत्री द्वारा घोषित 21-दिवसीय लाॅकडाउन के दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर चुके हैं. इस बीते एक हफ्ते ने हमें तीन बड़ी चुनौतियों के दरपेश खड़ा कर दिया है: (1) लाॅकडाउन का निर्दयी और जोर-जुल्म से लागू किये जाने वाला चरित्रा और उसका विनाशकारी प्रभाव; (2) महामारी का मुकाबला करने के लिये उपयुक्त मेडिकल सुविधाओं की मांग और भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की चरम सीमा तक गिरी स्थिति, और (3) मोदी सरकार और उसकी संघ-भाजपा ब्रिगेड द्वारा अपनी गलतियों को ढकने तथा अपनी ही फासीवादी परियोजना का ईंधन जुटाने में कोरोना संकट का इस्तेमाल करने के सुनियोजित एवं बेताबीभरे प्रयास.

लाॅकडाउन से दो दिन पहले मोदी ने जनता कर्फ्यू का नाम देकर 14 घंटे का ड्रेस रिहर्सल करने की घोषणा की थी. उसे पूरे तीन दिन का नोटिस देकर संगठित किया गया था. मगर 21 दिनों के लाॅकआउट की घोषणा महज चार घंटे का समय देकर कर दी गई! मोदी ने अपने भाषण में इसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि लाॅकडाउन की अवधि में कैसे दिहाड़ी मजदूर और गरीब तथा कमजोर तबकों के लोग जिंदा रह सकेंगे. बाद में वित्तमंत्री द्वारा घोषित तथाकथित राहत पैकेज तथा गृहमंत्री द्वारा राज्य सरकारों के लिये जारी की गई अधिसूचना जिसमें उनसे प्रवासी मजदूरों के लिये आश्रय और भोजन की व्यवस्था करने का निर्देश, किसी से भी इस मामले कोई स्पष्टता या जानकारी नहीं मिली है.

स्पष्ट है कि सरकार ने इस बात पर कोई विचार ही नहीं किया था कि लाॅकडाउन का विशाल बहुसंख्यक भारतीयों के जीवन और आजीविका पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. सरकार को चिंता सिर्फ इस बात की थी कि जो लोग अपने घरों में रहने की स्थिति में हैं वे लाॅकडाउन में अपना समय कैसे काटेंगे, और इस समस्या को हल करने के लिये मोदी ने एक एनीमेटेड ‘योगा’ वीडियो जारी किया है, और उनके मंत्रीयों ने लोगों को घर बैठे म्यूजिकल गेम्स खेलने अथवा टेलीविजन पर रामायण देखने की सलाह दे डाली है. जो मजदूर और उनके परिवार गुजर-बसर के साधनों से वंचित होकर बेताबी से सैकड़ों मील पैदल चलकर अपने घर पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं, वे मोदी के भारत का अंग ही नहीं हैं. सचमुच, जिन लोगों के पास रहने को ठीकठाक घर नहीं अथवा जिनके पास घर में बैठे-बैठे काम करने का साजोसामान नहीं है, वे सभी मोदी के लाॅकआउट के खाके से बाहर हैं. मगर हम एक बार फिर बड़े तकलीफदेह रास्ते से महसूस कर रहे हैं कि भूख पर ताला नहीं लगाया जा सकता.

जबकि सरकार असंवेदनशील और निर्दयी बनी हुई है, हमें संकट की इस घड़ी में अपनी समूची संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ जनता के साथ खड़ा होना होगा. फंसे हुए मजदूरों को खाना-राशन देने से लेकर, उन्हें घर पहुंचाने तथा लोगों को कोरोना वायरस की महामारी से बचाने के लिये आवश्यक सतर्कता तथा कायदा-कानून का पालन करते हुए गांवों में उनके लिये इंतजाम करने तक, हमें जीवन-संकट का सामना कर रहे व कष्ट भोग रहे मेहनतकशों की मदद करने के लिये पूरा प्रयास करने की जरूरत है. लाॅकआउट ने गैर-प्रवासी ग्रामीण एवं शहरी गरीबों की जिंदगी और आजीविका को भी क्षतिग्रस्त कर दिया है और हमें उनकी तकलीफें दूर करने के लिये राहत कार्य संगठित करके तथा लोगों को बचाने व उनकी सेवा करने के लिये स्थानीय प्रशासन पर दबाव डालने के जरिये अपना पूरा प्रयास लगाना होगा.

कोरोना महामारी के खिलाफ मेडिकल अभियान बड़े पैमाने पर कोरोना का लक्षण दिखलाने वाले लोगों की, अथवा कोरोना प्रभावित देशों की यात्रा करने का इतिहास वाले अथवा कोरोना-पाॅजिटिव (कोरोना रोगग्रस्त) साबित हो चुके लोगों के संस्पर्श में आने वाले लोगों की जांच करने पर आधारित है. इस अभियान का दूसरा हिस्सा है कोरोना के मरीजों को पृथक स्थान पर रखना अथवा क्वारंटाइन करना तथा गंभीर मरीजों के लिये आईसीयू बेड तथा वेंटिलेटर समेत आवश्यक मेडिकल साधन मुहैया कराना. भारत में हमारा बुनियादी ढांचा और तैयारियां हर मामले में चिंताजनक रूप से नाकाफी हैं. सबसे खराब हालात तो यह हैं कि स्वास्थ्यकर्मी समुदाय के लिये बुनियादी किस्म के सुरक्षा कवच (मास्क, दस्ताने, कपड़े आदि) नहीं हैं. कोरोना संक्रमण के मामले जैसे-जैसे बढ़ते जा रहे हैं और बड़ी संख्या में कोरोना मरीजों को गंभीर इलाज की जरूरत हो रही है, वैसे वैसे हमारी मेडिकल सेवा की आपराधिक कमजोरी और ज्यादा स्पष्ट होती जा रही है.

नव-उदारवादी स्वास्थ्य नीति ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की कीमत पर स्वास्थ्य-सेवा के बेलगाम बाजारीकरण और निजीकरण को बढ़ावा दिया है. स्वास्थ्य बीमा की बातें महज इसी सिक्के का दूसरा पहलू हैं और एक मौलिक अधिकार के बतौर विश्व-स्तरीय गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवा पाने के समूचे सवाल को बड़े कारपोरेट अस्पतालों एवं दवा कम्पनियों व बीमा कम्पनियों के गठजोड़ के हितों के मातहत कर दिया गया है. यहां तक कि इतने बड़े जन-स्वास्थ्य संकट के सामने भी सरकार ने अपनी इस प्राथमिकता को बदलने से इन्कार कर दिया है. उसने इजरायल से 16,000 से ज्यादा लाइट मशीनगन खरीदने के लिये 800 करोड़ रुपये के सौदे पर हस्ताक्षर कर दिये हैं. और कोरोना की महामारी से लड़ने इमरजेंसी मेडिकल मिशन के लिये जो राशि स्वीकृत की गई है वह नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक के राजपथ के नवीकरण और उसके सौंदर्यीकरण के लिये बजट में स्वीकृत राशि से भी कम है.

इस विशाल सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के बरक्स सरकारी प्रतिक्रिया की असंवेदनशीलता के साथ अगर कोई चीज मेल खाती है तो वह है शासन का निर्दयी और जोर-जुल्म का रवैया तथा साम्प्रदायिक विषैलापन तथा जातिगत एवं वर्गीय श्रेष्ठतावाद, जो उनकी फासीवादी परियोजना की केन्द्रवस्तु है. पुलिस को बिल्कुल खुली छूट मिली हुई है और हर रोज हम पुलिसिया राजसत्ता की झलकें देख रहे हैं. घर लौट रहे मजदूरों को संक्रमणमुक्त करने के नाम पर उनके साथ बरेली में जो चरम अपमानजनक और स्वास्थ्य को जोखिम में डालने वाला व्यवहार किया गया, लाॅकडाउन को लागू करने के नाम पर कई जगह नागरिकों की पिटाई तथा ‘शारीरिक दंड’ के पाशविक तरीकों का जो रोजमर्रे के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा है, वह हमारे संवैधानिक रूप से घोषित लोकतांत्रिक गणराज्य में एक नये स्तर की ‘जोर-जुल्म को स्वाभाविक स्थिति’ बनाने की ओर इशारा कर रही है.

सचमुच, व्यक्ति-पूजा के इर्द-गिर्द घूमते एक तानाशाही शासन की लाक्षणिक विशेषताओं को और शासन पद्धति के क्रमशः केन्द्रीकृत और गोपनीय होते स्वरूप को हम कदम-कदम पर देख पा रहे हैं. सरकार ने हाल ही में एक नये फंड की शुरूआत की है जिसका नाम रखा गया है ‘पीएमकेयर्स’, जिस पर कत्तई कोई लोकतांत्रिक नियंत्रण नहीं रहेगा अथवा उसकी कोई पारदर्शिता नहीं रहेगी. और अब अफवाहों पर लगाम लगाने के नाम पर सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय जाकर मांग की है कि उसे सोशल मीडिया समेत समस्त मीडिया में कोरोना सम्बंधी खबरों के प्रसार पर और सख्ती से नियंत्रण कायम करने का अधिकार दिया जाये. इस बीच प्रमुख मीडिया जगत ने भारत में कोरोना वायरस पफैलाने के लिये तबलीगी जमात के मत्थे दोष मढ़ने का जहरीला साम्प्रदायिक अभियान छेड़ दिया है.

जब हम लाॅकडाउन के दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर रहे हैं तो हमें पहले हफ्ते के अनुभवों से सबक सीखने की जरूरत है और अपनी सतर्कता तथा मानवीय संवेदना तथा एकजुटता के सशक्त सहबंधनों के साथ संकट का मुकाबला करने के सामूहिक संकल्प को और मजबूत करने की जरूरत है.