वर्ष - 28
06-06-2024

( एमएल अपडेट संपादकीय, 4-10 जून 2024 )

भारत के लोकतंत्र को जिस उत्साहवर्द्धन की जरूरत थी, वह उसे 2024 के चुनावों में मिल ही गया. यह ऐसा चुनाव था जिसमें मोदी का कोई जुमला नहीं चला, आजीविका और स्वतंत्रताओं के मूलभूत सवालों पर जनता के जबरदस्त दखल तथा भारत के संविधान और देश की समृद्ध विविधता को बचाने के संकल्प के सामने भाजपा ने अपने को किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में पाया. यह चुनाव आयोग द्वारा करवाया गया, अब तक का देश का सबसे असमान चुनाव था, जिसमें चुनाव आयोग ने अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से पीठ फेर ली और कार्यपालिका के विस्तारित अंग के तौर पर काम किया. विपक्ष थोड़ा देर से ही साथ आया. यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि उसमें समय की मांग के अनुरूप एकजुटता, स्पष्टता और गतिशीलता का अभाव था, लेकिन फिर भी जनता ने उसे स्वीकार किया और उसे फासीवादी बुलडोजर के खिलाफ अपनी ऊर्जा को संचालित करने के वाहक के तौर पर उसका इस्तेमाल किया. इंडिया गठबंधन की संरचना से आगे बढ़ कर, जमीन पर चुनाव सही मायनों में जनता का आंदोलन बन गया, जिसका समर्थन करने के लिए प्रतिबद्ध सिविल सोसाइटी कार्यकर्ता और बेहद प्रभावशाली व प्रतिबद्ध डिजिटल योद्धाओं का समुदाय मौजूद था.

2024 में 1977 का दोहराव संभव नहीं था. उसका एक प्रमुख कारण है कि 1977 का चुनाव, आपातकाल की वापसी के बाद हुआ था, 2024 का चुनाव आतंक और दमन के क्रूर चक्र के बीच हो रहा था, जिसे किसी औपचारिक घोषणा की जरूरत नहीं थी. 2024 तो 2004 भी नहीं था. 2004 में भाजपा, मोदी काल की भाजपा जितनी ताकतवर नहीं थी और विपक्ष, खासतौर पर कॉंग्रेस, वाम तथा क्षेत्रीय व सामाजिक न्याय के खेमे की पार्टियां इतनी कमजोर नहीं थी, जितनी वे एक दशक लंबे मोदी राज में हो गयी हैं. परंतु फिर भी भारत के संसदीय इतिहास में 2024 का चुनाव, आधुनिक भारत के बेहद चुनौतीपूर्ण मोड़ पर सही मायनों में ऐतिहासिक जनादेश के लिए याद किया जाएगा.

इस जनादेश को सर्वाधिक प्रभावशाली बनाया, संसदीय संख्याबल के लिहाज से भारत के तीन सबसे बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के जोरदार नतीजों ने. उत्तर प्रदेश में आरएलडी के एनडीए में शामिल होने और भाजपा के दबाव में बसपा की बेहद संदिग्ध भूमिका के बावजूद सपा-कॉंग्रेस का शानदार प्रदर्शन मोदी-शाह-योगी हुकूमत के खिलाफ लोकप्रिय उभार का उच्चतम बिंदु रहा है. इंडिया ब्लॉक की ऐन अयोध्या में जीत और वरिष्ठ दलित नेता का सामान्य सीट पर चुना जाना, संघ के एजेंडा को जनता द्वारा खारिज किए जाने का सबसे मजबूत प्रतीक है. बनारस में मोदी का कद घटना और लखीमपुर खीरी से अजय मिश्रा टेनी व अमेठी से स्मृति ईरानी जैसे मोदी हुकूमत के सबसे उद्दंड चेहरों की हार बेहद सुखद है. किसान आंदोलन की ऊर्जा, युवाओं में व्यापक बेरोजगारी के खिलाफ गुस्सा, खास तौर पर अग्निवीर जैसी योजना के विरुद्ध आक्रोश और दलित-बहुजन समुदायों व स्वतंत्रता पसंद नागरिकों की संविधान बचाने के प्रति प्रतिबद्धता ने देश के कई हिस्सों में चुनाव को जन उभार में तब्दील कर दिया.  

चुनाव परिणाम में भिन्नता और अलग-अलग प्रकृति के परिलक्षित होने के बावजूद जनादेश को सिर्फ विभिन्न राज्यों के चुनाव के योग के रूप में देखना ठीक नहीं होगा. यह सही है कि ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में जहां राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ हुए, वहाँ भाजपा ने राजनीतिक खालीपन का लाभ उठाया और बदलाव की लोकप्रिय आकांक्षा की लहर पर सवार हो गयी पर इसके बावजूद चुनाव परिणाम मोदी हुकूमत के खिलाफ अखिल भारतीय संदेश को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं. और अगर इसके लिए किसी को सबूत चाहिए तो वो पश्चिम बंगाल के जबरदस्त चुनाव परिणाम को देख ले, वहाँ पर टीएमसी सरकार के खिलाफ काफी सत्ता विरोधी लहर थी, इंडिया ब्लॉक बंटा हुआ था और यह बहुत सारे लोगों का मानना था कि लोकसभा चुनाव, राज्य सरकार के प्रदर्शन के जनमत संग्रह के रूप में सिमट कर रह जाएँगे. दरअसल भाजपा ने पूरे देश में ही वोट और सीटें गंवाई हैं, इसमें ओडिशा व आंध्रप्रदेश अपवाद हैं, जहां सत्तासीन दलों को वोट के जरिये हटा दिया गया और तमिलनाडु, केरल और तेलंगाना जैसे दक्षिण के राज्य जहां भाजपा वोट शेयर के रूप में लगातार बढ़ रही है और अब उस वोट शेयर को सीटों में भी रूपांतरित कर ले रही है. उत्तर प्रदेश जो भारत में फासीवाद के उभार और मजबूती का केंद्र रहा है, वहीं भाजपा को सबसे बड़ा झटका लगा है, यही तथ्य 2024 के जनादेश की मूल अंतरवस्तु है.

हालांकि इंडिया गठबंधन ने बिहार में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है, लेकिन वहाँ सबसे अच्छा परिणाम दक्षिण बिहार के शाहाबाद और मगध के इलाके से आया है. इस इलाके में जिन आठ सीटों पर आखिरी चरण में चुनाव हुआ, उनमें से इंडिया छह जीता और बाकी दो में भी जबरदस्त संघर्ष किया. भाकपा(माले) ने यहां लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की ताकतों की एकता और पहल को आकार देने में एकजुटकर्ता की भूमिका निभाई, खुद आठ में से तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और दो सीटें जीती. इसके अलावा पार्टी को राजनीतिक द्वेष के चलते किए गए फर्जी मुकदमें में विधायक मनोज मंज़िल को सजा होने और उनकी विधायकी रद्द हो जाने के चलते, भोजपुर में अगिआंव विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव भी लड़ना पड़ा, जिसे पार्टी ने आराम से अच्छे अंतर से जीत लिया. झारखंड वह दूसरा राज्य था, जहां भाकपा(माले) ने इंडिया ब्लॉक के समर्थन से प्रत्याशी उतारा था पर यहां बड़े अंतर के साथ हम दूसरे नंबर पर आए. यह विश्लेषण किया जाना बाकी है कि झारखंड में भाजपा विरोधी वोटों का लोकप्रिय ज़ोर केवल पाँच अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों तक ही क्यूं सीमित रहा.

वामपंथ का संसद में प्रतिनिधित्व उत्साहवर्द्धक है, जिसमें हिंदी पट्टी से तीन सांसदों की जीत शामिल है- इनमें भाकपा(माले) के दो सांसद बिहार से और माकपा के एक सांसद राजस्थान से हैं- साथ ही छह वामपंथी सांसद तमिलनाडू और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों से हैं.

मोदी सरकार की जबरदस्त हार जिसके चलते एनडीए सत्ता से बेदखल होते-होते बचा, के अलावा संसद में और उसके बाहर एक अधिक दृढ़ निश्चयी और एकजुट विपक्ष 2024 के चुनाव का सबसे बड़ा हासिल है. तेलगु देशम और जदयू जैसी पार्टियों के सहयोग से एनडीए के पास भले ही सरकार बनाने की संख्या हो जाये पर मोदी, शाह, योगी जैसे नेताओं ने जनमत खो दिया है और उनके पास नयी सरकार के कामकाज के केंद्र में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. पिछले लोकसभा अध्यक्ष ने अपने पक्षपाती आचरण से अध्यक्ष पद की गरिमा को तार-तार किया है, साथी सांसदों के खिलाफ नफरत भरे भाषणों को अनदेखा किया, लोकतांत्रिक बहस और मतभिन्नता को बाधित किया. नयी संसद के पास गैर भाजपा अध्यक्ष होना चाहिए ताकि स्वस्थ माहौल, लोकतंत्र के लिए सम्मान और संसदीय शिष्टाचार बहाल किया जा सके. भाजपा के स्पष्ट बहुमत खोने से भारत ने गहरी राहत की सांस ली है और फासीवाद को ज्यादा निर्णायक शिकस्त देने की लड़ाई को अब ज्यादा एकता, साहस के साथ चलाया जाना चाहिए, कार्यपालिका को नियंत्रित करने और कानून के संवैधानिक शासन को बहाल करने का काम ज्यादा दृढ़ निश्चय के साथ किया जाना चाहिए तथा भारत के सामाजिक ताने-बाने व संघीय ढांचे को पहुंचाए गए नुकसानों को दुरुस्त किया जाना चाहिए.