वर्ष - 31
अंक - 31
30-07-2022

मोदी राज ने पहले से पैक्ड और लेबल लगे दाल, गेहूं, चावल, आंटा, सूजी, बेसन, मूढ़ी, दूध और दही/लस्सी पर 5 प्रतिशत का जीएसटी लगाने का फैसला किया है. इससे पिछले कई दशकों में सबसे ज्यादा महंगाई और बेरोजगारी दर से जूझते आम लोगों पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

जीएसटी की घोषणा करते वक्त मोदी ने अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर आरोप लगाया था कि उसने ‘दूध और दही जैसी खाद्य वस्तुओं पर भी अैक्स लगा दिया’, और यह दावा किया था कि जीएसटी प्रणाली से उपभोक्ताओं पर टैक्स का बोझ घटेगा और सरकार का राजस्व बढ़ेगा. अब उन्हीं खाद्य वस्तुओं पर जीएसटी थोपने का यह फैसला उनके उन दावों को एक दूसरा ‘जुमला’ साबित कर दे रहा है.

आम भारतीयों की विशाल बहुसंख्या के लिए इन कठिन दुश्वारियों के समय मोदी शासन आवश्यक खाद्य पदार्थों पर टैक्स लगाने का फैसला ले रही है, जबकि वह लगातार अति धनाड्य क्रोनी (चहेते) काॅरपोरेटों के टैक्सों में भारी छूट देती जा रही है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस स्पष्टीकरण से कोई बात बनती नहीं दिख रही है कि जिन खाद्य वस्तुओं की खुली बिक्री होती है, उनपर जीएसटी नहीं लगेगा. संगठित थोक और खुदरा बाजार के फैलाव के साथ पैक्ड ब्रांडेड खाद्य वस्तुओं की बिक्री बढ़ रही है और उसी अनुपात में किराना दुकानों में खुले खाद्य वस्तुओं की बिक्री घटती जा रही है. इन वस्तुओं पर जीएसटी लगने से गरीबों पर करारी चोट पड़ेगी, और साथ ही निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर भी बोझ बढ़ जाएगा जो पहले से ही वेतन और आय घट जाने से परेशान हैं.

सरकार की इस व्याख्या से कोई राहत नहीं मिलती है कि बड़े ब्रांडों द्वारा टैक्स की चोरी किए जाने की वजह से यह जीएसटी लगाया जा रहा है. जीएसटी अ-प्रत्यक्ष कर है, इसीलिए उत्पादकों / विक्रेताओं पर यह कर लगाने से उपभोक्ताओं पर इसका सीधा असर पड़ना निश्चित है. अगर सरकार सचमुच ब्रांडेड खाद्य वस्तुओं की बिक्री करने वाले काॅरपोरेटों से अपने राजस्व को बढ़ाना चाहती है, तो उसके लिए ज्यादा कारगर और बेहतर उपाय यह है कि उनकी आमदनी पर काॅरपोरेट टैक्स को बढ़ाया जाए, क्योंकि भारत में काॅरपोरेट टैक्स का स्तर दुनिया में सबसे नीचे है और साथ ही बड़े व्यापारिक घरानों को हर वर्ष हजारों करोड़ रुपये की टैक्स माफी भी दी जा रही है.

सरकार का यह जन-विरोधी फैसला उस समय आया है जब बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी पहले ही रेकाॅर्ड ऊंचाइयों पर जा पहुंची है, और लोगों की आमदनी कोविड-पूर्व के स्तर पर भी नहीं पहुंच पाई है. अपने आर्थिक अधिकारों के लिए जनता की एकताबद्ध दावेदारी बढ़ाकर इस फैसले का प्रतिरोध करना जरूरी है.