वर्ष - 31
अंक - 44
29-10-2022

इंग्लैंड के 57वें प्रधानमंत्री बतौर ‘टोरी’ (इंग्लैंड का एक राजनीतिक दल) के निर्वाचन पर भारत में मचाया जा रहा हर्षोल्लास काफी अजीबोगरीब है. बेशक, संघ ब्रिगेड विजयी मुद्रा में घूम रहा है. जिन ‘भक्तों’ के लिए 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आजादी हासिल हुई है, उनके लिये यह एक महान पल है. उन लोगों की निगाह में सदियों का उपनिवेशवाद अब एक एकल उदाहरण से पलटा जा रहा है जिसमें भारतीय मूल का एक व्यक्ति उस पूर्व की औपनिवेशिक शक्ति का प्रधानमंत्री बन रहा है!

घटना क्रम को इस ढंग से समझना ख्याली पुलाव पकाने जैसी बिल्कुल बेतुकी बात है. ऋृषि सुनक के दादा लोग 1930 - दशक में अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) से निकल कर अफ्रीका चले गए थे और अंततः वे लोग इंग्लैंड में आकर बस गए. भारत के साथ ऋृषि सुनक का दूसरा जुड़ाव, जो अपेक्षाकृत हाल का तथा ज्यादा प्रासंगिक है, उनके ष्वसुर एनआर नारायण के जरिये बनता है.

हाल के दशकों में ब्रिटिश राजनीति में नृजातीय व धार्मिक अल्पसंख्यकों की पृष्ठभूमि से लगातार अधिकाधिक सांसद चुने जा रहे हैं. 2019 के आम चुनाव में इंग्लैंड की संसद में नृजातीय अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि से 65 उम्मीदवार चुनकर आए थे – इनमें से 44 लेबर पार्टी के थे, 22 कंजर्वेटिव और शेष 2 लिबरल डेमोक्रेट थे. इंग्लैंड के 57वें प्रधानमंत्री के बतौर ऋृषि सुनक के निर्वाचन ने इसी प्रवृत्ति में आ रही वृद्धि को रेखांकित किया है. उनके मामले में – 2015 में सांसद बनने से लेकर महज सात साल बाद प्रधानमंत्री बन जाना – इस वृद्धि को अत्यंत क्षिप्र और तेजोमय जरूर कहा जा सकता है. लेकिन इस बात को उस संकट के साथ जोड़कर देखना उचित होगा जिसमें पिछले छह वर्षों के दौरान पांच प्रधानमंत्री सामने आए – तीन प्रधानमंत्री तो इसी एक साल में; और फिर, वर्गीय लिहाज से भी ऋृषि की अर्हता मायने रखती है – उनके शक्तिशाली व्यावसायिक जुड़ाव हैं और थैचर विचारधारा में उनका ठोस शिक्षण-प्रशिक्षण हुआ है. उनके परिवार की शुद्ध परिसंपत्ति 80 करोड़ डाॅलर से भी ज्यादा है, और इसीलिये ‘ऋृषि रिच’ कहे जाने वाले सुनक ब्रिटेन अति-धनाढ्यों के अभिजात वर्गीय क्लब के सदस्य माने जाते हैं. इंग्लैंड में ऋृषि सुनक और नृजातीय अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि के अन्य राजनीतिज्ञों की सफलता पर भारत में हर्षोल्लास मनाने वालों के लिए संसदीय क्षेत्र में भारत के अपने अल्पसंख्यकों के अत्यंत कमजोर प्रतिनिधित्व पर भी नजर डाल लेना बेहतर होगा. जहां इंग्लैंड में नृजातीय अल्पसंख्यकों की स्पष्ट उपस्थिति अपेक्षकृत हाल की परिघटना है जो आप्रवासन (आव्रजन, इमीग्रेशन) के इतिहास के साथ जुड़ी हुई है; वहीं भारतीय मुसलमानों की जड़ें तो सदियों से देश के इतिहास में धंसी हुई हैं. फिर भी भारत की फासीवादी ताकतों की उग्र इस्लामभीति और अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति सर्वविदित है – यह बात मुस्लिमों की जानबूझ कर राजनीति के हाशिये पर धकेलने से लेकर उनके खिलाफ लगातार धृणा-अभियान चलाने तथा उनके आर्थिक बहिष्कार और यहां तक कि उनके जनसंहार तक के आह्वान जारी करने तक में स्पष्ट परिलक्षित होती है.

और, भारतीय राजनीति में सिर्फ एक मर्तबा ऐसा समय आया जब किसी तटस्थ भारतीय नागरिक को प्रधानमंत्री बनाने के बारे में सोचने का मौका था, तब जो लोग आज ऋृषि सुनक को लेकर खुशी में उछल रहे हैं, वे विदेशी भीति (जेनोफोबिया) से आक्रांत होकर चीख-पुकार मचाने लगे थे.