वर्ष - 31
अंक - 45
05-11-2022

‘वन अधिकार कानून 2006 लागू करो-घरेलू काम के लिए पहाडी़ और जंगली नदियों से बालू-पत्थर निकासी की छूट दो’ की मांग के साथ धरना

पश्चिम चंपारण जिले के मैनाटांड़ में 19 अक्टूबर 2022 को और गौनाहां में 21 अक्टूबर 2022 को प्रखंड विकास पदाधिकारी के समक्ष ‘आदिवासी संघर्ष मोर्चा’ के बैनर से 5 सुत्री मांगो को लेकर धरना दिया गया. बाद में पांच सदस्यी प्रतिनिधिमंडल ने प्रखंड विकास पदाधिकारी को मुख्यमंत्री, पटना, बिहार सरकार के नाम मांगपत्र सौंपा.

पश्चिमी चंपारण जिला में थारू जनजाति की लगभग तीन लाख की आबादी है. जो लगभग 6 प्रखंडों – मैनाटाड़, गौनहां, रामनगर, बगहा-1, बगहा-2 और मधुबनी में निवास करती है, चार विधानसभा सीटों पर इनका अच्छा प्रभाव रहता है. थारू समुदाय के लोगों का जीवन खेती और जंगल पर आधारित है. 8 जनवरी 2003 को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के काल में इस जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला.

वन अधिकार क़ानून 2006जो अधिकार देता है

  • 1. मालिकाना हक – कानून के मुताबिक आदिवासियों या वनवासियों को उस जमीन का पट्टा दे दिया जायेगा जिस पर वे खेती कर रहे हैं या लगभग तीन पीढ़ियों या 75 सालों से रह रहे हैं.
  • 2. वन उत्पादों के इस्तेमाल का अधिकार – लघु वन उपज, चारागाह, और आने-जाने के रास्ते के उपयोग का हक होगा.
  • 3. राहत और विकास से जुड़े हक – वन्य सुरक्षा को देखते हुए अवैध निकासी या जबरन विस्थापन के मामले में पुनर्वास और बुनियादी सुविधाओं का अधिकार होगा.
  • 4. वन प्रबंधन का अधिकार – जंगलों और वन्य जीवों की रक्षा का हक दिया गया है.

यानी वन क्षेत्रा में निवास करने वाली ऐसी अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के, जो ऐसे वनों में पीढ़ियों से निवास कर रहे है, किन्तु उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है, वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभोग को मान्यता देने और निहित करने, वन भूमि में इस प्रकार निहित वन अधिकारों को अभिलिखित करने के लिए संरचना का और वन भूमि के संबंध में अधिकारों को ऐसी मान्यता देने ओर निहित करने के लिये अपेक्षित साक्ष्य की प्रकृति का उपबंध करने के लिए भारत सरकार द्वारा वन अधिकार अधिनियम, 2006 पारित किया गया, जो दिनांक 31 दिसम्बर, 2007 से लागू हुआ.

भारत सरकार ने 2006 में वनाधिकार कानून को पास कर दिया है, लेकिन बिहार में यह आज तक लागू नहीं हुआ, जबकि थारू जनजाति का जीवन जंगल से जुड़ा हुआ है. इस कानून के अभाव में लोगों को अपने मूल अधिकार से वंचित रहना पड़ रहा है. भाकपा(माले) और खेग्रामस लगातार आंदोलन के जरिये इस कानून को लागू करने की मांग को उठाया जाता रहा हैं और बार-बार सरकार मांगपत्र दिया जाता रहा है, मगर सरकारें इन मांग पत्रों को रद्दी की टोकरी में फेंकते आ रही है!

आदिवासियों की यह हालत क्यों

बाल्मिकीनगर टाइगर रिजर्व क्षेत्र 1990 में देश का 18वां बाघ अभयारण्य बनाया गया. उसी समय से आदिवासियों को जंगल से जो भी सुविधा मिला करती थी, वह धीरे-धीरे बंद होने लगी. यहां तक कि अब तो पहाड़ी नदियों से बालू-पत्थर की निकासी पर भी पुरी तरह रोक लगा दी गई है. अब इन्हे खुद का घर बनाने के लिए सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है, इतना ही नहीं, जंगल की जमीन पर समुदायों के दावों को दर्ज करने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामूहिक उद्देश्य, स्कूल, चारागाह और आंगनवाड़ी, सड़क आदि का निर्माण भी नहीं हो पा रहा है.

बाघ अभयारण्य यानी वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व क्षेत्र लगभग 880 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला है.

यह राष्ट्रीय उद्यान नेपाल के राजकीय चितवन नेशनल पार्क से सटा हुआ है. इस कारण से यहां हिरण, चीतल, सांभर, तेंदुआ, नीलगाय, जंगली बिल्ली जैसे जंगली पशुओं के अलावे चितवन नेशनल पार्क से आये हुए एकसिंगी गैडा और जंगली भैंसा भी पाये जाते हैं. इस कारण आदिवासियों सहित गरीबों के जीवन-जीविका पर खतरा बढ़ गया है.

इतना ही नहीं ‘वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 की धारा 38-ट एक बाघ अभ्यारण्य के लिए बाघ आवास क्षेत्र के अलावा जंगल के बाहरी क्षेत्र जिसे बफोर या परिधीय क्षेत्र कहते हैं, जंगल से बाहर 2-3 किलोमीटर का क्षेत्र ग्रास लैंड की श्रेणी में आता है. यानी एक बाघ अभयारण्य में दो भाग होते हैं – कोर या महत्वपूर्ण बाघ आवास (राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य की स्थिति) और बफर या परिधीय क्षेत्र.

आदिवासियों के जीवन जीविका पर बढ़ता खतरा

जंगल के अंदर और बाहर कोर एरिया में निवास करने वाले आदिवासियों के विकास की बात तो दूर की कहानी बन गयी है, अब उन पर विस्थापन का खतरा भी मंडराने लगा है, सरकार की नीति ‘आदिवासियों के जीवन-जीविका के खिलाफ वन्य जीव के लिए’ बनते जा रही है. धीरे-धीरे आदिवासियों को मिले अधिकारों को सरकार सिमीत करते जा रहीं है. वह जल-जंगल-पहाड़ से जुड़े आदिवासियों को ही जल-जंगल-पहाड़ का दुश्मन बनाने की कहानी बनाने में लगी हुई है.

पहले से हासिल वन अधिकारों की पुनः बहाली के साथ साथ 2006 वन अधिकार कानून को लागू करने, बालू-पत्थर की निकासी का हक, थरुहट क्षेत्र के बच्चों के लिए अनुसूचित जनजाति आवासीय विद्यालय निर्माण और स्वास्थ्य केंद्रों आदि सवालों पर आंदोलन तेज करने के अनुकूल माहौल बना हुआ है. इस मामले में आदिवासी संघर्ष मोर्चा की भूमिका अहम होगी.


आदिवासी संघर्ष मोर्चा का मांगपत्र

  • (1) स्थानीय लोगों को घरेलू काम के लिए पहाड़ी और जंगली नदियों से बालू-पत्थर की निकासी पर लगी रोक खत्म की जाये तथा नदियों से सिल्टेशन खत्म किया जाये.
  • (2) 2006 वन अधिकार कानून को तत्काल बहाल किया जाये.
  • (3) आदिवासियों की पर्चे की जमीन पर दखल-कब्जा दिलाया जाये तथा विशेष कानून के तहत कैम्प लगाकर भूमिहीनों को वास-आवास और खेती बारी हेतु जमीन दिया जाये.
  • (4) पिछले दिनों आदमखोर बाघ के हमले (बाघ ने 11 लोगों को मार दिया था) और हत्या से जनता आक्रोशित हो गई थी. अन्त में प्रशासन भी सक्रिय हुआ और विशेष टीम गठित कर बाघ को मारा गया. प्रशासन द्वारा जनता के आक्रोश को सकरात्मक रूप से लेने की बजाय जनता को सबक सिखाने के नीयत से सैकड़ों लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया है. इस मुकदमा को वापस लिया जाये.
  • (5) बफर एरिया से आदिवासियों को उजाड़ने पर रोक लगाया जाये.
  • (6) बिहार में आदिवासियों को 5% आरक्षण दिया जाये

– सुनील यादव