वर्ष - 31
अंक - 46
12-11-2022

-- क्लिफ्टन डी. रोजारियो

आप फासीवाद के खिलाफ सम्मेलन में इसलिये नही जाते कि फासीवाद की पक्की परिभाषा तय करें, बल्कि यह समझने जाते हैं कि विभिन्न तबकों के लिए इसके क्या मायने हैं, उनके अस्तित्व पर फासीवाद का क्या असर पड़ा है, और कितने कारगर तरीके से वे इसका मुकाबला कर रहे हैं. – के. बालगोपाल [1]

[ह्यूमन राइट्स फोरम (एचआरएफ) द्वारा 9 अक्टूबर 2022 को हैदराबाद में आयोजित 13वीं बालगोपाल मेमोरियल मीटिंग में दिए गए भाषण से]

आज मजदूर तबके की हालत उनकी असुरक्षित नौकरियों, सामाजिक सुरक्षा का अभाव, कम मजदूरी, शोषणकारी कामकाजी परिस्थितियां और यूनियन की गतिविधियों पर रोक की वजह से हमेशा के लिये संकटपूर्ण हो गयी है. हकीकत में 90% से अधिक मजदूर असंगठित क्षेत्र में हैं [2] और 60% मजदूर प्रतिदिन 350 रू. से भी कम कमाते हैं. बेरोजगारी वास्तव में 40 साल के उच्चतम स्तर पर है. सच में, आज मजदूरों की नाजुक हालात इस तथ्य से जाहिर होती है कि देश में हर साल होने वाली आत्महत्याओं में 25% से ज्यादा दिहाड़ी मजदूरों के तबके से है, यानि कि 42,000 मौतें जो हैरान करने वाला है. ज्यादातर मजदूर कामकाजी गरीबों के तबके से हैं जिन्हें प्रतिदिन की जरूरतों को आजीविका की संकटपूर्ण परिस्थितियों के बीच पूरा करना पड़ता है, जिसे जान ब्रेमेन ने ‘फुटलूज लेबर’ कहा है. (फुटलूज लेबर - वैसा सर्वहारा वर्ग जिन्हें कृषि श्रम बाजार से बाहर धकेल दिया जाता है और उन्हें आजीविका के लिए कैजुअल बेसिस पर कई कामों को करना पड़ता है.)

साथ ही, कई क्षेत्रों में जातीय, सामंती और पितृसत्तात्मक संरचनाएं हावी हैं. उदाहरण के लिए, सफाई कर्मचारी और हाथ से मैला ढोने वाले ज्यादातर दलित हैं, स्कीम वर्कर और घरेलू कामगार मुख्य रूप से महिलाएं हैं, जबकि बंधुआ मजदूर ज्यादातर आदिवासी हैं. महिला श्रमिकों का अनुपात काफी कम है, जबकि लैंगिक और मजदूरी की असमानता बढ़ती जा रही है.

न केवल 2 करोड़ नौकरियों का वादा भूला दिया गया है, बल्कि केंद्र सरकार की मौजूदा आर्थिक नीतियां नौकरियों को छीन रही हैं और बेरोजगारी को बढ़ा रही हैं. बेरोजगारी का यह संकट मजदूरों के पूरे वर्ग को गरीबी, कर्ज के दलदल, असुरक्षित आजीविका, भूख और हाशिए पर धकेल रहा है, खास तौर पर उपेक्षित और उत्पीड़ित वर्गों के लोगों को.

मजदूर तबके पर फासीवादी हमला

फासीवाद का साया भारत पर गहराता जा रहा है. वास्तव में भारत के भविष्य को लेकर जो संघर्ष चल रहा है, उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं है. बहुत से लोग आज की राजनीतिक हालात की तुलना आपातकाल के साथ करने की गलती करते हैं, पर दोनों के बीच मौलिक फर्क को भूल जाते हैं. सबसे खास बात यह है कि फासीवाद का वर्तमान भारतीय ब्रांड विचारधारा में निहित है. कृपया यह समझ लें कि यह हिंदुत्व है और केंद्र की मोदी सरकार उसका चेहरा और आरएसएस और उसके संगठनों के विशाल नेटवर्क का फ्रंट-ऑफिस बन गया है.

भारतीय फासीवादी ब्रांड की कुछ अलग खासियतों में आम तौर पर संविधान और संसदीय लोकतंत्र का उपहास, लोकतंत्रा और जवाबदेही की संस्थाओं को खत्म करना, किसी भी वैचारिक असहमति का उत्पीड़न, हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के जरिये हिंसा का निजीकरण, हिंदुत्व राष्ट्रवादी विमर्श, हिंदुत्व की कानूनन कूटबद्धता (अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, नागरिकता संशोधन अधिनियम, कर्नाटक में शिक्षा संस्थानों में हिजाब पर रोक, आदि), अभूतपूर्व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, मुस्लिमों का हाशिये पर धकेला जाना, जाति सुदृढ़ीकरण व लड़ाकू जातिगत आक्रामकता, और निश्चित तौर से मोदी हुकूमत का नंगा कारपोरेटपरस्त एजेंडा शामिल है.

एक अन्य प्रमुख खासियत चार अहम मुद्दों पर मजदूर तबका के खिलाफ शासक वर्ग का खुला युद्ध है.

नवउदारवादी नीतियां, कारपोरेट राज और क्रोनी पूंजीवाद

‘उदाहरण के लिए, लोकलुभावन फासीवाद ने आज नई आर्थिक नीति के विरोध करने का एक बड़ा तमाशा किया होता. भाजपा सिर्फ ये नही करेगी, बल्कि अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बचाव में सबसे बेशर्म तर्क पेश करती है - के. बालगोपाल. [3]

वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिये उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण और जन कल्याणकारी राज्य की भूमिका से पीछे हटने जैसी नवउदारवादी नुस्खों ने मजदूरों के जीवन को बिलकुल तबाह कर दिया है, जिससे बेरोजगारी, लगातार बढ़ती असमानता और काम करने और रहने की खतरनाक परिस्थितियों में इजाफा हो रहा है. अप्रत्याशित रूप से, इसने फासीवादी और तानाशाही हुकूमतों को दुनिया भर में सत्तासीन होने की जमीन तैयार की है. समूची दुनिया मे प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ हुकूमतों की बढ़ोतरी के इस दौर में फासीवादी हिन्दुत्व संकटग्रस्त पूंजीवाद की बिना शर्त हिफाजत की वकालत करता है.

सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों के उसूली निजीकरण और एकमुश्त बिक्री के जरिये पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था अब विदेशी पूंजी के लिए खोल दी गई है, चाहे वह ‘मेक इन इंडिया’ या ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन’ के नाम पर होइसके साथ ही नोटबन्दी, जीएसटी और तानाशाही भरी लॉकडाउन के साझे असर ने मजदूर तबके को और भी कंगाल बना दिया, जबकि कॉरपोरेट्स और उच्च वर्ग की संपत्ति में अभूतपूर्व इजाफा हुआ जिसकी दुनिया में कोई मिसाल नही है. सार्वजनिक संपत्तियों और संसाधनों का कॉरपोरेट्स को हस्तांतरण, सभी क्षेत्रों में निजी इजारेदारी को मजबूत करने की वजह से चंद कॉरपोरेटों के हाथों में अकूत धन का जमा होना (अडानी की संपत्ति पिछले आठ साल में तीस गुना बढ़ी) क्रोनी पूंजीवाद की सबसे बेशर्म किस्म है.

इस सार्वजनिक संपत्ति का कॉरपोरेटों के पास हस्तांतरण का एक प्रत्यक्ष परिणाम यह होगा कि कर्मचारियों को उनकी नौकरी से निकाल दिया जाएगा और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण नीति का परित्याग कर दिया जाएगा.

आने वाले हालात का अंदाजा एअर इंडिया के अनुभव से साफ है. 8 अक्टूबर, 2021 को केंद्र सरकार ने एयर इंडिया को टाटा को बेचने की घोषणा की. टाटा के स्वामित्व वाली एयर इंडिया जून 2022 में अपने कर्मचारियों के लिए एक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) लेकर आई, साथ ही यह भी घोषणा की गई कि इसका उद्देश्य अहम पदों पर ‘सही व्यक्तियों’ को नियुक्त करना है. यानि कि एक तरफ काम पर रखना और दूसरी तरफ नौकरी से बाहर करना! [4]

मजदूरों का तिरस्कार

केंद्र सरकार द्वारा पूंजी की खुल्लमखुल्ला वकालत सिर्फ भाजपा के चुनाव अभियानों के लिए फंड देने का प्रतिफल नहीं है, बल्कि यह वैसी विचारधारा से पैदा हुई है जो स्वाभाविक तौर से मजदूर विरोधी है. इसकी बुनियाद में हिंदुत्व फासीवाद द्वारा अपना हक जताने वाले, न झुकने वाले, संगठित नागरिक के बतौर अपनी मेहनत का हिस्सा मांगने वाले लड़ाके मजदूरों की सरासर अवमानना सत्ता पर काबिज होने का पहला कदम है. हिंदुत्व फासीवाद नियोक्ताओं और मजदूरों के बीच ऐसे रिश्ते को संरक्षण देता है, जो दासता और अधीनता पर आधारित है.

कॉरपोरेटों के लिए लगातार वकालत करने वाले मोदी ने ‘उद्योग और कॉरपोरेट्स की आलोचना करने की संस्कृति’ की निंदा की है, क्योंकि उनका मानना है कि वे अपने कारोबार के साथ अनुकरणीय सामाजिक कार्य कर रहे हैं. 26 मई 2019 को अपने चुनावी विजय भाषण में मोदी ने कहा – ‘अब, देश में केवल दो जातियाँ रह रही हैं और देश को इन दो जातियों को तवज्जो देना होगा. 21वीं सदी के भारत में एक जाति है गरीब की और अन्य जातियां हैं जिनका थोड़ा सा योगदान उन्हें गरीबी से मुक्त कराने में है. कुछ ऐसे हैं जो गरीबी से बाहर आना चाहते हैं, और कुछ हैं जो लोगों को गरीबी से बाहर निकालना चाहते हैं. हमें इन दोनों को सशक्त बनाना है.’ इसके तुरत बाद 15 अगस्त 2019 को अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में मोदी ने संपत्ति सृजन करने वालों को संदेह की नजर से देखने वालों को चेतावनी देते हुए कहा कि संपत्ति सृजन देश की सबसे बड़ी सेवा है. इसे सन्देह की निगाह से नहीं देखा जाना चाहिए, वे देश की पूंजी हैं, उनका सम्मान होना चाहिए.

इस निजाम की नजर में जिन मजदूरों की मेहनत सब कुछ पैदा करती है, वे धन के निर्माता नहीं हैं. इसके उल्टे जो कॉरपोरेट्स इनकी मेहनत और संसाधनों के सरासर लूट और शोषण से धन जमा करते हैं, वे मौजूदा हुकूमत की निगाह में धन निर्माता हैं और मजदूरों को उनके प्रति आभार जाहिर करना चाहिए!

मजदूर वर्ग पर किए गए कई नीतिगत हमलों में से एक नोटबंदी थी, जिसकी वजह से मजदूरों को भोजन, चिकित्सा खर्च, स्कूल फीस, परिवहन आदि सहित बुनियादी जरूरतों के खर्चों को पूरा करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. दिन भर लंबी लाइन में खड़े होने को मजबूर मजदूरों ने अपनी आजीविका और मजदूरी खो दी. नोटबन्दी को जिस तरीके से जबरन लागू किया गया, वह पूरी तरह से मजदूर तबके की तौहीन थी.

चार घंटे की नोटिस पर कोविड लॉकडाउन लागू करने की कारवाई ने मजदूरों और उनकी आजीविका के प्रति तिरस्कार का खुलासा किया. महीने के अंतिम हफ्ते में 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा ने नियोक्ताओं को मजदूरों को उनके वेतन से वंचित में सक्षम बनाया तथा उनकी मजदूरी की चोरी करने को आसान कर दिया. मजदूरों को और उनके परिवारों को दरिद्रता, भुखमरी और अभाव का सामना करना पड़ा. प्रवासी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घरों को जाने को मजबूर हुए और इस क्रम में सैकड़ों की जान चली गई. प्रवासियों को रास्ते में तरह-तरह की जिल्लत झेलनी पड़ी. यूपी के बरेली में उन पर बीच सड़क पर कीटाणुनाशक का छिड़काव किया गया, जबकि बिहार में उन्हें बॉर्डर पर ही प्रवेश से मना कर दिया गया था. बहरहाल, यूपी सरकार ने जून 2022 में लॉकडाउन में अपने घरों की ओर जा रहे मजदूरों से जब्त हजारों साइकिलों की नीलामी कर 21 लाख रुपये कमाए!

मज़दूर वर्ग संघर्षों को सरकार द्वारा अपराध मानने के नजरिए में भी उनके प्रति तिरस्कार झलकता है. सूरत में कोविड लॉकडाउन के दौरान अपने घरों को लौटने की अनुमति मांगने वाले मजदूरों पर आंसू गैस के गोले दागे गए, लाठीचार्ज किया गया और फिर गिरफ्तार कर लिया गयाइस प्रवृत्ति का एक और दिल दहलाने वाला खुलासा रिलायंस एनर्जी लिमिटेड, बंबई में अनुबंध पर काम करने वाले मुम्बई इलेक्ट्रिक कर्मचारी संघ के पांच सदस्यों का अनुभव है, जो अनिश्चित कामकाजी परिस्थितियों और मजदूरों के बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे. उन्हें झूठे मामलों में फंसाया गया और उनके यूनियन गतिविधियों में भागीदारी की वजह से यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया. वे तब से दो-तीन साल जेल में बिताने के बाद जमानत पर रिहा हुए हैं. संयोग से उन पर एक आरोप यह भी है कि जानबूझकर एक दिन के लिए रिलायंस एनर्जी लिमिटेड का काम रोक दिया! नई श्रम संहिताओं के आने के साथ ही केंद्र सरकार ने मजदूरों के सबसे बुनियादी अधिकारों का भी खात्मा करने और उनके कसी भी संघर्ष का क्रूरता से दमन करने की अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है.

मौजूदा श्रम कानूनों का विघटन कर खात्मा करने से मजदूरों को पनाह नही

पिछले शासनों में हमने मजदूरों को मौजूदा श्रम कानूनों के लाभों से वंचित करने के लिए दो रणनीतियों को अपनाते देखा है. पहला, सरकारों की नायाब रणनीति मौजूदा श्रम कानूनों को लागू करने के शुरुआती दौर से ऐसे परिभाषित करने की रही है, जो किताबों के कानून और इसे तामील करने की कार्रवाई में चौंकाने वाली विसंगति से उजागर होती है. सच्चाई यह है कि इन कानूनों को कभी भी पूरी तरह से लागू नहीं किये जाने से मजदूरों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई. दूसरी रणनीति न्यायिक व्याख्या के जरिये मजदूरों के संरक्षण को धीरे-धीरे कम करना है. स्टील ऑथोरिटी ऑफ इंडिया वाले मामले में ‘कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट, 1970’ को मुकम्मल तौर पर नकारना और ऐसे ही कई अन्य मामलों में कोर्ट का स्टैंड संवैधानिक शर्म की बात है.

अभी हम देख रहे हैं कि मजदूरों की हिफाजत के किये बनाये गए सारे श्रम कानूनों का खात्मा किया जा रहा है. यहां तक कि जब देश कोविड से जूझ रहा था, केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने 5 मई 2020 को सभी राज्य सरकारों को एक पत्र जारी किया जिसमें कहा गया था कि प्राथमिकता के आधार पर श्रम-कानूनों में हुए बदलाव को लागू करें. अर्थात् निरीक्षण प्रणाली को कम कर स्व-प्रमाणीकरण को सक्षम करना, और निम्नलिखित तब्दीलियों को अमल में लाकर श्रम कानूनों द्वारा मजदूरों को प्रदत्त संरक्षण को बुरी तरह प्रभावित करना –

  • आईडी अधिनियम के तहत मजदूरों की संख्या की सीमा में 100 से 300 की बढ़ोतरी
  • कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट के तहत मौजूदा 20 मजदूरों की संख्या की सीमा को बढ़ाकर से 80 मजदूर करना
  • फैक्टरी एक्ट के तहत मजदूरों की संख्या की सीमा को बढ़ाकर क्रमशः 10 (बिजली के साथ) और 20 (बिना बिजली के) से बढ़ाकर 20 और 40 कर दिया गया है
  • फिक्स्ड टर्म रोजगार
  • काम के घंटे को 8 से बढ़ाकर 12 किया जाना

इसके साथ ही केंद्र सरकार द्वारा संसद में आगे बढ़कर 4 श्रम संहिताओं को पारित करवाना मजदूर तबके पर एक वास्तविक युद्ध की घोषणा है. इन चार श्रम-संहिताओं के जरिए मजदूरों को कठिन संघर्ष से हासिल किए गए अधिकारों को छीन लिया गया है. उन्होंने नियोजकों के लिए मजदूरों की संख्या की सीमा बढ़ा दी है जिससे मजदूर कानूनी संरक्षण के दायरे से बाहर हो गए हैं. मजदूरों के संगठित और हड़ताल करने के अधिकारों पर पाबंदी लगा दी गई है. महिला मजदूरों को दी जाने वाली कई सुरक्षा वापस ले ली गई है और ठेका मजदूरी को संस्थागत बना दिया गया है, इत्यादि.

खास तौर से मोदी सरकार द्वारा कॉरपोरेटों के पक्ष में थोपी गयी ये श्रम संहिताएं भारत के संविधान में परिकल्पित मजदूरों के अधिकारों पर हमला है. उदाहरण के लिए संविधान में ‘निर्वाह मजदूरी’ की बात की गई है, पर श्रम-संहिताएं ‘भुखमरी मजदूरी’ (जीवन की सामान्य आवश्यकताएं प्रदान करने के लिए अपर्याप्त मजदूरी) को संस्थागत स्वरूप देती है. संविधान उद्योगों के प्रबंधन में मजदूरों की भागीदारी की राज्य की नीति को सुनिश्चित करता है, जबकि संहिताएं नियोक्ताओं की तानाशाही को संस्थागत बनाती हैं.

दिलचस्प बात यह है कि अम्बेडकर का दिखावा संघ परिवार तो खूब करता है, पर उनके इस कथन की आज बहुत बड़ी प्रासंगिकता है!

‘एक आर्थिक व्यवस्था में मजदूरों की सेनाओं को काम पर लगाने के लिए और नियमित अंतराल पर माल का उत्पादन करने के लिए किसी को नियम बनाना चाहिए ताकि मजदूर काम करें और उद्योग के पहिये चलें. यदि राज्य ऐसा नहीं करता है तो निजी नियोक्ता करेगा, अन्यथा जीवन असंभव हो जाएगा. दूसरे शब्दों में राज्य के नियंत्रण से मुक्ति निजी नियोक्ता की तानाशाही का नाम है. ऐसी घटना को होने से कैसे रोकें? बेरोजगारों के साथ-साथ रोजगार वाले लोगों को उनके जीवन, स्वतंत्रता और चैन से रहने के मौलिक अधिकारों के ठगे जाने से कैसे बचाया जाए? उपयोगी सुझाव ... अधिक शक्तिशाली व्यक्ति को आर्थिक क्षेत्रा में कम शक्तिशाली पर मनमाना प्रतिबंध लगाने से रोकने के लिए विधायिका की सामान्य शक्ति का आह्वान करना. यह न केवल सरकार की मनमाना प्रतिबंध लगाने की शक्ति को सीमित करने का प्रयास करता है बल्कि अधिक शक्तिशाली व्यक्तियों या अधिक शक्तिशाली होने की संभावना को भी समाप्त कर कम शक्तिशाली पर मनमाने ढंग से प्रतिबंध थोपने की ताकत को समाप्त करने के लिए नियोक्ताओं द्वारा लोगों के आर्थिक जीवन पर से नियंत्रण हटाने का भी प्रयास करता है.[5]

नोट्स
(1) ‘राजनीति में गैंगस्टरवाद का उदय’, इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 4 फरवरी, 1989
(2) 2018 तक, भारत में लगभग 461 मिलियन श्रमिक थे (कुछ अनुमानों ने इसे 470 मिलियन पर रखा), उनमें से 80% अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे थे, जैसे कि कृषि कार्य और एमएसएमई में 10 मिलियन से अधिक श्रमिक नहीं थे. शेष 92 मिलियन श्रमिकों को औपचारिक क्षेत्र में नामित किया गया है, जिनमें से 49 मिलियन अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में कार्यरत हैं और विभिन्न रूप से ठेका श्रमिक, दिहाड़ी मजदूर, आउटसोर्स कर्मचारी, इत्यादि काम करते हैं
(3) ‘6 दिसंबर, 1992 क्यों हुआ’, इकनोमिक एन्ड पोलिटिकल वीकली, 24 अप्रैल, 1993
(4) https://www.freepressjournal.in
(5) एपेंडिक्स, स्टेट और अल्पसंख्यक

(अगले अंक में जारी)