- अरिंदम सेन
19वीं शताब्दि के उत्तरार्ध से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारत का राष्ट्रीय संग्राम अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक धाराओं के प्रति काफी प्रतिक्रियाशील रहा है. ऐसे बहुत सारे प्रमाण हैं, जो यह दर्शाते हैं कि प्रबुद्ध भारतीय, समाजवाद की फेबियन एवं अन्य धाराओं से वाकिफ थे, भले ही यह जानकारी काफी सतही थी (उदाहरण के लिए विवेकानंद की टिप्पणी याद करें : मैं एक समाजवादी हूं.)
15 अगस्त 1871 में हुई मार्क्स के पहले इंटरनेशनल की आम सभा की बैठक के कार्यवृत्त से हमें पता चलता है कि कलकत्ता के कुछ उग्रपंथी तत्वों ने इंटेरनेशल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन (फर्स्ट इंटेरनेशनल) को पत्र लिख कर भारत में एक शाखा स्थापित करने के लिए अनुमति मांगी थी. अफसोस कि हमें इस बारे में इससे ज्यादा कुछ भी ब्यौरा नहीं मिलता, सिवाय इस बात के कि उक्त बैठक में सचिव को निर्देशित किया गया था कि उक्त पत्र का सकारात्मक जवाब दें. दशकों बाद जब जापान ने 1905 में जार के शासन वाले रूस को हरा दिया तो एक छोटे से एशियाई देश की एक प्रमुख यूरोपीय शक्ति समझे जाने वाले देश पर विजय ने भारतीय संग्राम को काफी प्रोत्साहित किया. 1905 की रूसी क्रांति ने तिलक जैसे नेताओं तथा हेमचन्द्र कानूनगो जैसे क्रांतिकारी देशभक्तों को प्रेरित किया (कानूनगो, भारत में उन शुरुआती लोगों में थे जो मार्क्सवाद की तरफ आकर्षित हुए). मार्च 1912 में उस समय अमेरिका में रह रहे हरदयाल माथुर पहले भारतीय थे, जिन्होंने मॉडर्न रिव्यू में कार्ल मार्क्स की जीवनी लिखी, हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वे मार्क्सवादी नहीं हैं. इसी साल के अंत तक, एस रामकृष्ण पिल्लई ने किसी भारतीय भाषा (मलयालम) में पहली बार मार्क्स की जीवनी प्रकाशित की. संभवतः यह हरदयाल के लेख पर आधारित थी. अक्टूबर 1916 में अंबालाल पटेल ने एक गुजराती पत्रिका में कार्ल मार्क्स पर एक लेख लिखा.
प्रगतिशील अंतरराष्ट्रीय प्रभाव 1914 के बाद नए धरातल तक पहुंचा. सीमित वैश्विक संसाधनों, बाजार और सीमाओं के पुनर्वितरण के लिए साम्राज्यवादियों के आपसी अंतरविरोधों के चलते पहला विश्व युद्ध तीव्र हुआ, उसने साम्राज्यवाद की वैश्विक जंजीर को उसकी सबसे कमजोर कड़ी पर झकझोर दिया और 1917 में नए सोवियत राज्य का उदय हुआ. साम्राज्यवाद और उसके पिट्ठूओं के खिलाफ समूची धरती पर संघर्षों का जबरदस्त उभार हुआ. औपनिवेशिक गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के लिए लड़ते हुए लोगों के लिए रूसी क्रांति और उसके नेता लेनिन जबरदस्त प्रेरणा के स्रोत के तौर पर उभरे. मार्च 1919 में स्थापित कोमिंटर्न ने राष्ट्रों और महाद्वीपों की सरहदों के पार कम्युनिस्ट आदर्शों के फैलाव को नया आवेग प्रदान किया और 1920 के पूर्वार्ध में कई कम्युनिस्ट पार्टियां बनीं – जिनमें चीन, इंडोनेशिया और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल हैं.
भारत की जमीन कम्युनिज्म के विकास के लिए बेहद उर्वर हो रही थी. ब्रिटिश राज ने बहुत सटीक तरीके से और काफी पहले इसको भांप लिया था, जैसा कि भारत सरकार के विदेश विभाग के अगस्त 1920 में तैयार इस नोट से प्रदर्शित होता है (यह नोट भाकपा की वास्तविक स्थापना से काफी पहले का है) –
‘अब इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में निचले तबके, शहरों और ग्रामीण इलाके, दोनों में ही बेहद कठिन दौर से गुजर रहे हैं........सामाजिक असंतोष का यह गहराता वातावरण, बोलशेविक प्रचार के लिए द्वार खोलता है.... प्रथमतः यह ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लक्षित होगा क्यूंकि जब तक ब्रिटिश सरकार अस्तित्व में रहेगी, तब तक वर्तमान सामाजिक ढांचा भी रहेगा.
..... फजीहत और ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकना तो केवल पहला कदम होगा, उसके बाद अमीरों, शिक्षित और अच्छे घरों में पैदा हुओं को उखाड़ फेंकने और आबादी के निम्नतम तबकों को मालिकों की स्थान पर बैठने का असली बोलशेविक कार्यक्रम सामने आएगा........’ (विदेश विभाग, गोपनीय-आंतरिक, अगस्त 1920, संख्या – 8-26. केएन पणिक्कर द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मूवमेंट इन इंडिया, पृष्ठ संख्या 222-24 से उद्धृत).
यह काफी यथार्थवादी आकलन था. उस समय कलकत्ता के एक प्रमुख अखबार, दैनिक बसुमती ने रूस में बोलशेविक सत्ता के स्थापना के दस दिन बाद टिप्पणी लिखी – ‘जारशाही के पतन ने भारत में भी पराई नौकरशाही के विध्वंस के युग की शुरुआत कर दी है.’
‘हमारा समय आ रहा है, भारत भी आजाद होगा. पर भारत के बेटों को भी अधिकार और न्याय के लिए उठ खड़ा होना होगा, जैसा रुसियों ने किया.’ दक्षिण भारत में होमरूल लीग के नेताओं ने,महान मुक्ति की खबर मिलते ही ‘रूस से सबक’, शीर्षक वाले पर्चे में कहा. (मद्रास,1917).
और इस तरह से, इससे आगे-आगे, ब्रिटिश सेंसरशिप के जाल से खबरों के कतरा-कतरा रिस कर आने के बावजूद भारतीय देशभक्त उत्साहित और विस्मित हुए. सोवियत संघ ने जो शुरुआती राजाज्ञाएं और संधियां कीं (जैसे चीन और एशिया के अन्य हिस्सों में जार के शासन में प्राप्त किए गए साम्राज्यवादी अधिकारों का एकतरफा परित्याग, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की घोषणा और उसके फिनलैंड में तत्काल लागू किया जाने, आदि), उन्होंने भारत में लोगों को तरंगित कर दिया. सोवियत सरकार अपनी तरफ से, साझा दुश्मन साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने वाले क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की तरफ, दोस्ती का हाथ भी बढ़ा रही थी.
ऐसे माहौल में जब नयी उम्मीदों, मुक्ति का नया जुनून पैदा हुआ तो भारत के सबसे ऊर्जावान क्रांतिकारी, पहले ‘लाल’ नायकों की तरफ आकर्षित हुए और फिर मार्क्सवाद/साम्यवाद की तरफ क्यूंकि उन्हें बताया गया कि बोलशेविक चमत्कार के पीछे यही महान रहस्य है.
वे मुख्यतया तीन पृष्ठभूमियों से आए –
(अ) जर्मनी में काम कर रहे क्रांतिकारी देशभक्त (जैसे बर्लिन ग्रुप जिसका नेतृत्व वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय कर रहे थे), अफगानिस्तान (जैसे काबुल में स्थापित ‘स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार’ के एम बरकतुल्लाह), अमेरिका (जिनमें रत्तन सिंह और संतोख सिंह जैसे गदरी थे, जिन्होंने इस आंदोलन को 1920 के पूवार्ध में पुनर्जीवित किया) आदि और एमएन रॉय व अबनी मुखर्जी जैसे घुमंतू क्रांतिकारी,
(ब) संपूर्ण इस्लामिक खिलाफत आंदोलन और हिजरत आंदोलन के राष्ट्रीय क्रांतिकारी (इनमें वो भी शामिल थे जो पहले विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद अफगानिस्तान और तुर्की चले गए जैसे शौकत उस्मानी, मोहम्मद अली सेपस्सी आदि), और
(स) उग्रपंथी देशभक्त – कांग्रेस आंदोलन के भीतर काम करने वाले या उसके बिना – जिनका 1921 के असहयोग आंदोलन को अचानक वापस लिए जाने से मोहभंग भी हुआ और उन्हें धक्का भी लगा और वे नए रास्ते की तलाश में समाजवाद व मजदूर आंदोलन की तरफ मुड़े. इनमें बंबई में डांगे और उनके सहयोगी थे, कलकत्ता में मुजफ्फर अहमद और मद्रास में सिंगारवेलू, लाहौर का इंकलाब ग्रुप और अकाली आंदोलन का बब्बर अकाली धड़ा था.
वह साझा आकांक्षा, जिसने इन विविध शक्तियों को संचालित किया, वो थी मातृभूमि की मुक्ति की आकांक्षा. यहीं पर भारत में साम्यवाद के लिए मौलिक संवेग मौजूद था. इन तीन धाराओं में पहली दो सोवियत संघ में इकट्ठा हुई और ताशकंद में उन्होंने ‘भारत की कम्युनिस्ट पार्टी’ बनाई. हालांकि भारतीय समाज की आंतरिक गतिशीलता से कटे होने के कारण यह गठजोड़ एक प्रवासी कम्युनिस्ट समूह से आगे विकसित नहीं हो सका. वह तीसरी धारा थी, जिसका उद्भव भारतीय समाज से हुआ और इस तरह वही वास्तविक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी बनी.
ताशकंद में 17 अक्टूबर 1920 में गठित ‘भाकपा’ के मुख्य नेता एमएन रॉय ने पत्रिकाओं, घोषणापत्रों, चिट्ठियों आदि और संदेशवाहकों व कोष भेज कर भारत के साथ राजनीतिक पुल बनाने की कोशिश जरूर की. इन प्रयासों में उन्हें पूरी तरह से कोमिंटर्न का आर्थिक और राजनीतिक सहयोग मिला (जिसके नेतृत्व में वे 1921 में शामिल कर लिए गए थे).
संदेशवाहक और वित्तीय मदद तो ज्यादा मददगार नहीं हुई, लेकिन कोमिंटर्न की रिपोर्टें और रॉय द्वारा संपादित पत्रिकाओं में जो दिशा-निर्देश थे, वे जरूर उपयोगी सिद्ध हुए, हालांकि यह दीगर बात है कि इन पत्रिकाओं की अधिकांश नहीं तो काफी सारी प्रतियां पुलिस द्वारा लगातार ही पकड़ ली जाती थी.
हालांकि लगभग उसी समय, परंतु सोवियत रूस में कम्युनिस्ट केंद्र के गठन से काफी स्वतंत्र रूप से भारत में पहले कम्युनिस्ट तत्व और समूह 1921-22 में उभर कर सामने आए. ये थे –
(1) श्रीपाद अमृत डांगे जिन्होंने 1921 के मध्य में गांधी बनाम लेनिन प्रकाशित की, के इर्दगिर्द बंबई समूह. डांगे उस समय छात्रा नेताओं के उस समूह में से एक थे, जिन्हें बंबई के विलसन कॉलेज से निष्काषित कर दिया गया था, इस कॉलेज का वे असहयोग आंदोलन के समय बहिष्कार कर चुके थे. लेनिन और रूस के बारे में बहुत सतही जानकारी पर आधारित यह पर्चा 21 साल के ऐसे युवा ने लिखा था, जो खुद उनके अपने शब्दों में स्वयं को ‘तिलक के चेले’ से ‘लेनिन के चेले’ में रूपांतरित कर रहा था. पर्चा सिद्धांत और तथ्यों की गलतियों से भरा हुआ था. पर पुस्तक का महत्व उसकी पृष्ठभूमि और उसके आगे की भूमिका में है. वह बंबई में और इस मामले में अन्य स्थानों पर भी राजनीतिक रूप से जागरूक छात्रों के समूह में इस बहस के दौरान उपजी कि भारत की मुक्ति का सही रास्ता क्या हो, और एक पीढ़ी के वैचारिक रूपांतरण के पहले दौर का उपलब्ध सबसे बेहतरीन ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण है. यह इससे भी सिद्ध होता है कि गांधी बनाम लेनिन के प्रकाशन के बाद डांगे और उनके दोस्तों ने स्वयं को ट्रेड यूनियन गतिविधियों में लगाया और उनका उद्भव भारत के सबसे शुरुआती कम्युनिस्ट समूह के रूप में हुआ और उन्होंने अगस्त 1922 से सोशलिस्ट का प्रकाशन शुरू किया, जो भारत में पहली कम्युनिस्ट पत्रिका थी.
(2) मुजफ्फर अहमद के इर्दगिर्द कलकत्ता समूह. युवा मुजफ्फर अहमद ने असहयोग आंदोलन में भाग तो नहीं लिया था, लेकिन 1920 के उत्तरार्ध में कुछ महीने तक, उन्होंने बांग्ला के तेजतर्रार कवि नजरुल इस्लाम के साथ बांग्ला भाषा में साहित्यिक-उग्र राष्ट्रवादी पत्रिका नवयुग का प्रकाशन किया था. 1921 के अंत में अहमद ने लेनिन और मार्क्स की कुछ किताबें उस जखीरे से खरीदी, जो गुप्त रूप से कलकत्ता पहुंचा था और अगले साल से मेतियाबुर्ज और कलकत्ता के नजदीक के अन्य औद्यौगिक केन्द्रों पर उन्होंने मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया.
(3) सिंगारवेलु एम चेट्टियार के इर्दगिर्द मद्रास ग्रुप – वे एक अधेड़ उम्र के कांग्रेसी थे, जो मार्क्सवाद को ग्रहण करने से पहले ही मजदूर मोर्चे पर सक्रिय थे. उन्होंने कांग्रेस के गया अधिवेशन (दिसंबर 2022 के अंत में आयोजित) में सक्रिय भूमिका निभाई थी और 1923 में हिंदुस्तान की लेबर किसान पार्टी का गठन किया.
(4) गुलाम हुसैन के इर्दगिर्द लाहौर ग्रुप – वे पेशावर कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाते थे और उन्हें मार्क्सवाद के नजदीक उनके दोस्त मोहम्मद अली लाये, जो कि 1922 में ताशकंद में गठित ‘सीपीआइ’ के संस्थापकों में से एक थे. गुलाम हुसैन ने नौकरी छोड़ दी, लाहौर गए, रेलवे मजदूर यूनियन में काम करना शुरू किया और एक उर्दू अखबार इंकलाब का संपादन किया, जिसके कुछ ही अंक निकले थे.
कैसे ये सारे समूह भारत के चारों कोनों में एक साल के भीतर ही उभरे, क्या यह कोई वृहद योजना थी? तथ्य यह है कि सभी एक दूसरे से पूरी तरह से अनजान थे. सिवाय गुलाम हुसैन के, ये सब एमएन रॉय या कोमिंटर्न की गतिविधियों से भी अनजान थे. उनका विकास ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनोखे संयोजन से मुमकिन हुआ – दो अंदरूनी कारकों और एक बाहरी आवेग के द्वारा (1) एक तरफ गांधीवादी विचारधारा तथा राजनीति का अंतरविरोध और वर्ग संघर्ष की क्रांतिकारी लहर व राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, दूसरी तरफ (2) गुणात्मक एवं संख्यात्मक दोनों ही अर्थों में भारत के मजदूर आंदोलन का नया चरण, (3) अक्टूबर क्रांति का अंतरराष्ट्रीय आकर्षण.
इन तीनों में पहला कारक ही सबसे मूलभूत था. कांग्रेस के समझौतावादी चरित्र और वह मूलतः अमीरों की पार्टी है, जिसे मजदूरों के रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है, यह तथ्य तो ज्ञात ही था परंतु असहयोग-खिलाफत आंदोलन के समय और उसके बाद यह अंतरविरोध बेहद तीखे रूप में सामने आ गया. कई घटनाएं –जैसे 1921 के शुरुआत में गांधी जी की यह घोषणा कि हड़तालें ‘अहिंसा और असहयोग आंदोलन की योजना के अंतर्गत नहीं आती हैं’, उनका त्वरित आदेश कि कांग्रेस के लोगों द्वारा नीचे के दबाव में गुंटूर में शुरू किया गया टैक्स विरोधी अभियान तत्काल रोका जाए आदि – ने गांधीवाद के तीन समानांतर आलोचकों का आविर्भाव किया.
एक तो बुर्जुआ खेमे के भीतर से था जिसकी चिंता उपयोगिता, कार्यनीति और समय निर्धारण को लेकर थी. जैसे सीआर दास और बड़े नेहरू महसूस करते थे कि कांग्रेस को प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा के समय कुछ संवैधानिक प्राप्तियों के बदले ब्रिटिश शांति संकेत स्वीकार कर लेने चाहिए थे और वे गांधी से इसलिए नाराज थे क्यूंकि सही मौके पर समझौते से इंकार करने के बाद, गांधी ने अचानक बिना किसी लाभ के कदम पीछे खींच लिए. दूसरा पेट्टी बुर्जुआ (निम्न पूंजीवादी) क्रांतिकारी देशभक्तों की आलोचना थी, जिन्होंने असहयोग-खिलाफत आंदोलन का या तो समर्थन किया या कम से कम इस दौरान अपनी गतिविधियों को निलंबित कर दिया पर जैसे ही आंदोलन धराशायी हुआ,वैसे ही वे ‘बम की राजनीति’ की तरफ लौटने के प्रयास करने लगे. तीसरी आलोचना कम्युनिस्टों ने विकसित की, जिनमें से ज्यादातर डांगे की तरह कांग्रेस कार्यकर्ताओं में से ही विकसित हुए थे और यह आलोचना रूढ़िवादी बुर्जुआ नेतृत्व और उग्र लोकप्रिय ताकतों के बीच टकराव पर आधारित थी. हालांकि इसकी शुरुआत के अपरिहार्य जन्म-चिन्ह थे – भारत में पहला कम्युनिस्ट पर्चा (गांधी बनाम लेनिन) और कांग्रेस अधिवेशन में पहला कम्युनिस्ट भाषण (सिंगारवेलु, 1922, गया), दोनों ने ही अहिंसा को भारतीय परिस्थितियों में प्रभावशाली तरीके के रूप में स्वीकार किया. सही वक्त पर समाजवादी आलोचना का आना अवश्यम्भावी था पर यह सिर्फ आत्मगत सैद्धांतिक कसरतों से हासिल नहीं हो सकती थी. इस रूपांतरण को पूरा करने में सक्षम वस्तुगत सामाजिक शक्ति की अत्याधिक आवश्यकता थी.
और यह ऊपर इंगित किए गए दूसरे कारक में मौजूद थी – मजदूर आंदोलन. 1921-22 तक भारत में मजदूर वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन के इतर भी अपने आप को अग्रिम मोर्चे के तौर पर स्थापित कर लिया था (भले ही उसका अपना कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था) और साथ ही अपने वर्ग के साथ हो रहे शोषण और अन्याय के विरुद्ध एक जबरदस्त लड़ाके के तौर पर भी मजदूर वर्ग ने स्वयं को स्थापित कर लिया था. स्वाभाविक रूप से नए मार्क्सवादी, इस वर्ग में काम करने की तरफ मुड़े और वहां उन्हें साम्यवाद के लिए एक सामाजिक वाहक प्राप्त हुआ. ऐसा करना उनके वैचारिक सांचे को पुनः ढालने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने उनको गांधीवाद की सभी बुर्जुआ (पूंजीवादी) और पेट्टी बुर्जुआ; निम्न पूंजीवादी) आलोचनाओं की छाया से मूल रूप से और प्रभावी तौर पर अलग कर दिया तथा इस तरह से कम्युनिस्ट आंदोलन की वास्तविक बुनियाद पड़ी.
लेकिन अगर एक स्तर तक भारत में मजदूर वर्ग का विकास नहीं हुआ होता तो यह सब संभव नहीं होता. हालांकि यह आवश्यक सर्वहारा आयाम, एक मूलभूत कमजोरी से ग्रसित था – संघर्षशील किसानों के बीच गंभीर काम का अभाव.
यह कमजोरी 1930 के दशक तक चलती रही और इसने मजदूर वर्ग को अपने सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी – मेहनतकश किसाना – से वंचित रखा और इस के चलते राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व बुर्जुआ वर्ग से छीनने में वह सक्षम नहीं हो सका.
इस तीसरे कारक के बारे में नोट करने की एक और महत्वपूर्ण बात है. बोलशेविक क्रांति के साम्राज्यवाद विरोधी प्रभाव का स्वागत सभी मेहनतकश जनता और यहां तक कि धनी वर्गों के चेतनाशील हिस्से ने भी किया, लेकिन उसके सामाजिक-राजनीतिक तत्व व विश्व-ऐतिहासिक महत्व को केवल मार्क्सवादियों – मजदूर वर्ग के विचारकों – ने पकड़ा. जहां बाकी सबकी प्रतिक्रिया भावनात्मक और सतही थी, वहीं केवल मजदूर वर्ग ने सोवियतों की जमीन से अपने जीवन का दर्शन ग्रहण किया व उसके साथ स्वयं को एकमेव किया और उस रौशनी में अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए आगे बढ़ा.
तो ये भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के स्रोत हैं. ये तीनों एक दूसरे के साथ बहुत निकटता से अंतरसंबंधित हैं और कोई भी, इनमें से किसी एक को अनदेखा नहीं कर सकता.
भारत में कम्युनिज्म के इतिहास के सबसे उत्सुकतापूर्ण घटनाओं में से एक था कि विभिन्न बिखरे हुए कम्युनिस्ट समूहों को एक पार्टी -भाकपा- में एकजुट करने के लिए ऐतिहासिक सम्मेलन का आयोजन करने का श्रेय सत्यभक्त नाम के व्यक्ति को जाता है, जिन्होंने पार्टी की स्थापना के कुछ दिनों बाद ही पार्टी छोड़ दी. ये उत्तर प्रदेश के देशभक्त उग्रपंथी समूह के पूर्व सदस्य थे, गांधी के अनुयायी, जिनका उनसे मोहभंग हो चुका था, असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद इनकी रुचि सोवियत रूस और कम्युनिज्म में जागी थी. उन्होंने 1924 के मध्य में एक खुली ‘इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी’ स्थापित की, जिसकी सदस्यता उनके अपने दावे के अनुसार 78 थी, जो 1925 तक 150 हो गयी थी. उन्हें खुले तौर पर पार्टी बनाने का साहस मई 1924 में सरकारी अभियोजक के उस बयान से आया, जिसमें कहा गया था कि कानपुर षड्यंत्र केस के आरोपियों (सत्यभक्त का नाम इस केस की पहली सूची के तेरह आरोपियों में था लेकिन दूसरी सूची के आठ आरोपियों में नहीं था) पर मुकदमा इसलिए नहीं चलाया जा रहा है कि वे कम्युनिस्ट विचार रखते हैं और उनका प्रचार-प्रसार करते हैं बल्कि इसलिए चलाया जा रहा है क्यूंकि वो सरकार को उखाड़ फेंकने का षड्यंत्र कर रहे हैं. इससे सत्यभक्त ने अनुमान लगाया कि एक कम्युनिस्ट पार्टी जो खुली व सतह पर हो और स्पष्टतः भारतीय हो यानि उसका बोलशेविकवाद या कोमिंटर्न से संबंध न हो तो संभवतः वह अधिकारियों के कोप का भाजन नहीं बनेगी.
जो कम्युनिस्ट समूह थे उन्होंने सत्यभक्त की पार्टी को गंभीरता से नहीं लिया (ना ही ब्रिटिश इंटेलिजेंस के मुखिया सेसिल काए ने लिया, हालांकि सत्यभक्त पर नजर रखी जाती थी) पर जब उन्होंने 1925 के उत्तरार्ध में ‘पहला भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन’ करने की घोषणा की तो सबने गंभीरता से लिया. पहले से ही जेल में मौजूद कम्युनिस्ट ग्रुप के सदस्य, अपने आप भी अखिल भारतीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के लिए खुला सम्मेलन करने के औचित्य पर कानपुर केस में सरकारी अभियोजक के बयान के आलोक में चर्चा कर रहे थे.
यह डांगे का भी विचार था, इसलिए बंबई ग्रुप (डांगे खुद जेल में थे) ने सत्यभक्त का सहयोग किया और पूर्ण मनोयोग से कानपुर सम्मेलन (25-28 दिसंबर 1925) में शामिल हुए. अहमद इस विचार के खिलाफ थे पर सम्मेलन से तीन महीना पहले गंभीर टीबी के आधार पर रिहा होने पर वे भी शामिल हुए. अन्य स्थानों से भी प्रतिनिधि मौजूद थे.
सम्मेलन में 300 प्रतिनिधि शामिल थे, किरती के फरवरी 1926 में ऐसा आकलन था (यह एक कम्युनिस्ट प्रायोजित पंजाबी पत्रिका थी, जिसमें युवा भगत सिंह ने उप संपादक के तौर पर काम किया). हालांकि इंटेलिजेंस के स्रोत इस संख्या को 500 बताते हैं (संभवतः ‘कम्युनिस्ट खतरे’ को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए संख्या में यह बढ़ोतरी की गयी होगी). ब्रिटिश कम्युनिस्ट सांसद शापुरजी सकलातवाला ने एक संक्षिप्त संदेश भेजा ‘मुझे उम्मीद है कि महाधिवेशन भारत में बड़े और स्थिर कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत का सबब बनेगा’. इसे पहले सत्र में पढ़ा गया, उसके बाद स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी का भाषण हुआ (जिन्होंने दिसंबर 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में चर्चित ‘स्वतंत्रता प्रस्ताव’ पेश किया था). उसके बाद एम सिंगारवेलु का अध्यक्षीय भाषण हुआ.
अगला सत्र 26 दिसंबर की शाम को हुआ और इसने प्रस्ताव ग्रहण किए जो कि प्रस्ताव समिति द्वारा उसके सामने रखे गए. प्रस्ताव समिति में एसवी घाटे, सत्यभक्त, केएन जोगलेकर (बंबई), जेपी बागेरहट्टा, एस हसन (लाहौर) और कृष्णास्वामी (मद्रास) शामिल थे. पर सम्मेलन के सामने प्रस्ताव रखने से पहले प्रस्ताव समिति में तीखा विवाद हुआ. बाकी सब तो कोमिंटर्न के चलन के अनुसार पार्टी का नाम ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ रखना चाहते थे, सत्यभक्त को इसमें बोलशेविक तड़का नजर आया और वे अपनी पार्टी के नाम पर अड़ गए. वे अकेले थे, इसलिए हार गए पर कुछ दिनों में ही उन्होंने नयी पार्टी गठित की और अपनी बात पर ज्यादा स्पष्टता से जोर देने के लिए नाम रखा – ‘नेशनलिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी’!
सम्मेलन पर वापस लौटते हैं. 27 तारीख को तीसरे सत्र में संविधान ग्रहण किया गया और केंद्रीय कार्यकारिणी समिति का चुनाव हुआ. केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति में 30 लोग होने थे पर केवल 16 ही चुने गए और बाकी स्थान विभिन्न प्रान्तों से सदस्य शामिल किए जाने के लिए रिक्त छोड़ दिये गए.
अगले दिन केंद्रीय कार्यकारिणी समिति ने अपने पदाधिकारी चुने. हम पार्टी की प्रेस विज्ञप्ति का थोड़ा संक्षिप्त संस्करण यहां प्रस्तुत कर रहे हैं.
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी : उद्देश्य और लक्ष्य
– पार्टी का अंतिम लक्ष्य भारत में मजदूरों और किसानों का गणराज्य स्थापित करना होगा. और पार्टी का तात्कालिक लक्ष्य सार्वजनिक सेवाओं जैसे जमीन, खदान, फैक्ट्री, घरों, तारघरों, टेलीफोन, रेलवे तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाएं जिनके सार्वजनिक स्वामित्व की आवश्यकता है, के राष्ट्रीयकरण व नगरपालिकाकरण के द्वारा मजदूरों व किसानों के लिए उचित मजदूरी हासिल करना है. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पार्टी शहरी और ग्रामीण इलाकों में मजदूर और किसान यूनियन बनाएगी, जिला और तालुक बोर्ड, नगरपालिकाओं और विधानसभाओं में प्रवेश करेगी और ऐसे अन्य साधनों एवं तरीकों से, पार्टी के आदर्श और कार्यक्रम को देश की वर्तमान राजनीतिक पार्टियों के सहयोग से या सहयोग के बिना, आगे बढ़ाएगी.
पार्टी की 30 सदस्यों की केंद्रीय कार्यकारिणी होगी जो प्रांतीय कमेटियों द्वारा भेजी जाएगी और सभी आपातकालीन मसलों में काम करने के लिए सात सदसीय परिषद होगी.
पार्टी में वे कम्युनिस्ट होंगे जो पार्टी के लक्ष्यों को पूरा करने की शपथ लेंगे और कोई भी, जो किसी सांप्रदायिक संगठन का सदस्य हो, पार्टी सदस्य के तौर पर भर्ती नहीं किया जा सकता.
हर सदस्य नामांकन करने वाले सचिवों को आठ आना अपनी वार्षिक सदस्यता का देगा.
केंद्रीय कार्यकारिणी का कार्यालय बंबई में होगा और कामरेड जानकी प्रसाद बगरहट्टा और एसवी घाटे इस साल के लिए महासचिव होंगे. कानपुर के मौलाना आजाद सोभनी इसके उपाध्यक्ष चुने गए हैं...... कामरेड कृष्णास्वामी आयंगर (मद्रास), एस सत्यभक्त (कानपुर), राधामोहन गोकुलजी व मुजफ्फर अहमद (कलकत्ता) और एसडी हसन (लाहौर) अपने प्रांतों में प्रांतीय कमेटियां संगठित करने के लिए प्रांतीय सचिवों के तौर पर काम करेंगे. केंद्रीय कार्यकारिणी की अगली बैठक अप्रैल में होगी ताकि प्रभावी काम शुरू किया जा सके और साल भर के लिए काम की योजना बनाई जा सके.’
कुछ शुरुआती हिचक के बाद कोमिंटर्न की तरफ से एमएन रॉय ने कानपुर में चुनी गयी केंद्रीय कार्यकारिणी कमेटी को आगे के काम के आधार के लिए स्वीकार कर लिया और निम्नलिखित मुख्य सुझाव या निर्देश सामने रखे –
(अ) भारत की कम्युनिस्ट पार्टी निर्माण की प्रक्रिया में तत्काल और औपचारिक रूप से अपने आप को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबद्ध करे और सत्यभक्त, सिंगारवेलु व हसरत मोहानी के बयानों को खारिज करे जो इससे विपरीत धारणा बनाते हैं,
(ब) ‘सीपीआइ’ राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ संयुक्त मोर्चा, गया के कांग्रेस अधिवेशन में रखे गए रॉय के ‘कार्यक्रम’ के आधार पर बनाएगी, (स) ‘विदेश ब्यूरो’ (यानि रॉय व अन्य भारतीय कम्युनिस्ट जो विदेश में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के तत्वावधान में काम कर रहे थे) ‘वैचारिक केंद्र’ तथा ‘उस अंग की तरह काम करेगा, जिसके जरिये पार्टी के विदेशी संबंध कायम रखे जाएंगे’,
(द) एक किताबों की दुकान खोली जानी चाहिए और साहित्य प्राप्ति व जनता में वितरण का इंतजाम किया जाना चाहिए (रॉय द्वारा विदेश से निकाली जाने वाली एक पत्रिका). (फ) ‘एक वैध कम्युनिस्ट पार्टी’ को लेकर कोई ‘भ्रम’ नहीं रहने चाहिए – ‘हमें किसी भी क्षण किसी भी प्रकार के हमले के लिए तैयार रहना चाहिए और पार्टी को इस तरह संगठित करना चाहिए कि पार्टी की वैधता पर हमला पार्टी को नष्ट न करे.’
इन सुझावों में से चौथा पूरी तरह लागू किया गया और पहले व पांचवें की पूर्ण रूप से उपेक्षा हुई. सुझाए गए ‘राष्ट्रीय आंदोलन के साथ संयुक्त मोर्चा’ का प्रयास हुआ पर रॉय के ‘कार्यक्रम’ के आधार पर नहीं. जहां तक तीसरे सुझाव – ‘विदेश ब्यूरो’ और ‘वैचारिक केंद्र’ की बात है तो इसे शर्तों के साथ स्वीकार किया गया, जिसमें यह सुनिश्चित करने को कहा गया कि विदेश ब्यूरो द्वारा भारत की पार्टी को निर्देशित नहीं किया जाएगा बल्कि विदेश ब्यूरो को पार्टी के निर्णयों के अनुसार काम करना होगा.
(केन्द्रीय कार्यकारिणी का) अध्यक्ष मंडल, केंद्रीय कार्यकारिणी के अनुमोदन से एक विदेश ब्यूरो को वैचारिक केंद्र के रूप में कायम करेगा, जिसमें वे कामरेड होंगे, जो देश के अंदर काम करने की स्थिति में नहीं होंगे. विदेश ब्यूरो केंद्रीय कार्यकारिणी का प्रतिनिधि होगा और उस अंग के रूप में काम करेगा, जिसके जरिये पार्टी के अंतरराष्ट्रीय संबंधों की देखरेख होगी. पर यह किसी भी प्रकार से पार्टी कार्यक्रम और प्रस्तावों से असंगत कार्य नहीं करेगा. विदेश ब्यूरो का, उनकी सुविधा के स्थान पर एक नियमित कार्यालय होगा और वो कम्युनिस्ट पार्टियों व कोमिंटर्न के नियमित संपर्क में रहेगा और भारत के मामलों का प्रचार करेगा.’
इससे पहले की हम आगे बढ़ें, सत्यभक्त पर चंद शब्द कहना उचित रहेगा. वो एक पत्रकार थे, वे आयातित कम्युनिस्ट साहित्य भी बेचते थे, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ संपर्क कायम रखते थे और कानपुर में मजदूरों के साथ उनके संपर्क थे. कम्युनिज्म के प्रति उनकी अपने तरीके से सहानुभूति थी पर वो बहुत संकीर्ण राष्ट्रवादी थे (संभवतः उस दमन से डरे हुए थे जो कोमिंटर्न के साथ संबंध होने के अनुमान भर से हो सकता था) जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के सह-यात्रियों में से एक थे. सम्मेलन के बाद की उनकी ‘नेशनलिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी’ उत्तर प्रदेश तक सीमित रही और 1927 तक आते-आते निष्क्रिय हो गयी.
प्रमुख कमजोरियां एकतरफ, लेकिन यह सम्मेलन था जिसने पहला पार्टी संविधान ग्रहण किया और अखिल भारतीय नेतृत्व का केंद्रक चुना जिसमें सभी कम्युनिस्ट समूहों का प्रतिनिधित्व था. यह नेतृत्व या केंद्रीय कार्यकारिणी समिति (सत्यभक्त जिन्होंने फरवरी 1926 में इस्तीफा दे दिया और बागरहट्टा जो कामरेडों के उनके बारे में संदेहों को जान गए तथा मध्य 1927 में इस्तीफा दे दिया, इनको छोड़ कर) मेरठ गिरफ्तारी (मार्च 1929) तक अनियमित तरीके से समय-समय पर मिलती थी और इस अवधि में मजदूर मोर्चे पर तथा मजदूर व किसान पार्टियों को संगठित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई. सत्यभक्त के संकीर्ण राष्ट्रवादी रवैये की हार हुई और सीपीआइ ने अपनी यात्रा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के हिस्से के बतौर शुरू की. इसलिए पार्टी की स्थापना कानपुर सम्मेलन से गिनी जानी चाहिए ना कि ताशकंद पहलकदमी से, जैसा कि (अविभाजित) सीपीआइ के केंद्रीय सचिवालय ने 19 अगस्त 1959 को फैसला किया था. उस समय इस मामले में कोई बहस नहीं थी, कम से कम सार्वजनिक तो नहीं थी.
भाकपा-माकपा के विभाजन के बाद मुजफ्फर अहमद, जो माकपा के साथ गए, ने एक विचित्र दृष्टिकोण अपनाया. नेशनल बुक एजेंसी द्वारा 1969 में प्रकाशित अपनी किताब आमार जीबन ओ भारतेर कम्युनिस्ट पार्टी (मेरा जीवन और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी) में, वे कानपुर सम्मेलन को ‘तमाशा’ कहते हैं और ताशकंद गठन को ‘भाकपा के गठन की असली तारीख’ घोषित करते हैं. उनका मुख्य तर्क है कि ताशकंद में बनी सीपीआइ कोमिंटर्न से संबद्ध थी जबकि कानपुर में बनी सीपीआइ नहीं थी. इस तरह अहमद अंतरराष्ट्रीय मान्यता को एकमात्र पैमाने मानते हैं, यह तय करने का कि कब कोई कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आई और संबंधित देश के जन आंदोलनों से जीवंत संपर्क जैसे अन्य कारकों की अवहेलना कर देते हैं. और इस बिंदु पर भी तर्क पूरी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता, जैसा कि हम पहले देख चुके हैं कि ताशकंद में बनी सीपीआइ कोमिंटर्न में पंजीकृत जरूर थी (बहुत ठीक-ठीक कहें तो उसके तुर्किस्तान ब्यूरो में) पर कोमिंटर्न इतना मूर्ख नहीं था कि एक मिश्रित ग्रुप को पूर्ण पार्टी का दर्जा दे दे.
हालांकि यह प्रश्न अभी भी बाकी है कि कानपुर में बनी सीपीआइ ने कोमिंटर्न से संबद्धता के लिए अपील क्यूं नहीं की? अहमद जो केंद्रीय कार्यकारिणी समिति में चुने गए थे, भाकपा-माकपा के विभाजन से पहले उसे इस तरह समझाते हैं – ‘.... चूंकि पार्टी सदस्यों ने सदस्यता को पर्याप्त नहीं माना, इसलिए उन्होंने पार्टी के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबद्धता के लिए आवेदन नहीं किया. इसके साथ ही कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने सीपीआइ को अपना अंग माना था.’ इस तरह अहमद गैर संबद्धता को उस समय वैसा अपराध नहीं मानते जैसे कि वे पार्टी के विभाजन के बाद मानते हैं. बल्कि उनके अन्य कामरेडों की तरह, उन्होंने कानपुर निर्णयों को पूरी गंभीरता से लिया और लंगल में 21 फरवरी 1926 में प्रकाशित बयान में उन्होंने ‘बंगाल के कम्युनिस्टों’ से जोरदार अपील की कि ‘वे पार्टी निर्माण के लिए साथ आयें’.
इस मामले में अहमद के आत्म-अंतरविरोध पर समय गंवाने के बजाय इस मामले में हम अपने विचार दर्ज करवाते हैं. पहला यह कि औपचारिक संबद्धता के अभाव ने कानपुर में गठित सीपीआइ को न तो 1920 के दशक के दौरान और ना ही उसके बाद रिपोर्ट भेजने और कोमिंटर्न से राय मांगने से रोका और कोमिंटर्न ने भी अपनी तरफ से मार्गदर्शन व सहयोग किया और दिशा-निर्देश दिये, ठीक वैसे ही जैसे वो अन्य संबद्ध पार्टियों को करता था. तो सभी व्यावहारिक कारणों से सीपीआइ ने बिल्कुल अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के हिस्से के तौर पर काम किया. हो सकता है कि कोमिंटर्न से औपचारिक संबद्धता, वैधता की खातिर टाली गयी हो, लेकिन वह इस पार्टी और उसके स्थापना सम्मेलन को अभी अभी जन्में ताशकंद ग्रुप से कम प्रमाणिक या वैध नहीं बना देता.
दूसरा हम बोलशेविक क्रांति से लेकर दूसरे विश्व युद्ध तक के पूरे काल को सीपीआइ के बनने के सालों के रूप में देखता हैं, वह इसलिए कि कम या ज्यादा, लेकिन एक पूर्णरूपेण कम्युनिस्ट पार्टी वास्तव में 1930 के उत्तरार्ध में विकसित हुई जब वह प्रमुख वैचारिक-राजनीतिक समस्याओं से उबरी और नेतृत्व के ढांचे का पुनर्गठन हुआ. यह समग्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है, जिसमें कि 26 दिसंबर 1925, जब देश के सभी सक्रिय कम्युनिस्ट समूहों के लोग मिले और अखिल भारतीय पार्टी के गठन के प्रस्ताव को ग्रहण किया, को हम सीपीआइ का स्थापना दिवस मानते हैं. जैसे अक्टूबर क्रांति ने पूरी दुनिया में राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्षों को नया आवेग दिया, भारत के संदर्भ में इस बढ़त को ठोस रूप से – पहली बार और इसलिए भ्रूण रूप में ही – इस सम्मेलन के द्वारा महसूस किया गया. वैचारिक रूप से यह ऐतिहासिक छलांग थी, पेट्टी बुर्जूआ (निम्न पूंजीवादी) क्रांतिवाद से मार्क्सवाद-लेनिनवाद के मार्गदर्शन में सर्वहारा क्रांतिवाद तक और संगठन के मामले में इसने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद रख दी.