वर्ष - 34
अंक - 2
04-01-2025

2024 कई देशों के लिए नेतृत्व परिवर्तन का साल रहा, जबकि गाजा में इजराइल द्वारा फिलिस्तीनियों का नरसंहार बिना रुके जारी रहा. हमारे इलाके में, श्रीलंका ने इतिहास में पहली बार एक वामपंथी सरकार चुनी. बांग्लादेश में एक जनआंदोलन ने पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ने और भारत में शरण लेने पर मजबूर किया, लेकिन लोकतंत्र की बहाली की संभावना अब भी अनिश्चित दिख रही है क्योंकि कट्टरपंथी जमात समर्थक ताकतें मजबूत हो रही हैं.

सीरिया ने भी लंबे समय से प्रतीक्षित, बेहद अलोकप्रिय और तानाशाह असद के शासन का पतन देखा, लेकिन अब वह देश अमेरिका समर्थित इजरायली हमले का शिकार बन रहा है. फ्रांस ने धुर-दक्षिणपंथी जीत के खतरे को तुरंत टाल दिया, लेकिन अमेरिका ट्रंप की वापसी को रोकने में असफल रहा.

हालाँकि, भारत के लिए 2024 वह बदलाव नहीं ला पाया जिसका करोड़ों भारतीय लंबे समय से इंतजार कर रहे थे. भाजपा ने अपनी स्वतंत्र बहुमत तो खो दी, लेकिन गठबंधन के रूप में सत्ता बरकरार रखने में सफल रही. इसके बाद, चुनावी पारदर्शिता, संस्थागत निष्पक्षता और चुनाव आयोग की जवाबदेही के स्थापित मानकों का पूरी तरह मजाक उड़ाते हुए, भाजपा ने हरियाणा में सत्ता बरकरार रखी और महाराष्ट्र में एक बेहद असमान और संदिग्ध चुनावी लड़ाई में भारी जीत हासिल की.

2024 के लोकसभा चुनावों के बाद यह अब पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि भारत फासीवादी शिकंजे से आसान चुनावी रास्ते से बाहर नहीं निकल सकता. केवल ‘हम भारत के लोग’, जिनके पूर्वजों ने 26 नवंबर 1949 को संविधान अपनाया था, के  मजबूत लोकतांत्रिक आंदोलन से ही गणराज्य को फासीवादी चंगुल से मुक्त किया जा सकता है.

मोदी सरकार के एक दशक के अनुभव ने हमें ऐसे जनउभार की संभावनाओं के पर्याप्त संकेत दिए हैं. मोदी सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड का सबसे कमजोर पहलू हमेशा से अर्थव्यवस्था रहा है. आम जनता का मूड, जिसने 1990 के दशक की शुरुआत में ‘उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण’ के पैकेज का कुछ हद तक स्वागत किया था, अब साफ तौर पर लुटेरी और भाई-भतीजावादी (क्रोनी) पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ गुस्से में बदलता दिख रहा है.  प्राकृतिक संसाधनों और आर्थिक बुनियादी ढांचे को कुछ चुने हुए कॉरपोरेट घरानों को अंधाधुंध सौंपने का नतीजा भारी बेरोजगारी, लगातार बढ़ती गरीबी, महंगाई और करोड़ों भारतीयों के लिए आजीविका पर गंभीर खतरे के रूप में सामने आया है.

भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों के बावजूद अडानी समूह का सरकार द्वारा हठपूर्वक बचाव यह दिखाता है कि यह शासन बड़े कॉरपोरेट समर्थन पर टिका हुआ है. किसानों के आंदोलन ने पहले ही यह झलक दिखा दी है कि कॉरपोरेट कब्जे के खिलाफ जन-प्रतिरोध कितनी ताकतवर भूमिका निभा सकता है.

सामाजिक समानता और लैंगिक न्याय की लड़ाई ने समय-समय पर भारतीय जनता के बड़े हिस्से को संगठित होकर दृढ़ प्रतिरोध के लिए प्रेरित किया है. हाल ही में, कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक पोस्ट-ग्रेजुएट डॉक्टर के साथ हुए बर्बर बलात्कार और हत्या के खिलाफ उठे जनआक्रोश ने इसे फिर से साबित किया. मोदी शासनकाल के दौरान पितृसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी रवैया – जैसे युवा महिलाओं पर हिंसक तथाकथित नैतिक पहरेदारी, दलित और मुस्लिम महिलाओं के बलात्कारियों को संरक्षण और सम्मानित करना, और खाप पंचायतों को लोकतांत्रिक संस्थानों के रूप में महिमामंडित करना – का भी जमकर विरोध हुआ है.

राज्यसभा में अमित शाह द्वारा डॉ. अंबेडकर का अपमान किए जाने पर देशभर में व्यापक प्रतिरोध हुआ. इससे साफ पता चलता है कि सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दे पर यह शासन कितना असहज और कमजोर है. अंबेडकर, भारत में जाति-विरोधी आंदोलन के सबसे शक्तिशाली प्रतीक हैं ,और उनका अपमान सहन न करने वाला यह जनआंदोलन फासीवादी सत्ता के प्रति बढ़ते गुस्से की ओर इशारा करता है.

भारतीय जनता के हाथ में सबसे शक्तिशाली हथियार है – भारत के उपनिवेशवाद विरोधी आजादी आंदोलन की प्रेरणादायक विरासत और उस आंदोलन के सपनों से उपजा संविधान, जिसने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, संप्रभु और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया.

सांप्रदायिक नफरत, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को हथियार बनाकर फासीवादी ताकतों द्वारा लगातार किए जा रहे हमलों के सामने, आजादी के सपने और संविधान, एक समानतावादी समाज और मजबूत लोकतंत्र की नई लड़ाई का सबसे मजबूत आधार हैं.

2025 में, जब कम्युनिस्ट और फासीवादी अपने-अपने आंदोलनों की शताब्दी भारत में मना रहे हैं, हर भारतीय कम्युनिस्ट को इस ऐतिहासिक अवसर पर दृढ़ता से खड़ा होना होगा और 2025 को फासीवादी आपदा पर बड़ी जीत का साल बनाना होगा.