वर्ष - 28
अंक - 44
19-10-2019

इस साल अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में दिया जाने वाला आर्थिक विज्ञान में स्वरिजेज रिक्सबैंक पुरस्कार, जिसे आम बोलचाल की भाषा में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है, उल्लेखनीय रूप से मीडिया में तथा आम लोगों के बीच चर्चा का विषय बना है. इसका कारण यह है कि पुरस्कार पाने वाले तीन व्यक्तियों में से एक अभिजित विनायक बनर्जी भारतीय मूल के अमरीकी अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने कोलकाता के सुविख्यात प्रेसिडेन्सी काॅलेज (अब विश्वविद्यालय) से स्नातक और नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की थी. अमर्त्य सेन के बाद यह दूसरी बार है जब प्रेसिडेन्सी काॅलेज के किसी भूतपूर्व छात्र ने यह सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया हो. पर जेएनयू के लिये यह इस किस्म का पहला मौका है और बड़ा भारी खलनायक बनाए जा चुके इस संस्थान के पक्ष में खड़े होने का सबब बनता है, जिस संस्थान को वर्ष 2014 से मोदी सरकार द्वारा लगातार चौतरफा हमले का शिकार बनाया जा रहा है. यह गौर करना भी उल्लेखनीय होगा कि 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में जेएनयू कैम्पस में एक छात्र कार्यकर्ता के बतौर अभिजित बनर्जी पर प्रशासन-विरोधी हिंसात्मक कार्रवाइयां करने का भी आरोप लगाया गया था और उनको रिमांड के तहत कुख्यात तिहाड़ जेल में भी दो हफ्तों तक कैद रखने के बाद ही रिहा किया गया था.

भारत में इस पुरस्कार पर बहुतेरे लोग क्यों उल्लसित हैं इसकी एक और ज्यादा प्रभावी तथा फौरी वजह भी है. भारत आजकल गहरी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है जिसमें सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की दर समेत बहुतेरे अन्य आर्थिक पैमानों के सूचकांक गोता खाकर नीचे गिर रहे हैं और केवल एक चीज जो लगातार बढ़ती ही जा रही है वह है बेरोजगारी और गरीबों तथा आम लोगों की बदहाली. यह आर्थिक मंदी मोदी सरकार की दीर्घकालीन नीतिगत दिशा का भी उसी हद तक परिणाम है, जिस हद तक उसके द्वारा मनमाने ढंग से लागू किये गये बेहूदे कदमों – नोटबंदी और अधकचरी तथा दोषपूर्ण परिकल्पना वाली जीएसटी प्रणाली को लादने का परिणाम है. जब आर्थिक तबाही खुलकर सामने आ गई है तो सरकार आंकड़ों की बाजीगरी करने तथा बेबुनियाद तर्क देकर संकट से इन्कार करने में व्यस्त हो गई है. इधर वित्तमंत्री ने कारों की बिक्री में आई भारी गिरावट का कारण ‘सहस्राब्दी मानसिकता’ बतााया है जिसके चलते लोगबाग अपनी कार में सफर करने के बजाय ओला और ऊबर बुक करना पसंद करने लगे हैं, तो उधर कानून मंत्री बाॅलीवुड में नई रिलीज होने वाली फिल्मों की “रिकार्ड बाॅक्स आफिस आमदनी” का हवाला देते हुए कहते हैं कि संकट कहां है? तकलीफदेह आर्थिक मंदी और वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बोले जा रहे छल भरे झूठों की इस पृष्ठभूमि में बहुतेरे भारतीय लोगों के लिये यह सुखद आश्चर्य की घटना है कि भारतीय पृष्ठभूमि के एक अर्थशास्त्री को, जो मोदी सरकार द्वारा लागू किये गये बेहूदे आर्थिक कदमों तथा आंकड़ों की धोखाधड़ी के आलोचक रहे हैं, इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला है.

अभिजित विनायक बनर्जी और उनकी सहकर्मी इस्थर डुफ्लो एवं माइकेल क्रेमर को स्वरिजेज रिक्सबैंक पुरस्कार वैश्विक गरीबी को मिटाने की चुनौती के प्रति उनके प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के कारण मिला है. मौजूदा दौर में वैश्विक पूंजी डिजिटल पद्धति से गतिमान वित्तीय महादानव है जो सारी दुनिया में प्रकृति और मेहनतकश जनता की भारी लूट-खसोट कर रहा है और इसके फलस्वरूप बड़े पैमाने पर आर्थिक असमानता और लोगों की बदहाली को जन्म दे रहा है. ऐसी स्थिति में गरीब और उनकी गरीबी का कोई भी उल्लेख वास्तविक जगत की आवश्यक जांच लगता है और इसीलिये आम तौर पर स्वागतयोग्य होता है. मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के विभिन्न स्कूलों के परे भी हमने ऐसे कल्याणकारी अर्थशास्त्री अथवा विकास अर्थशास्त्री देखे हैं, जो कट्टर बाजारवाद के खिलाफ तर्क देते हैं और बहुतेरी ऐसी नीतियों को लागू करने की पैरवी करते हैं जो प्रगतिशील कर-प्रणाली कायम करने अथवा आमदनी के पुनर्वितरण के अन्य कदमों के जरिये गरीबी दूर करने और आर्थिक असमानता को घटाने में काम आती हैं. बनर्जी और डुफ्लो, जो इसी बीच 2011 में लिखित अपनी किताब “पुअर इकनाॅमिक्स: ए रैडिकल रिथिंकिंग ऑफ द वे टु फाइट ग्लोबल पावर्टी” के चलते प्रसिद्ध हो चुके हैं, विकास अर्थशास्त्र के इस आम स्कूल के सदस्य नहीं हैं. उन्हें अपनी “पावर्टी ऐक्शन लैब” (गरीबी के खिलाफ कार्यवाही की प्रयोगशाला) में रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड ट्रायल्स (बेतरतीब नियंत्रित परीक्षण) की तकनीक का इस्तेमाल करने तथा सूक्ष्म-स्तरीय योजनाएं (माइक्रो-लेवल स्कीम्स) तैयार करने के लिये सम्मानित किया गया है, जिनके बारे में उनका दावा है कि वे व्यक्तिगत रुझान एवं पसंदगी को प्रभावित करके गरीबी के मुद्दों का निदान करने में बेहतर काम करती हैं.

दूसरे शब्दों में, गरीबी को समझने अथवा उसका निदान करने के लिये उपयुक्त कदम ढूंढ निकालने के उनके तरीके वास्तव में अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य को सम्बोधित नहीं करते, चाहे वह सामाजिक-आर्थिक ढांचे के संदर्भ में हो या फिर वृहत् पैमाने पर नीति के संदर्भ में हो. उनका केन्द्रीय जोर लगभग सम्पूर्ण रूप से सूक्ष्म स्तरीय हस्तक्षेप को तैयार करने पर है जिनका लक्ष्य खास-खास क्षेत्रों में खास-खास किस्म के सुधार पर है. इसमें वास्तव में गरीबों को ही उनकी गरीबी के लिये तथा अपनी पसंद बदलने और अपने कदमों के जरिये अपनी गरीबी दूर करने के लिये जिम्मेवार ठहराया गया है. इस किस्म के दृष्टिकोणों को वैश्विक पूंजीवाद के पैरोकारों द्वारा “सुधारक कदमों” के बतौर पसंद किया जा सकता है, मगर ये कदम भारत जैसे देशों में गरीबी पर वास्तव में कोई असर नहीं डाल सकते, जहां गरीबी इतनी गहराई में जड़ जमाये हुए है, और जहां जातिगत, वर्गीय और लैंगिक भेदभाव तथा सरकारी नीतियों के उत्पीड़नकारी ढांचागत गठजोड़ द्वारा गरीबी का लगातार पुनरुत्पादन किया जा रहा है, जो गरीबों को और ज्यादा गरीब बनाता है और गरीबों को उनकी गरीबी की सजा भी देता है. मगर मोदी सरकार कारपोरेट हितों और अति-धनाढ्य वर्ग की हेकड़ीबाज समृद्धि के साथ इतनी गहराई से जुड़ी हुई है कि संघ प्रतिष्ठान यह देखकर खुद को बड़ा अपमानित महसूस कर रहा है कि भारत में गरीबी पर शोध करने वाले किसी अर्थशास्त्री को यह सर्वोच्च अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है. कर्नाटक से भाजपा के सांसद अनंतकुमार हेगड़े ने ट्विटर पर अपनी जो प्रतिक्रिया जाहिर की है वह इसे एकदम स्पष्ट रूप से दर्शा देती है – “एक ऐसे आदमी को, जो भारत में मुद्रास्फीति और टैक्स की दरों में वृद्धि की सिफारिश कर रहा है, ... इस कदर स्वीकृति दी गई है और पुरस्कृत भी किया गया है.”

हालांकि चाहे अपने आर्थिक विचारों के संदर्भ में कहिये या फिर राजनीतिक विश्लेषण के लिहाज से, अभिजित बनर्जी कोई अमर्त्य सेन तो नहीं हैं (द इंडियन एक्सप्रेस में मई 2017 में छपे एक लेख में अपने विचार जाहिर करते हुए उन्होंने मोदी द्वारा की गई ‘हमारी सर्वोच्च भावनाओं’ की अपीलों की तारीफ करके, और ‘पुराने’ आरएसएस एवं भाजपा के प्रति अतीतमोह दिखलाने के जरिये अपने राजनीतिक बचकानेपन को आश्चर्यजनक रूप से जाहिर कर दिया था), फिर भी संघ-भाजपा ने उनमें एक और राष्ट्रद्रोही बुद्धिजीवी का आविष्कार कर लिया है, खासकर इसलिये कि उन्होंने नोटबंदी के खिलाफ आलोचनात्मक टिप्पणी की थी और खबर है कि 2019 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस द्वारा जारी घोषणापत्र में सार्वजनिक न्यूनतम आय योजना अथवा न्याय (एनवाईएवाई) स्कीम की रचना में उनका हाथ था. और जहां नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले लोगों को इस कदर हिकारत से देखा जाता है, वहां यह समझना मुश्किल नहीं कि सुधा भारद्वाज जैसे लोगों पर, जिन्होंने भारत के वंचित एवं अधिकारहीन ग्रामीण गरीबों के साथ गहरा रिश्ता कायम करने वाला जीवन चुनने के लिये अपनी अमरीकी नागरिकता का त्याग कर दिया, ‘अर्बन नक्सल’ का ठप्पा लगा दिया जाता है और पिछले एक साल से जेल की तकलीफ झेलने के लिये विवश किया जाता है. इस दौरान, वैश्विक भुखमरी सूचकांक के लिहाज से भारत 117 देशों में से 102वें स्थान पर पहुंच जाता है, भूख से होने वाली मौतें लगातार जारी हैं, उत्तर प्रदेश में मिड-डे-मील के नाम पर बच्चों को नमक-रोटी या भात-इमली परोसा जाता है, बड़े पैमाने पर सरकारी अस्पतालों में इन्सेफलाइटिस एवं रोकथाम की जा सकने वाली विभिन्न महामारियों में बड़ी तादाद में बच्चों की मौत होना जारी है और दलित बच्चों को खुले में शौच करने के चलते पीट-पीट कर जान से मार दिया जाता है. सिर्फ लोकतंत्र, सम्मान और सामाजिक बदलाव की लड़ाई के जरिये ही भारत में गरीबी का निदान करने की लड़ाई लड़ी जा सकती है.