वर्ष - 28
अंक - 46
02-11-2019
[ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की मान्यता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में हुई थी, जिसमें उस वक्त सात सदस्य थे – एम.एन. राय, ईवलीन राॅय-ट्रेंट, अबनी मुखर्जी, रोजा फिटिंगोव, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफीक और आचार्य. इसीलिये सीपीआई(एम) 2019-20 को सीपीआई की जन्म शताब्दी मना रही है. मगर क्या ताशकंद की घटना को सचमुच भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म माना जा सकता है? सीपीआई और भाकपा(माले) दोनों की मान्यता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 में ही, कानपुर में हुए उसके पहले सम्मेलन के जरिये हुई थी. इस मान्यता के पीछे तर्क के समर्थन में हम यहां ‘भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं महत्वपूर्ण दस्तावेज, खंड-1 (1917-39) से प्रासंगिक अंशों को उद्धृत कर रहे हैं. इस पुस्तक की भूमिका लिखने के साथ ही सम्पादन अरिंदम सेन और पार्थ घोष ने किया है और इसका प्रकाशन समकालीन प्रकाशन, पटना द्वारा 1991 में हुआ था.]

 

भारत सरकार ने भारत की आंतरिक स्थिति में बोल्शेविक खतरे के बुनियादी स्रोत की ठीक ही निशानदेही की थी. एक अत्यंत रहस्योद्घाटक टिप्पणी में सरकार ने चेतावनी दी: “अगर भारत की तकदीर रूसियों जैसी नहीं बनने देनी है तो ..… जनसमुदाय की स्थितियों को सुधारने और उनका असंतोष घटाने का सोच-समझकर अवश्य प्रयास किया जाना चाहिए.” कुछ अन्य टिप्पणियों में सरकार ने भारत सचिव का ध्यान रूसी क्रांति से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा ग्रहण की जा रही प्रेरणा की ओर आकृष्ट किया.

नई उम्मीदों और मुक्ति की उमंग से ओतप्रोत इस वातावरण में भारत के सर्वाधिक गतिशील क्रांतिकारी लोग पहले तो इन नए “लाल” नायकों की ओर आकृष्ट हुए और फिर मार्क्सवाद अथवा कम्युनिज्म की ओर आकृष्ट हुए, क्योंकि उनसे कहा गया था कि बोल्शेविक करामात का सबसे बड़ा राज यही है. वे बुनियादी तौर पर तीन पृष्ठभूमियों से आए थेः

(क) जरमनी (उदाहरण के लिए वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में बर्लिन ग्रुप), अफगानिस्तान (उदाहरण के लिए काबुल में स्थापित “स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार” केएम बरकतुल्ला), अमरीका (सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं रतन सिंह और संतोष सिंह जैसे गदर पार्टीवाले जिन्होंने 1920 के दशक में अपने आंदोलन को पुनर्जीवित किया), इत्यादि में कार्यरत क्रांतिकारी देशभक्त तथा एमएन राय और अबनी मुखर्जी जैसे घुमंतु क्रांतिकारी.

(ख) सर्व इस्लामवादी खिलाफत आंदोलन आौर हिजरत आंदोलन से उत्पन्न राष्ट्रीय क्रांतिकारी जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और बाद में अफगानिस्तान व तुर्की चले गए थे (जैसे, शौकत उस्मान, मोहम्मद अली सिपासी इत्यादि), तथा

(ग) कांग्रेस आंदोलन के अंदर अथवा बाहर कार्यरत क्रांतिकारी देशभक्त जो 1921 के असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी के कारण कांग्रेस से निराश और मर्माहत होकर नई राह की तलाश में समाजवाद और मजदूर वर्ग के आंदोलन की ओर मुड़े (उदाहरण के लिए बंबई में डांगे, कलकत्ता में मुजफ्फर अहमद और मद्रास में सिंगारवेलु, लाहौर का इन्किलाब ग्रुप; अकाली आंदोलन का बब्बर अकाली गुट, इत्यादि).

इन असदृश शक्तियों को जो साझी चाहत प्रेरित कर रही थी वह थी मातृभूमि की मुक्ति. यहीं भारत में कम्युनिज्म की मूल अंतःप्रेरणा निहित है.

इन तीनों धाराओं में से दो पूर्ववर्ती धाराएं स्वयंभू ‘सीपीआइ’ का निर्माण करने के लिए सोवियत संघ में एकजुट हुईं. लेकिन भारतीय समाज की आंतरिक गति से कटा रहने के कारण यह संश्रय प्रवासी कम्युनिस्ट पार्टी की हदों को कभी पार नहीं कर सका. तीसरी धारा खुद भारतीय समाज के क्रम विकास के चलते उभरी थी, लिहाजा यही धारा असली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी बनी. उपर्युक्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व, ऐतिहासिकता के लिहाज से आइए हम विदेश में पार्टी निर्माण के असफल प्रयत्न को भी दर्ज कर लें.

सोवियत संघ में ली गईं पहल कदमियां

सोवियत संघ में एक भारतीय कम्युनिस्ट गु्रप के उदय से संबंधित घटनाओं का तिथिवार ब्यौरा निम्नलिखित है:

1. फरवरी 1918 में महेंद्र प्रताप ताशकंद आए. उनके बाद मार्च 1919 में बरकतुल्ला आए. आए तो वे अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्ला के विशेष दूत की हैसियत से, किंतु व्यक्तिगत रूप से उनकी अधिक दिलचस्पी भारत की आजादी में थी. इस प्रकार जब  “सीपीआइ” बनी तो ये वाम राष्ट्रवादी इसके मित्र बने, सदस्य नहीं बने. 7 मई 1919 को उन्होंने एमपीबीटी आचार्य और अब्दुल रब तथा कुछ और व्यक्तियों के साथ लेनिन से मुलाकात की. आचार्य, जो पहले सावरकर के शिष्य और चट्टोपाध्याय के सहकर्मी थे, ताशकंद सीपीआइ के संस्थापक सदस्य बने.

2. जनवरी-अप्रैल 1920 में ताशकंद में 9 क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आए जिनमें से मोहम्मद अली, मोहम्मद शफीक (ये दोनों “अस्थाई सरकार” के कार्यवश आए थे), अब्दुल मजीद और अब्दुल फाजिल सहित 7 व्यक्तियों ने 17 अप्रैल 1920 को सोविन्टेर प्राप की “भारतीय कम्युनिस्टों की शाखा” बनाई. शाखा की ओर से तैयार कुछ प्रचार सामग्रियां इस प्रकार हैं: “आखिर सोवियत सत्ता किस किस्म की है ?” (पर्चा), “बोल्शेविज्म और मुस्लिम कौम” (बरकतुल्ला द्वारा तैयार पर्चा) “हिंदुस्तानी बिरादरों के नाम” (अपील) और उर्दू पत्रिका जमींदार, जिसका पहला और आखिरी अंक मोहम्मद शफीक की पहलकदमी से मई 1920 में प्रकाशित हुआ था.

3. एमएन राय मई अथवा जून 1920 में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के दो में से एक प्रतिनिधि की हैसियत से कोमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस के लिए आए थे, हालांकि हर कोई यह जानता था और उन्होंने इसे स्वीकार भी कर लिया था कि वस्तुतः वे भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे. इस कांग्रेस में एमएन राय और उनकी पत्नी एवलिन ट्रेंट राय के अतिरिक्त निम्नलिखित भारतीय भी शरीक हुए: अबनी मुखर्जी, एमपीबीटी आचार्य (उन्हें सलाह देने का अधिकार था, किंतु वोट देने का नहीं; मुखर्जी का उल्लेख वाम समाजवादी के बतौर किया गया था और आचार्य का उल्लेख ताशकंद स्थित भारतीय क्रांतिकारी संघ के प्रतिनिधि के बतौर) तथा मोहम्मद शफीक (पर्यवेक्षक प्रतिनिधि के बतौर) केवल राय के पास ही निर्णयकारी मत था.

4. दूसरी कांग्रेस के खत्म होने के पूर्व ही राय और दो अन्य व्यक्तियों द्वारा “भारतीय क्रांति की आम योजना व कार्यक्रम” तैयार किया गया था. एमए परसिट्स के कथनानुसार, आम योजना में तीन प्रमुख कार्यभार रखे गए थे: “पहला, क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय कांग्रेस का आयोजन और खासकर इस कांग्रेस के लिए तैयारियां करने और उसके आयोजन के लिए समर्थ अखिल भारतीय क्रांतिकारी केंद्र की स्थापना, दूसरा, फौरन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण; और तीसरा, क्रांतिकारी शक्तियों के सैनिक व राजनीतिक प्रशिक्षण की फौरन व्यवस्था करना.”

5. प्रवासी “सीपीआइ” की स्थापना ताशकंद में 17 अक्टूबर 1920 को हुई थी. राय, शफीक और आचार्य को लेकर एक तीन सदस्यीय कार्यकारिणी का निर्माण किया गया. शफीक और आचार्य कार्यकारिणी समिति के क्रमशः सचिव व अध्यक्ष चुने गए. मुखर्जी द्वारा एक भारतीय राष्ट्रवादी नेता एसपी गुप्ता को 30.12.1920 को लिखे गए एक पत्र से ऐसा लगता है कि 15 से 20 दिसंबर के बीच 3 अन्य व्यक्ति भी पार्टी में शामिल हुए. इस तरह सदस्यों की कुल संख्या 13 (7+3+3) हो गई. नई पार्टी “कोमिन्टर्न के ताशकंद ब्यूरो के राजनीतिक मार्गदर्शन के मातहत कार्य करती थी.”

6. कम्युनिस्ट पार्टी अथवा ग्रुप का निर्माण कम से कम कार्यक्रम के बगैर अधूरा रहता है, सो अबनी मुखर्जी ने 1920 के अंत में एक कार्यक्रम तैयार किया. बहरहाल राय के जोर देने पर इसे खारिज कर दिया गया. जहांतक ताशकंद में बनी सीपीआइ की “इंटरनेशनल द्वारा मान्यता प्राप्त” का प्रश्न है यह अभी तक विवादास्पद प्रश्न है. एसए डांगे जैसे कुछ लोगों का कहना है कि इसे कोई मान्यता नहीं मिली थी, वहीं मुजफ्फर अहमद जैसे कुछ अन्य लोगों का कहना है कि इसे मान्यता मिली थी. तथ्य निम्नलिखित हैं: (क) इसका निर्माण किए जाने की एक औपचारिक सूचना तुर्किस्थान की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कमेटी और कोमिन्टर्न के तुर्किस्तान ब्यूरो को भेजी गई थी, (ख) कोमिन्टर्न की तुर्किस्तान ब्यूरो और कार्यकारिणी कमेटी ने भारतीय कम्युनिस्टों व अन्य क्रांतिकारियों व अन्य क्रांतिकारियों की कुछ राजनीतिक व संगठनात्मक समस्याओं के समाधान के लिए कुछ कदम उठाए थे. और (ग) कोमिन्टर्न की तीसरी कांग्रेस (अप्रैल अथवा मई 1921 में इसीसीआइ की छोटी ब्यूरो द्वारा प्रायोजित में निमंत्रित पार्टियों व संगठनों की सूची में लिखा हुआ है – “भारत कम्युनिस्ट ग्रुप (सलाहकार वोट). इन तथ्यों से – तथा यह कहना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के लिए एकदम जरूरी बातों की लेनिनवादी समझ से – यही सत्य उभरता है कि कोमिन्टर्न ने ताशकंद में सीपीआइ के निर्माण को संपन्न हो गया कार्य, लिहाजा प्रस्थान बिंदु नहीं मान लिया था, बल्कि इस शब्दावली के पूरे अर्थ में उसे कम्युनिस्ट पार्टी मानने से इनकार कर दिया था.

7. चूंकि ताशकंद में हुए इस पार्टी-निर्माण ने कुछ अन्य क्रांतिकारियों को, जो धीरे-धीरे माक्र्सवाद की ओर आ रहे थे, किनारे कर दिया, इसलिए एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी सम्मेलन संगठित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी. कोमिन्टर्न ने इसमें विशेष दिलचस्पी ली और जनवरी से मई 1921 के बीच दो महत्वपूर्ण ग्रुप मास्को पहुंचे: ताशकंद से अब्दुर रब बर्क (अब्दुल रब के नाम से भी मशहूर) के नेतृत्व में “भारतीय क्रांतिकारी संघ” और बर्लिन से वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, जीएके लुहानी, भूपेंद्रनाथ दत्त, खानकोजी, एग्नेस  स्मेड्ली और कुछ अन्य व्यक्ति. बर्लिन से आए ग्रुप ने भारत और विश्व क्रांति पर अपनी थीसिस लेनिन और इसीसीआइ को दी. थीसिस को चट्टोपाध्याय लुहानी और खानकोजी ने लिखा था. अब्दुर रब ने कुछ नीति वक्तव्य भी रखे. कोमिन्टर्न ने एक वर्ष से अधिक अरसे तक अपने पूरबी आयोग और भारत आयोग के जरिए राय, चट्टोपाध्याय और रब गुटों के बीच एकता कायम करने की कोशिश की, किंतु इसमें कोई सफलता न मिल सकी. सब के सब कमाबेश व्यक्तिवादी संकीर्णतावाद से पीड़ित थे और वे सभी कोमिन्टर्न की एकछत्र मान्यता और अभिभावकत्व पाने को बेताब थे. साथ ही, उनके बीच राजनीतिक मतभेद भी कोई कम महत्वपूर्ण न थे. सोवियत के तत्वावधान में आयोजित राय, आचार्य और रब की अनेक बैठकों की कार्यवाहियां यह प्रदर्शित करती हैं कि “मुख्य राजनीतिक अंतरविरोध भारतीय आप्रवासियों के बीच काम करने के तरीकों के बारे में मतभेद पर आधारित” था. आचार्य ने राय पर आरोप लगाया कि वे भारतीय आप्रवासियों को पार्टी में जोर-जबर्दस्ती शामिल करते हैं. जबकि रब की आलोचना थी कि राय उनके बीच “कम्युनिस्ट प्रचार चलाने की गलत नीति का अनुसरण करते हैं जो फिलहाल निरर्थक है.” उनके (रब के) विचार से, “राष्ट्रवाद का भी उल्लेखनीय तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए.” उनके ;रब केद्ध के विचार से, “राष्ट्रवाद का भी उल्लेखनीय तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए.” इन तीखी व्यक्तिगत व राजनीतिक असहमतियों के चलते कम्युनिस्ट व कम्युनिस्ट समर्थक राष्ट्रीय क्रांतिकारियों का प्रस्तावित सम्मेलन कभी आयोजित नहीं हो सका. लेकिन मास्को में हुई लंबी लंबी बहसें, जिनमें कभी-कभी लेनिन भी भाग लिया करते थे, पूर्णतः व्यर्थ नहीं साबित हुई. लुहानी जैसे कुछ लोग थोड़े ही दिनों बाद कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए तो चट्टोपाध्याय जैसे कुछ अन्य लोग बाद में. घटनाओं के इस ब्यौरे से यह समझना मुश्किल नहीं है कि 1920-21 में ताशकंद-मास्को में बना ग्रुप क्यों जन्म से ही मृत था. बगैर कोई नींव तैयार किए जल्दीबाजी में बने इस ग्रुप का न कोई संविधान था और न कार्यक्रम ही. वस्तुतः यह राय की कारगुजारी थी, ताकि उसे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में जगह मिल सके.

सबसे अहम बात तो यह है कि प्रवासी क्रांतिकारियों की भारतीय जनता के बीच कोई जड़ें न थीं और उनकी मनोगत कल्पनाएं. जिस समाज को वे बदलना चाहते थे, उसमें कभी नहीं जगह पा सकीं. लिहाजा ताशकंद में हुए निर्माण को किसी भी प्रकार सीपीआइ का निर्माण नहीं माना जा सकता है.

बहरहाल, एमएन राय ने पत्रिकाओं, घोषणापत्रों चिट्ठियों आदि के जरिए और अपने दूत व धन भेजकर भारत से राजनीतिक पुल बनाने का प्रयत्न करने और ऐसा पुल बना लेने में एक क्षण की भी देर न की. उनके इन प्रयत्नों की कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने, जिनकी ओर से वे यह सब कर रहे थे (वे 1921 में ही कोमिन्टर्न के नेतृत्व में शामिल कर लिये गये थे), पूरी तरह वित्तीय व राजनीतिक मदद की. दूत और धन भेजने से कोई खास फायदा नहीं हो सका., लेकिन राय द्वारा संपादित पत्रिकाओं में प्रकाशित कोमिन्टर्न की रिपोर्ट और मार्गदर्शन जरूर फायदेमंद साबित हुए – इन पत्रिकाओं के अधिकांश नहीं तो कम से कम अनेको प्रतियों के पुलिस द्वारा जब्त कर लिए जाते रहने के बावजूद. इसके अतिरिक्त, राय ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के विविध चेहरों की व्याख्या करने के पहले प्रयास किए.

भारत में प्रथम कम्युनिस्ट सम्मेलन

भारत में कम्युनिज्म के इतिहास में अनेक विस्मयकारी घटनाएं घटी हैं, उनमें ही एक यह है कि इधर-उधर बिखरे कम्युनिस्ट ग्रुपों को एक पार्टी में एकताबद्ध करने वाले ऐतिहासिक सम्मेलन को संगठित करने का श्रेय सत्यभक्त नामक एक ऐसे व्यक्ति को जाता है, जिसने इसी पार्टी – सीपीआइ – को, उसकी स्थापना के चंद दिनों बाद ही छोड़ दिया. सत्यभक्त संयुक्त प्रांत में एक देशभक्त आतंकवादी गु्रप के भूतपूर्व सदस्य थे जो गांधी के भी चेला रहे थे, मगर असहयोग आंदोलन को वापस लेने के चलते उनका मोहभंग हो चुका था और उन्होंने सोवियत रूस तथा कम्युनिज्म में दिलचस्पी लेनी शुरू की थी. उन्होंने 1924 के मध्य में खुले तौर पर एक “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी” की स्थापना की जिसमें, खुद उनके दावे के अनुसार, 78 सदस्य थे जो 1925 में बढ़कर 150 हो गए. पार्टी को खुले तौर पर कायम करने का साहस उन्हें तब प्राप्त हुआ जब मई 1924 में कानपुर षडयंत्र केस के दौरान सरकारी वकील ने अपने वक्तव्य में कहा कि अभियुक्तों पर मुकदमा कम्युनिस्ट विचारों को मानने या उनका प्रचार करने के कारण नहीं बल्कि सरकार को उखाड़ फेंकने का षडयंत्र करने के कारण चलाया जा रहा है. इस वक्तव्य से सत्यभक्त ने निष्कर्ष निकाला कि ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी, जो खुली और संदेहों से परे हो तथा पूर्णतः एवं प्रकट रूप से भारतीय हो, अर्थात् जिसका बोल्शेविकवाद या कोमिन्टर्न से कोई संबंध न हो, संभवतः सरकार का कोपभाजन नहीं होगी.

तत्कालीन कम्युनिस्ट ग्रुपों ने इस पार्टी को कोई महत्व नहीं दिया (और न ही ब्रिटिश गुप्तचर विभाग के प्रमुख सेसिल काए ने ; यद्यपि सत्यभक्त पर नजदीकी निगाह रखी जाती रही); मगर जब उन्होंने घोषणा की कि वे 1925 के अंत में कानपुर में “प्रथम भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन” आयोजित करने जा रहे हैं, तब उन्होंने इस पर ध्यान दिया और सक्रिय हुए. जेल में पहले से ही इस बात पर बहसें चल रही थीं कि कानपुर केस में सरकारी वकील के उपर्युक्त बयान का लाभ उठाकर अखिल भारतीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के लिए खुले तौर पर सम्मेलन आयोजित करना उचित है या नहीं. डांगे ने ही यह विचार पेश किया था, अतः बंबई ग्रुप (स्वयं डांगे उस समय जेल में थे) ने सत्यभक्त के साथ और कानपुर सम्मेलन (25-28 दिसंबर 1925) में पूरे जोश-खरोश से शिरकत की. अहमद इस विचार के विरुद्ध थे, मगर जब सम्मेलन से सिर्फ तीन महीने पहले उन्हें गंभीर क्षयरोग से पीड़ित होने के आधार पर रिहा कर दिया गया, ता वे भी इसमें उपस्थित हुए. अन्य स्थानों से भी प्रतिनिधि आए थे.

किरती (कम्युनिस्टों की रहनुमाई में चलने वाली एक पंजाबी पत्रिका) के फरवरी 1926 के अंक के अनुसार इस सम्मेलन में कुल 300 प्रतिनिधि शामिल हुए थे, यद्यपि गुप्तचर विभाग के स्रोतों के अनुसार प्रतिनिधियों की संख्या 500 थी. ब्रिटिश कम्युनिस्ट सांसद शापुरजी सकलातवाला ने सम्मेलन के लिए एक संक्षिप्त संदेश भेजा था: “मैं आशा करता हूं कि यह सम्मेलन भारत में एक विशाल तथा स्थाई कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत होगी”; इस संदेश को प्रथम सत्र में पढ़कर सुनाया गया और उसके बाद स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी (जिन्होंने दिसंबर 1921 में अहमदाबाद में आयोजित कांगेस अधिवेशन में सुप्रसिद्ध “स्वाधीनता प्रस्ताव” पेश किया था) ने भाषण दिया. इसके बाद एम सिंगारवेलु ने अध्यक्षीय भाषण दिया.

सीपीआइ के ये एकदम शुरुआती पाठ स्वभावतः, राजनीतिक एवं संगठनात्मक प्रश्नों पर कई त्रुटियों के शिकार हैं, उदाहरणार्थ पार्टी के “अंतिम लक्ष्य” को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है. “मजदूरों और किसानों के लोकतांत्रिक स्वराज का निर्माण” (घोषणापत्र के अनुसार); अथवा संविधान के शब्दों में, “ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रभुत्व से भारत की मुक्ति के जरिए उत्पादन और वितरण के साधनों के समाजीकरण के आधार पर मजदूरों व किसानों के गणराज्य का निर्माण.” यहां, हमारी आकांक्षा के अनुसार, “वर्गहीन कम्युनिस्ट समाज की स्थापना” या ऐसा ही कुछ होना चाहिए था. इसी प्रकार, फौरी लक्ष्य के बतौर जमीन, कारखानों, भवनों, रेलवे इत्यादि के “राष्ट्रीयकरण और स्थानीय स्वायत्त शासन (म्युनिसिपैलाइजेशन) के जरिए मजदूरों और किसानों को गुजर-बसर के लिए जरूरी वेतन मुहैया कराने” के स्थान पर, हमारी आकांक्षा के अनुसार, पूर्ण स्वाधीनता, सार्विक बालिग मताधिकार पर आधारित लोक गणराज्य की स्थापना, इत्यादि होना चाहिए था. ऐसी राजनीतिक कमजोरियां अध्यक्षीय भाषण में भी आसानी से मिल जाएंगी, मगर पिफर भी उसमें “हमारे कम्युनिस्ट आदर्श” “यानी अंतिम लक्ष्य तथा” “हमारे फौरी लक्ष्यों” की अपेक्षाकृत बेहतर अभिव्यक्ति हुई है. और इस पाठ की श्रेष्ठता यही है कि इसमें कम्युनिस्ट आदर्शों, लक्ष्यों और कार्यपद्धतियों की लोकप्रिय, सजीव और स्पष्टतः भारतीय स्वरूप में व्याख्या करने का प्रयास किया गया है. इसके अलावा इसका कठमुल्लावाद से मुक्त, व्यापक नजरिया भी उल्लेखनीय है: नीति और कार्यनीति के कई प्रश्नों पर अध्यक्ष ने सिर्फ विषय प्रवेश करने भर अपने विचार पेश किए और बहस करके फैसला लेने का जिम्मा सदन पर छोड़ दिया. हालांकि, सदन ने इन विषयों पर यथोचित बहस नहीं की और जल्दबाजी से प्रस्तावों को तथा संविधान इत्यादि को स्वीकार कर लिया. व्यवहार में चंद नेताओं और सक्रिय लोगों ने ही सक्रिय भूमिका निभाई; बहुसंख्यक लोगों ने महज श्रोत की, या फिर उससे भी निम्न स्तर की भूमिका निभाई.

संगठनात्मक उसूलों और नियमों के बारे में भी संविधान में समझदारी का बेहद अभाव दिखता है. और इस सिलसिले में अन्य देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों से शिक्षा नहीं ली गई. इस वजह से इसमें “किसी भी सच्चे मजदूर या किसान” को पार्टी की सर्वोच्च संस्था यानी वार्षिक सम्मेलन में प्रतिनिधि बनने योग्य ठहराया गया है (धारा 6); इसमें प्रांतीय अथवा यहां तक कि जिला कमेटियों को भी “सदस्यता की शर्तों को नियमबद्ध करने” का अधिकार दिया गया है (धारा 5); तथा पार्टी से संबद्ध “मजदूर वर्ग की यूनियनों को” “सीपीआइ का अभिन्न अंग” माना गया है (धारा 5); तथा पार्टी से संबद्ध “मजदूर वर्ग की यूनियनों को” “सीपीआइ का अभिन्न अंग” माना गया है (धारा 3 घ).

सम्मेलन की एक अन्य कमजोरी यह भी थी कि कठोर दमन के दिनों में, जब जनवादी अधिकारों का संपूर्णतः खुले तौर पर काम करने वाले नेतृत्व का चुनाव हुआ था, जो दुश्मन के आक्रमण का आसानी से निशाना बन सकता था. यदि हम इसका दायित्व सत्यभक्त के बचकाने विचारों पर थोप दें, फिर भी इस आरोप से अन्य नेताओं को बरी नहीं किया जा सकता, क्योंकि बाद में भी उनलोगों ने इस कमी को पूरा करने और पेशेवर क्रांतिकारियों को लेकर भूमिगत संगठन का निर्माण करने की कोई कोशिश नहीं की.

कानपुर सम्मेलन के बारे में कोमिन्टर्न का क्या दृष्टिकोण था? शुरुआत में, भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में जानकारी रखनेवाले लोग, जैसे राय और सीपीजीबी के नेतागण, सत्यभक्त जैसे व्यक्ति द्वारा आयोजित कानपुर सम्मेलन के प्रति अस्पष्टता और अनिर्णय की स्थिति में रहे. तथापि, बगरहट्टा द्वारा भेजी गई एक रिपोर्ट मिलने के बाद, राय ने कानपुर में निर्वाचित सीईसी को आगे बढ़ाने का आधार मानकर स्वीकृति दे दी और कोमिन्टर्न की ओर से निम्नलिखित मुख्य सुझाव या निर्देश भेजे: (क) “निर्माण की प्रक्रिया में इस भारत की कम्युनिस्ट पार्टी” को पफौरन आधिकारिक तौर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबद्ध हो जाना चाहिए और सत्यभक्त, सिंगारवेलु तथा हसरत मोहानी के इन वक्तव्यों का, जो इसके विपरीत संकेत देते हैं, खंडन करना चाहिए; (ख) गया कांग्रेस अधिवेशन के समक्ष राय द्वारा पेश किए गए “कार्यक्रम” के आधार पर “सीपीआइ को राष्ट्रवादी आंदोलन से संयुक्त मोर्चा कायम करना होगा”; (ग) “विदेश ब्यूरो (यानी राय तथा अन्य भारतीय कम्युनिस्ट जो कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की सरपरस्ती में विदेशों में कार्यरत थे - सं.) को “विचारधारात्मक केंद्र” के बतौर तथा “पार्टी के वैदेशिक संपर्कों को कायम रखने वाले अंग” के बतौर काम करना होगा; (घ) एक किताब की दूकान खोली जाएगी और मासेज (जनसमुदाय, जिसे राय द्वारा विदेश से प्रकाशित किया जा रहा था - सं.) को पांडिचेरी व मद्रास के जरिए प्राप्त करने तथा वितरित करने का इंतजाम किया जाएगा; और (च) “कानूनी कम्युनिस्ट पार्टी” के बारे में कत्तई कोई काम नहीं करेगा (सीपीआइ की सीइसी की 31 मई 1927 को हुई बैठक में लिया गया प्रस्ताव). आइए, अब हम इस सम्मेलन के ऐतिहासिक महत्व की तथा उसके फलाफल की समीक्षा करें, पर ऐसा करने से पहले हमें सत्यभक्त के बारे में कुछ कहना होगा. वे एक क्रांतिकारी देशभक्त ग्रुप, हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी से संबंध बनाए हुए थे, कानपुर में  मजदूरों के बीच काम कर रहे थे और कम्युनिस्ट साहित्य को विदेश से मंगाते तथा वितरित करते थे. इस तरह, अपने ही ढंग से वे कम्युनिज्म से निष्ठापूर्वक हमदर्दी रखते थे, मगर वे मार्क्सवाद के विज्ञान पर कभी गिरफ्त नहीं हासिल कर सके, और वे इस हद तक संकीर्ण राष्ट्रवादी बने रहे (शायद वे ऐसे दमन से काफी भयभीत थे जो कोमिन्टर्न से संपर्क के बहाने ढाया जा सकता था) कि अंतरराष्ट्रीय संपर्क व निर्देश उन्हें जरा भी सहन नहीं थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के उन अस्थाई हमसफरों में से एक थे, जो हर देश में खासकर राष्ट्रीय उथल-पुथल के दौर में पाए जाते हैं. सम्मेलन के बाद उनके द्वारा गठित “राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी” यूपी में ही सिमटी रही और 1927 के बाद उनका कामकाज ही ठप्प पड़ गया. और कभी के पत्रकार सत्यभक्त वापस अपने पुराने पेशे में जम गए.

पार्टी स्थापना दिवस : 26 दिसंबर, 192

इन तमाम बड़ी-बड़ी कमजोरियों के बावजूद, यह पहला सम्मेलन था जिसमें पार्टी  का संविधान स्वीकार किया गया और एक अखिल भारतीय नेतृत्व के केंद्रक का निर्वाचन हुआ, जिसमें पहले से मौजूद सभी कम्युनिस्ट गोष्ठियों के प्रतिनिधि शामिल थे. यह नेतृत्व या सीइसी (सत्यभक्त जिन्होंने फरवरी 1926 में त्यागपत्र दे दिया और बगरहट्टा जो अपने प्रति अन्य कामरेडों के संदेह से वाकिफ हो गए थे, और 1927 के मध्य में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था, जो छोड़कर) मेरठ की गिरफ्तारियों (मार्च 1929) तक बीच-बीच में अनियमित रूप से बैठकें कर लेता था और उसने इस दौर में मजदूर मोर्चे पर काम के मामले में तथा मजदूर-किसान पार्टियों को संगठित करने के मामले में प्रशंसनीय भूमिका निभाई. यदि एओ हृयूम के मनोगत उद्देश्यों से कांग्रेस के चरित्र का निर्धारण नहीं हुआ, तो सत्यभक्त ओर सीपीआइ के मामले में तो यह बात और भी ज्यादा सत्य साबित हुई. सत्यभक्त का राष्ट्रवादी रवैया पराजित हुआ और सीपीआइ ने अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का अंग बनकर ही अपनी यात्रा प्रारंभ की. अतः स्वाभाविक यही था कि पार्टी की स्थापना कानपुर सम्मेलन से मानी जाती, और सीपीआइ के केंद्रीय सचिवालय ने 19 अगस्त 1959 को ठीक यही फैसला लिया. इस सवाल पर कोई विवाद नहीं उठा, कम से कम जनता के बीच तो ऐसा विवाद नहीं आया.

तथापि, सीपीआइ-सीपीआइ(एम) के विभाजन के बाद, मुजफ्फर अहमद ने, जो सीपीआइ(एम) के साथ चले गए थे, एक अजीब स्थिति अपना ली. 1969 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मैं और सीपीआइ में उन्होंने कानपुर सम्मेलन का एक “तमाशा” के बतौर चित्रण किया और घोषणा कर दी कि ताशकंद में पार्टी के निर्माण का दिन ही “सीपीआइ की स्थापना की सही तिथि है”. उनका मुख्य तर्क है कि ताशकंद में निर्मित सीपीआइ कोमिन्टर्न से संबद्ध थी जबकि कानपुर में स्थापित सीपीआइ नहीं थी. इस तरह मुजफ्फर अहमद अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति को यह निर्धारित करने का मुख्य मानदंड बना देते हैं कि कब कोई कम्युनिस्ट पार्टी बनी, और वह कम्युनिस्ट पार्टी थी या नहीं, तथा वे अन्य तमाम पहलुओं, जैसे खुद उस उस देश में चल रहे जन आंदोलनों से जीवन-संबंध को नकार देते हैं. इस बिंदु पर भी उनका तर्क संगतिपूर्ण नहीं है, क्योंकि हम पहले ही देख चुके हैं कि ताशकंद में बनी सीपीआइ यद्यपि कोमिन्टर्न से पंजीकृत थी (और भी सही ढंग से कहा जाय तो उसका तुर्किस्तान ब्यूरो पंजीकृत था),  मगर कोमिन्टर्न इतना बेवकूफ नहीं था कि इस बटोरे हुए ग्रुप को पूर्ण पार्टी के बतौर मंजूरी दे दे.

फिर भी यह सवाल तो बना ही रह जाता है कि कानपुर में गठित सीपीआइ ने कोमिन्टर्न से संबद्ध होने के लिए आवेदन क्यों नहीं किया? मुजफ्फर अहमद, जिन्हें  कानपुर सम्मेलन में सीइसी में चुना गया था, इस विषय की व्याख्या सीपीआइ-सीपीआइ(एम) विभाजन से पहले इन शब्दों में करते हैं : “..… चूंकि पार्टी सदस्यों ने सदस्यता की संख्या पर्याप्त नहीं समझी इसीलिए उन्होंने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से पार्टी को संबद्ध किए जाने का आवेदन नहीं किया. मगर जो हो, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल सीपीआइ को अपना अंग मानता था.” इस प्रकार अहमद उस समय तक संबद्ध नहीं रहने को उतना बड़ा अपराध नहीं मानते थे, जितना वे विभाजन के बाद मानने लगे. वास्तव में, अपने अन्य कामरेडों की ही भांति उन्होंने भी कानपुर में लिए गए फैसलों को पूरी गंभीरता से लिया था और लांगल पत्रिका के 21 जनवरी 1926 के अंक में प्रकाशित एक वक्तव्य के जरिए “बंगाल के तमाम कम्युनिस्टों” से एक जोशीली अपील की थी कि वे “एक साथ आएं और पार्टी का निर्माण करें”.

अहमद की इस स्वविरोधी स्थिति की व्याख्या करने में समय नष्ट करने के बजाए उचित होगा कि हम यहां प्रासंगिक सवालों पर अपने विचारों को दर्ज करें. प्रथमतः, आधिकारिक स्वीकृति न रहने पर भी सीपीआइ को 1920 के दशक में या उसके बाद, कभी भी कोमिन्टर्न को अपनी रिपोर्ट भेज देने या उससे सलाह लेने में कोई बाधा नहीं आई, अपनी ओर से कोमिन्टर्न ने सीपीआइ का मार्गदर्शन करना और उसे निर्देश देना ठीक उसी प्रकार जारी रखा, जैसा कि वह किसी संबद्ध पार्टी के प्रति करता था. इसलिए व्यवहारतः तो सीपीआइ ने कोमिन्टर्न के नेतृत्व में चल रहे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का अंग बनकर ही काम किया. शायद सत्यभक्त के निकल जाने के बाद भी पार्टी में कोमिन्टर्न से जीवन-संबंध कायम करने से कतराने की एक सूक्ष्म प्रवृत्ति मौजूद थी. मगर यह अंतःपार्टी वादविवाद के क्षेत्र में आने वाली बात है और इससे पार्टी अवैध नहीं साबित होती.

द्वितीयतः, हम बोल्शेविक क्रांति से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध तक के समूचे ऐतिहासिक दौर को सीपीआइ के निर्माण का काल मानते हैं, क्योंकि कमोबेश पूर्णता प्राप्त कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में तो सीपीआइ दरअसल 1930 के दशक के द्वितीयार्द्ध में, कुछेक राजनीतिक गलतियों को दुरुस्त करने तथा नेतृत्व का पुनर्गठन करने के जरिए लंबे अरसे के धक्के को संभाल लेने के बाद ही उभर सकी थी. इस समूची ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ही हम 26 दिसंबर 1925 को सीपीआइ का स्थापना दिवस मानते हैं. जब देश भर की सभी सक्रिय कम्युनिस्ट गोष्ठियों के प्रतिनिधिगण एक साथ मिले और उन्होंने एक अखिल भारतीय पार्टी की स्थापना करने का प्रस्ताव स्वीकार किया. यदि अक्तूबर क्रांति ने दुनिया भर में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को एक संपूर्ण नए स्तर पर पहुंचा दिया, तो भारत के मामले में इस सामान्य अग्रगति ने पहली बार और इसी कारण से इस भ्रूण रूप सम्मेलन के जरिए ठोस रूप ग्रहण कर लिया. विचारधारात्मक रूप से इसका अर्थ था निम्नपूंजीवादी क्रांतिवाद से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की ओर लगाई गई एक छलांग, और जब यह छलांग लगा ली गई, तो व्यक्तिगत आतंकवाद से जनसंपर्क की ओर राजनीतिक संक्रमण में देर नहीं लगनी थी.