वर्ष - 28
अंक - 48
16-11-2019
[अमेरिकी सांसदों की एक टीम ने 22 अक्टूबर 2019 को “दक्षिण एशिया में मानवाधिकार” पर एक सुनवाई संचालित की, जिसमें मानवाधिकार की स्थितियों को लेकर भारत, पाकिस्तान तथा कश्मीर के प्रतिनिधियों की बातें सुनी गईं. इस किस्म की सुनवाइयां अमेरिकी कांग्रेस में मौजूद शासक और विपक्षी पार्टियों के सदस्यों को यह इजाजत देने के लिये आयोजित की जाती हैं कि वे लोग इन क्षेत्रों से आकर अमेरिका में बसे जन-समूहों की चिंताओं को उजागर कर सकें, और साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिये अमेरिकी विदेश नीति की जांच-पड़ताल कर सकें कि यह नीति अमेरिकी संवैधानिक मूल्यों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप गठित हो सके.
इस सुनवाई के दौरान कश्मीर और असम के संदर्भ में मोदी सरकार की कार्रवाइयों तथा भारतीय अल्पसंख्यकों के प्रति इसके व्यवहार की जांच-पड़ताल की गई और इनकी तीखी आलोचना भी हुई. इस सुनवाई में अमेरिका के सरकारी प्रतिनिधियों ने रक्षात्मक आवाज में एक लोकतांत्रिक देश के बतौर अपने “आंतरिक” मामलों का निपटारा करने के भारत के अधिकार का हवाला दिया, जबकि उन्होंने भारत की नीतियों के प्रति गहरा असंतोष भी जाहिर किया. यहां हम सुनवाई में उठे प्रश्नों, हस्तक्षेपों और गवाहियों के प्रमुख उद्धरण पेश कर रहे हैं – सं.]

कश्मीर के बारे में मोदी सरकार और मीडिया के झूठ का पर्दाफाश

कश्मीर पर गवाही देने वालों में एक थीं ‘टाइम्स आपफ इंडिया’ की पत्रकार आरती टिक्कू सिंह जो अपने कट्टर इसलामभीतिक (इस्लामोफोबिक) ट्वीटों के लिये विख्यात रही हैं. लेकिन अमेरिकी कांग्रेस में यह सुनवाई फासिस्ट प्रचार टीवी चैनल पर चलने वाला कोई पैनल डिस्कशन नहीं था, जहां उन्हें आलोचकों की लानत-मलामत करने और उनका मुंह बंद करने की इजाजत दी जाती.

अमेरिकी सांसद इल्हाम उमर ने आरती टिक्कू सिंह से कहा:

“सुश्री सिंह, एक रिपोर्टर का काम होता है कि वह जो कुछ हो रहा है, उसके बारे में वस्तुगत तथ्य का पता लगाए और उसे आम लोगों को बताए. ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में आपके ढेर सारे श्रोता हैं और उन्हें सही खबर देना आपकी बड़ी जिम्मेदारी है. मैं जानता हूं कि रिपोर्टिंग के जरिये गढ़े गए विमर्श किस प्रकार सच की तोड़-मरोड़ कर सकते हैं. मुझे यह भी खूब पता है कि किस प्रकार यह कहानी के सिर्फ सरकारी पक्ष को पेश करने तक सीमित रह जाता है. प्रेस जब सरकार का भोंपू बन जाता है तो वह बदतरीन शक्ल ले लेता है. आपके द्वारा पेश कहानी में कश्मीर की समस्याओं के लिये सिर्फ वे लोग जिम्मेदार ठहराये गये हैं, जिन्हें आप उग्रवादी कहते हैं, या वे लोग जो भारत से अलग हो जाने के लिये प्रतिवाद करते हैं और जिन्हें दुष्टतापूर्ण ढंग से पाकिस्तान द्वारा मदद दी जाती है. आपने यह भी भयानक संदेहास्पद दावा किया है कि भारत सरकार मानवाधिकारों की हिफाजत के लिये दमन चला रही है. सुश्री सिंह, अगर यह मानवाधिकार के हक में होता तो इसे गुप्त ढंग से नहीं चलाया जाता. मैं यह कह सकता हूं कि आप कश्मीर पर कब्जा और वहां के संचार माध्यमों की बंदी को यह कहकर एक नारीवादी मामला बना रही हैं कि यह सब महिलाओं की बेहतरी के लिये हो रहा है.”

एशिया-प्रशांत उप-समिति के अध्यक्ष अमेरिकी सांसद ब्रैड शेरमैन ने भी सुश्री सिंह के इस दावे को झूठा बताया कि विदेशी पत्रकारों को कश्मीर में जाने की छूट है. उन्होंने बताया कि जहां विदेशी प्रकाशनों के लिये काम करने वाले उत्कृष्ट भारतीय पत्रकार कश्मीर से आलेख भेज रहे हैं, वहीं ये प्रकाशन कश्मीर से रिपोर्ट करने के लिए वहां उन पत्रकारों को नहीं भेज पा रहे हैं जो भारतीय नागरिक नहीं हैं.

नागरिकता के सांप्रदायीकरण में मोदी शासन की भूमिका

कई सांसदों ने एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल, तथा खासकर गृह मंत्री अमित शाह के उन बयानों पर चिंता जताई जिसमें उन्होंने कहा है कि नागरिकता छिन जाने की घबराहट सिर्फ मुस्लिमों को होगी.

सांसद इलहान उमर ने कहा:

“मोदी और भाजपा (शासन) के अंतर्गत (लोकतंत्र और बहुलता से संबंधित) अमेरिका व भारत के हमारे तमाम पारस्परिक मूल्यों पर खतरा मंडराने लगा है. हमें यह समझना होगा कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है वह भाजपा की समग्र हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना का एक अंग है. ... क्या अमेरिका इस बात के लिये प्रतिबद्ध है कि वह अपना भविष्य खुद निर्धारित करने के लिये जम्मू-कश्मीर क्षेत्र के अवाम की आवाज के केंद्रीय महत्व को सुनिश्चित करे ? ... असम के हालात भी, अगर बदतर नहीं तो, कश्मीर जितने ही बुरे हैं. दोनों ही मामलों में हम देख सकते हैं कि भाजपा शासन के अंतर्गत मुस्लिमों के खिलाफ किए गए अपराधों के लिये कोई सजा नहीं दी जाती है.

“असम में लगभग 20 लाख लोगों से कहा जा रहा है कि वे अपनी नागरिकता प्रमाणित करें. इस आशय के सरकारी बयान जारी किए गए हैं कि किसी भी बौद्ध, ईसाई, सिख शरणार्थी/आप्रवासी को अपनी स्थिति के बारे में घबड़ाने की जरूरत नहीं है – और इसीलिये यह साफ तौर पर मुस्लिम-विरोधी कार्यक्रम है.”

भारत सरकार शायद उन लोगों को कैद रखने के लिये शिविरों का निर्माण करा रही है जो अपनी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर पाएंगे. इसी तरह से रोहिंग्या जन-संहार शुरू हुआ था. अब किस मोड़ पर हम यह सवाल करें कि प्रधान मंत्री मोदी हमारे मूल्यों को साझा करते हैं या नहीं ? क्या हम इसका इंतजार करें कि असम के मुसलमानों को इन शिविरों में डाल दिया जाए?  इस किस्म के सार्वजनिक वक्तव्य अपने-आप में काफी खतरनाक हैं कि सिर्फ मुसलमानों को अपनी नागरिकता प्रमाणित करनी होगी.

अमेरिकी विदेश विभाग में लोकतंत्र, मानवाधिकार और श्रम ब्यूरो के सहायक सचिव राॅबर्ट ए. डेस्ट्रो से सांसद ब्रैड शेरमैन ने पूछा कि क्या नागरिकता संशोधन बिल कोई “गंभीर किस्म का विधायी (कानूनी) प्रस्ताव है या महज एक बेवकूफी-भरा विचार है, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा?” डेस्ट्रो ने जवाब दिया कि यह वास्तव में “एक गंभीर विधायी प्रस्ताव” है; लेकिन “धन्यवाद”, कि राज्य सभा ने इसे अब तक पारित नहीं किया है. अमेरिकी विदेश विभाग के सह-सचिव एलिस वेल्स के इस वक्तव्य, कि एनआरसी के मामले में न्यायिक प्रक्रियाएं अभी शेष हैं, के जवाब में शेरमैन ने कहा, “मानवाधिकारों के उल्लंघन सिर्फ इसलिये मानवाधिकारों का उल्लंघन कहलाना बंद नहीं हो जाएंगे कि यह कानून के मुताबिक किया जा रहा है.”

डा. निताशा कौल की लिखित गवाही के अंश

[डा. निताशा कौल जो वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय (लंदन) के सेंटर आॅफ डेमोक्रैसी में सहायक प्राध्यापक और खुद एक कश्मीरी पंडित हैं, ने सुनवाई के दौरान मर्मस्पर्शी और उत्कृष्ट प्रस्तुति दी. उन्होंने अपने लिखित गवाही में भाकपा(माले) की पोलितब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन और अन्य तीन व्यक्तियों द्वारा लिखित ‘कश्मीर केज्ड’ रिपोर्ट का भी हवाला दिया, जिन्होंने कश्मीर की तालाबंदी के बाद सबसे पहले कश्मीर की यात्रा की थी और वहां की रिपोर्ट बनाई थी. हम उनकी इस गवाही के कुछ अंश यहां पेश कर रहे हैं – सं.]

कश्मीर लंबे समय तक चलने वाले अंतरराष्ट्रीय टकराव का क्षेत्र है, जहां न केवल भारी संख्या में विकासशील देश भारत और पाकिस्तान के लोग मारे गए हैं, बल्कि इन मौतों के सबसे ज्यादा शिकार खुद जम्मू-कश्मीर के विवादित भू-खंड के लोग बने हैं जिनके आत्म निर्णय के अधिकार समेत बुनियादी मानवाधिकारों को भी लंबे समय से खारिज किया जाता रहा है. जैसा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त जेइद राद अल हुसैन ने लिखा है, “यह ऐसा टकराव है जिसने दसियों लाख लोगों से उनके बुनियादी मानवाधिकार छीन लिए हैं और जो आज के दिन तक वहां अकथनीय कष्ट बरपा कर रहा है.” अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा तैयार की गई ऐसी अनेकानेक रिपोर्ट आई हैं जिसमें मानवाधिकारों से इन्कार के तथ्य प्रमुखता से सामने लाये गए हैं. सबसे हाल में, ओएचसीएचआर ने दो बड़ी रिपोर्ट पेश की है जिसमें दिखलाया गया है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों द्वारा शासित कश्मीर में किस प्रकार लोकतंत्र और मानवाधिकारों के मौलिक मानदंडों का उल्लंघन किया जा रहा है. भारत दावा करता है कि  जम्मू-कश्मीर उसका एक अभिन्न हिस्सा है, लेकिन वह उसी कश्मीर की जनता के प्रति गहरी नफरत प्रदर्शित करता रहा है और उनके बुनियादी मानवाधिकारों से इन्कार कर रहा है. कश्मीरी प्रतिवादों – शांतिपूर्ण या हिंसक – के प्रति भारत का जवाब ज्यादातर राज्य हिंसा ही रहा है.

5 अगस्त 2019 के दिन भारत शासित कश्मीर, जो भारतीय संविधान में जम्मू और कश्मीर नाम से जाना जाता था और जो कानूनन एक स्वायत्त राज्य था, में क्या बदलाव आया ? संवैधानिक रूप से गारंटीशुदा स्वायत्तता और उसका राज्य का दर्जा – ये दोनों चीजें वहां की प्रभावित जनता से कोई सलाह-मशविरा किये बगैर खत्म कर दी गईं. दरअसल, इस कार्रवाई के पहले ही उस राज्य की पूर्ण तालाबंदी कर दी गई, वहां गए सैलानियों और तीर्थयात्रियों को सुरक्षा पर खतरा के बहाने फौरन वहां से निकल जाने की चेतावनी दे दी गई, और वहां के स्थानीय निवासियों को टेलीफोन, इंटरनेट और संचार-साधनों से वंचित कर दिया गया. जनता को खामोश करने का यह जबरन प्रयास लोकतंत्र के तमाम उसूलों – सहमति, अभिव्यक्ति की आजादी, आवाजाही की स्वतंत्रता, मर्यादित जीवन का अधिकार – का उल्लंघन था. जैसा कि मैंने ‘फाॅरेन पाॅलिसी’ में लिखा है, भारत की यह निरंतर जारी कार्रवाई में किसी लोकतांत्रिक आचरण की नहीं, बल्कि सर्वसत्तावादी औपनिवेशिक सत्ता की झलक मिलती है.

लोकतांत्रिक राजनीतिक और नागरिक अवसरों को खोखला बनाना

कश्मीर के तीन पूर्व मुख्य मंत्रियों समेत वहां की तमाम धाराओं के राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. भारत सरकार यह बताने से कतराती रही है कि ऐसा क्यों किया गया, और उसने यह संकेत भी नहीं दिया है कि यह नजरबंदियां और गिरफ्तारियां कब तक चलेंगी. न केवल उन राजनीतिक संगठनों को प्रतिबंधित किया गया और उनके नेताओं को अनिश्चितकाल के लिये जेलों में गिरफ्तार व घरों में नजरबंद किया गया, बल्कि 5 अगस्त के बाद की स्थिति यह है कि वहां के भारत-समर्थक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भी व्यापक गिरफ्तारियां की जा रही हैं. भारत की इस कार्रवाई को कश्मीर के तमाम निवासियों के प्रति नफरत के बतौर देखा जा रहा है. किसी भी किस्म की सहमति हासिल किये बगैर जनता पर ऐसा बुनियादी परिवर्तन लादना अ-लोकतांत्रिक कदम है.

भारत शासित कश्मीर में चुनाव काफी विभाजनकारी होते हैं और काफी लोग इसका बहिष्कार करते हैं, क्योंकि चुनावी भागीदारी को भारत द्वारा शासित होने के लिये कश्मीरी अवाम की सहमति के बतौर समझा जाता है, और इस प्रकार ये चुनाव 1947 और 1948 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के मार्फत भारत व पाकिस्तान द्वारा वहां जनमत संग्रह (प्लेबिसाइट) कराने के वादे को अप्रासंगिक बना देते हैं. बहरहाल, कश्मीरी अवाम का एक हिस्सा इन चुनावों में भागीदारी करता है, क्योंकि वे भारतीय प्रणाली के अंतर्गत काम करने में यकीन रखते हैं. ये भारत-समर्थक नेतागण भी अब अनिश्चितकालीन गिरफ्तारी झेल रहे हैं. यह दिखाता है कि भारत सरकार स्वायत्त राज्य के दर्जे के खात्मे को अत्यंत अलोकप्रिय समझे जाने से पूरी तरह वाकिफ है और इस प्रकार उसकी इस कार्रवाई में लोकतांत्रिक सहमति का पूर्ण अभाव दिखता है. एक बार फिर कह दूं कि शासन में यह बदलाव लादना और वहां की समूची आबादी को जंजीरों में जकड़ देना लोकतंत्र नहीं, बल्कि सर्वसत्तावाद का प्रतीक है.

कश्मीर पर इस जारी कब्जे के दौरान शिक्षाविदों, अध्यापकों तथा व्यवसायी लोगों समेत नागरिक समाज के सैकड़ों सदस्यों की मनमानी गिरफ्तारियां हो रही हैं. फूलता-फलता नागरिक समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है, और इसकी गतिविधियों पर कड़े प्रतिबंधों के जरिये भारतीय राज्य ने कश्मीरी अवाम को शांतिपूर्ण ढंग से खुद को अभिव्यक्त करने के किसी भी तरीके से वंचित कर दिया है. यहां तक कि भारत शासित कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में शांतिपूर्ण प्रतिवाद में उतरीं उम्रदराज महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया और उन्हें हिरासत में ले लिया गया.

5 अगस्त 2019 से काफी दबाव झेल रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता भी कश्मीर में अपनी गतिविधियां नहीं चला पा रहे हैं. मसलन, हर वर्ष 30 अगस्त के दिन – संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘जबरन गायब किये गए पीड़ितों का दिवस’ के मौके पर – सुश्री परवीना अहंगर के नेतृत्व में ‘गायब लोगों के अभिभावकों का संघ’ एक प्रतिवाद जुलूस (विजिल) आयोजित करता है जिसमें सैकड़ों उम्रदराज महिला-पुरुष हिस्सा लेते हैं जिनके बेटों को भारतीय सुरक्षा बलों ने जबरन गायब कर दिया है और जिन्हें 1990 से ही कश्मीर में आपातकालीन शक्तियों के जरिये दंडाभाव के माहौल में कोई न्याय नहीं मिल पाया है. इस वर्ष, शोक जाहिर करने वाले और अपने गायब बेटों का इंतजार करने वाले इन उम्रदराज अभिभावकों के शांतिपूर्ण जुटान को भी अनुमति नहीं दी गई. जैसा कि परवीना लिखती हैं, “इस वर्ष हम लोगों को जकड़  दिया गया है, और हम लोगों को इकट्ठा नहीं होने दिया गया क्योंकि इस कब्जा के जरिये भारत ने हमें शोक जाहिर करने से भी रोक दिया.”

मानवीय संकट

जहां अधिकांश भारतीय मीडिया सत्ता के अंग के बतौर काम करते हुए सरकारी विमर्श की वैधता या उसके औचित्य पर कोई आलोचनात्मक सवाल खड़ा किये बगैर उसे ज्यों का त्यों उगल दे रहा है, वहीं भारतीय नागरिक समाज के कुछ सदस्य और स्वतंत्र तथ्य-खोजी टीमों ने कब्जे के बाद कश्मीर के रोजमर्रे की जिंदगी और आम जनता की तकलीफों के बारे में खबरें भेजी हैं.

लोकतंत्र को इसीलिये अलग प्रणाली माना जाता है, क्योंकि इसमें जनता को अधिकार प्राप्त रहते हैं. लेकिन भारतीय राज्य ने ऐसी प्रक्रिया तेज कर दी है, जिसके जरिये प्रत्येक कश्मीरी को सत्ता की मनमानी कार्रवाइयों के अधीन लाया जा रहा है और उनके कल्याण को अधिकारियों की सनक पर निर्भर बना दिया जा रहा है. अधिकारों की रक्षा करने वाली अदालतें भी बमुश्किल काम कर पा रही हैं. जो कश्मीरी विदेशों में रह रहे हैं, उन्हें कश्मीर में अपने परिवार के साथ संपर्क करने में मदद देने के भारतीय राजनयिकों के आश्वासनों के बजाय जरूरी यह है कि इस कब्जे को खत्म किया जाए, क्योंकि ऐसे आश्वासन महज सत्ता के मनमानेपन के चिन्ह हैं जिसमें किसी भी किस्म की जवाबदेही का अभाव होता है.

भारत सरकार अपने आचरण की किसी भी आलोचना को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कह कर खारिज कर देती है, कश्मीर में होने वाले तमाम प्रतिवादों को पाकिस्तान का छद्म-युद्ध बताती है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को बारंबार आश्वस्त करती है कि उसकी कार्रवाइयां तमाम कश्मीरी अवाम की जिंदगी की बेहतरी के लिये हो रही हैं; किंतु व्यवहार में उसकी ये कार्रवाइयां समस्त निवासियों के लिए एक सामूहिक दंड ही हैं. बहुसंख्यक मुस्लिमों के साथ घाटी में रहने वाले अल्पसंख्यक हिंदू और सिख भी कठोर प्रतिबंध, सत्ता की मनमानी हरकतें और अनिश्चित भविष्य झेल रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने कहा कि यह तो सामूहिक दंड है.

लोकतंत्रा में ऐसे विश्वसनीय माहौल की जरूरत होती है, जिसमें कोई भी व्यक्ति शांतिपूर्ण, किंतु बेखौफ विरोध जाहिर कर सके. मौजूदा व्यवस्था के तहत – जिसमें राजनीतिक दलों के नेता व कार्यकर्ता, नागरिक समाज संगठन और मानवाधिकार समूह प्रतिबंध झेल रहे हैं तथा आम अवाम को जासूसी, मनमानी हिरासतें और अभिव्यक्ति के अधिकारों का हनन झेलना पड़ रहा है –  शांतिपूर्ण और बेखौफ विरोध की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है.

कब्जा

फोन और इंटरनेट सेवाओं की पूर्ण बंदी के बाद, सरकार न केवल लैंडलाइन पफोन और अब कई सप्ताह के पश्चात संभवतः अमेरिकी नेताओं समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबावों के तहत मोबाइल सेवाओं के इस्तेमाल की इजाजत दी है. लेकिन इन अत्यंत आंशिक पुनर्बहालियों को “सामान्य हालात” की वापसी के बतौर देखना गलत होगा. कश्मीर में अधिकांश लोग प्री-पेड मोबाइल पर निर्भर करते हैं और इस प्रकार टेलिफोन या इंटरनेट तक उनकी पहुंच अभी भी नहीं बन पा रही हैं. पिछले एक सप्ताह में जो पोस्ट-पेड मोबाइल सेवा की इजाजत दी गई है, उसमें भी इंटरनेट की इजाजत नहीं है – और जो भी इजाजत दी गई है उसके साथ यह शर्त जुड़ी हुई है कि अगर सरकार को इससे सुरक्षा पर कोई चुनौती महसूस होती है तो वह इस सीमित इजाजत को भी वापस ले लेगी. इस प्रकार, कश्मीर (विशेषतः घाटी क्षेत्र) में कोई इंटरनेट नहीं है.

आज की दुनिया में इंटरनेट कोई विलासितापूर्ण चीज नहीं है. यह आधुनिक समाज में जिंदा रहने के लिये अनिवार्य चीज बन गई है. इंटरनेट तक पहुंच के बिना दसियों लाख कश्मीरियों को सूचना के साधनों तक पहुंचने तथा दुनिया का सक्रिय नागरिक बनने से वंचित कर दिया गया है. जीवन के विभिन्न पहलू – व्यावसायिक कारोबार, आॅनलाइन बैंकिंग, शैक्षिक संस्थानों में आवेदन देना, परीक्षाओं में शामिल होना, चिकित्सा सुविधा हासिल करना, आदि – बिल्कुल ठहराव की स्थिति में आ गए हैं.

भारत सरकार का दावा है कि स्वायत्तता के खात्मे से निवेश करना ज्यादा आसान हो जाएगा. सुरक्षा हालात की अस्थिरता के माहौल में कौन विदेशी निवेशक वहां जाकर जोखिम उठाएगा ? यहां तक कि पूरी तरह आश्वस्त हुए बगैर भारतीय निजी निवेश भी संभव नहीं है. कश्मीर की पर्यावरण-प्रणाली बेहद नाजुक किस्म की है और इस राज्य की स्वायत्तता खत्म होने के बाद खतरा यह है कि केंद्रीय स्तर पर फैसले उन लोगों के द्वारा लिये जाएंगे जिन्हें कश्मीर में विकास की कोई समझदारी नहीं है अथवा वहां के स्थायी विकास की जिन्हें कोई परवाह नहीं है. विकास का वादा करके आजादी से इन्कार का औचित्य न केवल गैर-लोकतांत्रिक है, अपितु वह औपनिवेशिक भी है.

हालांकि चीन अथवा उत्तरी कोरिया के मुकाबले भारत में मीडिया की स्वतंत्रता बेहतर है, लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में इसकी बिगड़ती स्थिति गंभीर चिंता कारण है. जब कश्मीर पर रिपोर्ट करने की बात आती है तो जिस प्रकार न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, द गार्डियन समेत अंतरराष्ट्रीय अखबार रिपोर्टिंग करते हैं और जिस प्रकार भारतीय चैनल और कुछ अखबार रिपोर्ट करते हैं, उनके बीच कोई तारतम्य नहीं होता है. जहां अंतरराष्ट्रीय अखबार जीवन के  विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं, वहीं भारतीय अखबारों व चैनलों में सरकारी प्रचार भरा रहता है.

(शेष अगले अंक में जारी)