वर्ष - 28
अंक - 27
22-06-2019

एक सप्ताह तक आंदोलन चलाने के बाद कोलकाता के प्रतिवादकारी यूनियर डाक्टरों को आखिरकार 17 जून2019 को सीधे मुख्यमंत्री से समझौता वार्ता करने का अवसर मिला. प्रतिवादकारी डाक्टरों के प्रतिनिधियों और राज्य सरकार के बीच हुई चर्चा का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण किया गया और उसका अंत एक सकारात्मक मुकाम पर हुआ. जिसके दौरान डाक्टरों ने अपनी फौरी मांगें पेश कीं और सरकार ने अपनी ओर है घोषणाएं की और आश्वासन दिये. जबकि प्रतिवादकारी डाक्टर काम पर वापस जा रहे हैं, वहीं सरकार पर यह नजर रहेगी कि वह अपनी बातों पर कितनी गंभीरता है अमल करती है. पश्चिम बंगाल के लोगों ने राहत को सांस ली है और अब वे उम्मीद लगाये हैं कि राज्य में स्वास्थ्य सेवा के इस महत्वपूर्ण मोर्चे पर कुछ हद तक “सामान्य स्थिति बहाल” होगी. प्रतिवादकारी डाक्टरों को इस तथ्य के लिये धन्यवाद दिया जाना चाहिये कि पश्चिम बंगाल की विस्फोटक और अत्यंत तनावपूर्ण स्थिति में भी उन्होंने अपनी एकता बरकरार रखी, अपनी बुनियादी मांगों पर डटे रहे और उन्होंने घटना का सम्प्रदायीकरण करने की भाजपा की घिनौनी कोशिश को नाकाम कर दिया .

डाक्टरों का आंदोलन तब शुरू हुआ जब कोलकाता के नीलरतन सरकार मेडिकल कॉलेज एंड हास्पिटल (एनआरएस) में एक बुजुर्ग रोगी की मौत हो जाने के बाद रोगी के परिजनों ने स्टाफ पर बर्बर हमला चलाया, जिसके दौरान अस्पताल में कार्यरत एक डाक्टर बुरी तरह घायल हो गया. अब वास्तविक घटना क्या थी और कैसे शुरू हुई इसको तरह-तरह से बताया जा रहा है, मगर यह बात बिलकुल जाहिर है कि मुख्यमंत्री के असंवेदनशील जवाब के बाद ही स्थिति और ज्यादा बिगड़ गई. अगर मुख्यमंत्री द्वारा तुरंत हस्तक्षेप करते हुए हमले की निंदा की गई होती, उन्होंने अस्पताल जाकर घायल डाक्टर से मुलाकात कर ली होती और डाक्टरों एवं अस्पताल के अन्य स्टाफ सदस्यों को उनको सुरक्षा का आश्वासन दिया होता, तो शायद स्थिति उसी समय सुलझ गई होती. लेकिन मुख्यमंत्री ने इसके ठीक विपरीत कदम उठाया और फलत: जैसी कि उम्मीद थी, प्रतिवाद जोर पकड़ता गया तथा और व्यापक एवं तीखा हो गया, तथा सीनियर डाक्टर भी प्रतिवाद में उतर पड़े और यहां तक कि उन्होंने व्यापक पैमाने पर इस्तीफा देने की घोषणा कर दी और इस आंदोलन से एकजुटता जाहिर करते हुए देश भर में कार्यकम लिये जाने लगें. यह सचमुच दुर्भाग्यजनक बात है कि मुख्यमंत्री आखिरकार अस्पताल जाकर घायल डाक्टर से मिलने को राजी कराने के लिये एक सप्ताह तक डाक्टरों को आंदोलन करना पड़ा और अंतत: टेलीविजन पर प्रसारित समझौता वार्ता करनी पड़ी ! जब जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि और प्रशासन के मुखिया ही इस किस्म के सीमाहीन अहंकार और चरम संवेदनहीनता का प्रदर्शन कर रहे हों, तो सचमुच, कोई न कोई बात तो बहुत ही गंभीर रूप से गलत हो रही है.

मगर डाक्टरों और राज्य सरकार के बीच को समझौता बार्ता में शायद उस खास घटना को आंशिक रूप से ही सुलझाया जा सका है, जिस घटना ने डाक्टरों के आंदोलन को चिनगारी सुलगाई. डाक्टरों तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की इस किस्म के हमलों से सुरक्षा का इंतजाम अवश्य ही होना चाहिये, डाक्टरों को पूरा अधिकार है कि उनको काम करने का पूरी तरह से शांतिपूर्ण और सम्मानजनक वातावरण मुहैया कराया जाये और अगर इसका कोई उल्लंघन होता है तो उसका तुरंत कारगर ढंग से समाधान होना चाहिए तथा उन्हें न्याय मिलने की सुनिश्चितता होनी चाहिए. संस्थानों को सुनियोजित ढंग से खोखला और कमजोर बनाना तथा प्रशासन का राजनीतिकरण करना स्पष्ट रूप से इसके विपरीत वातावरण ही मुहैया कराता है, और शिकायतों के तुरंत सांस्थानिक रूप से निपटारे की जगह हमारे सामने  राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भीड़ की गुंडागर्दी की स्थिति आ खड़ी होती हैं. डाक्टरों की असुरक्षा की समस्या ने हो सकता है कि हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल में खास तौर पर व्यापक आकार धारण कर लिया हो मगर अन्य राज्यों से मिली रिपोर्टों पर अगर सरसरी तौर पर भी निगाह डाली जाये तो पता चलेगा कि यह समस्या देश के कई भागों में बहुत सामान्य परिघटना बन चुकी है. और शासक पार्टी के नेताओं तथा निर्वाचित जन-पतिनिधियों द्वारा डाक्टरों एवं अन्य स्वास्थ्यकर्मियों पर हमला किये जाने को घटनाएं भी काफी व्यापक रूप से सामने आई हैं.

मगर डाक्टरों पर हमले केवल कानून-व्यवस्था का सवाल नहीं हैं और केवल अस्पतालों में सुरक्षा का इंतजाम और मजबूत करने से ही यह समस्या हल होने वाली नहीं है. डाक्टरों की असुरक्षा की समस्या स्वास्थ्य सेवा के विस्फोटक संकट से, तथा उस कठिन कार्यस्थितियों से उपजी समस्या है, जिन कार्यस्थितियों में जूनियर डाक्टरों को अधिकांश सरकारी अस्पतालों में काम करना पड़ता है – अस्पतालों में भयानक और बेशुमार भीड़ लगी रहती है, जबकि स्टाफ का भारी अभाव है और मशीनों तथा स्वास्थ्य उपकरणों की तो निहायत कमी है. केवल अगर बजट में स्वास्थ्य को मद में कहीं ज्यादा बड़ी राशि का आवंटन किया जाये और आम आदमी के लिये स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता में बुनियादी तौर पर सुधार करने पर जोर हो, तभी जाकर इस स्थिति में कोई बुनियादी सुधार किया जा सकता है और डाक्टरों व रोगियों के बीच लड़ाई-झगड़ों की संभावना, तथा डाक्टरों पर हमले की घटनाएं भी कम हो सकती हैं. इसके अलावा डाक्टरों को भारत के जटिल एवं लगातार बदलते सामाजिक यथार्थ के बारे में प्रशिक्षित और संवेदनशील बनाने की भी जरूरत है. भारत में प्रशासक, पुलिस अधिकारी और डाक्टर, जिस किसी का भी रोजमर्रे के जीवन में बड़ी तादाद में लोगों के साथ साबका पड़ता है, सभी को खास तौर पर समझाने को जरूरत है कि आम लोगों है किस प्रकार लोकतांत्रिक ढंग से व्यवहार किया जाये. वास्तविक जीवन में “जनता की सेवा करो” का ध्येयवाक्य नजरों से ओझल हो जाता है क्योंकि विभिन्न किस्म के सामाजिक विशेषाधिकार, आर्थिक सत्ता और ऊंच-नीच पदक्रम की मन की गहराई में बैठी भावना सत्ता के पदों पर बैठे लोगों के आचरण को निर्धारित करने लगती हैं.

डाक्टरों को सुरक्षा और उनके सम्मान का मुद्दा हाल के अरसे में हुए डाक्टरों के आंदोलनों में केन्द्रीय मुद्दा रहा है. डाक्टरों के विभिन्न चिकिस्तक संघों ने अक्सर इन आंदोलनों के साथ एकजुटता जाहिर की है और डाक्टरों ने पेशेवर स्वस्थ्यकर्मियों की हैसियत से सामूहिक निकाय के बतौर जिम्मेदाराना एवं उसूली स्थिति अपनाई है. लेकिन उनकी सामूहिक प्रतिक्रिया को केवल डाक्टर-रोगी विवाद अथवा डाक्टरों के साथ आम लोगों के विरोध के मामलों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये, बल्कि ऐसे डाक्टरों के पक्ष में, जिनके खिलाफ प्रशासन ने दुश्मनी का रवैया अपनाकर उन्हें अपना कोपभाजन बनाया है, जैसे छत्तीसगढ के डा . बिनायक सेन या उतर प्रदेश के खा . कफील खान भी उतरना चाहिये, या फिर उन्हें अपने साथी डाक्टरों एवं छात्रों द्वारा सताये गये डाक्टरों एवं मेडिकल छात्र-छात्राओं के पक्ष में भी खड़े होना चाहिये – जिसका सबसे दुखद और आखें खोल देने वाला मामला है हाल में डा. पायल तड़वी की सांस्थानिक हत्या. साथ ही, डाक्टरों के आंदोलन को जन स्वास्थ्य के व्यापक एवं बुनियादी मुद्दों के प्रति भी चिन्तित होना चाहिये. इसका केवल एक प्रत्यक्ष उदाहरण लिया जाय तो जिस समय कोलकाता का डाक्टर आंदोलन जारी था, जिसने देश भर का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था और एकजुटता हासिल की थी, ठीक उसी समय बिहार में सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में आपातकाल की स्थिति चल रही थी और इनसेफलाइटिस से रोजाना बीसियों बच्चों को जानें जा रही थीं, जिसकी ओर न प्रशासन ने उपयुक्त ध्यान दिया और न ही मीडिया ने उसको उचित जगह दी. “सबके लिये स्वास्थ्य” के लक्ष्य को हासिल करने के लिये जनता का सशक्त जागरण और उनकी दावेदारी, महज स्वास्थ्य क्षेत्र का निजीकरण और बाजारीकरण को बढ़ावा देने वालो लुभावनी बीमा स्कीमों के स्थान पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की गारंटी ही आज वक्त की मांग हैं. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिये डाक्टरों, सम्बन्धित नागरिकों एवं आम जनता को हाथ से हाथ मिलाकर चलना होगा.