वर्ष - 28
अंक - 35
17-08-2019

(कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य का साक्षात्कार, आनंदबाजार पत्रिका के लिये अनिर्वाण चट्टोपाध्याय द्वारा)

 

प्रश्न: विगत 30 जुलाई को कोलकाता में भाकपा(माले)-लिबरेशन का जन-कन्वेंशन तो काफी सफल रहा. लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद पैदा हुई परिस्थिति में आज 2 अगस्त को आपको क्या लग रहा है, इस दौर में कोई सकारात्मक संकेत मिल रहा है?

दीपंकर भट्टाचार्य: चुनाव से पहले एक समय तक बड़े-बड़े आंदोलन हुए हैं. गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश –  पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों पर इन आंदोलनों की छाप स्पष्ट दिख रही थी. लोकसभा चुनाव में अनुभव इससे भिन्न रहा, मगर हमें ऐसा नहीं लगता कि इसका अर्थ यह लगाना चाहिये कि वे आंदोलन बेकार गये. साफ दिख रहा है कि विक्षोभ उठकर सामने आ रहे हैं, प्रतिवाद भी हो रहे हैं, चुनाव के बाद से ही आंदोलन भी शुरू हो गये हैं. जरूर लोगों ने भाजपा को वोट दिया है, पर ठीक उसके बाद ही मजदूरी बढ़ाने की मांग पर गांवों में महिलाओं की हड़ताल भी हो रही है. यह उस पुराने समीकरण को तोड़ रहा है. इस शुरूआत पर ही गौर करने की जरूरत है.

दूसरे, हमारे दिमाग में था पश्चिम बंगाल. यहां लम्बे अरसे तक वामपंथियों का राजनीतिक प्रभाव रहा है. चुनाव में उनके वोट तो बहुत ज्यादा घट गये, उनका एक बड़ा हिस्सा जाकर भाजपा के भंडार में जमा हो गया. हमें ऐसा लगा कि मोदी सरकार की दूसरी पारी में पश्चिम बंगाल ही होगा लड़ाई का सबसे बड़ा मैदान. यहां भाजपा का एजेंडा यही दिख रहा है कि वे हमें 1947 से पहले की स्थिति में लौटा ले जाना चाहते हैं. हमारे स्वाधीनता आंदोलन में सबसे बड़ी तबाही बनकर सामने आया था साम्प्रदायिकता का उत्थान, उसका परिणाम हुआ देश का विभाजन. इतने दिनों तक इस तबाही को पूर्णतः भुला न पाने पर भी एक हद तक पीछे धकेलकर हमारा देश आगे बढ़ रहा था. आज भाजपा उसी 1947 की राजनीति को वापस लाना चाहती है. यह बहुत खतरनाक है. पश्चिम बंगाल में यह सिर्फ राज्य सरकार के परिवर्तन का मामला नहीं है. भाजपा की जो राजनीति है – मुख्यतः धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की परियोजना, वह 1947 के विभाजन में गलत साबित हुई (धर्म के आधार पर पाकिस्तान अलग होने के बाद भी उसका पूर्वी हिस्सा अपनी भिन्न संस्कृति के चलते आजाद होकर बांग्लादेश बन गया, और मुस्लिम बहुल कश्मीर भारत में ही रह गया), अब भाजपा उसको उसकी तार्किक परिणति की ओर ले जाना चाहती है. अगर हमें उस साम्प्रदायिक हमले को रोकना है तो इस काम को पहले पश्चिम बंगाल से ही करना होगा.

पश्चिम बंगाल के वामपंथी मिजाज के लोग, जो आज बेचैन हैं, और एक हद तक लज्जित भी हैं कि वामपंथियों को मिलने वाले वोट का इतना बड़ा हिस्सा बाहर निकल गया, उनसे हमारी अपील है कि आप वामपंथी खेमे में लौट आइये. और इसके लिये एक नये खाके की जरूरत है. सीपीआई(एम) ने जो खाका बनाया था वह था सत्ता को केन्द्र करके. अब सत्ता के घेरे से बाहर, जनता के आंदोलन को आधार बनाकर एक वामपंथ का निर्माण करने की जरूरत है. अपनी उसी आदत को वापस लाना होगा, आंदोलनकारी वामपंथ को इज्जत देनी होगी, तब अगर पार्टियों के बतौर न भी हो सके तो आंदोलन के बतौर, विचारों में एक एकता जरूर निर्मित होगी.

साथ ही पश्चिम बंगाल में कई महीनों से जहां भी साम्प्रदायिक हमले हो रहे हैं, हम वहां पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. इसी लिहाज से हमने कन्वेंशन का नाम ‘एकजुट हो, प्रतिरोध करो’ (बांग्ला में ‘संहति ओ प्रतिरोध’) रखा है. विपत्ति के शिकार लोगों के पक्ष में खड़ा होना होगा, उनका हाथ थामना होगा. इस नजरिये से लगता है कि हमें कन्वेंशन के प्रति समर्थन मिला है. अब इसको लेकर आगे बढ़ने की तैयारी है.

प्रश्न: पिछले डेढ़-दो साल में कई क्षेत्रों में जो आंदोलन हुए हैं उनके बीच सम्पर्क कायम करने का क्या कोई प्रयास हुआ है?

उत्तर: सम्पर्क की जरूरत और संभावना, दोनों ही बढ़ रही हैं. उदाहरणार्थ, हाल के अरसे में दो सौ से ज्यादा किसान संगठनों ने मिलकर एक जुझारू मोर्चे का निर्माण किया है. जब उनका पिछला समागम – किसान मुक्ति संसद – दिल्ली में आयोजित हुआ था तो उसमें किसानों के समर्थन में छात्र, कर्मचारी, एम्स के डाक्टर, सभी उतर पड़े थे. यह नये किस्म का अद्भुत दृश्य था, और यही तस्वीर और बड़े पैमाने पर निखरकर सामने आ रही है.

दूसरे, आर्थिक या राजनीतिक मांगों के साथ-साथ सांस्कृतिक चेतना पर भी जोर देने की जरूरत है. आज की नई पीढ़ी के लिये स्वाधीनता का इतिहास एक दूर की चीज बन गई है. उसके बारे में नई पीढ़ी को गलत-सलत समझा देना आसान है. मेरी एक छात्र से बात हो रही थी ... जब पूछा कि गांधी जी की जिसने हत्या की थी वह गोडसे कौन था, तो उसने जवाब दिया कि वह गांधी जी का सिक्योरिटी गार्ड होगा. यानी, इंदिरा गांधी की हत्या उनके सिक्योरिटी गार्ड ने की थी, तो महात्मा गांधी की हत्या भी उनके सिक्योरिटी गार्ड ने ही की होगी. यह जो इतिहास की जानकारी का पूर्ण अभाव है, यहीं ह्वाट्सएप, फेक न्यूज इत्यादि घुस गये हैं. इसी कारण से मैं सांस्कृतिक चेतना के महत्व की बात कर रहा हूं. विभिन्न आर्थिक प्रश्नों पर आंदोलन करने के साथ-साथ लोगों की चेतना में, उनके चिंतन-जगत में भी आंदोलन करना जरूरी है. 1940 के दशक का इतिहास – एक ओर दंगे हो रहे थे और दूसरी ओर उसी समय कलकत्ते में ट्राम मजदूरों का आंदोलन दूसरा ही नजारा पेश कर रहा था. तो आज अगर भाटपाड़ा इलाके में, जूट मिल इलाके में जिस तरह हिंदू-मुस्लिम, हिंदीभाषी-बांग्लाभाषी के बीच एक किस्म का विभाजन पैदा किया जा रहा है, वहां यकीनन मजदूर एकता की सख्त जरूरत है. जैसे किसान एकता की जरूरत है. हमारे बंगाल में लालन फकीर, श्रीचैतन्य से शुरू करके साम्प्रदायिक सद्भाव की जो परम्परा रही है, उसे वापस लाने की जरूरत है. यह बहुमुखी प्रयास का मामला है, जो साम्प्रदायिकता को रोकने के लिये अत्यंत जरूरी है.

प्रश्न: थोड़ा पीछे लौटें. जिन सामाजिक आंदोलनों की बात आपने की है, वे तो मुख्यतः अधिकार रक्षा के आंदोलन थे ...

उत्तर: अधिकार और मर्यादा, सम्मान... दोनों अभिन्न रूप से जुड़ी चीजें हैं. हमने देखा है कि हमारी पार्टी ने पश्चिम बंगाल में धक्का खाने के बाद जब बिहार में आंदोलन शुरू किया तो वहां लोगों की मर्यादा का सवाल ही बहुत बड़ा सवाल था. सभी को जमीन मिले, उचित मजदूरी मिले, ये सवाल तो जरूर मौजूद थे. लेकिन रोजमर्रा के जीवन में आने वाले विभिन्न मामलों में दलित जनता की सामाजिक मर्यादा का जो सवाल है, हम उसी मर्यादा के सवाल पर आंदोलन करते करते पले-बढ़े हैं.

अब इसी बात को थोड़ा और विस्तारित रूप से देखें तो अंतिम विचार में उससे देशप्रेम का प्रति-विमर्श (काउंटरनैरेटिव) तैयार किया जा सकता है. देशप्रेम के बारे में भाजपा की धारणा है कि हम सभी भारत माता की संतान हैं, गोमाता की संतान भी कह सकते हैं. अब सबको जय श्रीराम बोलना होगा, इत्यादि. लेकिन अगर हम 1857 में लौट जायें, तो अजीमुल्ला खां ने जो राष्ट्रगीत लिखा था प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में, उसे ‘जन-गण-मन’ या ‘वंदे मातरम’ या फिर ‘सारे जहां से अच्छा’ के समकक्ष रखा जा सकता है – हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा. हम ही इस देश के मालिक हैं और फिरंगी बाहर से आकर देश को लूट ले जा रहा है. यह मालिक होने का बोध जब संविधान में आया ...

प्रश्न: द आइडिया ऑफ रिपब्लिक ...

उत्तर: संविधान में लिखा गया है ‘हम भारत के लोग’, यह संविधान और कहीं से नहीं आया, हमने ही खुद को यह सत्ता अर्पित की है. देश के लोग ही सत्ता के स्रोत हैं, मेहनतकश लोग ही देश के मालिक हैं. यहां हालत यह है कि मजदूरों और किसानों की मर्यादा या उनके अधिकार के लिये कोई जगह ही नहीं रह गई है. वह अधिकार महज इतना ही नहीं है कि कोई सरकार हमें कोई भत्ता देगी, कोई कन्याश्री देगी, कोई एक ‘रेखा’ देगा, कोई स्वच्छ भारत के नाम पर शौचालय बनाने के लिये कुछ पैसे देगा. वे सिर्फ हमें देंगे और हम पायेंगे. वर्तमान राष्ट्र के नागरिकों को प्रजा के स्तर पर गिरा दिया गया है.

पहले हमने अम्बेडकर का अच्छी तरह अध्ययन नहीं किया था. भारतवर्ष में जब संविधान गृहीत हो रहा था तब अम्बेडकर ने कुछेक बातों को जोर देकर कहा था. संविधान की भूमिका में स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व और न्याय – ये चीजें अधिकार के बतौर उल्लिखित हैं. अम्बेडकर का भाषण देखिये, संविधान सभा या गण-परिषद के अंतिम अधिवेशन में, उन्होंने एकदम साफ साफ कहा है कि भारतवर्ष की जमीन का जनवादीकरण नहीं हुआ, वह अलोकतांत्रिक रह गई है और अलोकतांत्रिक जमीन पर लोकतंत्र की परत चढ़ा दी गई है – टाॅप ड्रेसिंग ऑफ डेमोक्रेसी – संविधान के जरिये यह हुआ. अर्थात् इस संविधान में लोकतंत्र का वादा है, उसकी संभावना है, मगर भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि ऐसी है जिसमें जाति और धर्म के नाम पर, विभिन्न कुसंस्कारों के नाम पर विषमता इतनी ज्यादा है कि उस जमीन पर खड़े होकर लोकतंत्र को साकार नहीं किया जा सकेगा. इस टकराव का क्या समाधान है? समाधान है कि जिस जमीन पर संविधान खड़ा है उस जमीन का ही जनवादीकरण करना होगा – सामाजिक रूप से और राजनीतिक रूप से भी. आज नाम को तो गणतंत्र (रिपब्लिक) है, लेकिन उसकी जगह राजा और प्रजा का सम्बंध ही बना चला आ रहा है. वही मनुस्मृति, वही ब्राह्मणवादी व्यवस्था, वही जाति प्रथा, वही महिलाओं, दलितों, आदिवासियों को दूसरे दर्जे का, तीसरे दर्जे के नागरिक में पतित कर देना.

हमें तीन पहलुओं पर बहुत अच्छी तरह विचार करने की जरूरत है. पहला, जिस तरह से कारपोरेटों के हाथ में सत्ता सिमटती जा रही है, इतना खुल्लमखुल्ला बड़े पूंजीपतियों का इस कदर प्रभाव इससे पहले नहीं देखा गया. दूसरा, जिस पर आरएसएस पहले से अमल करता आया है – साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद. और तीसरा पहलू है वही मनुस्मृति. अम्बेडकर चाहते थे कि संविधान जितना आगे बढ़ेगा, समाज का ढांचा तोड़ना होगा, सामयिक रूप से पिछड़ गये निचली श्रेणी के लोगों को आगे बढ़ाकर सामने लाना होगा. उसकी जगह हमको फिर पीछे की दिशा में ठेल दिया जा रहा है. हमें इन तीनों पहलुओं पर समान रूप से, सचेत रूप से और सजग रहकर प्रतिगामी शक्तियों का मुकाबला करना होगा.