- दीपंकर भट्टाचार्य

 

भारत में लोकतंत्र पर हमले बढ़ रहे हैं. हजार टुकड़े कर इसकी हत्या की जा रही है, जैसा कि लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में पब्लिक लॉ पढ़ाने वाले प्रोफेसर तरुनाभ खेतान ने पत्रकार करन थापर के साथ एक हालिया साक्षात्कार के दौरान कहा. भारत का संविधान इस हमले की मार झेल रहा है, जिसके बारे में ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डा. बीआर अंबेडकर की प्रख्यात उक्ति है कि यह संविधान अ-लोकतांत्रिक जमीन पर लोकतंत्र का हल्का छिड़काव भर है. जिस आरएसएस ने अभिग्रहण के समय ही संविधान को अ-भारतीय दस्तावेज कहकर खारिज कर दिया था, उसने संविधान पर नए सिरे से चौतरफा हमला छेड़ दिया है. आजादी के 75 वर्ष बाद भारत के लिए नए संविधान के विचार सामने लाए जा रहे हैं. प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार विवेक देव रॉय ने अखबार में एक लेख के जरिये ऐसा ही विचार पेश किया था, जबकि उस समय भारत अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह मना रहा था.

फिर भी मोदी सरकार अपनी तमाम कार्रवाइयों का संवैधानिक औचित्य प्रमाणित करने के लिए इसी संविधान का राग अलाप रही है और इसकी तोड़-मरोड़ कर व्याख्या कर रही है. इसी सरकार ने 26 नवंबर 1949 के दिन संविधान के अभिग्रहण की स्मृति में 26 नवंबर को ‘संविधान दिवस’ के बतौर मनाना शुरू किया था. सरकार हमें याद दिलाती रहती है कि बाद में संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल किया गया था, और वह संविधान के वर्तमान स्वरूप को उसके मूल स्वरूप के खिलाफ खड़ा करने हेतु यह प्रचार निरंतर चलाती जा रही है. संसद को नए भवन में स्थानांतरित करने के बाद उसने तुरंत ही पुराने भवन को ‘संविधान भवन’ का नाम दे दिया. और आरएसएस के इस वर्ष के स्थापना दिवस समारोह में अपने संबोधन के दौरान मोहन भागवत ने श्रोताओं को कहा कि वे संविधान सभा में अंबेडकर के भाषणों को पढ़ें. वास्तव में, आज जब भारत के संविधान पर इस किस्म के नए चौतरफा हमले दिख रहे हैं जो हमें इसके निर्माण की अवस्था में और शुरू के वर्षों में दक्षिणपंथी रूढ़िवादी प्रतिक्रिया की याद दिलाते हैं, और साथ ही इसे हड़पने तथा उसकी विकृत व्याख्या करने के प्रयास भी सामने आ रहे हैं, तो यह जरूरी है कि हम मूल संवैधानिक उसूलों और परिप्रेक्ष्य के बारे में अंबेडकर की स्पष्ट प्रस्तुति और व्याख्या पर पुनः गौर करें.

4 नवंबर 1948 को संविधान सभा के समक्ष मसविदा संविधान को पेश करते समय अंबेडकर के ऐतिहासिक भाषण और एक वर्ष बाद 25 नवंबर 1949 को संविधान के अंतिम संस्करण के अभिग्रहण के समय उनके संबोधन के अलावा हमें ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ को भी देखना चाहिए - यह एक ज्ञापन है जिसे अंबेडकर ने ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ’ की तरफ से संविधान सभा में पेश करने के लिए तैयार किया था. यह ज्ञापन हमें वैसे संविधान का खाका मुहैया कराता है, जैसा कि वे वास्तव में चाहते थे और जो हमें उनकी उस भविष्य-दृष्टि की झलक देता है जो संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के नाते अपनी भूमिका अदा करते हुए उनके अंदर थी. अंबेडकर को सुखद आश्चर्य हुआ था कि उन्हें उस ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष चुना गया, और उन्होंने इस भारी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते हुए संविधान सभा के सातवें सत्र (4 नवंबर 1948 - 8 जनवरी 1949) में संविधान का मसविदा पेश किया और ग्यारहवें व अंतिम सत्र (14-26 नवंबर 1949) में इसका अंतिम स्वरूप प्रस्तुत किया.

मसविदा संविधान पेश करते हुए 4 नवंबर 1948 को अपने भाषण में अंबेडकर ने भारतीय संविधान की खास विशेषताओं पर चर्चा की और उस वक्त उनके खिलाफ आई आलोचनाओं का जवाब दिया. उन्होंने सरकार के उस स्वरूप पर बहस के साथ अपनी चर्चा शुरू की जिसे मसविदा में तरजीह दी गई थी - राष्ट्रपति प्रणाली के बरखिलाफ संसदीय लोकतंत्र. अंबेडकर ने तर्क दिया कि लोकतांत्रिक कार्यपालिका को दो शर्तें पूरी करनी होंगी - स्थिरता और जिम्मेदारी, और साथ ही यह भी कहा कि दुर्भाग्यवश अभी तक ऐसी प्रणाली बनाना संभव नहीं हो सका है जो समान हद तक इन दोनों की गारंटी कर सके. उसके बाद उन्होंने हमें कहा कि इस मसविदा में भारतीय संदर्भ के मद्देनजर जिम्मेदारी (जवाबदेही) को स्थिरता के मुकाबले ज्यादा महत्व दिया गया है और इसीलिए संसदीय प्रणाली को सचेतन ढंग से तरजीह दी गई है. अंबेडकर ने जोर देकर कहा कि संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका दैनिक व सावधिक, दोनों किस्म की जवाबदेही के मातहत होती है - संसदीय कार्यवाहियों तथा लोकतांत्रिक प्रचालन के अन्य मानदंडों के जरिये संसद व अन्य संस्थाओं के प्रति दैनिक जवाबदेही, और निर्वाचनों के जरिये जनता के प्रति सावधिक जवाबदेही. अगर कोई कार्यपालिका दो चुनावों के मध्य अपना बहुमत समर्थन खो दे तो उसे अपना पदभार छोड़ना पड़ेगा और जनता के बीच जाना होगा.

अपने भाषण में अंबेडकर के व्याख्यानुसार भारतीय संविधान की इन पारिभाषिक विशेषताओं को, भारतीय लोकतंत्र के इस मूलाधार को पीएमओ के हाथों में शक्ति के निरंतर केंद्रीकरण के जरिये और अब ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की ओर बढ़ते कदम के जरिये रोज-ब-रोज उलटा जा रहा है जो भारत के संसदीय लोकतंत्र को वास्तव में अमेरिका-शैली की राष्ट्रपति प्रणाली में तब्दील कर देंगे. अंबेडकर भारतीय संघवाद की खास विशेषताओं पर भी चर्चा करते हैं. वे भारत को लचीले संघीय प्रणाली से युक्त एक दुहरा राजनैतिक तंत्र बताते हैं जहां संघवाद को कुछ खास एकात्मक विशेषताओं के साथ संयोजित किया जाएगा, जैसे कि एकल अखिल-भारतीय नागरिकता, एकल न्यायपालिका और अखिल भारतीय लोक (सिविलियन) नौकरशाही. शक्ति का बढ़ता केंद्रीकरण और संघवाद का, शक्तियों के पृथक्करण का तथा संसद व जनता के प्रति कार्यपालिका की दैनिक जवाबदेही की व्यवस्था व भावना का प्रणालीबद्ध विध्वंस प्रोफेसर खेतान द्वारा अपने साक्षात्कार में वर्णित उसी ‘हजार टुकड़ों में काटने’ की क्रिया को चिन्हित करते हैं जो हमारे संविधान की हत्या कर रही है.

इसके बाद अंबेडकर संविधान की ‘मौलिकता’ और ‘भारतीयता’ के अभाव को लेकर की गई आलोचना का खंडन करते हैं. उन्होंने दावा किया कि हर लिखित लोकतांत्रिक संविधान में सामान्य अथवा सार्विक विशेषताओं की झलक मिलनी चाहिए, और भारतीय संविधान की क्षमता का मूल्यांकन भारतीय संदर्भ की विविधता और खासियतों के साथ उन बुनियादी लोकतांत्रिक विशेषताओं को अनुकूलित बनाने के लिहाज से किया जाना चाहिए. ऐसे भी मजबूत मत सामने आ रहे थे कि इस संविधान को प्राचीन भारतीय राजनैतिक तंत्र की लोकतांत्रिक विरासत को बुलंद करना चाहिए और इसे खुद को भारत के तथाकथित आत्मनिर्भर ग्राम्य गणतंत्रों की बुनियाद पर खड़ा करना चाहिए. अंबेडकर उन तथाकथित ‘ग्राम्य गणतंत्रों’ को रूमानी बनाने के ख्याल को खारिज करते हैं और साहस के साथ एलान करते हैं कि उन्हें खुशी है कि मसविदा संविधान ने गांव को खारिज किया है और व्यक्ति को अपनी इकाई के बतौर ग्रहण किया है. उन्होंने इस आरोप का भी जवाब दिया कि संविधान में प्रशासन-संचालन के मामले में 1935 के ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट’ से अत्यधिक मात्रा में चीजें ले ली गई हैं. भविष्य में संशोधनों और प्रशासकीय विकासों की गुंजाइश को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने संविधान के अनुकूल प्रशासन विकसित करने और इस बात की गारंटी करने पर जोर दिया कि विधायिका प्रशासन को गुमराह न करे और उसे संविधान की भावना के साथ विसंगतिपूर्ण और उसका विरोधी न बना दे. इसी खास संदर्भ में अंबेडकर दिशानिर्देशक भावना के बतौर संवैधानिक नैतिकता पैदा करने की जरूरत रेखांकित करते हैं और हमें इतनी भविष्यपूर्ण दृष्टि से याद दिलाते हैं कि भारत में लोकतंत्र मूलतः अ-लोकतांत्रिक भारतीय जमीन पर एक लोकतांत्रिक छिड़काव भर है.

अंबेडकर की चेतावनी से एक अनिवार्य निष्कर्ष यह निकलता है कि भारतीय जमीन को लोकतांत्रिक बनाना, हर क्षेत्र में संवैधानिक नैतिकता की भावना को गहरा बनाना और उसे बुलंद करना तथा विधायिका को प्रशासकीय नियंत्रण व संतुलन (चेक एंड बैलेंस) प्रणाली को रौंदने से रोकना निहायत जरूरी है. लेकिन आज हम वही कार्यपालिका निरंकुशता का खतरा झेल रहे हैं जो निगरानी व जवाबदेही की संस्थागत प्रणाली को रौंद रही है. अंबेडकर जिसे ‘संवैधानिक नैतिकता’ का लिटमस टेस्ट कहते हैं, उसी का खुला उल्लंघन करते हुए कल्पित ‘सामूहिक विवेक’ और ‘बहुसंख्या का विचार’ की तुष्टि के नाम पर कानूनों का निर्माण किया जा रहा है और फैसले भी सुनाए जा रहे हैं. उसी भाषण में अंबेडकर ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के महत्व को रेखांकित किया है और बहुसंख्यक समुदाय को ‘अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव न बरतने के अपने कर्तव्य को समझने’ की जरूरत का भी स्मरण कराया है. अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार और सुरक्षा की जरूरत है या नहीं अथवा इसकी जरूरत कब तक रहेगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कब ‘बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करना छोड़ेंगे’. अंबेडकर के लिए अल्पसंख्यक के खिलाफ भेदभाव रोकना ही प्रस्थान बिंदु था, लेकिन आज विमर्श को सर के बल खड़ा कर दिया गया है - अब बहुसंख्यकों को यह संतोष दिलाना ही सबकुछ बना गया है कि अल्पसंख्यकों का ‘तुष्टीकरण’ नहीं किया जा रहा है. अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव की सच्चाई के बजाय सारा ध्यान हटकर ‘अल्पसंख्यक तुष्टीकरण’ की कपोल-कथा पर केंद्रित हो गई है. यह और कुछ नहीं, बल्कि बेलगाम बहुसंख्यावाद है जो समाज में अल्पसंख्यकों को कुचल डालने, राजनीतिक क्षेत्र में विपक्ष को निशाना बनाने और शैक्षिक, मीडिया व सांस्कृतिक जगत में असहमति के हर स्वर को खामोश कर देने पर आमादा हो गया है.

संविधान सभा के ग्यारह सत्रों में कुल मिलाकर 165 दिन लगे थे जिसमें आखिर के 114 दिन मसविदा संविधान पर विचार करने और उसे अंतिम स्वरूप देने में व्यतीत हुए. संविधान के वृहदाकार को देखते हुए कहा जा सकता है कि काफी जल्द ही इसे अंतिम स्वरूप दिया गया - 2473 संशोधनों पर विचार करने के बाद 395 धाराओं और 8 अनुसूचियों के साथ आखिरकार इसे पारित किया गया था. फिर भी अंबेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी की इस आलोचना का जवाब देना पड़ा था कि अपने काम को अंजाम देने में उन्होंने काफी विलंब किया. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वे ‘अनुसूचित जातियों के हितों की सुरक्षा से अधिक किसी बड़ी आकांक्षा के साथ’ संविधान सभा में शामिल नहीं हुए थे, और उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ था कि उन्हें अंततोगत्वा खुद संविधान लिखने में ड्राफ्टिंग कमेटी की अध्यक्षता करने की प्रमुख जिम्मेदारी सौंपी गई. 4 नवंबर 1948 के अपने भाषण की ही तरह, जिसमें उन्होंने मसविदा संविधान पेश करते समय इसकी मुख्य विशेषताओं की व्याख्या की थी, अंबेडकर ने संविधान अभिग्रहण के ठीक बाद अपने समापन भाषण के दौरान भी मुख्य-मुख्य आलोचनाओं का जवाब दिया और संविधान के कुछ प्रमुख दिशानिर्देशक उसूलों की व्याख्या भी प्रस्तुत की.

4 नवंबर 1948 के अपने संबोधन में अंबेडकर ने दक्षिणपंथी रूढ़िवादी व प्रतिक्रियावादी आलोचनाओं का उल्लेख किया. संघ ब्रिगेड द्वारा मनुस्मृति का निरंतर राग अलापने का सीधा जिक्र किए बिना ही उन्होंने प्राचीन भारत के ढांचे की अवहेलना करने के उनके आरोप का जवाब दिया और स्वतंत्र व्यक्ति को संवैधानिक गणतंत्र की बुनियादी इकाई समझने के विचार का बचाव किया. पहले के अपने सार्वजनिक जीवन में अंबेडकर ने महाड़ सत्याग्रह के दौरान 25 दिसंबर 1927 के दिन मनुस्मृति को आग के हवाले कर दिया था. इसकी तो कोई संभावना ही नहीं थी कि जातीय उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक हिंसा की इस संहिता को वे आधुनिक भारत के संविधान की निर्देशक भावना के बतौर इस्तेमाल करते. 25 नवंबर 1949 के अपने समापन भाषण में अंबेडकर ने कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों समेत अन्य पक्षों से आई आलोचनाओं का जवाब दिया. अंबेडकर ने कहा कि कम्युनिस्ट आलोचना संसदीय लोकतंत्र के वर्गीय चरित्र के गिर्द घूम रही है जबकि सोशलिस्ट लोग किसी भी मुआवजे के बगैर निजी संपत्ति के राष्ट्रीयकरण या समाजवादीकरण की पैरवी कर रहे हैं. यह गौर करना जरूरी है कि अंबेडकर ने अपने आप में कम्युनिस्ट अथवा सोशलिस्ट विचारों को खारिज नहीं कर दिया था, उन्होंने केवल संविधान सभा के अंदर शक्तियों के संतुलन का हवाला दिया था ताकि ड्राफ्टिंग कमेटी और संविधान सभा के अभिमत के बतौर संविधान की हिफाजत की जा सके.

अंबेडकर के जवाब को संपूर्णता में पढ़ना जरूरी है : “मेँ यह नहीं कहता कि संसदीय लोकतंत्र का उसूल ही राजनीतिक जनवाद का एकमात्र आदर्श रूप है. मैं नहीं कहता कि मुआवजे के बगैर निजी संपत्ति का अधिग्रहण न करने का उसूल इतना पवित्र है कि इससे अलग हटा ही नहीं जा सके. मैं यह नहीं कहता हूं कि ‘मौलिक अधिकार’ कभी निरपेक्ष हो ही नहीं सकते और कि उनपर लगाई गई सीमाएं कभी उठाई नहीं जा सकतीं. लेकिन मैं यह जरूर कहता हूं कि संविधान में निहित सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं, और अगर आपको यह अतिशयोक्ति लग रही है तो मैं कहता हूं कि ये संविधान सभा के सदस्यों के विचार हैं. संविधान में इन्हें सन्निहित करने के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी को क्यों दोषी ठहराया जाए? मैं तो कहता हूं कि संविधान सभा के सदस्यों पर भी क्यों आरोप लगाया जाए? महान अमेरिकी राजनेता जेफरसन, जिन्होंने अमेरिका के संविधान निर्माण में इतनी बड़ी भूमिका निभाई थी, ने कुछ बेहद वजनी विचार व्यक्त किए थे, जिनको संविधान के निर्मातागण कभी नजरअंदाज नहीं कर सकेंगे. एक जगह पर उन्होंने कहा है, ‘हम हर पीढ़ी को एक अलग राष्ट्र के बतौर देख सकते हैं जिसके पास बहुमत की इच्छा से खुद को जोड़े रखने का अधिकार है, किंतु किसी को भी दूसरे देश के निवासियों से ज्यादा अपनी बाद की पीढ़ी को भी बांधे रखने का अधिकार नहीं है’.”

इसका साफ मतलब है कि अंबेडकर ने वैचारिक रूप से इन बहसों को खारिज नहीं किया, बल्कि उन संभावानाओं को भविष्य की पीढ़ी के राजनीतिक विवेक और पसंद के लिए खुला छोड़ दिया. वस्तुतः, अगर हम ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ नामक ज्ञापन को पढ़ें, जिसे अंबेडकर ने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ की तरफ से तैयार किया था, तो हमें अंबेडकर के स्वयं की राजनीतिक पसंद की ज्यादा साफ तस्वीर मिलती है. इस ज्ञापन में अंबेडकर भारत को ‘संयुक्त राज्य भारत’ बताते हैं, और इसके तमाम नागरिकों के लिए कार्यपालिका की निरंकुशता, असमान बर्ताव, भेदभाव और आर्थिक शोषण के खिलाफ मुकम्मल न्यायिक सुरक्षा के साथ मौलिक अधिकारों के पूरे एक समुच्चय का वादा करते हैं. ज्ञापन में अल्पसंख्यकों के लिए सामाजिक और सरकारी निरंकुशता तथा सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ कारगर उपायों का वादा किया गया है, और अनुसूचित जातियों का सभी क्षेत्रों में समुचित प्रतिनिधित्व की हिफाजत के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रावधान किए गए हैं. ज्ञापन में वांछित है कि राज्य व्यापक राष्ट्रीयकरण और सामूहिकीकरण के जरिये समाजवादी दिशा में कृषि समेत आर्थिक जीवन के सभी मुख्य क्षेत्रों को संगठित करे, किंतु यह भी कहा गया है कि ये सब चीजें संसदीय लोकतंत्र के ढांचे के अंतर्गत ही किए जाएंगे. ज्ञापन यह भी चाहता है कि राजकीय (स्टेट) समाजवाद को स्थायित्व प्रदान करने के लिए संविधान इसे इस ढंग से सुनिश्चित करे कि हर सरकार इसका अनुपालन करने के लिए बाध्य हो. राजकीय समाजवाद और संसदीय लोकतंत्र का यह स्पष्ट संयोजन संविधान के अंतिम स्वरूप में सन्निहित तो नहीं किया जा सका, लेकिन मौलिक अधिकारों और दिशानिर्देशक उसूलों पर नजदीकी नजर डालने पर इस तरह की दिशा संविधान में स्पष्ट दिख जाती है.

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ के पहले अंबेडकर को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (आइएलपी) का अनुभव हो चुका था. 1936 में गठित आइएलपी ने जाति और पूंजी, दोनों के खिलाफ एक साथ संघर्ष किया था. 1937 में आइएलपी को बंबई विधानसभा की 17 सीटों पर जीत मिली थी, जहां से वह चुनाव लड़ी थी. उसी दौरान अंबेडकर ने अपना प्रसिद्ध विशेष निबंध ‘जाति का विनाश’ लिखा था, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के समर्थन के साथ 20,000 पट्टेदार किसानों का मार्च कोंकण क्षेत्र से बंबई तक संगठित किया था और औद्योगिक विवाद बिल के खिलाफ कम्युनिस्टों के साथ मिलकर बंबई के कपड़ा मिल मजदूरों को संगठित किया था. 1942 से 1946 तक की अवधि में अंबेडकर ने वायसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में वस्तुतः श्रम मंत्री के बतौर भी काम किया था, तथा आठ घंटे कार्य दिवस और सामूहिक सौदेबाजी अधिकारों के लिहाज से श्रम संगठनों के गठन की अगुवाई की थी. आज जब सरकार अंधाधुंध निजीकरण और बेलगाम कॉरपारेट शक्ति को बढ़ावा दे रही है और श्रम को निरंतर असुरक्षित व अधिकार-विहीन बना दे रही है, तो हमें अंबेडकर की समाजवादी अर्थतंत्र तथा संघर्षशील मजदूर-किसान एकता की रैडिकल विरासत को पुनः स्मरण कर लेना चाहिए.

अपने भाषण में अंबेडकर हमें स्मरण दिलाते हैं कि हमें सिर्फ ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि ‘सामाजिक लोकतंत्र’ के लिए भरपूर प्रयास करना चाहिए. सामाजिक लोकतंत्र अथवा समाज में लोकतंत्र का मतलब है जीवन के बुनियादी उसूल के बतौर स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की मान्यता. अंबेडकर कहते हैं कि हमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को पृथक पृथक करके नहीं, बल्कि उन्हें एकीकृत रूप में देखना चाहिए जहां एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है. अंबेडकर जोर देकर कहते हैं कि इनमें से एक को दूसरे से अलग करने पर लोकतंत्र का उद्देश्य ही पूरा नहीं हो सकेगा. अंबेडकर चेतावनी देते हैं कि समानता के बगैर स्वतंत्रता बहुसंख्यक लोगों पर कुछ लोगों के वर्चस्व को जन्म देगी, जबकि स्वतंत्रता के बगैर समानता व्यक्तिगत पहलकदमी को नष्ट कर देगी. और भाईचारा यह सुनिश्चित करेगा कि स्वतंत्रता और समानता जीवन में स्वाभाविक चीज बन जाएं, इन्हें किसी कांस्टेबुल के जरिये लादा नहीं जाएगा. लेकिन अंबेडकर हमें यह भी याद दिलाते हैं कि भारत की सामाजिक सच्चाई इस आदर्श स्थिति से कोसों दूर है. संविधान के अभिग्रहण के साथ भारत अंतरविरोधों के जीवन में प्रवेश कर गया है - जहां संविधान एक व्यक्ति एक वोट के राजनीतिक अथवा चुनावी समानता को सुनिश्चित करेगा, वहीं भारत आर्थिक और सामाजिक असमानता के गहरे दलदल में फंसा रहेगा. अंबेडकर चेतावनी देते हैं कि अगर जल्द ही इस अंतरविरोध का समाधान नहीं किया गया तो वह राजनीतिक लोकतंत्र के पूरे ढांचे को ही ध्वस्त कर देगा.

अंबेडकर तब हमें बताते हैं कि किस तरह जाति-विभाजित समाज में भाईचारा होना संभव नहीं. जाति एक श्रेणीकृत असमानता है और इस रूप में वह एक राष्ट्र के बतौर भारत के निर्माण की राह में रुकावट भी है. वे हमें कहते हैं कि ड्राफ्टिंग कमेटी ने ‘भारत राष्ट्र’ के बजाय ‘भारत के लोग’ शब्द क्यों चुना - जाति-ग्रस्त भारत को राष्ट्र घोषित करना ‘एक बड़ा भ्रम पालने’ जैसा होगा. अंबेडकर भारतीय परिस्थिति की तुलना अमेरिका में नस्ली विभाजन से करते हैं, और हमें कहते हैं कि जाति सच्चे भाईचारे के विकास में और बड़ी बाधा बनती है, जिस भाईचारे के बगैर संघनित राष्ट्र के रूप में भारत का उभरना संभव नहीं होगा. निश्चय ही उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष ने एक माहौल तैयार किया और एक बुनियाद भी रखी, किंतु स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रमुख मकसद राजनीतिक आजादी हासिल करना था, न कि सामाजिक समानता प्राप्त करना. आज जब भाजपा भारतीय राष्ट्रवाद को आक्रामक हिंदू वर्चस्ववादी आधार पर पुनर्परिभाषित करने की कोशिश कर रही है, तब हाल के वर्षों में सामाजिक दरार और चौड़ी हो गई है. यहां एक बार फिर हमें अंबेडकर की एक दूसरी भविष्यदृष्टिपूर्ण चेतावनी का स्मरण होता है जो उन्होंने 1940-दशक में पाकिस्तान प्रश्न पर बहस करते समय जारी की थी : हिंदू राज भारत के लिए सबसे बड़ी विपदा के रूप में सामने आएगा और हमें हर कीमत पर इसे टालना होगा. विभाजन को तो टाला नहीं जा सका, किंतु संविधान ने सुनिश्चित किया कि विभाजन के उस संत्रास के बावजूद भारत उस विपदा से बच सके और इसके लिए संविधान ने जाति, पंथ, भाषा और संस्कृति के आधार पर किसी भी भेदभाव के बगैर सभी नागरिकों के लिए मुकम्मल न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की उद्घोषणा की.

सामाजिक जीवन के उसूल के रूप में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा स्थापित कर राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक लोकतंत्र को अनुपूरित करने और जाति के विनाश के जरिये राष्ट्रीय एकता हासिल करने पर यह जोर संघ-भाजपा ब्रिगेड के हिंदुत्व बुलडोजर के सामने और भी जरूरी हो गया है. अंबेडकर ने जिस भाईचारे अथवा एकजुटता पर जोर दिया है, उसके अविभाज्य सहचर के बतौर स्वतंत्रता और समानता को भी जरूरी समझा गया है- और इसीलिए यह अवधारणा ‘समरसता’ के बिल्कुल उलट है जिसकी वकालत आज आरएसएस सख्त हिंदू पहचान के सर्वव्यापी साये तले कर रहा है. अंबेडकर के विचार से जातियों के समूह के बतौर राष्ट्रीय एकता हासिल करना संभव नहीं है- वे जाति-आधारित सामाजिक गुलामी व अन्याय की व्यवस्था को विनष्ट करके ही समाज में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की स्थापना करना चाहते थे.

अंबेडकर भारत के पंख पसारते संवैधानिक लोकतंत्र पर खतरे को गहराई से भांप रहे थे. वे चाहते थे कि संविधान आजाद भारत के राजनीतिक व सामाजिक जीवन को शासित करनेवाला सर्वोच्च पंच बन जाए, वे चाहते थे कि लोग प्रतिवाद के संवैधानिक तौर-तरीकों का अनुपालन करें और जिसे वे अराजकता का व्याकरण कहते थे, उसको खारिज कर दें. यहां उनकी समझ बिल्कुल यही थी कि वे लोग ही इसको कार्यान्वित करेंगे जिनके हाथों में विश्वास के साथ इसे सौंपा गया है. अपने समापन भाषण के शुरू में उन्होंने कहा, “संविधान चाहे जितना भी अच्छा क्यों न हो, उसका बुरा बन जाना निश्चित है, क्योंकि जिन्हें इसपर अमल करने को कहा जाता है वे बुरे बन जाते हैं. और संविधान चाहे जितना भी बुरा क्यों न हो, वह अच्छा बन जाता है अगर उनपर अमल करने वाले लोग अच्छे हों. ... इसीलिए वे लोग और उनकी पार्टियां क्या करेंगे, उस पर विचार किए बिना संविधान पर कोई फैसलाकुन टिप्पणी करना व्यर्थ है.” इसीलिए उन्होंने जनता की चौकसी पर सबसे ज्यादा भरोसा रखा और उन्हें जॉन स्टुअर्ट मिल की सलाह का स्मरण दिलाया कि वे ‘अपनी स्वतंत्रताओं को किसी महान व्यक्ति के चरणों पर न रख दें, अथवा उसे ऐसी शक्तियां न सौंप दें जिससे कि वे संस्थाओं को उलट-पलट कर रख दें.’ वे जानते थे कि ‘भारत में भक्ति अथवा वीर-पूजा राजनीति में वह भूमिका अदा करती है जो दुनिया के किसी भी दूसरे देश की राजनीति में उसकी भूमिका से कहीं ज्यादा वजन रखती है’ और उन्हें इस बात में कोई संदेह नहीं था कि ‘राजनीति में भक्ति अथवा वीर-पूजा पतन और अंततः तानाशाही का निश्चित मार्ग है’.

अंबेडकर के लिए संविधान का अभिग्रहण जिम्मेदार और जवाबदेह शासन की शुरूआत को रेखांकित करता था. संविधान सभा के समक्ष उनके समापन भाषण की अंतिम टिप्पणियों में इसे इन शब्दों में उजागर किया गया था : ‘आजादी मिलने के बाद हमने कुछ भी बुरा होने के लिए ब्रिटिश शासन को दोषी ठहराने का बहाना खो दिया है. अब इसके बाद अगर कुछ भी गलत होता है तो हमें खुद को ही दोषी ठहराना होगा. चीजों के बिगड़ने का बड़ा खतरा मौजूद है. समय तेजी से बदल रहा है. हमारी जनता समेत तमाम जनगण नई विचारधाराओं से उत्प्रेरित हो रहे हैं. वे ‘जनता के द्वारा सरकार’ से थकने लगे हैं. वे अब ‘जनता के लिए सरकार’ हासिल करने को तैयार हो चुके हैं. अगर हम अपने संविधान को टिकाये रखना चाहते हैं, जिसमें हमने जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा सरकार के उसूल को समाविष्ट किया है, तो हमें संकल्प लेना होगा कि हम अपने मार्ग में आनेवाली बुराइयों को पहचानने में सुस्ती नहीं दिखाएंगे, जो बुराइयां लोगों को जनता के द्वारा सरकार के बजाय जनता के लिए सरकार पसंद करने की ओर ले जाती हैं, हम उन बुराइयों को दूर करने के लिए पहलकदमी लेने में कमजोर नहीं पड़ जाएंगे. सिर्फ इसी तरीके से देश की सेवा की जा सकती है. इससे बेहतर की बात मैं नहीं जानता हूं.’ जो विचारधारा आज के भारत में संविधान के लिए खतरा पैदा कर रही है वह तो काफी पुरानी फासिस्ट विचारधारा है जो इतने लंबे समय से अपने पंख समेटे इंतजार कर रही थी और जो अब उसी संविधान को कूड़ेदान में फेंकने और नष्ट कर देने के लिए उन्मत्त हो उठी है जिसने उसे सत्ता में आने की इजाजत दी.

संविधान के अभिग्रहण के बाद अंबेडकर सिर्फ सात साल ही जिंदा रह सके. लेकिन जल्द ही अंबेडकर को उन लोगों के साथ विवाद में उतरना पड़ा जिन्हें इस संविधान को लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. हिंदू कोड बिल उन्हें रूढ़िवादी राजनीति बहुसंख्यकवाद के साथ टकराव में खींच लाया, और अंबेडकर के रैडिकल सुधार एजेंडा को टाल देने और उसे शिथिल बनाने के नेहरू के लगातार बढ़ते परिणामवादी रुख से खिन्न होकर उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और 1952 से लेकर 6 दिसंबर 1956 को अपनी मृत्यु के पहले तक वे राज्य सभा के स्वतंत्र सांसद के बतौर काम करते रहे. 2 सितंबर 1953 तक हम अंबेडकर को राज्य सभा में कहते देख सकते हैं, ‘महोदय, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है. लेकिन मैं यह कहने को तैयार हूं कि मैं इसे जला देने वाला पहला व्यक्ति हूंगा. मुझे अब इसकी जरूरत नहीं. यह किसी के लिए भी उपयुक्त नहीं है. लेकिन जो भी हो, अगर हमारे लोग इसे ले चलना चाहते हैं, तो उन्हें हर्गिज यह नहीं भूलना चाहिए कि यहां बहुसंख्यक भी हैं, और अल्पसंख्यक भी हैं. और वे अल्पसंख्यकों को यह कहकर नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं कि ‘अरे, नहीं. आपको मान्यता देने का मतलब होगा लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाना.’ मैं कहना चाहूंगा कि अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाना ही सबसे बड़ा नुकसान होगा.’ उसके बाद अंबेडकर का क्रोध भारत में गहरे पांव जमाए रूढ़िवादी व प्रतिक्रियावादी सामाजिक कुलीनों की तरफ मुड़ गया. अपनी मृत्यु के चंद सप्ताह पूर्व अंबेडकर ने अपने धर्म को चुनने के संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपने लाखों अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया.

आज वह रैडिकल डेमोक्रैट और सामाजिक समानता का चैंपियन अंबेडकर भीमा-कोरेगांव जैसे गढ़े-गढ़ाये मुकदमें में यूएपीए के तहत खुद को जेल की सलाखों के पीछे पड़ा पाता. और फिर भी इन फासिस्टों की धृष्टता देखिये कि वे अंबेडकर को हड़पने का प्रयास कर रहे हैं. लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के रक्षकों को अंबेडकर की रैडिकल विरासत को बुलंद करना होगा और उसे इस फासिस्ट साजिश को धूल चटाने का मजबूत हथियार बना देना होगा. अंबेडकर के अपने शब्दों में कहें तो हम लोगों को हमारे रास्ते में आने वाली बुराइयों को पहचानने में अथवा उन्हें दूर करने की पहलकदमी लेने में बिल्कुल सुस्त नहीं पड़ना चाहिए.