वर्ष - 29
अंक - 1
30-12-2019

साल 2019 खत्म होने जा रहा है, और भारत आज सचमुच एक दोराहे पर खड़ा है जहां एक रास्ता आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के सपने की ओर जाता है, तो दूसरी राह हमें और भी ऊंचे दर्जे के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की तरफ ले जाने वाला है. दूसरी बार पुनः निर्वाचित होने के बाद मोदी साकार ने अभी-नहीं-तो-कभी-नहीं किस्म की उन्मादी उग्रता और हमलों के साथ आरएसएस के दीर्घकालिक एजेंडे के तमाम हथियारों का तेजी से इस्तेमाल शुरू कर दिया है. जहां अर्थतंत्र भारी सुस्ती, उपभोग में सिकुड़न और बढ़ती बेरोजगारी से कराह रहा है और दसियों लाख लोग चरम भूख से पीड़ित हैं, वहीं सरकार अपने साजिशाना राजनीतिक एजेंडे के साथ कदम आगे बढ़ा चुकी है – पहले उसने जम्मू कश्मीर से उसकी संवैधानिक हैसियत और यहां तक कि उसका राज्य का दरजा भी छीन लिया, और फिर वह नागरिकता संशोधन के लिए कानून बनाने के लिए दौड़ पड़ी जो हमारी नागरिकता की शर्तों और हमारे गणतंत्र के चरित्र को ही बदल देगा.

भारत का संविधान ‘प्रस्तावना’ से शुरू होता है, जिसके आरंभ में ही स्पष्ट कहा गया है ‘हम, भारत के लोग’. तमाम शक्तियां जनता में ही निहित हैं और उन्हीं से निःसृत होती हैं, और यह जनता ही भारत की संप्रभुता की आधारशिला है. जनता ही संविधान के मुताबिक सरकारों का चुनाव करती है और इस संविधान को बुलंद रखना सरकारों का परम दायित्व है. जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही ठहराने के इस रिश्ते के ठीक उलट अब हमारे पास ऐसी सरकार है जो जनता पर ही लगातार जवाबदेही लाद रही है. जनता पर ही यह जिम्मेदारी दी गई कि वह अपने पैसे को वैध साबित करे (नोटबंदी), यह साबित करे कि वे आतंकवादी नहीं हैं और किसी गैर-कानूनी गतिविधि मेेें शमिल नहीं हैं (यूएपीए), और अब यह साबित करें कि वे इस देश के वैध नागरिक हैं (सीएए-एनआरसी). और, इस एजेंडा को लादने के लिए भाजपा सरकारें न सिर्फ बड़ी-बड़ी झूठों और नफरत से भरे प्रचारों का सहारा ले रही हैं, बल्कि वे क्रूर दमन और लोकतंत्र के मनमाने निलंबन पर भी उतर आई हैं, जिसमें ‘शासन’ मुकम्मल पुलिस राज का स्वरूप अख्तिायार करता जा रहा है. भारत के सबसे बड़े राज्य में पुलिस अब संगठित, सरकारी हिंसक भीड़ की तरह नजर आ रही है जिसका काम है मुख्य मंत्री के प्रतिशोधात्मक आदेशों का पालन करना.

अगस्त माह में जब मोदी-शाह की जोड़ी ने कश्मीर में तख्तपलट को अंजाम दिया तो भारत में अनेक लोगों ने सोचा कि यह महज कुछ कानूनी समरूपता लाने की कार्रवाई है, ‘एक देश, एक कानून’ व्यवस्था की ओर जाने वाला कोई सीधा-सरल कदम है. बेशक, उस राज्य को दो केंक्त शासित इकाइयों में बांटने की कार्रवाई से कुछ लोगों की भंवें जरूर तनीं और फिर कश्मीरी नेताओं तथा आम लोगों की बड़े पैमाने पर की गई गिरफ्तारी तथा उस घाटी में संचार साधनों व लोकतंत्र के निलंबन पर भी कुछ ऐतराज हुआ. फिर भी अधिकांश आम भारतीयों के लिए कश्मीर दूर की चीज बना रहा. कुछ सप्ताह के बाद जब अंतिम एनआरसी में असम के लगभग बीस लाख लोगों को बाहर निकाल दिया गया और जब राष्ट्रीय मीडिया में असम के डिटेंशन कैंपों में हो रही मौतों की खबरें आने लगीं, तब देश का बाकी हिस्सा हैरान हो उठा कि असम में आखिरकार हो क्या रहा है. लेकिन कई लोगों के लिए यह उत्तर-पूर्व के एक अन्य राज्य का ही मसला बना रहा.

बहरहाल, जब अमित शाह अखिल भारतीय एनआरसी के भाजपाई एजेंडे और 72 घंटों से भी कम समय के अंदर नागरिकता कानून में सांप्रदायिक, मनमाने और अ-संवैधानिक संशोधन की तरफ दौड़ पड़े, तब समूचा देश इस पूरी साजिश के भयानक तात्पर्यों से सजग होने लगा. और जब आए-दिन इंटरनेट की बंदी होने लगी, और खासकर भाजपा-शासित राज्यों व देश की राजधानी दिल्ली समेत पूरे देश में विश्वविद्यालयों व घरों पर बर्बर पुलिस आक्रमण और हिंसक हमले होने लगे, तब शायद कश्मीर और असम के अनुभव दूर की चीज नहीं रह गए.

खासकर उत्तर प्रदेश में, जहां मुख्य मंत्री ने प्रतिवादकारियों से ‘बदला लेने’ की शपथ खाई है, पुलिस ने इंटरनेट बंदी की आड़ में आतंक औैर मुस्लिम समुदायों की लूटपाट की मुहिम शुरू कर दी है. वहां गुजरात 2002 का दुहराव किया जा रहा है. कैथल (हरियाणा) के भाजपा विधायक ने अपनी पार्टी की जन-संहारी मंशा को स्पष्ट करते हुए कहा, “यह नेहरू और मनमोहन सिंह का भारत नहीं है, यह मोदी और शाह का भारत है. सुनो मियां जी, अगर हमें एक इशारा मिल जाए तो हम एक घंटे के अंदर तुम लोगों का सफाया कर देंगे.

लंबे समय से मोदी सरकार और संघ-भाजपा ब्रिगेड हमारे जटिल और विविधतापूर्ण समाज की दरारों को चौड़ा करने और हमारे इतिहास के बदतरीन अध्यायों को दुबारा खोलने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन अंततः हम देख सकते हैं कि हमारा देश इसका मुकाबला कर रहा है और हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन व संविधान के बेहतरीन सपनों और मूल्यों के गिर्द लामबंद हो रहा है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आग भड़काने के लिए हर चीज पर सांप्रदायिक रंग चढ़ाने की आदत रखने वाली भाजपा हमें यह बताने की कोशिश कर रही है कि ‘जेहादी मुस्लिम’ और ‘अरबन नक्सल’ ही एनआरसी और सीएए पर लोगों को बरगला रहे हैं और उन्हें गैर-जरूरी व बे-खबर प्रतिवादों में उतार रहे हैं. लेकिन अब भाजपा के लिए लोगों की आंखों में धूल झोंकना मुश्किल हो रहा है और एनआरसी व सीएए के खिलाफ प्रतिवाद फैलते जा रहे हैं और वे लगातार साहसपूर्ण व संकल्पबद्ध बन रहे हैं. फासीवादी ‘हिंदू राष्ट्रª’ का हौवा अंततः दृढ़ जन प्रतिरोध के सामने आ खड़ा हुआ है.

मोदी सरकार सीएए-एनआरसी के प्रति विरोध को राष्ट्र-विरोधी बताकर और खुल्लमखुल्ला इस्लामभीति को गोलबंद कर इस विरोध का दमन करने का प्रयास कर रही है; और, मोदी कह रहे हैं कि प्रतिवादकारियों को ‘उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है’. शाह और योगी ने अपनी कमान के पुलिस बल को खुली छूट दे रखी है कि वे हर जगह और हर संभव तरीके से चुन-चुन कर अपना निशाना बनाएं. धारा 144 को – जो औपनिवेशिक काल की निषेधाज्ञा है, जिसे कानून व्यवस्था के उल्लंघन की संभावना देखते हुए किसी इलाका विशेष में लोगों को इकट्ठा होने से रोकने के लिए लागू किया जाता था – अब मनमाने तरीके से अनिश्चित काल के लिए समूचे क्षेत्र में लागू किया जा रहा है और आए दिन इंटरनेट को बंद किया जा रहा है. फिर भी इस खुले अत्याचार को धता बताते हुए पूरे भारत में प्रतिवादकारी सड़कों पर उतर रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र व एकजुटता को नया जीवंत अर्थ व भाव प्रदान कर रहे हैं.

जन प्रतिवाद की यह भावना चुनावी क्षेत्र में भी उभरती दिखने लगी है. हरियाणा व महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद अब हमने झारखंड के चुनावों में भी इस मनोभाव के असर को देख लिया है. जहां हरियाणा व महाराष्ट्र के जनादेशों ने भाजपा के चुनावी अपराजेयता के दावों को पलीता लगा दिया, वहीं झारखंड ने भाजपा के चुनावी तंत्र को जोर का झटका दिया है. मोदी, शाह और योगी समेत तमाम लोगों ने अपनी भाषणबाजी के खजाने का हर दांव आजमा लिया; कश्मीर से अयोध्या, और एनआरसी से सीएए तक के सभी तुरुप के पत्ते खोल  दिए; फिर भी वे रघुबर दास सरकार को भारी पराजय से नहीं बचा पाए जो भूख और भय, भ्रष्टाचार व दमन का पर्याय बन गई थी.

जोशीले लोकप्रिय प्रतिवादों और जोरदार चुनावी अस्वीकृति का यह मेल हमारे लिए आगे का रास्ता खोल रहा है. इस व्यापक विरोध से थर्रा कर सरकार अब एनआरसी के मामले में इसे लगभग छोड़ देने की हद तक नरम पड़ने का दिखावा कर रही है और इसके जरिये वह यह दिखाने की आशा कर रही है कि पूरी तरह सांप्रदायिक व अ-संवैधानिक सीएए शरणार्थियों को सबल बनाने का तरीका है. हमें सीएए के असली तात्पर्य का भंडाफोड़ करना होगा और उसे चुनौती देनी होगी, क्योंकि वास्तव में वह हमारे गणतंत्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर हमला है, अपनी धार्मिक पहचान से परे तमाम नागरिकों की समानता के बुनियादी संवैधानिक उसूल के साथ मजाक है, तथा भारत की राष्ट्रीय एकता व सांस्कृतिक विविधता के सबसे बड़े आधार हिंदू-मुस्लिम एकजुटता का निषेध है; और हमें तबतक ऐसा करते रहना होगा जबतक कि यह सरकार अपने विभाजनकारी व अ-संवैधानिक सीएए-एनआरसी पैकेज को वापस नहीं ले लेती है. 2019 का साल जन प्रतिवादों और भाजपा के लिए चुनावी धक्कों की ऊंची गूंज के साथ खत्म हो रहा है; अब 2020 को, 8 जनवरी की अखिल भारतीय हड़ताल और दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा को दुर्बल बनाने वाली एक और शिकस्त के साथ उसी उमंग में शुरू करें.