वर्ष - 29
अंक - 3
11-01-2020
(पिछले अंक से जारी)

सरकार दावा कर रही है कि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का आपस में कोई रिश्ता नहीं है और एनआरसी का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. सच्चाई क्या है?

खुद अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के जुड़े होने की बात बार-बार कही है.

23 अप्रैल 2019 को भाजपा के आधिकारिक यू-ट्यूब चैनल पर चढ़ाए गए वीडियो में अमित शाह ने कहा कि “पहले नागरिकता संशोधन कानून आएगा. सभी शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी. तब एनआरसी आएगा. इसीलिए शरणार्थियों को चिंता करने की जरूरत नहीं है. आप क्रोनोलाॅजी (क्रम) समझिए.”

1 मई 2019 को उन्होंने ट्वीट किया कि “पहले हम नागरिकता संशोधन कानून पास करेंगे और गारंटी करेंगे कि पड़ोसी देशों से आए सभी शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाए. इसके बाद एनआरसी बनाया जाएगा और हर एक घुसपैठिए को खोजकर देश से बाहर किया जाएगा.”

अमित शाह के रायगंज (पश्चिम बंगाल) के भाषण के बारे में भाजपा के आधिकारिक हैंडिल से ट्वीट किया गया कि “हम पूरे देश में एनआरसी लागू करेंगे. हम बौद्ध, हिंदू और सिखों को छोड़कर हर घुसपैठिए को देश से बाहर करेंगे.” ये ट्वीट यह साफ कर देते हैं कि एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून एक दूसरे से जुड़े हैं और इनका मकसद भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाना है. भाजपा ने अब यह ट्वीट हटा दिया है.

दिल्ली में अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि उनकी सरकार का देश भर में एनआरसी का कोई इरादा नहीं है. भारत में कोई डिटेंशन कैम्प नहीं है. यह केवल अर्बन नक्सलियों द्वारा फैलायी गई बात है.

22 दिसम्बर 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी ने नागरिकता संशोधन कानून, देश भर में एनआरसी और इसके खिलाफ चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के बारे में बात की. लेकिन उन्होंने अपने भाषण में जो भी दावा किया वह उनके अपने पुराने बयानों और अमित शाह के बयानों से अलग है. इस भाषण में मोदी ने कहा कि –

“मैं अपने 130 करोड़ देशवासियों को बताना चाहता हूँ कि 2014 में मेरी सरकार आने के बाद से लेकर आज तक एनआरसी शब्द पर भी कोई चर्चा नहीं हुई है. हमें इसे असम में लागू करना पड़ा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा निर्देश था.”

यह सरासर झूठ है. 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने ख़ुद ही कई जगह एनआरसी की बात की और भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी पूरे देश में एनआरसी कराने का वादा किया गया था.

19 अप्रैल 2019 को टाइम्स नाऊ को दिए गए इंटरव्यू में जब मोदी से देश भर में एनआरसी के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था – “कांग्रेस ने असम समझौता किया और एनआरसी का वादा किया था. उन्होंने अपना वादा पूरा नहीं किया. उन्होंने असम के लोगों को मूर्ख बनाया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी के लिए आदेश दिया और हमने ईमानदारी से उस आदेश को लागू किया. एनआरसी का अनुभव बड़ी चिंताजनक तस्वीर पेश करता है. हमें एनआरसी पर चर्चा करनी चाहिए. क्या एक देश धर्मशाला हो सकता है? एनआरसी होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? यह सवाल उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने सत्तर साल के बाद भी एनआरसी नहीं किया. उनके मन में पाप है.”

24 अप्रैल 2019 को पश्चिम बंगाल के रानाघाट में चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून को एक-दूसरे से जोड़ा – “हम एक और बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं. हम नागरिकता कानून पास करने जा रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और कम्यूनिस्टों ने संसद में नागरिकता संशोधन कानून को रोक दिया था. इस बार वे हारेंगे. इस बार जीतने के बाद हम ये कानून लाएंगे. इसके साथ ही एनआरसी के जरिये हम घुसपैठियों की पहचान करेंगे ताकि उन्हें उनकी अपनी असली जगह भेजा जा सके.”

मोदी ने दावा किया कि कांग्रेस और अर्बन नक्सली देश में डिटेंशन कैम्प के बारे में झूठ फैला रहे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि “भारत में कोई डिटेंशन कैम्प नहीं है.”

यह भी सफेद झूठ है.

मोदी-शाह सरकार के गृह मंत्रालय ने ‘आदर्श डिटेंशन सेंटर/होल्डिंग सेंटर/कैम्प मैनुअल’ तैयार किया है. इस मैनुअल को 09 जनवरी 2019 को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजा गया था. 02 जुलाई 2018 को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में बताया कि राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया है कि वे डिटेंशन सेंटर बनाएं.

राय ने एक प्रश्न के जवाब में लिखित रूप से राज्य सभा में स्वीकार किया कि असम के छः डिटेंशन कैम्पों में कुल 988 लोग बंद हैं. इनमें से 28 लोगों की डिटेंशन कैम्प के भीतर ही मौत हो चुकी है.

असम सरकार ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि देश का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर असम के ग्वालपाड़ा में लगभग बन कर तैयार है. इसमें 3,000 लोगों को रखा जा सकता है. इसके अलावा नेरुल (नवी मुम्बई महाराष्ट्र), कर्नाटक में बंगलुरु के पास और पश्चिम बंगाल के न्यू टाउन व बनगांव में डिटेंशन कैम्प बन रहे हैं.

रामलीला मैदान में 25 दिसंबर को झूठ बोलकर मोदी किसे मूर्ख बना रहे थे?

मैंने टीवी पर सुना है कि नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध केवल मुसलमान दंगाई कर रहे हैं. वे हिंसा फैला रहे हैं, बसें जला रहे हैं और पत्थरबाजी कर रहे हैं? सच्चाई क्या है?

झारखंड की चुनावी रैली में मोदी ने कहा कि हिंसा फैलाने वाले प्रदर्शनकारियों को ‘उनके कपड़ों से पहचाना’ जा सकता है. इसका साफ मतलब है कि दाढ़ी और टोपी वाले मुसलमान ही प्रदर्शन कर रहे हैं और हिंसा फैला रहे हैं.

जबकि हकीकत यह है कि भाजपा शासित राज्यों की पुलिस और भाजपा के अपने गुंडे हिंसा फैला रहे हैं. कई बार तो वे मुसलमानों का हुलिया बना कर हिंसा कर रहे हैं ताकि मुसलमानों को बदनाम किया जा सके.

1. पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में पुलिस ने एक गाड़ी के इंजन पर पथराव करते पांच लोगों को गिरफ्तार किया. ये पांचों गोल टोपी और लुंगी पहने हुए थे. इनमें से एक ने ख़ुद को भाजपा का कार्यकर्ता बताया. ('Stone gang in fake skullcap held by Murshidabad police' , Telegraph, 20 December 2019)

2. गोरखपुर में आरएसएस सदस्य विकास जालान और सत्य प्रकाश उस भीड़ में शामिल देखे गए जो दुकानों को तहस-नहस कर रही थी और पुलिस पर पथराव कर रही थी. ('Blood stains Uttar Pradesh streets', Telegraph, 21 December 2019)

3. दिल्ली के मायापुरी में पुलिस लोगों पर पथराव करती देखी जा सकती है. (twitter.com)

4. दिल्ली के दरियागंज में पुलिस वाले एक इमारत की ईंटें तोड़ते हुए कैमरे में कैद हुए. वे ऊपर से पथराव करना चाहते थे ताकि प्रदर्शनकारियों पर इल्जाम लगाया जा सके. (https:èkèkvideo.twimg.com)

लेकिन भारत की जनता ने प्रधानमंत्री द्वारा मुसलमानों को अलगाव में डालने और उन्हें बलि का बकरा बनाने की कोशिशों को नाकाम कर दिया है. भाजपा ‘बांटो और राज करो’ के रास्ते पर चल रही है. देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों और काॅलेजों के विद्यार्थी, जामिया मिलिया इसलामिया व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समर्थन में सड़क पर उतरे. उन्होंने नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध कर रहे विद्यार्थियों के बर्बर पुलिसिया दमन के खिलाफ आवाज उठायी. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के खिलाफ जारी पुलिसिया बर्बरता का पूरे देश में विरोध हो रहा है.

अब तक पुलिस की हिंसा में 24 प्रदर्शनकारियों की जानें गई हैं. बहुत से लोग गम्भीर रूप से घायल हैं.

फासीवाद के खिलाफ दक्षिण एशियायी छात्र संगठन ने ऐसे सबूत जुटाए हैं, जिनसे पता चलता है कि “बड़े पैमाने पर हिंसा पुलिस और संगठित राजनीतिक गिरोहों के द्वारा अंजाम दी गयी है.” हम यहां उनकी लिस्ट में ही कुछ लिंक और जोड़ रहे हैं –

1. ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ नारे के साथ भाजपा नेता कपिल मिश्रा के नेतृत्व में दिल्ली में जुलूस (https:èkèkèkvideo.twimg.com)

2. मंगलुरु में निहत्थे लोगों पर पुलिस फायरिंग और दो लोगों की हत्या (https:èkèkvideo.twimg.com)

बाद में जब लोग उस अस्पताल में इकट्ठा हुए जहां मारे गए लोगों के शव रहे गए थे तो पुलिस ने अस्पताल पर ही हमला बोल दिया. उन्होंने अस्पताल के अंदर आंसू गैस के गोले छोड़े और आईसीयू का दरवाजा तोड़ दिया. अस्पताल के एक डाॅक्टर ने कहा कि “पुलिस ने अस्पताल के भीतर मरीजों के रिश्तेदारों पर लाठी चार्ज किया ताकि मरीजों, डाॅक्टरों और अस्पताल के कर्मचारियों को डराया जा सके.” ('Mangalore police used teargas inside hospital, damaged ICU doors', The Week, 20 December, 2019)

3. एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन को हिंसक प्रदर्शन में तब्दील कर देना (https:èkèkvideo.twimg.com)

4. उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में कार तोड़ती हुई पुलिस (https:èkèkvideo.twimg.com)

5. बिहार के औरंगाबाद में वाहनों को तोड़ती पुलिस (पुलिस द्वारा आजकल यह आम बात है. पहले वे सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, उसके बाद इसका इल्जाम प्रदर्शनकारियों के मत्थे मढ़ देते हैं; लेकिन दुर्भाग्य से प्रदर्शनकारियों के पास भी कैमरे वाले फोन हैं.) (twitter.com)

6. कर्नाटक भाजपा नेता सीटी रवि ने प्रदर्शनकारियों को एक और गोधरा करने की धमकी दी. ('Godhra-like situation if majority lose patience over CAA: Karnataka minister CT Ravi stirs controversy', PTI, 21 December 2019)

7. हरियाणा के कैथल के भाजपा नेता लीलाराम गुर्जर ने अपने भाषण में मुसलमानों का ‘सफाया करने’ की धमकी दी – “जो लोग झूठ पफैला रहे हैं, मैं इन लोगों को बताना चाहता हूं कि मियां जी, ये जो आज का हिंदुस्तान है, वो गांधी और नेहरू का नहीं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह जी का हिंदुस्तान है. अगर इशारा हो गया तो एक घंटे में सपफाया कर देंगे और आप की गलतफहमी दूर हो जाएगी.” (On citizenship law protesters, BJP MLA says can finish them off in one hour', Hindustan Times, 24 December 2019)

8. द हिंदू के एक पत्रकार को उत्तर प्रदेश में सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया कि वह कश्मीरी था. ('A first-person account by 'The Hindu' correspondent Omar Rashid of how he was picked up, threatened and released by cops', 20 December, 2019)

9. महिला अध्यापक, अभिनेत्री और कार्यकर्ता सदफ जफर को गिरफ्तार करके बुरी तरह पीटा गया. (Indian Express, 23 December 2019)

10. पुलिस प्रदर्शनकारियों के सर पर डंडे मार रही है (जबकि आमतौर पर कमर के नीचे मारा जाता है) (twitter.com)

11. गोरखपुर (अजय सिंह बिष्ट की सीट) में निहत्थे प्रदर्शनकारियों को पीटती हुई पुलिस (twitter.com)

12. दिल्ली के दरियागंज में लोगों को पीटती और वाहन तोड़ती पुलिस का वीडियो (video.twimg.com)

13. मुसलमान जैसे दिखने वाले किसी को भी उठा लेने वाली दिल्ली पुलिस प्रधानमंत्री की बात दोहरा रही है कि ‘हमें पता है कि वे कैसे दिखते हैं’ (twitter.com)

14. जामिया कैंपस के भीतर गैर-कानूनी ढंग से छात्रों पर गोली चलाती पुलिस (NDTV, 18 December, 2019)

15. जामिया की लाइब्रेरी से घसीट कर दिल्ली पुलिस द्वारा अंधा कर दिए गए जामिया के छात्रा मोहम्मद मिनहाजुद्दीन, अपने साथ हुई घटना बताते हुए (indiatoday.in)

16. पुलिस द्वारा चलाए गए ग्रेनेड के चलते अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थी का हाथ काटना पड़ा (The Hindu, 24 December 2019)

17. विद्यार्थियों पर पुलिस बर्बरता की तस्वीरें (twitter.com)

18. पुलिस द्वारा बच्चों को पकड़ने और उन्हें बेल्ट से पीटने की तस्वीरें (twitter.com)
19. उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा पीटे जा रहे बच्चे (twitter.com)

20. उत्तर प्रदेश में पुलिस की हिंसा के चलते मची भगदड़ में मारा गया आठ साल का बच्चा (twitter.com)

21. उत्तर प्रदेश में पुलिस फायरिंग में अब तक 18 लोग मारे गए हैं. पुलिस का दावा है कि प्रदर्शनकारियों ने पहले फायरिंग की, मजबूरन पुलिस को भी आत्मरक्षा में फायरिंग करनी पड़ी. लेकिन सबूत बताते हैं कि पुलिस के दावे झूठे हैं (NDTV, 22 December)

भाजपा शासित राज्यों में प्रदर्शनकारियों को पुलिस की भयानक बर्बरता का सामना करना पड़ रहा है. लगता है जैसे पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया गया है, चाहे मुसलमान प्रदर्शन में शामिल हों या नहीं. वहीं दूसरी तरफ गैर-भाजपा शासित राज्यों में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें लाखों लोग शामिल हुए. इससे साफ है कि भाजपा की सरकारें और उनकी पुलिस हिंसा फैलाने वालों में शामिल हैं, न कि प्रदर्शनकारी हिंसा फैला रहे हैं.

शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के कुछ सबूत नीचे दिए गए हैं –

1. नागपुर, महाराष्ट्र (twitter.com)
2. पुणे, महाराष्ट्र (twitter.com)
3. मुम्बई, महाराष्ट्र (twitter.com)
4. वनियमबाड़ी, तमिलनाडु (twitter.com)
5. कोयम्बटूर, तमिलनाडु (twitter.com)
6. हैदराबाद, तेलंगाना (twitter.com)
7. धारावी, मुम्बई (twitter.com)
8. असम में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन करती हजारों महिलाएं (twitter.com)

अगर प्रदर्शनकारी हिंसक भी हों तो क्या पुलिस की हिंसा जायज है?

कुछ लोग प्रदर्शनकारियों की हिंसा दिखा कर पुलिस की हिंसा को जायज ठहराना चाहते हैं. वे कहते हैं कि ‘प्रदर्शनकारियों ने पत्थरबाजी की तो हमने भी पत्थरबाजी की या गोली भी चलायी’, ‘प्रदर्शनकारियों ने पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए इसलिए हमने उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहा’.

पत्रकार श्रीनिवासन जैन ने कहा कि ‘कानून न मानने वाली भीड़ और कानून न मानने वाले पुलिस के जवानों की तुलना करना न केवल साधारण समझदारी के खिलाफ है, बल्कि पुलिस के अपने नियमों के भी खिलाफ है.’ पुलिस संविधान और नियमों से बंधी होती है. वे ‘बदला’ नहीं ले सकते और उन्हें हरगिज नहीं लेना चाहिए. यही पुलिस संघ परिवार के संगठनों द्वारा की जाने वाली हिंसा के खिलाफ न तो बदले की कार्यवाही करती है और न गोली चलाती है. हमें याद रखना चाहिए कि 2018 में उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार की तथाकथित ‘गौ-रक्षकों’ और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हत्या कर दी थी. उसी भीड़ ने पुलिस की गाड़ियों में आग भी लगायी थी. लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने गौ-रक्षकों और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं पर तो गोली नहीं चलाई और न ही कोई हिंदू मारा गया. उन्होंने पूरे हिंदू समुदाय को नुकसान की ‘भरपाई’ करने के लिए भी मजबूर नहीं किया. उन्होंने आरोपित को ‘मुठभेड़’ में नहीं मारा. तो फिर मुसलमान या लोकतंत्र-समर्थक प्रदर्शनकारियों के साथ ये सब करने का अधिकार वे कहां से पाते हैं?

पुलिस ने मेरठ और मुजफ्फरनगर में जो कुछ किया, वह उनके अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता. मेरठ के एसपी अखिलेश नारायण सिंह मुसलमानों को ‘पाकिस्तान जाओ’ कहते हुए वीडियो में कैद हुए. मुजफ्फरनगर में पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों ने उन मुसलमानों के घर तबाह कर दिए और उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहा जो प्रदर्शनों में शामिल भी नहीं थे. पुलिस के ये कारनामे मनुष्यता के खिलाफ अपराध हैं और भारत के संविधान के विरुद्ध हैं. इन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए.

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के लिए फंड स्वीकृत किया है. अमित शाह का कहना है कि एनपीआर और एनआरसी एक दूसरे से नहीं जुड़े हैं. क्या यह सच है?

अमित शाह और मोदी झूठ बोल रहे हैं कि एनआरसी अभी शुरू नहीं हुआ है और एनपीआर का एनआरसी से कोई रिश्ता नहीं है. जबकि सच्चाई यह है कि अमित शाह के गृह मंत्रालय ने कई बार स्पष्ट किया है कि एनपीआर, एनआरसी की दिशा में उठाया गया पहला कदम है.

18 जून 2014 को मोदी सरकार के प्रेस इंफाॅरमेशन ब्यूरो के आधिकारिक ट्विटर से उस समय के गृह मंत्री के बयान के बारे में बताया कि ‘श्री राजनाथ सिंह ने एनपीआर को उसके तार्किक अंजाम – भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआइसी) के निर्माण – तक पहुंचाने का निर्देश दिया है’.

26 नवम्बर 2014 के गृह मंत्रालय के प्रेस वक्तव्य में साफ कहा गया कि “"फ्एनपीआर भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम है. इसमें हर भारतीय नागरिक की जांच की जाएगी.य्"”

21 अप्रैल 2015 को गृह राज्य मंत्री हरिभाई परातीभाई चौधरी ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि “यह तय किया गया है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनसीआर) को पूरा करके उसे उसके अंजाम तक पहुंचाया जाए. यह भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर का निर्माण है.”

साल 2018-19 की गृह मंत्रालय की वार्षिक रपट में पृष्ठ संख्या 262 पर कहा गया है कि “एनपीआर भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम है.”

जैसा कि हम पहले देख चुके हैं कि वाजपेयी सरकार 2003 में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का प्रावधान लाई जिसके आधार पर कुछ नागरिकों को ‘संदिग्ध’ घोषित किया जा सकता है, और उन्हें राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में अपना नाम शामिल कराने के लिए कागजात दिखा कर अपनी नागरिकता साबित करनी होगी. ऐसा न कर पाने की स्थिति में उन्हें ‘गैर-कानूनी प्रवासी’ घोषित किया जा सकता है. वर्ष 2003 के संशोधन में माता-पिता में किसी एक के ‘गैरकानूनी प्रवासी’ होने के बाद नागरिकता छीन लेने का प्रावधान भी है. यानी कि वाजपेयी सरकार द्वारा 2003 में लाये जाने के समय से ही एनपीआर और एनआरसी आपस में जुड़े हुए हैं.

अब सरकार झूठ क्यों बोल रही है? अब सरकार के एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून के साम्प्रदायिक मंसूबों का भंडाफोड़ हो चुका है. हिंदू-मुसलमान और अन्य सभी एनआरसी द्वारा उनकी नागरिकता पर सवाल खड़े किए जाने से डरे हुए हैं. इसलिए मोदी-शाह सरकार एनआरसी को पीछे छुपाकर नागरिकता संशोधन कानून का बचाव करना चाहती है. साथ ही साथ, वे एनपीआर शुरू करके एनआरसी बाद में करने की योजना बना रहे हैं.

पत्रकार शिवम विज ने कहा कि “मोदी और शाह नागरिकता संशोधन कानून, एनपीआर, एनआरसी/एनआरआइसी के बारे में लगातार झूठ बोल रहे हैं ताकि इनके बारे में उठी आपत्तियों और आशंकाओं को दबाया जा सके. लेकिन इनकी योजना चालू है. ये उसी तरह है जैसे डाॅक्टर बच्चे को फुसलाता है कि इंजेक्शन से दर्द नहीं होगा.”

लेकिन एनपीआर तो पहले की सरकारों द्वारा भी किया गया है. इस बार यह अलग कैसे है?

वाजपेयी सरकार द्वारा पारित 2003 के कानून के हिसाब से यूपीए सरकार ने एनपीआर बनवाई थी. यह उसकी गलती थी. लेकिन उसके बाद उसने न तो एनआरसी बनवाया, और न ही साम्प्रदायिक मंसूबों से भरा कोई नागरिकता संशोधन कानून पास कराया.

इस बार एनपीआर के फाॅर्म में एक काॅलम अलग से जोड़ा गया है जिसमें माता-पिता के जन्म की तारीख और जगह भरनी होगी. इससे साफ है कि एनपीआर के जरिये ‘संदिग्ध नागरिकों’ की पहचान की जाएगी और एनआरसी के दौरान उनसे दस्तावेज मांगे जाएंगे. हम पहले बात कर चुके हैं कि सरकार द्वारा जारी किया गया ‘स्पष्टीकरण’ माता-पिता के जन्म सम्बंधी दस्तावेज मांगने के बारे में झूठ बोल रहा है. यदि माता-पिता का जन्म-स्थान और जन्मतिथि जरूरी नहीं है तो फिर एनपीआर के जरिये यह डेटा क्यों इकट्ठा किया जा रहा है?

यूपीए की सरकार ने संविधान-विरोधी एनपीआर को लागू करने की गलती की, लेकिन इसका मतलब यह तो बिल्कुल नहीं हो सकता कि मोदी-शाह सरकार भी उस गलती को जरूर करे. उस समय यूपीए सरकार ने एनआरसी या सीएए के बारे में कोई चर्चा नहीं की, इसीलिए हम भारत के लोगों को एनपीआर के खतरों का अहसास नहीं हो पाया. आज केवल कांग्रेस या यूपीए नहीं, बल्कि हम भारत के लोग वर्तमान सरकार की सीएए-एनपीआर-एनआरसी योजना का विरोध कर रहे हैं. क्योंकि हम अब जान चुके हैं कि यह योजना हमारे खिलाफ एक खतरनाक साजिश है, और हम किसी भी सरकार को इसे लागू नहीं करने देंगे.

किस आधार पर मुझे ‘संदिग्ध नागरिक’ घोषित किया जा सकता है?

इसकी प्रक्रिया मनमानी है. किसी को ‘संदिग्ध नागरिक’ घोषित करने के बारे में दिशा-निर्देश स्पष्ट नहीं हैं.

इसका मतलब हुआ कि इसमें भ्रष्टाचार की बड़ी गुंजाइश है. कोई स्थानीय अधिकारी आपको ‘संदिग्ध’ घोषित कर सकता है और ‘संदिग्ध’ न घोषित करने के लिए घूस मांग सकता है. हम पहले ही देख चुके हैं कि उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर में न मारने के लिए पुलिस वाले पैसा मांग रहे हैं., ऐसे ही भ्रष्ट पुलिस अधिकारी या अन्य अधिकारी आपको ‘संदिग्ध’ घोषित करने की धमकी देकर घूस की मांग कर सकते हैं. यदि आपके पड़ोसी, आपकी जाति, जेंडर, लैंगिकता और राजनीतिक विचारधारा के चलते आपको पसंद नहीं करते तो वे आपको ‘संदिग्ध’ बताते हुए रिपोर्ट कर सकते हैं. कोई साम्प्रदायिक संगठन किसी पूरे धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय को ‘संदिग्ध’ कहकर रिपोर्ट कर सकता है.

याद रखिए, एनआरसी लिस्ट में नाम आने के बाद भी आप पर ‘संदिग्ध’ होने का आरोप लग सकता है. असम में ऐसा ही हुआ. नियमों के मुताबिक स्थानीय नागरिकता रजिस्टर में किसी भी व्यक्ति को शामिल किए जाने के खिलाफ कोई भी व्यक्ति आपत्ति दर्ज कर सकता है. इस नियम का दुरुपयोग किए जाने की भारी सम्भावना है. खासकर तब, जबकि भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा अशिक्षित, गरीब और कमजोर है.

एनपीआर का डेटा कितना सुरक्षित रहेगा?

एनपीआर 2020 के फाॅर्म में आपको अपने सभी पहचान पत्रों, जैसे कि आधार, पैन, वोटर कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि का नम्बर देना होगा. आपको अपना मोबाइल नम्बर भी देना होगा. आपके दरवाजे पर आए हुए सरकारी कर्मचारी को एक बार जब आप ये सारी सूचनाएं दे देंगे और वह उन्हें एक फाॅर्म में नोट कर लेगा, उसके बाद इन महत्वपूर्ण सूचनाओं की गोपनीयता की सुरक्षा का कोई उपाय आपके हाथ में नहीं होगा. हम पहले भी देख चुके हैं कि कई बार आधार का डेटा लीक हो गया. भले ही ये दावा किया जाता रहे कि आधार डेटा की सुरक्षा-दीवार को भेदना असंभव है.

एनपीआर में तो इन सूचनाओं की सुरक्षा के लिए किसी ‘पासवर्ड’ का दिखावा भी नहीं किया गया है. आपको ये सभी सूचनाएं घर आए कर्मचारी को देनी होंगी. आपको नहीं पता कि ये सारी सूचनाएं किस मकसद से और कौन इस्तेमाल करेगा. किसी व्यक्ति या समूह के बारे में सारी सूचनाएं फोटोकाॅपी करके ऐसे लोगों को भी दी जा सकती हैं जो इनका इस्तेमाल अपने मुनाफे के लिए करें. सम्भव है कि आप की निजी और महत्वपूर्ण जानकारी मोहल्ले की किसी दुकान पर फोटोकाॅपी के लिए मौजूद हो. सत्ता में बैठी पार्टी की पहुंच इन सारी सूचनाओं तक होगी. यह भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए बड़ा खतरा है. हमें अपनी निजी सूचनाएं किसी सरकारी कर्मचारी को देने के लिए मजबूर क्यों होना चाहिए?

सरकार का यह बहाना कि ये सभी सूचनाएं देना अनिवार्य नहीं है, सच्चाई से परे है:

1. इन सूचनाओं के लिए बने काॅलम में लिखा है कि ‘यदि मौजूद है’. वहां यह नहीं लिखा है कि यह वैकल्पिक है. इसका क्या मतलब है? क्या कोई व्यक्ति सच्चाई से कह सकता है कि उसके पास ड्राइविंग लाइसेंस या पैन कार्ड या वोटर कार्ड है, लेकिन इनके नम्बर मौजूद नहीं हैं? ऐसा करने पर उसपर झूठ बोलने का मुकदमा चलाया जा सकेगा!

2. दूसरे, आम नागरिकों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अनिवार्य और ऐच्छिक सूचना के बारे में बारीक अंतर समझ सकें. वे आमतौर पर सभी पर भरोसा करते हैं और जब कोई सरकारी कर्मचारी उनके पास आएगा तो वे ईमानदारी से अपनी सारी सूचनाएं उसे दे देंगे. वे इन महत्वपूर्ण सूचनाओं के इस्तेमाल की खतरनाक सम्भावनाओं के बारे में नहीं समझ सकेंगे. सरकार हमारे नागरिकों के इसी भरोसे पर दांव लगा रही है और ‘यदि मौजूद है’ जैसा काॅलम जोड़ रही है.

3. तीसरे, हमें कैसे यकीन हो कि इस सर्वेक्षण में लगे हुए सरकारी कर्मचारी ऐसी सूचनाएं देने से इंकार करने वालों के खिलाफ टिप्पणियां नहीं करेंगे? हम जानते हैं कि एनपीआर के मैनुअल में उन लोगों से पूछताछ का प्रावधान किया गया है जिनके फाॅर्म अधूरे पाए जाएंगे या जिनके खिलाफ टिप्पणियां की गई होंगी. इस तरह लोगों को और भी परेशान किया जाएगा और उन्हें ‘संदिग्ध नागरिक’ की श्रेणी में डाल दिया जाएगा. सच है कि परेशान करने का डर दिखा कर सरकारी कर्मचारी कोई भी सूचना निकाल लेंगे.

यदि मुझे ‘संदिग्ध’ घोषित कर दिया गया तो क्या होगा?

जिलाधिकारी ‘संदिग्ध’ नागरिकों को विदेशी पहचान ट्रिब्यूनल के पास भेज देगा. इन ट्रिब्यूनलों के मुखिया ऐसे लोग होते हैं जिनके पास कोई न्यायिक अनुभव नहीं होता. असम में विदेशी पहचान ट्रिब्यूनल आपस में प्रतियोगिता कर रहे थे कि कौन ‘ज्यादा विकेट गिराता है’, यानी कौन ज्यादा लोगों को विदेशी घोषित करता है?

एक बार आपको ‘संदिग्ध’ या ‘विदेशी’ घोषित कर दिया गया तो आपको जेलों से भी बदतर डिटेंशन कैम्पों में भेजा जा सकता है.

वकीलों की एक रिसर्च टीम ने लिखा, “मौजूदा कानून के अनुसार नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी हर व्यक्ति की होगी. इसलिए एनआरसी अधिकारियों द्वारा अपनी ताकत के गलत इस्तेमाल के परिणाम बहुत ही भयावह होंगे जिसमें किसी भी व्यक्ति को अवैध घोषित कर दिए जाने का खतरा होगा. जो भी भारतीय सत्ता, कागजात बनवाने और सामाजिक हैसियत में जितना कम होगा, उसके प्रभावित होने की संभावना उतनी ही अधिक है.”

अखबारों में ऐसी बहुत सी परस्पर विरोधी खबरें हैं कि लोगों को बैंक खातों के केवाइसी दस्तावेज में अपना धर्म बताना होगा. सरकार ने इससे इंकार किया है. सच्चाई क्या है?

टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपी कि “नागरिकता संशोधन कानून की तरह ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 2018 में जारी फाॅरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट रेगुलेशंस केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए लम्बी अवधि के वीजाधारक अल्पसंख्यक समुदायों यानी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई तक सीमित हैं. ये लम्बी अवधि के वीजाधारक भारत में बैंक खाते खोल सकते हैं और रिहायशी सम्पत्ति खरीद सकते हैं. इस कानून में नास्तिकों, मुसलमान प्रवासियों और म्यांमार, श्रीलंका व तिब्बत से आए लोगों को शामिल नहीं किया गया है.”

सरकार ने इससे इंकार करते हुए तत्काल स्पष्टीकरण जारी किया कि “किसी भी भारतीय नागरिक को बैंक में खाता खोलने के लिए अपना धर्म बताने की जरूरत नहीं है.”

ये सरकार हमें आधा सच बोलकर उसी तरह मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है जैसे महाभारत में युधिष्ठिर ने ‘अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा’ कहा था.

‘नागरिक’ कौन है? एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून लोगों से नागरिकता छीनने की कोशिशें हैं. जिनकी नागरिकता छीनी जाएगी, उनमें से जो गैर-मुसलमान होंगे, वे नागरिकता संशोधन कानून के जरिये नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे. जब तक उन्हें फिर से नागरिकता हासिल नहीं होती, तब तक पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए हुए केवल गैर-मुसलमान शरणार्थी ही लम्बी अवधि का वीजा हासिल कर पाएंगे और इसके जरिये ही उन्हें बैंक खाता खोलने जैसे तमाम अधिकार मिलेंगे.

हम पहले चर्चा कर आए हैं कि 29 दिसम्बर 2011 की अधिसूचना के जरिये यूपीए सरकार ने शरणार्थियों को लम्बी अवधि के वीजा के लिए आवेदन करने का स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसीजर जारी किया था. जिन्हें लम्बी अवधि का वीजा मिल जाएगा, वे बैंकों में खाते खोल सकेंगे; पैन कार्ड, आधार कार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकेंगे और यहां तक कि घर खरीद सकेंगे. मोदी-शाह सरकार ने 2015 में पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए गैर-मुसलमान शरणार्थियों के लिए लम्बी अवधि के वीजा की नई कोटि शुरू की. इसीलिए केवाइसी में धर्म का काॅलम शुरू किया गया.

यदि मैं भारतीय हूं तो सरकार के सामने अपनी नागरिकता साबित करने से क्यों घबराऊं? सरकार को यह हक है कि वह हमसे कभी भी दस्तावेज मांग सकती है.

लोकतंत्र का मतलब है कि हम भारत के लोग सरकार को चुनते हैं, सरकार का काम जनता को चुनना नहीं है. हमारी नागरिकता दस्तावेजों के आधार पर नहीं, बल्कि इससे तय होती है कि भारत के संविधान को हम पूर्णता में ग्रहण करके उस पर पूरी तरह अमल करते हैं या नहीं.

सरकार और संसद हमारे वोटों से चुनी गई हैं. यदि सांसदों और सरकार को चुनने वाले मतदाताओं की नागरिकता ‘संदिग्ध’ है, तब तो सरकार और संसद भी संदिग्ध हो गये, ऐसे में सरकार और सांसदों को पहले इस्तीफा दे देना चाहिए! हमने जिस सरकार और जिन सांसदों को चुना है उन्हें कागजातों के आधार पर हमारी नागरिकता और अपने देश से हमारे रिश्ते पर सवाल खड़ा करने का कोई अधिकार नहीं है.

भारत का संविधान ‘हम भारत के लोग’ से शुरू होता है. सभी शक्तियां भारत के लोगों में निहित हैं और वे ही भारतीय संप्रभुता की बुनियाद हैं. लोग संविधान के अनुरूप सरकार का चुनाव करते हैं और सरकार संविधान की रक्षा करने के लिए बाध्य है.

मौजूदा सरकार इस सम्बंध को पूरी तरह उलट देने पर आमादा है. जनता सरकार को जवाबदेह ठहराए, इसकी जगह अब सरकार लगातार जनता से जवाबदेही की मांग कर रही है. नोटबंदी के दौरान जनता पर जवाबदेही डाल दी गयी कि वह साबित करे कि उसका पैसा कानूनी तरीके से कमाया गया है. ‘यूएपीए’ के तहत नागरिकों पर यह जिम्मेदारी डाली गयी कि वे साबित करें कि वे आतंकवादी नहीं हैं या किसी गैर-कानूनी गतिविधि में लिप्त नहीं हैं. अब नागरिकता कानून और एनआरसी के जरिये हमें ही साबित करना है कि हम भारत के वैध नागरिक हैं.

एडवोकेट गौतम भाटिया ने इसे समझाते हुए कहा कि “एक अपराध की घटना को हल करने के लिए आप यह नहीं करते कि इलाके के हर व्यक्ति को थाने में ले आएं और उनसे साबित करने के लिए कहें कि उन्होंने ये अपराध नहीं किया है. कुछ बिना दस्तावेज के प्रवासियों को खोजने के लिए आप 130 करोड़ भारतीयों को स्थानीय सरकारी कर्मचारियों के सामने पेश नहीं कर सकते और उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते.”

भारत के नागरिक के बतौर हमें यह अधिकार है कि हम सरकार से दस्तावेजों और सूचनाओं की मांग करें और सरकार उन्हें हमें दे. लेकिन मोदी सरकार ने हमेशा इससे इंकार किया है.

मोदी की डिग्री?
सरकार: कागज नहीं दिखाएंगे.
चुनावी बौन्ड से मिले पैसे की जानकारी?
सरकार: कागज नहीं दिखाएंगे.
जीडीपी?
सरकार: कागज नहीं दिखाएंगे.
रफाएल सौदे के कागज?
सरकार: कागज नहीं दिखाएंगे.
बेरोजगारी का आंकड़ा?
सरकार: कागज नहीं दिखाएंगे.
तब सरकार की इतनी हिम्मत कैसे हो रही है कि वह हमें परेशान करे और अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर करे?

एनआरआइसी पर कितना खर्चा होगा?

असम में एनआरसी करने में 10 साल का समय और 52 हजार कर्मचारी लगे. इसमें कुल खर्च आया – 1,600 करोड़ रुपए. निर्दाेष और गरीब लोगों को हुई परेशानी और तकलीफों का तो कोई हिसाब ही नहीं है. पूरे देश में होने वाले एनआरसी पर कम-से-कम 50 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे. साथ ही, पूरे देश के लोगों को अगले दस साल तक अपनी नागरिकता साबित करने की गैर-जरूरी और क्रूर कवायद के लिए दस्तावेज जुटाने में बिताने होंगे.

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर पैसा क्यों बर्बाद किया जाए? इसकी जगह सरकार बेरोजगार लोगों का आंकड़ा क्यों नहीं जुटाती? सरकार बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता या नौकरियां देने की बात क्यों नहीं करती?

साफ है, मोदी सरकार ने नागरिकता को खतरे में डालने और मुसलमानों के साथ भेदभाव करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इसे रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

डाॅक्टर अम्बेडकर द्वारा बनाया गया भारत का संविधान मुसलमान-हिंदू-सिख-ईसाई-जैन-बौद्ध-यहूदी, सब को बराबर मानता है. आरएसएस को हमेशा ही इस संविधान से नफरत रही है. भाजपा हमारे मन में जहर घोलना चाहती है और भारत को हिंदू-मुसलमान में बांटना चाहती है. ऐसा बंटवारा देश को कमजोर कर देगा जिससे सब को नुकसान पहुंचेगा. पड़ोसी के घर में आग लगाने से अपना घर भी जलेगा. हमें एकजुट होना होगा, और अपना देश बचाना होगा.

नोटबंदी ने नौकरियां खा लीं और अर्थव्यवस्था को गर्त में धकेल दिया. हमें सरकार को नयी तबाही लाने से रोकना होगा. इस नई तबाही से हमारे संविधान को खतरा है और देश के बंटने की आशंका है.

आज मुसलमान-हिंदू-सिख-ईसाई, हर भारतीय, हर भाषा और धर्म को मानने वाला विरोध प्रदर्शनों में मौजूद है. वे भारत के लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए एकजुट हैं.

क्या मोदी हिटलर के नागरिकता कानून की नकल कर रहे हैं?

हिटलर की नाजी पार्टी ने सत्ता में आने के दो साल बाद ही जर्मनी की नागरिकता को तय करने के लिए नए कानून बनाए थे. न्यूरेमबर्ग कानूनों की शुरूआत यहूदियों और गैर-यहूदियों को अलग-अलग करने से हुई थी. बाद में इसमें बहुत सारी और धाराएं जोड़कर उन सबको शामिल कर लिया गया जिन्हें सरकार ‘अवांछनीय’ समझती थी. इससे सिर्फ यहूदियों के ही जनसंहार का रास्ता साफ नहीं हुआ बल्कि मूलनिवासियों, समलैंगिकों, विकलांगों, नाजी सरकार के आलोचकों, कम्यूनिस्टों और जो भी जर्मन सरकार की आंखों में देश के दुश्मन थे, उन सब के जनसंहार का रास्ता साफ हुआ. अखबारों और रेडियो के जरिये नाजी प्रचार ने पहले ही वह पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी जिसके चलते घेट्टो और यातना-शिविर बनाए गए.

हमें याद रखना चाहिए कि आरएसएस हमेशा ही भारत के संविधान से नफरत करता रहा है और हिटलर की विभाजनकारी नीतियों का मुरीद रहा है. गोलवलकर ने जर्मनी में यहूदियों के जनसंहार ‘जिसके कारण आज जर्मनी और पूरी दुनियां का सर शर्म से झुक जाता है’ को ‘जर्मन नस्ल का गौरव’ और ‘हिंदुस्थान के लोगों को उससे शिक्षा ग्रहण करने और लाभ उठाने लायक’ कहा था. उसने यह भी कहा था कि मुस्लिम, ईसाई, सिख एवं अन्य अल्पसंख्यकों को “या तो हिंदू संस्कृति और भाषा स्वीकार करनी होगी, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखना होगा, उन्हें हिंदू नस्ल और संस्कृति का यशोगान करने के अलावा कोई और विचार नहीं लाना होगा, उन्हें इस हिंदू राष्ट्र में अपनी अलग पहचान छोड़नी होगी और हिंदू नस्ल में घुल जाना होगा, या फिर उन्हें हिंदू राष्ट्र में दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रहना होगा, जहां उन्हें न तो नागरिकता के अधिकार होंगे, न ही किसी अन्य तरह की सहूलियत प्राप्त होगी.”

आज मोदी-शाह सरकार गोलवलकर के विभाजनकारी विचारों को साकार करना चाहती है. इस प्रक्रिया में वे उस दुःस्वप्न को भी साकार रूप दे रहे हैं जिसकी चेतावनी अम्बेडकर ने 1940 में दी थी:

“यदि हिंदू राज हकीकत बन गया तो यह देश के लिए भारी तबाही लाएगा.”

आज यह तबाही हकीकत बनाने वाली है. याद रखना चाहिए कि हिंदू राज केवल मुसलमानों के लिए तबाही नहीं लाएगा, यह दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, गरीब मजदूरों, किसानों, सबके लिए तबाही लाएगा. यह तानाशाही होगी.

हमारे पास अब भी इस तानाशाही को, हिटलरशाही को, हकीकत बनने से रोकने का मौका है. हम अश्फाकउल्ला खान और रामप्रसाद बिस्मिल की साझी शहादत की विरासत को बुलंद करते हुए अपनी साझी नागरिकता की रक्षा कर सकते हैं.

इस तबाही को रोकने और देश व संविधान को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

तथ्य जानिए, तैयार रहिए, अपने दोस्तों और परिवार के लोगों को शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में शामिल कराइए.

हर सड़क, गली, गांव, मोहल्ले, चौराहे, नगर, शहर में लोगों को संगठित करिए कि:

1. नागरिकता संशोधन कानून को खत्म करने की मांग करें.

2. अपनी राज्य सरकार से मांग करें कि वह एनपीआर की प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगाए और एनआरसी लागू करने से इंकार कर दे. अपने स्थानीय विधायक से सम्पर्क करिए और गारंटी करिए कि राज्य विधानसभा इस सिलसिले में प्रस्ताव पारित करे. याद रखिए, एनआरसी के खिलाफ बयान देना काफी नहीं है. राज्य सरकारों को एनपीआर की चल रही प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगानी होगी.

3. मांग करिए कि केंद्र व राज्य सरकारें बन रहे डिटेंशन कैम्पों का काम तुरंत रोक दें.

4. ‘दरवाजा बंद’ अभियान चलाइए. यह एक सामूहिक सत्याग्रह है. जब कर्मचारी एनपीआर के लिए सूचना इकट्ठी करने आएं तो अपने घर का दरवाजा बंद कर लें. याद रखिए कि वे आपको नौकरी, घर या कोई सुविधा देने के लिए जानकारी इकट्ठी नहीं कर रहे हैं बल्कि वे आपकी नागरिकता छीनने और देश को धर्म के आधार पर बांटने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं. आजादी की लड़ाई के दौरान जैसे स्वतंत्राता सेनानियों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया था, उसी तरह आज हम भारतवासियों को अपना देश और संविधान बचाने के लिए सत्याग्रह करना होगा. एनपीआर के लिए अपना दरवाजा बंद करके हम फासीवाद और तानाशाही के लिए दरवाजा बंद कर रहे हैं.

5. अगर आप मुसलमान नहीं हैं, तो साम्प्रदायिक गुंडों और पुलिस की हिंसा झेल रहे अपने पड़ोसी मुसलमान भाइयों की मदद कीजिए. सार्वजनिक जगहों पर मुसलमान पड़ोसियों के साथ जाइए. हिंसा और उत्पीड़न का सामना करने की हालत में आपात्कालीन सम्पर्क के लिए उन्हें अपना फोन नम्बर दीजिए. घृणा फैलाने की हर घटना के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से अपनी आवाज उठाइए. चुप मत बैठिए. हिंसक मत होइए. प्यार और सच्चाई के पक्ष में खड़े होइए.            

(समाप्त)