वर्ष - 29
अंक - 1
30-12-2019

अब कहता है कि पूरा मकान उसका है

न घर बनाने में था न घर बसाने में था
अब कहता है कि पूरा मकान उसका है
न जंग लड़ी न एक कतरा ख़ून बहाया
आज कहता है सारा हिन्दुस्तान उसका है
गुलो-बुलबुल की अस्मत से खेलने वाला
कमबख्त कहता है गुलिस्तान उसका है
सारे टीवी अखबार खुशामद में लगे हैं
नीचे से ऊपर तक खानदान उसका है
हम अपने ही भाई को दुश्मन मान लें
कितना बेबुनियाद फरमान उसका है
बरगद से जड़ों का सबूत मांगा गया है
जहालत से भरा यह बयान उसका है
बाहरी घर में रहें मकानदार बाहर जाएं
कैसा खतरनाक यह ऐलान उसका है
हमारी दुनिया मुहब्बत पर टिकी है
नफरतों से भरा आदिम जहान उसका है।
                            –  राजनाथ

 

 

 

 

नक्सल के दो आगे नक्सल

नक्सल के दो आगे नक्सल
नक्सल के दो पीछे नक्सल
आज अमन की बात करे जो, पीएम को वो दीखै नक्सल
मस्जिद की दीवारें नक्सल, मंदिर के ओम्कारे नक्सल
संघी ख्वाबों की दुनिया में, सारे चांद-सितारे नक्सल
पेंटर नक्सल, ऐक्टर नक्सल
ना मानें वो सारे नक्सल
क्लासें और किताबें सारी, हमको कर देती हैं नक्सल
व्हाट्सऐप का ज्ञान पसारें, ऐसे इंसां सारे नक्सल
हिन्दू-मुस्लिम जो न लड़ाएं, ऐसी सभी इबारतें नक्सल
साथ-साथ जो खेले खाए, बचपन की शरारतें नक्सल
गंगा के किनारे नक्सल, बारिश की फुहारें नक्सल
नफरत के मौसम में देखो, हुए सभी चौबारे नक्सल
जिनसे ब्रिटिश हुकूमत कांपी, साथ लड़े मतवाले नक्सल
माफी मांगी विक्टोरिया से, उनको छोड़ के सारे नक्सल
अर्बन नक्सल, रूरल नक्सल
छात्र और शिक्षक हैं नक्सल
सारा कुछ चौचक है राजा, अच्छे दिन में कैसे नक्सल
नक्सल खुद भौंचक हैं भैये, आए कहां से इत्ते नक्सल
                                   – कुमार सुंदरम

 

मुझे मार दीजिए

काफिर हूं सर-पिफरा हूं मुझे मार दीजिए
मैं सोचने लगा हूं मुझे मार दीजिए
है एहतिराम-ए-हजरत-ए-इंसान मेरा दीन
बे-दीन हो गया हूं मुझे मार दीजिए
मैं पूछने लगा हूं सबब अपने कत्ल का
मैं हद से बढ़ गया हूं मुझे मार दीजिए
करता हूं अहल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार से सवाल
गुस्ताख हो गया हूं मुझे मार दीजिए
ख़ुशबू से मेरा रब्त है जुगनू से मेरा काम
कितना भटक गया हूं मुझे मार दीजिए
मालूम है मुझे कि बड़ा जुर्म है ये काम
मैं ख्वाब देखता हूं मुझे मार दीजिए
जाहिद ये जोहद-ओ-तक़्वा-ओ-परहेज की रविश
मैं ख़ूब जानता हूं मुझे मार दीजिए
बे-दीन हूं मगर हैं जमाने में जितने दीन
मैं सब को मानता हूं मुझे मार दीजिए
फिर उस के बाद शहर में नाचेगा हू का शोर
मैं आखिरी सदा हूं मुझे मार दीजिए
मैं ठीक सोचता हूं कोई हद मेरे लिए
मैं साफ देखता हूं मुझे मार दीजिए
ये ज़ुल्म है कि ज़ुल्म को कहता हूं साफ ज़ुल्म
क्या ज़ुल्म कर रहा हूं मुझे मार दीजिए
जिंदा रहा तो करता रहूंगा हमेशा प्यार
मैं साफ कह रहा हूं मुझे मार दीजिए
जो जख्म बांटते हैं उन्हें ज़ीस्त पे है हक
मैं फूल बांटता हूं मुझे मार दीजिए
बारूद का नहीं मिरा मस्लक दरूद है
मैं ख़ैर मांगता हूं मुझे मार दीजिए.
                          – अहमद फरहाद

क्या सिर्फ कागजात पूछोगे?

आज धर्म पूछोगे, कल जात पूछोगे
कितने तरीकों से मेरी औकात पूछोगे
मैं हर बार कह दूंगा, यही वतन तो मेरा है
घुमा फिरा के तुम भी तो वही बात पूछोगे
सच थोड़े ही बदलेगा पूछने के सलीकों से
थमा के क़ुरान या फिर जमा के लात पूछोगे
मेरी नीयत को तो तुम कपड़ों से समझते हो
लहू का रंग भी क्या अब मेरे हजरात पूछोगे
मैं यहीं था 84 में, 93 में, 02 में, 13 में
किस-किस ने बचाया मुझे उस रात पूछोगे
तुम्हीं थे वो भीड़ जिसने घर मेरा जलाया था
अब तुम्हीं मुझसे किस्सा-ए-वारदात पूछोगे
जबान जब भी खुलती है जहर ही उगलती है
और बिगड़ जाएंगे गर तुम मेरे हालात पूछोगे
पुरखों की कब्रें, स्कूल की यादें, इश्क के वादे
कुछ देखोगे सुनोगे या सिर्फ कागजात पूछोगे
                            – सुमित सपरा