वर्ष - 29
अंक - 4
18-01-2020

दविन्दर सिंह आला पुलिस अफसर हैं. आतंकियों को कश्मीर से दिल्ली लाते हुए पकड़े गए. जम्मू-कश्मीर पुलिस ने कहा वे आतंकवादी हैं. अब एनआइए को उनका मसला सौंप दिया गया – सबूत मिटाने, उनके तार कहां जा के जुड़ते हैं, उसे ढंकने?

ऐसी क्या बात है कि दविन्दर की जहां-जहां पोस्टिंग हुई, वहां आतंकी हमले होते गए – 2017 में शोपियां, 2019 में पुलवामा? अफजल गुरु की प्रताड़ना इन्होंने की, ये तो खुद स्वीकार किए हैं. अफजल ने कहा था कि इन्हीं के कहने पर वे एक शख्स को दिल्ली ले गए, गाड़ी और किराए का मकान दिलाए.

अफजल ने कहा था कि उन्हें बाद में पता चला कि वह शख्स संसद पर हमले में शामिल था. दविन्दर जो आदेश देते थे, अफजल प्रताड़ना की डर से मानते थे. क्या दविन्दर संसद पर हमले में शामिल थे? उनके ऊपर कौन लोग हैं? किन लोगों के कहने पर आतंकियों को मदद करते थे? भाजपा शासन में ये हमले क्यों?

कहा जा रहा है कि 2018 में मेडल उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार ने दिया न कि राष्ट्रपति ने. पर अगस्त 2018 में जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार तो थी ही नहीं! उसे भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था!

सवाल ये भी है – जो टीवी चैनल छात्रों को टुकड़े -टुकड़े गैंग कहता है, मानव अधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को एक फर्जी चिट्ठी के आधार पर ‘प्रधानमंत्री पर हमले के प्लान’ की कहानी गढ दिया, दविंदर सिंह वाली खबर पर चुप क्यों हैं? असली टुकड़े टुकड़े गैंग पर चुप क्यों हैं?

वाजपेयी सरकार को ताबूत घोटाले में कठघरे में थी तो संसद पर हमला हो गया. 2019 चुनाव से पहले राफाल घोटाले से घिरी थी मोदी सरकार – और पुलवामा हमला हो गया. आज मोदी सरकार घिरी हुई है सवालों से, 26 जनवरी 2020 को दिल्ली में आतंकी हमला होता तो किसे फायदा होता?

देशप्रेमी के भेस में इस आतंकी को किसने पाला है? हमारे शासन और राज्य में कितने ऐसे लोग हैं? कहां और कितने ऊपर तक पहुंचे हुए हैं? सवाल पूछना होगा हमें – आम लोगों को – जबकि गोदी मीडिया, भाजपा (और अन्य देशभक्ति के ठेकेदार) तो सच को दबाने में लग गए हैं.

- कविता कृष्णन
पोलित ब्यूरो सदस्य, भाकपा(माले)