वर्ष - 29
अंक - 7
07-02-2020

कर्नाटक के उत्तर कन्नड से भाजपा के सांसद अनंत हेगड़े उन नेताओं में शामिल हैं जो समय-समय पर विवादास्पद बयान दे कर सुर्खियां बटोरते रहते हैं. उनका ताजातरीन बयान यह है कि गांधी के नेतृत्व में चला आजादी का आंदोलन ड्रामा था. गांधी से वैचारिक मतभिन्नता होना एक बात है, लेकिन उनके प्रति जो घृणा का भाव भाजपा और उसके वैचारिक सहोदरों के मन में है, हेगड़े का बयान उसकी एक और अभिव्यक्ति है. आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों के खिलाफ गोली तो छोड़िए, कंकड़ भी उछाल सकने की हिम्मत न करने वाले गोडसे ने आजादी के बाद सबसे पहले गोली चलाने के लिए 79 साल के बूढ़े गांधी का चुनाव किया था.

वैसे यह जानना भी समीचीन होगा कि जिस समय में वो आजादी का आंदोलन चल रहा था, जिसे अनंत हेगड़े ड्रामा करार दे रहे हैं, उस समय हेगड़े का वैचारिक पितृ संगठन यानि आरएसएस क्या कर रहा था. इस बात की चर्चा इसलिए करना आवश्यक है क्यूंकि उस भूमिका से हेगड़े के बयानों और उनकी तथाकथित राष्ट्रभक्ति की जड़ें आप तलाश सकते हैं.

आजादी के आंदोलन के संदर्भ में आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर – जिन्हें संघ के दायरे में श्री गुरुजी के नाम से जाना जाता है – के लिखे हुए से काफी कुछ समझा जा सकता है. गोलवलकर के अंग्रेजी में लिखे लेखों के संग्रह का नाम है – बंच ऑफ थाॅट्स. इसके पीडीएफ स्वरूप में पृष्ठ 107 में भाग दो का शीर्षक है – नेशन एंड इट्स प्राॅब्लम्स, यानि राष्ट्र और उसकी समस्याएं. इस शीर्षक के अंतर्गत एक लेख है – ‘फाॅर अ वाइरायल नेशनल लाइफ’. इस लेख की शुरूआत में ही गोलवलकर लिखते हैं: “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार बाल्यकाल से ही राष्ट्र के उद्देश्य के लिए समर्पित थे और उस समय मातृभूमि की मुक्ति के लिए चल रहे आंदोलनों में बेहद गहराई तक शामिल थे. ...पर जल्द ही उन्हें पता चला कि इन सभी आंदोलनों के पीछे का विचार केवल अंग्रेजों को भगाना है. और इस विचार को राष्ट्रवाद का पर्याय माना जा रहा है.

उस वक्त के सभी लोगों के लिए अंग्रेजों का विरोध और राष्ट्रवाद समानार्थी शब्द थे. हमारे संस्थापक सोचने के इस सतही तरीके से असंतुष्ट हो गए. हमारे राष्ट्र और अन्य राष्ट्रों के इतिहास की अपनी गहरी समझ के आधार पर वे जानते थे कि ‘राष्ट्र’ की अवधारणा तो सकारात्मक है और वह किसी अन्य के प्रति शत्रुता पर आधारित नहीं है.”

हेगड़े महाशय को कोई बताए कि गांधी का आंदोलन जो था, सो था, लेकिन उनके वैचारिक पितृ पुरुषों को तो इसी बात से दिक्कत थी कि राष्ट्रवाद के नाम पर अंग्रेजों का विरोध क्यूं किया जा रहा है. जरा सोचिए कि जब अंग्रेज इस देश पर कब्जा किए हुए थे, इसे लूट रहे थे, बेतहाशा जुल्म ढा रहे थे, तो तब क्या अंग्रेजों का विरोध किए बगैर कोई राष्ट्रवाद या देशप्रेम मुमकिन था? जिन्हें अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई राष्ट्र की सकारात्मक अवधारणा नहीं प्रतीत हो रही थी, उनके देशप्रेम की गहराई और हकीकत आसानी से समझी जा सकती है !

चूंकि वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को राष्ट्रवाद नहीं समझते थे, इसलिए इस संघर्ष में शामिल होने वालों को हतोत्साहित करने की भरसक कोशिश उन्होंने की. इस संदर्भ में श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 4, पृष्ठ 39-40 पर गोलवलकर द्वारा वर्णित एक किस्सा इस मामले पर काफी रौशनी डालता है. गोलवलकर के शब्दों में “... समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है. सन 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी. उसके पहले सन 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था. उस समय कई लोग डाॅक्टर जी के पास गए थे.

इस शिष्टमंडल ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से स्वातंत्र्य मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए. उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं तो डाक्टर जी ने कहा – जरूर जाओ. लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा ? उस सज्जन ने बताया: दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं, आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है. तो डाॅक्टर जी ने कहा – आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है, तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो. घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए, न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले.”

इस उद्धरण से स्वयंभू देशभक्तों की असलियत समझी जा सकती है. देश में आजादी का संघर्ष चल रहा था और लोगों को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के सबसे बड़े झंडाबरदारों के पास आकर निवेदन करना पड़ रहा था कि वे भी संघर्ष में हिस्सा लेने की कृपा करें. और वे अपने पास आने वालों को आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए जेल का भय दिखा रहे थे !

हेगड़े महाशय जिस आजादी की लड़ाई को ड्रामा बता रहे हैं, वह तो संघर्षों, कुर्बानियों और शहादतों की गाथा है जो सच्चे भारतीयों के लिए प्रेरणा का सबब है. ड्रामा यदि कुछ था तो वे हेगड़े के वैचारिक पितृपुरुषों के कृत्य थे.

– इन्द्रेश मैखुरी