वर्ष - 29
अंक - 11
07-03-2020

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में गिरोहबंद भीड़ द्वारा मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर की गई हिंसा में दिल्ली पुलिस की सांठगांठ के बारे में एक के बाद सबूत सामने आते जा रहे हैं.

फोन काॅल्स की सूची (लाॅग) से स्पष्ट जाहिर होता है कि उत्तर पूर्वी दिल्ली के पुलिस थानों के पास हिंसा-पीड़ितों द्वारा मदद की गुहार करते हजारों फोन काॅल्स आये – मगर दिल्ली पुलिस ने उनका कोई संज्ञान नहीं लिया और कार्यवाही नहीं की. समूचे पुलिस बल का इस कदर रणनीतिक रूप से गायब हो जाना, न सिर्फ निशाना बनाकर पफैलाये गये मुस्लिम-विरोधी आतंक के लिये पूर्णतः जिम्मेवार है, बल्कि साथ ही वह उन घटनाओं के लिये भी जिम्मेवार है जिनमें मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर हमला किया गया.

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इस बात के सबूत हैं कि पुलिस ने हिंसक भीड़ के साथ मिलकर नारे लगाये. ऐसी एक कुख्यात घटना में पुलिस ने मुसलमानों को पीटा और घायल मुसलमानों को ठोकरें मारीं, उन्हें राष्ट्रीय गीत गाने को मजबूर किया और मेडिकल सेवा तक उनके पहुंच पाने की राह में अड़ंगा लगाया ताकि देर हो जाये. एक मुस्लिम व्यक्ति को पुलिस द्वारा इतना पीटा गया और सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया कि इसके बाद उनकी मौत ही हो गई.

जब आधी रात को दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को आदेश दिया कि घायलों तक पहुंचने का प्रयास कर रही एम्बुलेंसों को पुलिस द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाये, तब कहीं जाकर दिल्ली पुलिस ने हिलना-डुलना शुरू किया. और यकीनन, पुलिस ने उन भाजपा नेताओं को गिरफ्तार करने से इन्कार कर दिया जिन्होंने खुलेआम अपने नफरतभरे भाषणों के जरिये हिंसा भड़काने का काम किया था.

एकदम हाल में मध्य दिल्ली और दिल्ली मेट्रो में भी ऐसी गिरोहबंद भीड़ नजर आई जो “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” के नारे लगा रहे थी. मगर दिल्ली पुलिस ने उनमें से एक को भी गिरफ्तार नहीं किया और न मुकदमा दर्ज किया. भाजपा के लिये तो हर शख्स जो एनपीआर-एनआरसी-सीएए कानून का विरोध करता है या मोदी सरकार से किसी तरह का कोई भी सवाल करता है, वह “गद्दार” है; इसके अलावा, भाजपा और आरएसएस वाले भारत को एक हिंदू राष्ट्र मानने की अपनी अवधारणा के अनुसार सभी मुसलमानों को “गद्दार” मानते हैं.

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भाजपा और आरएसएस की विचारधारा के साथ सम्बद्ध हिंसक हथियारबंद भीड़ को और लोगों को खुली छूट देने और उन्हें रोकने के लिये हाथ न उठाने का दिल्ली पुलिस का बहुत लम्बा ट्रैक रिकार्ड रहा है. दिल्ली पुलिस ने जेएनयू के छात्रों एवं शिक्षकों के साथ मारपीट व उनको आतंकित करने वाले एबीवीपी के हथियारबंद सदस्यों में से एक को भी गिरफ्तार करने से इन्कार कर दिया, और जब एक सीएए के पक्ष में निकाली गई एक रैली के भागीदारों ने गार्गी काॅलेज की छात्राओं पर यौन हमला किया तब दिल्ली पुलिस ने मूक दर्शक की भूमिका निभाई. जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों पर एक हथियारबंद व्यक्ति ने पिस्तौल से गोली चलाई, जिससे एक छात्र घायल हो गया, तब भी पुलिसवाले निश्चिंत रूप से खड़े रहे. जब भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने दिल्ली में मुस्लिम विरोधी हिंसा भड़काने के इरादे की घोषणा की, उस समय दिल्ली पुलिस का एक वरिष्ठ अधिकारी बगल में खड़ा यह सब देख रहा था. दिल्ली में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा को अंजाम देने वालों की पहचान को छिपाने के लिये दिल्ली पुलिस ने सारे सीसीटीवी कैमरा तोड़ डाले.

लेकिन शांतिपूर्ण एवं संवैधानिक रूप से किये जा रहे प्रतिवादों के साथ दिल्ली पुलिस का आचरण इसके ठीक विपरीत रहा है. दिल्ली पुलिस ने महज ऐसे नारे लगाने पर, जिनको अभी तक साबित नहीं किया जा सका है, तथा ऐसे भाषणों पर, जिनमें हिंसा भड़काने का कोई आह्वान नहीं किया गया है, जेएनयू के छात्रों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार किया है. उसने बार-बार छात्रों के खिलाफ बर्बर हिंसा का इस्तेमाल किया है – जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कैम्पस के अंदर और यहां तक कि लाइब्रेरी में घुसकर भी लाठियां चलाई हैं, और उसी तरह शांतिपूर्ण प्रतिवाद कर रहे जेएनयू के छात्रों पर भी बर्बर दमन ढाया है. और एकदम हाल में, पूर्वी दिल्ली के खूंरेजी में सीएए-विरोधी कार्यकर्ताओं एवं प्रतिवादकारियों की बर्बर पिटाई की है और उनमें से एक को “हत्या के प्रयास” के आरोप में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है. और जब छात्र युवा समूचे भारत से हजारों की संख्या में आकर दिल्ली में 3 मार्च 2020 को शांति, न्याय और लोकतंत्र के लिये “यंग इंडिया” के बैनर तले मार्च कर रहे थे, तो दिल्ली पुलिस ने उनमें से सैकड़ों को गिरफ्तार कर लिया, और यहां तक कि प्रतिवादकारियों को प्रतिवाद-स्थल तक पहुंचने से रोकने के लिये उनकी बसों के ड्राइवरों तक को गिरफ्तार कर लिया.

दिल्ली पुलिस सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के प्रति जवाबदेह है. हाल की घटनाओं से यह एकदम स्पष्ट है कि दिल्ली पुलिस अब वस्तुतः गृह मंत्री अमित शाह की सेवा में लगे पार्टी कायकर्ताओं, राजनीतिक बल में तब्दील हो गई है. अब दिल्ली पुलिस भारत के संविधान के प्रति अपना कोई कर्तव्य नहीं महसूस करती. दिल्ली में जो संगठित रूप से दंगा हुआ, वह उस दंगे की चेतावनी है जिसको मोदी और शाह बाकी भारत में छेड़ना चाहते हैं. यह अत्यंत अनिष्टसूचक और उल्लेखनीय बात है कि अमित शाह के कोलकाता दौरे के समय उनकी रैली में ही भागीदारों ने “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” के नारे लगाये.

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शाह की कोलकाता रैली कोई बड़ी रैली नहीं थी, और यह भी उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में दिये गये अपने पहले के भाषणों के विपरीत, अमित शाह ने इस बार एनआरसी पर प्रत्यक्ष रूप से खामोशी बरती. इसके बजाय उन्होंने यही यकीन दिलाने की कोशिश की कि सीएए से किसी को डरने की कोई बात नहीं है. एनआरसी तथा एनपीआर-2020 के विरोध में बिहार विधान सभा द्वारा सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किये जाने के साथ इसको मिलाकर देखा जाये तो यह एक संकेत है कि अखिल भारतीय स्तर पर चल रहे प्रतिवाद आंदोलनों ने भाजपा को एनपीआर-एनआरसी-सीएए के मामले में पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है. अब भाजपा एनआरसी पर अस्थायी रूप से और रणनीतिक रूप से पीछे हटने की कीमत पर भी सीएए को किसी तरह बचाने को बेताब है. ऐसा करने के जरिये भाजपा को उम्मीद है कि उसे मुस्लिम-विरोधी नफरत और हिंसा की अपनी अवधारणा को स्थापित करने, और इसके फलस्वरूप अखिल-भारतीय एनपीआर एवं एनआरसी के पक्ष में अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये पर्याप्त समय मिल जायेगा.

हम, भारत के लोगों को, एनपीआर-एनआरसी-सीएए के इस गरीब-विरोधी लोकतंत्र-विरोधी एजेंडा का भंडाफोड़ करने के अभियान में कत्तई ढिलाई नहीं आने देनी होगी, और हमें इन फासीवादी नागरिकता कानूनों को सम्पूर्ण रूप से वापसी के लक्ष्य को हासिल करना होगा. इसके अतिरिक्त, हमें दिल्ली के अनुभव से भी सबक लेना होगा और भारत में कहीं भी साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने के किसी भी प्रयास का मुंहतोड़ जवाब देने के लिये सतर्क रहना होगा. हमें दिल्ली के दंगे को अंजाम देने वालों को न्याय के कठघरे में खड़ा करने के लिये अपने संघर्ष को जारी रखना होगा.