वर्ष - 29
अंक - 11
07-03-2020
– अरिंदम सेन

2019-20 के उस जाड़े में, जब मौसम का पारा गिरने का रिकार्ड दर्ज करा रहा था, सर्दी सामान्य से अधिक पीड़ादायक थी. राजनीतिक वातावरण भी कापफी अवसादग्रस्त था, जिसमें नागरिकता संशोधन विधेयक राज्य सभा में भी, भाजपा की वफादार विपक्षी पार्टियों के सहयोग से, पारित हो चुका था और सर्वोच्च न्यायालय भी बिल्कुल स्पष्टतः इस किस्म के सम्पूर्णतः गैर-संवैधानिक कानून को रोकने की अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी को पूरा करने को अनिच्छुक दिख रहा था. ऐसा लग रहा था कि चंद राज्य स्तरीय चुनावों में धक्का खाने के बावजूद, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा सीएए-एनआरसी-एनपीआर परियोजना को हिंदू-पक्षीय कदम के बतौर पेश करने के जरिये जनता पर लादने में सफल होने को कटिबद्ध है.

अचानक परिस्थिति में एक परिवर्तन हुआ. यह एक नाटकीय परिवर्तन था, साथ ही पट-परिवर्तन भी.

निष्ठुर जाड़े में आया वसंत

ऐसा क्या हुआ? मौजूदा सरकार, संसद और न्यायपालिका – तथा आम तौर पर राजनीतिक वर्ग भी – बारम्बार तमाम मुद्दों पर वादाखिलाफी करके जनता को नाउम्मीद कर रहे थे, जिसमें ताजातरीन मुद्दा था नागरिकता का सवाल, तब नागरिकों ने खुद ही प्रत्यक्ष रूप से और निर्णायक रूप से इसमें हस्तक्षेप किया. छात्र समुदाय के नेतृत्व में उन्होंने खुद ही मामले को अपने हाथ में ले लिया.

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असम राज्य, जहां नागरिकता के मुद्दे पर विशिष्ट किस्म की चिंता है, प्रतिवाद का विस्पफोट करने वाला पहला राज्य था, जिसके तुरंत बाद उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों ने भी असम की राह पकड़ी. यह तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ा कि ये सब तो भाजपा/एनडीए शासित राज्य हैं, और न ही इससे बड़े पैमाने पर दमन पर कोई असर पड़ा. इनर लाइन परमिट (जो कुछेक खास सीमावर्ती इलाकों में प्रवेश करने की अनुमति देने के लिये जारी किये जाते हैं) जैसी दिखावटी सुविधाएं देकर इस संकट का आंशिक रूप से समाधान किया जा सके, इसके पहले ही राष्ट्रीय राजधानी एवं बाकी समूचे देश में में जनता प्रतिरोध में उठ खड़ी हुई. इस उभार में कोई गांधी न था, कोई भगत सिंह, कोई चारु मजुमदार, कोई जयप्रकाश नारायण भी नहीं था, यहां तक कि अन्ना हजारे जैसा भी कोई न था जिसने उनसे कार्रवाई में उतरने का आह्वान किया हो. भारत के युवा अपने आप के बूते पर उठ खड़े हुए, “जैसे सोते हुए शेर, अपराजेय संख्या में” उठ खड़े हुए हों, और उन्होंने एक नई राह दिखला दी. संकटग्रस्त अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर महिलाओं, में एक कायापलट हुआ और उन्होंने इस आंदोलन को एक अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति प्रदान की. जनता के अन्य तबकों ने इन अग्रदूतों को सलामी दी और खुशी-खुशी उनके नेतृत्व में चल पड़े. कलाकार, कवि, गायक, अभिनेता, लेखक, समाज विज्ञानी और भी बहुत सारे लोगों ने अपने ऊपर लादी गई गलाघोंटू चुप्पी को तोड़ दिया और स्वतःस्फूर्त रूप से इस आंदोलन में वे अपने ही सृजनात्मक तरीके से शामिल हुए, जिससे इस आंदोलन का दायरा भी व्यापक हुआ और वह कहीं ज्यादा रंगारंग, सार्थक और प्रभावशाली बन गया. कोई शक नहीं कि उन्हें चिंता थी और वे आक्रोश से भरे भी थे, मगर साथ भी वे अपने छोटे से दायरे – घर, कार्यस्थल, या अन्य कोई घेरा – से बाहर निकल आने पर, पहले से अनजाने भांति-भांति किस्म के लोगों से घुलने-मिलने पर, और उनके साथ गला खोल कर नारे लगाते हुए मार्च करने पर खुश भी थे, और यही भीड़ उस बहुलतावादी सांस्कृतिक तानेबाने का प्रतिनिधित्व कर रही थी जिसको भारत कहते हैं. युवाओं और बूढ़ों के लिये, महिलाओं और पुरुषों के लिये, हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों तथा अन्य समुदाय के लोगों के लिये यह एक मुक्तिदायक अनुभव था: भारत की एक नई खोज, भारत की बुनियादी धारणा. उनमें से बहुतेरे लोग पहली बार सड़कों पर उतरे थे और वे स्पष्ट रूप से अत्यंत उत्तेजनामय दिख रहे थे. कुल मिलाकर, हालांकि अभी तक थरथर कंपाने वाला जाड़ा मौजूद था मगर ऐसा लग रहा था कि अंधेरे में डूबा शीतकाल पार हो गया है और उसकी जगह जनता के वसंत का त्यौहारी मौसम आ गया है, जिसमें जनसमुदाय गतिशील हैं, एक नए जीवन और उम्मीद से धड़क रहे हैं.

इस स्वतःस्फूर्त देशव्यापी जन जागरण से राजनीतिक वर्ग बेखबर था. इसका असर इतना शक्तिशाली था कि हमेशा चाक-चौबंद रहने वाले प्रधानमंत्री भी अब सोच नहीं पा रहे हैं कि इससे कैसे निपटा जाये. उन्होंने मूर्खतापूर्ण ढंग से अखिल भारतीय राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की परियोजना से और डिटेंशन सेन्टरों के अस्तित्व से ही इन्कार कर दिया, और इस प्रकार खुद को हंसी-मजाक का पात्र बना डाला.

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आजादी? कैसी आजादी?

‘हम तो पहले से ही आजाद राष्ट्र हैं, तो फिर वे लोग जो हमेशा ‘आजादी’ के नारे लगाते हैं वे वास्तव में हिंदुस्तान से आजादी चाहते हैं. वे राष्ट्र-द्रोही हैं, वे राष्ट्र के लिये गद्दार हैं.’ उस नारे के लिये, जो हर प्रतिवादकारी की जुबान पर सबसे पहले आता है, मोदी-शाह की यही स्थापित परिभाषा है. और यही वह नफरत भरी परिभाषा है जिस पर अमल करते हुए वह स्वयंभू रामभक्त, जामिया के एक प्रदर्शनकारी छात्र की हत्या करने के इरादे से उस पर गोली चलाने से पहले चिल्लाया था – “ये लो आजादी”.

अब, इस शब्द को, इस जादुई शब्द को प्रतिवादकारियों ने किस तरह से अपनाया है और वे कैसे इसकी व्याख्या करते हैं?

“आजादी”, जिसका और भी आगे बढ़ा हुआ रूप है “बेखौफ आजादी”, और जिसके विभिन्न प्रकार के विस्तार सामने आये हैं जैसे “खाप से भी आजादी, बाप से भी आजादी” – यह नारा दिल्ली में निर्भया के बलात्कार और उसकी हत्या के खिलाफ चले आंदोलन के दौरान हमारे देश में महिलाओं के आंदोलन की सांकेतिक धुन के बतौर उभरा था. इस “आजादी” में छिपा था तमाम किस्म के भेदभाव से आजादी और लैंगिक न्याय की मांग. अब यह सम्मोहनकारी नारा एक बार फिर उभर आया है, जिसका और भी बड़े पैमाने पर आकर्षण है, तथा जिसमें व्यापकतर, कहीं ज्यादा आमूल परिवर्तनकारी तात्पर्य निहित हैं. जैसा कि जमीनी स्तर पर प्रतिवादकारी अनगिनत बार साफ तौर पर कह ही चुके है कि इसका अर्थ है कि वे गरीबी और बेरोजगारी से आजादी, भ्रष्टाचार और नव-उदारवाद से आजादी, असहिष्णुता और पहरेदारी से आजादी, भेदभाव और विभाजनकारी प्रवृत्ति से आजादी, तानाशाही और नफरत-प्रचार से आजादी, इत्यादि की मांग कर रहे हैं.

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दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आज ‘आजादी’ एक गतिशील, विस्तारित धारणा बन चुका है. जैसे जैसे जनता के और व्यापक हिस्से इसे आत्मसात करते जा रहे हैं, वैसे वैसे ‘आजादी’ शब्द उनकी विभिन्न मांगों एवं आकांक्षाओं से अपने आपको समृद्ध करता जा रहा है. अख्तारिस्ता अंसारी, एक जामिया की छात्रा जिसने अपने सहपाठी छात्र को पुलिस लाठियों की मार झेलने से ढाल बनकर बचाया, कारवां पत्रिका से (2 फरवरी 2020 को) कहा उससे स्पष्ट पता चलता है कि आज भारत के युवाओं को क्या चीज आलोड़ित कर रही है. उन्होंने बताया कि यह आजादी एक ऐसी स्वतंत्रता है जिसमें कश्मीर में आत्मनिर्णय से लेकर सार्वजनिक स्थानों पर युवा महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता तक, दलितों को सम्मान से लेकर उत्तर-पूर्व के छात्रों के प्रति नस्ली पूर्वाग्रह से आजादी, समलैंगिक समुदाय की समानता से लेकर युवा मुसलमानों के आत्मसम्मान एवं पुलिस द्वारा धर्मीय आधार पर उन्हें निशाना बनाये जाने से आजादी, और तमाम छात्रों को सस्ती शिक्षा तथा मजदूरों को उचित मजदूरी तक शामिल है. स्पष्ट है कि किसानों के लिये लाभकारी मूल्य और कर्ज के जाल से मुक्ति, शारीरिक रूप से दिव्यांगों के लिये समुचित सुविधाएं, इत्यादि – इसमें अनगिनत चीजें जोड़ी जा सकती हैं. और प्रतिवादकारियों को पक्के तौर पर यकीन है कि इस विस्तृत आजादी को केवल इन्कलाब यानी विद्रोह के जरिये ही हासिल किया जा सकता है.

इन्कलाब, मोहब्बत, एकजुटता

शाहीनबाग की दीवारों पर जो बहुतेरे भावपूर्ण चित्र दिखाई पड़ते हैं, उनमें दो महिलाएं अगल-बगल खड़ी हैं, जिनमें एक कह रही है “इन्कलाब जिन्दाबाद”, और दूसरी कहती है “मोहब्बत जिन्दाबाद”. हां, आंदोलनकारियों के लिये ये दोनों नारे या धारणाएं एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं. अन्याय, उत्पीड़न और नफरत के खिलाफ विद्रोह करने और उनसे आजादी पाने के लिये आपको सभी देशवासियों से एकता और प्रेम के बंधन की जरूरत होती है, आपको सक्रिय पहल लेने वाले बिरादराना मनोभाव की जरूरत होती है, जो कि संघर्ष में एकजुटता या सहयोद्धा-भाव होता है.

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वर्तमान आंदोलन एकजुटता को अभिव्यक्त करने के बहुतेरे विभिन्न तरीकों का साक्षी रहा है. विभिन्न जगहों में होने वाले तमाम धरना स्थलों पर आप देख सकते हैं कि स्वयंसेवक और सड़क पर फेरी करने वाले बिना पैसे लिये चाय, नाश्ता, खाने के पैकेट्स, पीने का पानी इत्यादि बांट रहे हैं – कुछेक जगहों पर आप नियमित किस्म के लंगर देख सकते हैं जिन्हें आम तौर पर सिख समुदाय ने आयोजित कर रखा है. श्रद्धालु हिंदुओं के लिये एक पवित्रा तीर्थस्थल सुदूर गंगोत्री से एक महिला दिल्ली तक आई है शाहीन बाग में अपनी बहनों का साथ देने के लिये. वह मंच पर आती है और उसका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत होता है. जबलपुर से एक नवयुवक आकर शाहीन बाग के प्रतिवादकारियों के साथ जुड़ जाता है. वह केवल एक हाफ पैंट पहने हुए है और अपने शरीर को एक विशाल पोस्टर से ढके हुए है. वह प्रधानमंत्री को चुनौती देता है कि वे मुझे मेरे कपड़ों से पहचानें. और जब उनसे पूछा जाता है कि दिल्ली की इस कड़ाके की ठंड को वे बिना कपड़ा पहने कैसे सहन कर रहे हैं, तो वे जवाब में कहते हैं: अगर ये तमाम लोग इस मौसम में रात पर रात गुजारते जा रहे हैं, तो क्या मैं कुछ घंटे भी इस ठंड में नहीं गुजार सकता? कई स्थानों पर हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और सिख धर्मों के प्रमुखों ने आपस में हाथ मिलाकर प्रतिवाद मार्च का नेतृत्व किया है; इस तरह के सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं.

वास्तव में यह सहयोद्ध भाव आंदोलन के हर मंजिल पर, हर आख्यान में स्पष्ट दिखाई पड़ता है. मूल शाहीन बाग मुख्यतः जामिया के पीड़ित छात्रों के साथ एकजुटता जाहिर करने के मकसद से शुरू किया गया था, जबकि दिल्ली के अन्य काॅलेजों एवं विश्वविद्यालयों के छात्रों के साथ-साथ विवेकवान दिल्लीवासियों ने समूची रात भर दिल्ली पुलिस मुख्यालय को घेरे रखा और तभी वहां से हटे जब उन्होंने तमाम गिरफ्तार छात्रों को रिहा करवा लिया. जेएनयू के अंदर मुंह पर नकाब बांधे तूफानी दस्तों द्वारा किये गये बर्बर हमलों के तुरंत बाद दिल्ली के छात्र और नागरिक तुरंत जेएनयू की ओर दौड़ पड़े थे और दिल्ली पुलिस मुख्यालय के बाहर तुरंत पुलिस कार्यवाही की मांग पर जमे रहे थे, जबकि मुंबई के छात्रों ने उसी रात गेटवे ऑफ इंडिया में एक प्रतिवाद कार्यक्रम किया था. अगली सुबह यह आंदोलन समूचे देश में फैल गया. इस प्रकार, एकजुटता की अभिव्यक्ति खुद संघर्ष का एक रूप बन गई है और अक्सर उस पर भी राज्य द्वारा बर्बर दमन किया जा रहा है.

यही वह मुहब्बत है, भारत के अपने देशवासियों के प्रति यही प्रेम और चिंता है, जो तमाम वर्गों, जातियों, धार्मिक एवं अन्य किस्म के विभाजनों को लांघ रही है और यह सीएए-एनआरसी-एनपीआर की साजिश के खिलाफ चल रहे संघर्ष की विराट शक्ति है. यह ‘पहले जनता’ वाली देशभक्ति में आये उभार को प्रदर्शित करती है, जो साम्प्रदायिक नफरत प्रचार और जहरीले बहुसंख्यावादी राष्ट्रवाद के खिलाफ सशक्त दवा है. इस प्रकार आई विराट देशव्यापी जागृति हमारे स्वाधीनता आंदोलन के महान विरासत को फिर से चंगा करने में मददगार है और इसमें देश-विभाजन के घावों को भरने में काफी असरदार होने की पूरी संभावना मौजूद है. इसके बारे में हम अगले भाग में चर्चा करेंगे.

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