वर्ष - 29
अंक - 11
07-03-2020

[ 1 मार्च 2020 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और वैज्ञानिकों और उनके विभिन्न संगठनों मसलन इंडियन कल्चरल फोरम, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, जन नाट्य मंच, दिल्ली साइंस फोरम, जनसंस्कृति (मलयालम), विकल्प, सिनेमा ऑफ रेजिस्टेंस, संगवारी तथा आल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क के अखिल भारतीय सम्मेलन में स्वीकृत और घोषित ]

हम लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और वैज्ञानिक सीएए-एनपीआर-एनआरसी के खिलाफ आज के इस अखिल भारतीय लेखक-कलाकार सम्मेलन में दिल्ली में हाल ही हुई हिंसा और साम्प्रदायिक कत्ले-आम पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं.

हम समझते हैं कि यह भयावह घटना सीएए, एनआरसी, एनपीआर की साम्प्रदायिक बुनावट और विभाजनकारी राजनीति का सीधा परिणाम है. बावजूद इसके इसी दौर में हमने देखा कि दिल्ली की आम जनता साम्प्रदायिकता की इस राजनीति के खिलाफ अपनी लड़ाई में एकजुट रही. ऐसी एकजुटता और सांप्रदायिक सौहार्द्र से ही सीएए-एनआरसी-एनपीआर को मात दी जा सकती है.

हम नागरिकता संशोधन कानून-2019, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के नए प्रारूप और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे भयावह कानूनों के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे मौजूदा आन्दोलनों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं.

भाजपा के नेतृत्त्व वाली केंद्र सरकार के द्वारा उठाया गया यह कदम भारतीय संविधान के उस लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नष्ट कर देगा जो हमारी सामंजस्यपूर्ण विविधता का आधार है. यह संविधान उन सांझे मूल्यों से बना था, जिन्हें बर्तानवी साम्राज्यवाद के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ते हुए हम भारत के लोगों ने विकसित किया था. सीएए इस संविधान की अंतरात्मा को तबाह कर देने  वाला कानून है.

हम भारत के लोग हमेशा से अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषिक और प्राकृतिक संसाधनों की विविधता पर नाज करते आए हैं. अथर्व वेद के इस सूक्त में यही कहा गया है –

जनंबिभ्रतीबहुधाविवाचसंनानाधर्माणंपृथिवीयथौकसम् द्य सहस्रंधाराद्रविणस्यमेदुहांधरुवेवधेर्नुअनपस्फुरन्ती (मंडल 12, सूक्त-1, 45)

(विभिन्न धार्मिक मान्यताओं और विविध भाषा-भाषी जनसमुदाय को एक परिवार के रूप में आश्रय देने वाली, अविनाशी और स्थिर स्वभाव वाली पृथ्वी अनेक धारों में दूध देने वाले गाय के थन की तरह ही हमें असीम ऐश्वर्य प्रदान करने वाली बने.)

पुराने जमाने से लेकर अब तक विभिन्न भारतीय भाषाओं के कवि इस बहुलता और धर्मनिरपेक्षता का जश्न मनाते आए हैं. जाति, लिंग और आस्था पर आधारित भेदभावों के खिलाफ ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की भावना हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा रही आयी है.

हमारा मानना है कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर जैसे विभाजनकारी कदम केवल बढ़ती बेरोजगारी, किसानों की बदहाली, शिक्षा के बढ़ते संकट और आसमान छूती गैर-बराबरी जैसे असली मुद्दों को दबाने भर के लिए ही नहीं उठाए गए हैं. इन्हें भारत के लोगों पर एक एकाश्म संस्कृति, भाषा और राष्ट्र-भाव थोपने के मकसद से भी लाया गया है. सीएए विरोधी आन्दोलन पर सरकार, सत्ताधारी पार्टी और सम्बद्ध गैर-राज्य समूहों द्वारा किए जा रहे हमले और हिंसा जनमत की विविधता, अभिव्यक्ति की आजादी और स्वयं लोकतंत्र को कुचलने के निमित्त भी हो रही है.

सीएए-एनआरसी-एनपीआर भारतीय संविधान की मूलभावना के खिलाफ हैं

हमारा संविधान हर तरह के भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करने के हमारे संकल्प की एक शक्तिशाली सामूहिक अभिव्यक्ति है. यह सभी मनुष्यों के, नागरिकों और गैर-नागरिकों के भी, मूलभूत मानवाधिकारों की गारंटी करता है.

सीएए से पहले भी हमारे देश के नागरिकता अधिनियम में जाति, धर्म, लिंग या राष्ट्रीयता के भेदभाव के बिना योग्य आवेदकों को नागरिकता देने के लिए पर्याप्त प्रावधान थे.

सीएए इन प्रावधानों के दायरे में तीन पड़ोसी देशों – बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले ‘अवैध आप्रवासियों’ को भी शामिल करने का उपाय करता है, लेकिन मुसलमानों को छोड़कर. इस तरह पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न सहने के लिए मजबूर बोहरा, अहमदिया और हजारा मुसलमानों के समूह ही नहीं, कट्टरता के खिलाफ लड़ने  वाले धर्मनिरपेक्ष मुसलमान भी बाहर छूट जाते हैं. म्यांमार के रोहिंग्या और श्रीलंका के तमिल भी, जो कि उपमहाद्वीप के सर्वाधिक उत्पीड़ित समूह हैं, इसमें शामिल नहीं किए जाते. जाहिर है कि यह संशोधन मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों की एक नकारात्मक छवि बनाने की कोशिश भी करता है, जैसे कि सारा उत्पीड़न केवल इन्ही देशों में होता हो.

नागरिकता अधिानियम में पेश किये गए इस अनावश्यक साम्प्रदायिक भेदभाव का सन्देश यह है कि किसी न किसी अर्थ में भारतीय मुसलमान इस देश के अन्य धार्मिक समुदायों के बराबर नहीं हैं. मुसलमान परिवार में जन्म लेने के संयोग या दुर्योग मात्र से कोई एक भारतीय नागरिक होने के गौरव और अधिकार का कदरन कम दावेदार मान लिया जाता है. साथ ही यह कानून मुसलमान को ‘राष्ट्र’ के समक्ष ‘अन्य’ के रूप में रखने की कोशिश करता है.

हाल ही में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में हम इसके गवाह बने. चुनावी ध्रुवीकरण करने के उद्देश्य के साथ दो धार्मिक समुदायों के बीच युद्ध जैसा उन्माद पैदा करने की कोशिशें की गईं. सौभाग्य से जागरूक मतदाताओं ने इस जहर भरे विभाजनकारी खेल को आगे नहीं बढ़ने दिया. भारत के संविधान के आधारभूत सिद्धांतों की रक्षा के लिए ऐसे विभाजनों को खत्म करना भारत के हर नागरिक का महत्वपूर्ण कर्तव्य है.

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सीएए-एनआरसी-एनपीआर हमारे लोकतंत्र का अवमूल्यन करता है

नागरिकों को धार्मिक आधार पर बाँटने वाला सीएए जब एनपीआर और एनआरसी के साथ जुड़ता है, तब और खतरनाक हो जाता है. ये दोनों प्रस्ताव संदिग्ध नागरिकता की एक नई श्रेणी निर्मित करते हैं. यानी किसी अधिकारी के निराधार संदेह मात्र से करोड़ो भारतीय नागरिक इस श्रेणी में डाले जा सकते हैं. फिर जब तक वे सरकार को अपनी नागरिकता के विषय में संतुष्ट नहीं कर देते, तब तक वे नागरिकता के अधिकारों से वंचित माने जाएंगे.

सीएए-एनआरसी-एनपीआर में समस्या सिपर्फ इतनी नहीं है कि ये साम्प्रदायिक हैं. इन्हें दरअसल चालू सरकार से असहमति रखने वाले व्यक्तियों और समूहों और अपने अधिकारों की मांग करने वाले हाशिए के समुदायों की आवाज को कुचलने के शक्तिशाली हथियार के रूप में गढ़ा गया है. सरकार की नाराजगी किसी भी नागरिक को बिना कोई कारण बताए संदिग्ध श्रेणी में पहुंचा सकती है. हमारे लोकतंत्र के समक्ष इतना बड़ा खतरा पहले कभी नहीं आया था.

सीएए-एनआरसी-एनपीआर भारत के ‘राष्ट्रीय स्वप्न’ का विध्वंस है

सीएए-एनआरसी-एनपीआर परियोजना भारत के राष्ट्रीय स्वप्न के भी खिलाफ है. भारतीय उपमहाद्वीप के समस्त जनगण की एकजुटता और मैत्री इस स्वप्न का अनिवार्य हिस्सा रहा है. विभाजन की दुर्भाग्यपूर्ण विरासत के बावजूद हमने दो-राष्ट्र के साम्प्रदायिक सिद्धांत को कभी भी स्वीकार नहीं किया. सीएए-एनआरसी-एनपीआर परियोजना दो-राष्ट्र सिद्धांत की ओर बढ़ाया गया सरकार का पहला आधिकारिक कदम है. इसे किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता.

हम भारत के लोगों ने सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई और प्राकृतिक संसाधनों की विविधताओं पर हमेशा गर्व किया है. हमारी साझा संस्कृति के इस सारतत्व को भारतीय संविधान आत्मसात करता है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि मौजूदा केंद्र सरकार के नेतृत्व में पल-बढ़ रही हिंदुत्व की विचारधारा हमारे देश की संस्कृति और संविधान की साझेपन की मूल भावना के खिलाफ है. भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने हिंदुत्व की विचारधारा की तीखी आलोचना की थी क्योंकि यह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ थी. बीजेपी-आरएसएस के नेतृत्व में चलने वाली एनडीए सरकार सभी के लिए विकास के वादे के साथ आई थी लेकिन उसने अब उसने वह मुखौटा भी उतार फेंका है. अब उसने खुलेआम फासीवादी विचारधारा आधारित आरएसएस के हिंदुत्ववादी एजेंडे को लागू करना शुरू कर दिया है.

अब केंद्र पर भाजपा-आरएसएस का नियंत्राण है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को लगातार तबाह कर रहे हैं. बिना जम्मू-कश्मीर की विधानसभा की अनुमति लिए अनुच्छेद 370 खत्म करना और इसके बाद साम्प्रदायिक भेदभाव आधारित सीएए जैसे कदम हमारे संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ हैं.

सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ जनता का आन्दोलन

देश के गृहमंत्री ने संसद भवन में धमकी भरे लहजे में ऐलान किया था कि सीएए के बाद देश में एनपीआर और एनआरसी आएगा. इस धमकी के खिलाफ मुल्क के लोकतांत्रिक लोगों ने जोरदार आवाज बुलंद की है. गलियों मुहल्लों में शांतिपूर्ण धरनों-प्रदर्शनों की अनवरत शृंखला ही चल पड़ी जिसमें नागरिक समूह, अध्यापक, वकील, छात्र, युवा, महिलाएं, बुद्धिजीवी, कलाकार, वैज्ञानिक, सेलिब्रेटीज और राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं. गैर-बीजेपी शासित अधिाकांश राज्यों की विधानसभाओं में हमारे संविधान के धर्म-निरपेक्ष आधार को नुकसान पहुँचाने वाले सीएए के खिलाफ संकल्प पारित किए गए.

प्रधानमंंत्री और उनके गृहमंत्री लगातार यह झूठ बोलते रहे हैं कि ‘सीएए नागरिकता देने का कानून है न कि नागरिकता छीनने का.’ सीएए द्वारा दी जाने वाली नागरिकता में धर्म के पहलू को शामिल करना हमारे संविधान को तो खत्म करता ही है, साथ ही देश के वास्तविक नागरिकों को भी ‘अवैध घुसपैठिये’ घोषित करने के पर्याप्त औजार मुहैय्या कराता है. ऐसा असम में हो चुका है. “साधारण लोगों के मामलों के अलावा ऐसे बहुत से मामले सामने आए जिनमें सेना के अधिकारियों, सरकारी अफसरों और यहां तक कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति के पारिवारिक सदस्यों व असम की पूर्व मुख्यमंत्री को भी एनआरसी सूची के मसौदे से बाहर रखा गया. उन्हें न्यायाधिकरणों के सामने यह साबित करने के लिए मजबूर किया गया कि वे ‘अवैध’ प्रवासी नहीं हैं.” (इण्डिया टुडे, अगस्त 31, 2019) लाखों की संख्या में प्रतिबद्ध और समर्पित भारतीय नागरिक ऐसा नहीं कर पाए, क्योंकि भारत अभी तक दस्तावेजों के प्रति अंध-श्रद्धा रखने वाला समाज नहीं बन पाया है.

हमारी एकजुटता

हम लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी, वैज्ञानिक और हमारे विभिन्न सांस्कृतिक संगठन यह मानते हैं कि शाहीन बाग और भारत के अलग-अलग हिस्सों में आम अवाम द्वारा चलाये जा रहे शांतिपूर्ण आन्दोलन भारत के संविधान की मूल आत्मा, हमारे प्यारे देश की ‘विविधता में एकता’ और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने का प्रयास हैं. ये ही हमें एक आधुनिक सभ्य धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना सकते हैं. हम पूरे देश में चल रहे इन अहिंसक आंदोलनों के साथ एकजुट हैं. सभी देशभक्त नागरिकों से हम अपील करते हैं कि सीएए और एनआरसी की प्रस्तावित योजना को रद्द कराने के लिए इन आंदोलनों में शरीक हों.

हमारी अपील

हम इस महान मुल्क के सभी लेखकों, कलाकारों और वैज्ञानिकों का आह्वान करते हैं कि

  1. सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ सभी शांतिपूर्ण आंदोलनों के साथ सक्रिय रूप से एकजुट हों.
  2. 8 मार्च (महिला दिवस), 23 मार्च (शहीद दिवस), और 14 अप्रैल (बाबा साहेब दिवस) का इस्तेमाल देश भर में हो रहे इन शांतिपूर्ण प्रदर्शनों, नागरिकता, संविधान और भारतीय स्वप्न के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए करें.
  3. ऐसे सम्मेलन सभी राज्यों में आयोजित किए जाएँ और इसके बाद लेखकों-कलाकारों के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए हम फिर मिलें.