वर्ष - 29
अंक - 10
29-02-2020
– कविता कृष्णन

बलपूर्वक जनसंख्या नियंत्रण के कदमों को लागू करने के लिये एक संविधान संशोधन विधेयक 7 फरवरी 2020 को राज्य सभा में पेश किया गया. यह एक ऐसा संविधान संशोधन विधेयक है जो दो से अधिक बच्चों वाले नागरिकों के संवैधानिक रूप से गारंटीशुदा अधिकारों को प्रतिबंधित करता है. यह जनसंख्या नियंत्रण का एक निरंकुश, अत्याचारी कदम है.

नोट: इस जनसंख्या नियंत्रण का मकसद महिलाओं का जन्म नियंत्रण के सुरक्षित उपाय उपलब्ध कराना, ताकि वे अपने प्रजनन सम्बंधी निर्णय अपने-आप ले सकें, कत्तई नहीं है. इसका मकसद है राज्य को महिलाओं के शरीर को बच्चे पैदा करने की मशीन समझना, बच्चे पैदा करने के लिये महिलाओं को शर्मिंदा करना और सजा देना, और यहां तक कि सामूहिक वंध्याकरण के रूप में बड़े पैमाने पर हिंसा अभियान चलाना.

2019 के स्वतंत्रता दिवस पर दिये गये भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक जनसंख्या नियंत्रण अभियान चलाने की घोषणा की थी, जिसमें उन्होंने छोटे परिवारों को “देशभक्त” बताया था. बेटी बचाओ और स्वच्छ भारत अभियानों की तरह यह अभियान भी प्रत्यक्षतः लोगों को अपने सामाजिक व्यवहार को बदलने के लिये ‘झटका’ देने की ओर लक्षित है.

अपने भाषण में मोदी ने खुद के शब्दों में “अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि” के खिलाफ एक अभियान चलाने का आह्वान किया. उन्होंने कहा कि यह अभियान छोटे परिवारों के माता-पिता को समझदार और देशभक्त के बतौर पेश करने पर केन्द्रित होगा. उन्होंने कहा, “हमारे परिवार में कोई बच्चा आये, इससे पहले हमें यह सोचना चाहिये, “क्या मैंने अपने बच्चे की जरूरतों को पूरा करने लायक खुद को तैयार कर लिया है? या फिर मैं उसे समाज की दया पर निर्भर छोड़ दूंगा?” यह जुमलेबाजी बच्चे के लालन-पालन (शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और आश्रय) की जिम्मेवारी राज्य और सरकार के कंधें से हटाकर माता-पिता के कंधें पर डाल देती है. बदहाली को माता-पिता की लापरवाही और जिम्मेवारी मान लिया जाता है. “जनसंख्या नियंत्रण” की विचारधारा में हमेशा यही बात निहित रहती है कि गरीब परिवारों और गरीब राष्ट्रों से ही कम बच्चे पैदा करने की उम्मीद की जाती है. सच्चाई यह है कि गरीबी के लिये आबादी जिम्मेवार नहीं है. गरीबी के लिये सम्पत्ति कम दोषी नहीं है. गरीबी को एक ऐसी व्यवस्था जन्म देती है जो अमीरों की झोली भरने के लिये गरीबों का शोषण करती है. राष्ट्रों की गरीबी के लिये उपनिवेशवाद का हिंसक इतिहास जिम्मेदार है, जिसके दौरान इन राष्ट्रों को लूटा गया और उन्हें कंगाल बनाया गया.

लम्बे अरसे तक भारत सरकार की “जनसंख्या नियंत्रण” की नीति, जिसकी सरपरस्ती अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग एजेन्सियां करती रहीं, के परिणामस्वरूप भारत में गरीब महिलाओं के खिलाफ चरम हिंसा ढाई गई है. 2009 और 2012 के बीच, वंध्याकरण शिविरों में नीम हकीमों द्वारा किये गये वंध्याकरण ऑपरेशनों में हर महीने 15 महिलाओं की मौत हुई है. अब “जनसंख्या नियंत्रण” की नीति संभवतः महिलाओं के शरीर के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देगी, और गरीब महिलाओं को “अत्यधिक बच्चे” पैदा करने के लिये शर्मिंदा करेगी.

“जनसंख्या नियंत्रण” अभियानों की महिलाओं को हिंसा का शिकार बनाने तथा उन्हें शर्मिंदा करने की प्रवृत्ति के अलावा, इन अभियानों में खूब संभव एक साम्प्रदायिक संदर्भ भी निहित रहेगा. गुजरात में 2002 में हुए दंगों के बाद मोदी ने कुख्यात रूप से दंगा-पीड़ित मुसलमानों के लिये चल रहे राहत शिविरों को “बच्चे पैदा करने की फैक्टरी” बताया था. 11 जुलाई 2019 को प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस भाषण से बस एक महीना पहले उनके कैबिनेट मंत्री गिरिराज सिंह ने विश्व जनसंख्या दिवस पर दिल्ली में आयोजित एक रैली को सम्बोधित करते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की मांग की थी.

उसी रैली में मंच से एक गाना बज रहा था, “जनसंख्या विस्फोट से अपनी आजादी को खतरा है/ हमको गद्दारों की बढ़ती आबादी से खतरा है”. गिरिराज सिंह ने अपने भाषण में हिंदुओं की आबादी में गिरावट को रोकने और मुस्लिम आबादी की वृद्धि पर अंकुश लगाने के लिये एक कानून बनाने की मांग की. रैली में भाग लेने वालों ने मुसलमानों को देशद्रोही और गैर-जिम्मेदार बताया क्योंकि वे ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, चाहे वे गरीब हों और मोची या साइकिल पंक्चर मरम्मत का काम करते हों.

“लव जिहाद” का हौआ भी इस मिथक से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है कि मुसलमान हिंदू औरतों से इसलिये शादी करते हैं ताकि मुसलमानों की आबादी में वृद्धि हो.

मोदी का “जनसंख्या नियंत्रण” अभियान खूब संभव है कि मुसलमानों को देशद्रोही करार देने तथा उनके खिलाफ भेदभाव तथा हिंसा को बढ़ावा देने का एक और बहाना साबित होने जा रहा है.