वर्ष - 29
अंक - 41
03-10-2020

नीतीश कुमार लगभग 15 वर्षों से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे हैं (थोड़े समय के लिए जीतन राम मांझी ने उनकी जगह ली थी). 2005-15 के दरम्यान उन्होंने एनडीए शासन का नेतृत्व किया. 2015 के चुनाव में एनडीए को शिकस्त मिली, और नीतीश कुमार राजद के साथ ‘महागठबंधन’ में मुख्यमंत्री बने. लेकिन एनडीए ने जनादेश को हथिया लिया और नीतीश कुमार ने उसी भाजपा के साथ संश्रय कायम कर लिया जिसे बिहार की जनता ने बड़े पैमाने पर नकार दिया था. अब, बिहार में फिर विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं, लेकिन एनडीए के पास नीतीश कुमार के नेतृत्व में ‘सुशासन’ के दावों के सिवा कुछ भी पेश करने लायक नहीं है. 2005 से ही इस ‘सुशासन’ का झूठ गढ़ा जा रहा था और प्रचारित किया जा रहा था. एनडीए यह दावा कर रहा था कि सुशासन बाबू नीतीश कुमार के शासन के पहले बिहार में लालू यादव और राजद का ‘‘जंगल राज’’ चल रहा था.

बहरहाल, तथ्य बताते हैं कि सुशासन का दावा हर मानदंड (अपराध, शिक्षा, रोजगार, विपत्ति के चलते पलायन, कृषि, स्वास्थ्य सेवा, मजदूरी आदि) पर झूठ साबित हुआ है. यहां हम अच्छी तरह शोध किए गए लेखों के उद्धरण पेश कर रहे हैं, जिनमें बिहार में विकास के विभिन्न पहलुओं की जांच-पड़ताल की गई है – संपादक

स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में छपी एक रिपोर्ट (‘स्कूली शिक्षा: 20 राज्यों में बिहार का 19 वां स्थान, पॅेरियल रूमी, 4 अक्टूबर 2019) में कहा गया है कि ‘नीति’ आयोग द्वारा जारी ‘स्कूली शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक’ रिपोर्ट में बिहार दूसरे सबसे निचले पायदान पर खड़ा है. मानव संशाधन विकास मंत्रालय, विश्व बैंक और शिक्षा जगत के विशेषज्ञों ने सर्वेक्षण करके इस रैंकिंग को तैयार किया था. जो नतीजे निकाले गए हैं वे अधिगम (लर्निंग), स्कूल तक बच्चों की पहुंच के अनुपात, बुनियादी ढांचा और सुविधाएं तथा छात्रों के साथ समतामूलक आचरण जैसे मानदंडों पर आधारित हैं.

बुनियादी ढांचा और सुविधाओं के के लिहाज से बिहार 10.9% के साथ सबसे नीचे के दूसरे पायदान पर खड़ा है जबकि स्कूल तक पहुंच, अधिगम परिणाम और समतामूलक आचरण के लिहाज से बिहार को क्रमशः 42.9%, 41% और 57.7% हासिल हुआ है.

इस रैंकिंग के अनुसार, स्कूल तक बच्चों के पहुंच के मामले में 9.3% की तीखी गिरावट देखी गई और लगभग 35.9% बच्चे अभी तक स्कूल से बाहर रह गए हैं.

भारत में सबसे ज्यादा निरक्षर लोग बिहार में हैं. लेकिन यहां प्रति प्राथमिक स्कूल छात्रा पर खर्च सबसे कम है. (खूशबू बुलानी की एक रिपोर्ट -जनवरी 2017, इंडिया स्पेंड. काॅम - के उद्धरण). बिहार के क्लास रूम भारत में सबसे ज्यादा भीड़ वाले क्लास रूम होते हैं और यहां सबसे कम शिक्षक हैं. फिर भी, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत का यह छठा सबसे गरीब राज्य प्रति छात्र सबसे कम खर्च करता है.

बिहार के प्राथमिक विद्यालयों (पहली से आठवीं कक्षा तक) में जितनी जरूरत है उसके मुकाबले 37.3% कम शिक्षक हैं और शिक्षा अधिकार कानून के मानदंड पर आधारित हमारे विश्लेषण के अनुसार बिहार में 2,78,602 शिक्षकों की कमी है - इस मानदंड के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों ;कक्षा एक से कक्षा पांच तकद्ध में छात्रा-शिक्षक का अनुपात 30:1 होना चाहिए और उच्च प्राथमिक विद्यालयों (कक्षा 6 से 8 तक) में यह अनुपात 35:1 का होना चाहिए.

‘इंडिया स्पेंड.काॅम’ द्वारा पिछले महीने (यानी, दिसंबर 2016) में प्रकाशित रिपोर्ट में लोकसभा में दिये गए एक उत्तर के हवाले से कहा गया है कि देश भर के लगभग 60 लाख शिक्षक पदों में से लगभग 9 लाख प्राथमिक विद्यालय शिक्षकों के पद और एक लाख माध्यमिक विद्यालय शिक्षकों के पद – यानी कुल मिलाकर, 10 लाख शिक्षक पद – खाली पड़े हुए हैं. इनमें से कम से कम 2 लाख पद बिहार सरकार के प्राथमिक विद्यालयों में खाली हैं.

बिहार भारत का तीसरी सबसे बड़ी आबादी (9.90 करोड़) वाला राज्य है. लेकिन यहां की साक्षरता दर (61.8%) देश में सबसे कम है. जबकि महिला साक्षरता दर (51.5%) नीचे से दूसरे स्थान पर है (2011 की जनगणना).

बिहार के सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने (रीडिंग) का स्तर पिछले पांच वर्षों में गिरा है, जबकि नीजि विद्यालयों में रीडिंग स्तर में सुधार आया है (शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट, 2006-14). यह कोई उत्साहव्यंजक चिन्ह नहीं है, क्योंकि बिहार के लगभग 90% विद्यालय सरकार द्वारा संचालित हैं.

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प्राथमिक विद्यालय में 62% छात्र पढ़ाई पूरी नहीं करते हैं

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के इस शिक्षा प्रोफाइल (2015) के अनुसार बिहार के 6 से 14 वर्ष की उम्र के लगभग 5% बच्चे स्कूल से बाहर रह गए हैं. इन बाहर रह गए बच्चों में 55 % बच्चों का तो कभी दाखिला ही नहीं हुआ और बाकी बच्चों ने बीच में ही स्कूल जाना छोड़ दिया. 2014-15 के आंकड़ों के अनुसार जितने छात्र प्राथमिक विद्यालयों में थे, उनमें से सिर्फ 85% बच्चे उच्च प्राथमिक विद्यालयों में जा पाए – यह अनुपात नगालैंड और उत्तर प्रदेश के बाद भारत में तीसरा न्यूनतम अनुपात है.

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, पहली कक्षा में नामांकित बच्चों में से सिर्फ 1% बच्चे ही अपनी माध्यमिक शिक्षा  (कक्षा 10) पूरी कर पाते हैं.

पर्याप्त संख्या में क्लास रूम और शिक्षक नहीं

बिहार में सरकारी शिक्षा के आंकड़ों के मुताबिक, 2015-16 में यहां 5 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों की संख्या 2 करोड़ 49 लाख थी. इनमें से 2 करोड़ 34 लाख बच्चे ही प्राथमिक विद्यालयों में जा रहे थे. शिक्षकों की कुल संख्या 4,67,877 थी (इनमें ठेका पर नियोजित अस्थायी शिक्षकों के अलावा वैसे विद्यालयों के शिक्षक भी शामिल हैं जहां प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा साथ-साथ चलती थी).

प्राथमिक विद्यालय में 30 छात्रों पर 1 शिक्षक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 35 छात्रों पर 1 शिक्षक के अनुपात के मुताबिक बिहार में कुल 7,46,479 शिक्षक होने चाहिए. बिहार के उच्च प्राथमिक विद्यालयों में छात्रा-शिक्ष्क का अनुपात 24:1 है जो अखिल भारतीय अनुपात (17:1) से ज्यादा है, किुतु निर्धारित मानदंड (35:1) से कम है.

इस राज्य में शिक्षकों के अनुपस्थित रहने का मामला 2003 मं 39% से घटकर 2010 में 28% हो गया है (2014 की रिपोर्ट के अनुसार), फिर भी यह अखिल भारतीय औसत अनुपस्थिति 24% से कहीं ज्यादा है.

बिहार के प्राथमिक विद्यालयों मं क्लास रूम में छात्रों की भीड़ भी काफी ज्यादा है. कक्षा-1 से कक्षा-7 तक प्रति क्लास रूम छात्रों की संख्या (2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक) 51 है, 2012-13 में यह आनुपातिक संख्या 65 थी. इस अनुपात में कमी जरूर आई है, फिर भी यह अखिल भारतीय औसत संख्या 27 से कहीं ज्यादा है.

प्राथमिक शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय

5 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों की संख्या के लिहाज से बिहार भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है (उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है), लेकिन सरकार इन बच्चों की शिक्षा पर काफी कम खर्च करती है.

‘इकाॅनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014-15 में प्राथमिक शिक्षा के लिए बिहार में प्रति छात्र सरकारी व्यय भारत में सबसे कम था. इस वर्ष 18 राज्यां का सर्वेक्षण किया गया था, जिसमें हरियाणा सबसे ज्यादा खर्च करने वाला राज्य था. वहां उस वर्ष प्रति छात्र करीब 39,343 रुपये व्यय किए गए थे, जो बिहार में इस व्या (5,298) का लगभग साढ़े सात गुना था.

बिहार सरकार ने पारा शिक्षक कहे जानेवाले ठेका शिक्षकों को बहाल कर शिक्षक-छात्र अनुपात में सुधार किया है – लेकिन इन्हें स्थायी शिक्षकों के मुकाबले काफी कम वेतन दिया जाता है. उदाहरण के लिए, नालंदा और पूर्णियां में पारा-शिक्षक को हर माह 6400-6800 रुपये दिए जाते थे जबकि स्थायी शिक्षकों का वेतन 23000-28000 रुपये था (2013 का सर्वेक्षण). 2015-16 में, बिहार सरकार ने अपने संपूर्ण शिक्षा बजट की 5.75% राशि विद्यालयों के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए आबंटित की थी – यह राशि उस राज्य के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है जहां एक क्लास रूम में औसत छात्रों की संख्या 51 है.

एनआइआरएफ रैंकिंग बिहार की उच्च शिक्षा के हकीकत को उजागर करती है
(अरुण कुमार, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’, 12 जून 2020)

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत ‘नेशनल इंस्टीट्यूट्शनल रैंकिंग फ्रेमवर्क’ ;(नआइआरएफ) द्वारा जारी रिपोर्ट से देश भर के शीर्ष संस्थानों में बिहार के उच्च शिक्षा संस्थनों की रैंकिंग की दयनीय स्थिति उजागर हो जाती है. इससे इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि बेहतर शिक्षा की तलाश में बिहार से भारी संख्या में छात्रों को बाहर क्यों चले जाना पड़ता है.

देश के शीर्षस्थ 100 संस्थानों में बिहार के अपने किसी भी विश्वविद्यालय या काॅलेज का नाम नहीं है. इस समग्र सूची में एकमात्र नाम है आइआइटी, पटना का जिसका स्थान 54 वां है. लेकिन, जहां देश के शीर्ष 100 इंजीनियरिंग काॅलेजों में इसका स्थान 2016 में 10 वां था, वहीं 2020 में यह नीचे फिसलकर 26 वें स्थान पर आ गया. यहां तक कि 2019 में भी यह 22 वें स्थान पर था.

देश के शीर्षस्थ 100 इंजीनियरिंग काॅलेजों में एक दूसरा नाम एनआइटी, पटना का है जो 92 वें स्थान पर था; हालांकि समग्र 100 शीर्षस्थ संस्थानों में इसकी भी कोई गिनती नहीं होती है. देश के अव्वल 40 काॅलेजों की सूची में बिहार के एक भी मेडिकल काॅलेज का नाम नहीं है. लाॅ काॅलेजों की सूची में बिहार के किसी लाॅ काॅलेज को जगह नहीं मिली है. 

सबसे बुरी दशा तो यह है कि ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं मान्यता परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार मान्यता सूची में भी बिहार के किसी विश्वविद्यालय या काॅलेज का नाम नहीं है.

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बीमार स्वास्थ्य सेवा : कोविड के आइने में

कोविड महामारी फैलने के ठीक बाद भारत के राज्यों की इससे निपटने की तैयारियों के बारे में हालिया अध्ययन से पता चलता है कि बिहार में बेड-जनसंख्या अनुपात सबसे कम है. (‘द हिंदू, ‘हाउ प्रिपेयर्ड आर इंडियाज स्टेट्स इन हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर टु टेक्ल कोविड -19’, विग्नेश राधाकृष्णन, सुमंत सेन, 25 मार्च 2020).

कोविड मामलों की जांच के मामले में भी बिहार सबसे पिछड़ा हुआ है. यहां डाॅक्टर-रोगी अनुपात भी काफी दयनीय है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति एक हजार आबादी पर एक डाॅक्टर होना चाहिए. लेकिन बिहार में एक एलोपैथिक डाॅक्टर औसतन 43,788 लोगों की सेवा करता है.

कोविड के चलते डाॅक्टरों के बीच मृत्यु दर बिहार में राष्ट्रीय औसत का चौगुना ज्यादा है. (‘हिंदुस्तान टाइम्स’, 20 अगस्त 2020). आइएमए, बिहार के वरिष्ठ उपाध्यक्ष डाॅ. अजय कुमार ने कहा है, ‘‘कोविड-19 के चलते देश भर में हुई कुल मौतों की 0.5% संख्या डाॅक्टरों की है, जो राष्ट्रीय औसत से नौ गुना ज्यादा है.’’ इस चौंकाने वाली दुखद स्थिति के कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं. डाॅ. अजय कुमार ने बताया, ‘‘दूसरे राज्यों में कोविड-19 वार्डों में ड्यूटी करनेवाले डाॅक्टर 15 दिनों तक लगातार ड्यूटी करने के बाद 15 दिनों के लिए क्वारंटाइन में रहते हैं. लेकिन, बिहार में ऐसी व्यवस्था का अनुपालन नहीं किया जाता है; परिणामस्वरूप अन्य राज्यों की अपेक्षा हमारे यहां डाॅक्टर कोविड रोगियों के संपर्क में कहीं ज्यादा समय तक रह जाते हैं. तथ्य तो यह है कि बिहार में डाॅक्टर मार्च माह के मध्य से लेकर अब तक लगातार काम कर रहे हैं – उन्हें एक दिन का भी अवकाश नहीं मिल पाया है.’’ जनसंख्या के लिहाज से डाॅक्टरों की बेहद कमी ही इस चिंताजनक हालत की मुख्य वजह है.

इसके अलावा, बिहार में डाॅक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को कम गुणवत्ता वाले सुरक्षा किट्स के साथ कामू करना पड़ता है. आइएमए, बिहार के सचिव उाॅ. सुनील कुमार ने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ को बताया, ‘‘यहां मौजूद सुरक्षा उपकरणों पर सवालिया निशान लगे हुए हैं. सार्वजनिक क्षेत्रा में कार्यरत 50% डाॅक्टरों की आयु 60 वर्ष से अधिक हो चुकी है तथा उन्हें कई तरह की अन्य बीमारियां भी हैं; फिर भी उन्हें सुरक्षित रखने के हमारे अनुरोधों के बावजूद उन्हें कोविड-19 ड्यूटी पर लगा दिया जा रहा है. बहरहाल, डाॅक्टरों की तयशुदा संख्या के 60% पद खाली रहने की वजह से उनकी भारी किल्लत है, और इसी वजह से उम्रदराज डाॅक्टरों को भी सरकार कोई राहत नहीं दे सकी.’’

भाजपा के विडियो अभियान में अपराध पर किए गए चार दावों का खोखलापन
(‘द वायर’, 2 सितंबर में प्राशित उमेश कुमार रे की रिपोर्ट के उद्धरण)

भाजपा की बिहार इकाई ने अपने फेसबुक पृष्ठ पर एक विडियो अपलोड किया है, जो बिहार विधानसभा चुनाव के लिए उसकी डिजिटल मुहिम का एक हिस्सा है. उसमें भाजपा ने दावा किया है कि एनडीए शासन के दौरान बिहार की कानून-व्यवस्था में भारी सुधार हुआ है. विडियो में दावा किया गया है कि यहां न केवल आपराधिक हरकतों में कमी आई है बल्कि सांप्रदायिक हिंसा भी रूक गई है. उसका दावा है कि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में अपराधों की संख्या सबसे कम हो गई है. यह भी दावा किया गया है कि 2005 में एनडीए सरकार बनने के बाद से लालू प्रसाद यादव के 15 वर्षों के शासन की बनिस्बत बिहार में अपराध कम हुए हैं. लेकिन विडियो में किए गए दावों के विपरीत जमीनी सच्चाई कुछ और ही प्रतीत होती है.

दावा-1: अपराध के मामले में बिहार की स्थिति
विडियो में दावा किया गया है कि अपराध के समग्र आंकड़ों के मद्देनजर अभी बिहार देश में 23 वें स्थान पर है, जबकि ‘पहले’ यह तीसरे स्थान पर था. विडियो में यह नहीं बताया गया है कि किस वर्ष या किस समय को भाजपा आधार वर्ष मानती है; सिर्फ इतना ही कहा गया है कि ये आंकड़े ‘राष्ट्रीय अपराध रेकाॅर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) से लिए गए हैं. 

एनसीआरबी द्वारा प्रकाशित आंकड़ों का विश्लेषण करने पर ‘द वायर’ को पता चला कि बिहार 23 वें स्थान पर कभी रहा ही नहीं है. भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) के अंतर्गत दर्ज समग्र आपराधिक मामलों में बिहार चौथे स्थान पर है. अगर आइपीसी और राज्य के स्थानीय कानूनों के अंतर्गत दर्ज आपराधिक मामलों को जोड़ दिया जाए तो बिहार सातवें स्थान पर आ जाता है.

एनसीआरबी ने 2018 तक के आंकड़े प्रकाशित किए हैं. 2019 के आंकड़े सामने आने बाकी हैं. 2018 के लिए एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि आइपीसी के तहत बिहार में 1,96,911 आपराधिक मामले (6.3% राष्ट्रीय मामले) दर्ज हुए थे, सिर्फ मध्य प्रदेश (2,48,350), महाराष्ट्र (3,46,291) और उत्तर प्रदेश में ही बिहार से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हुए थे.

इसी के साथ, अगर आइपीसी और राज्य के स्थानीय कानूनों के तहत दर्ज आपराधिक मामलों को जोड़ दिया जाए तो बिहार में आपराधिक मामलों की कुल दर्ज संख्या 2,62,815 हो जाती है. इस लिहाज से सिर्फ गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश ही बिहार से आगे दिखते हैं.

दावा-2: प्रति एक लाख सिर्फ 222 लोग अपराध से पीड़ित हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह संख्या 383 है
अगर आप महज एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें तो भाजपा का यह दावा सही है, किंतु इसको किसी भी तरह से उपलब्धि नहीं माना जा सकता है. बिहार देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में से एक है, और प्रति एक लाख लोगों पर अपराध पीड़ितों की संख्या की गणना जनसंख्या के आधार पर की जाती है.

एनसीआरबी के एक अधिकारी ने ‘द वायर’ को बताया कि ‘‘हम राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के टेक्निकल ग्रुप के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हैं और यह ग्रुप स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन काम करता है. इस टेक्निकल ग्रुप ने बिहार की आबादी 11.85 करोड़ माना है, प्रति एक लाख की आबादी पर अपराध पीड़ितों की गणना के लिए हमने इसी संख्या का इस्तेमाल किया है.’’

चूंकि बिहार बड़ी आबादी वाला राज्य है, इसीलिए अगर अपराध की दर उफंची भी हो, तो प्रति एक लाख आबादी पर अपराध पीड़ितों की संख्या अपेक्षाकृत कम ही रहेगी.

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दावा-3: अपराध की घटनाओं में कमी
भाजपा ने इस विडियो में कहा कि बिहार में जब से एनडीए की सरकार बनी है, अपराध की घटनाओं में 34% की कमी हुई है.

बिहार में एनडीए की सरकार 2005 में बनी थी. 2004 के लिए और इससे पहले के राज्यवार अपराध के आंकड़े एनसीआरबी की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैंऋ किंतु राज्य अपराध रेकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़े दिखाते हैं कि साल-दर-साल अपराध के मामले बढ़ते गए हैं.

लालू प्रसाद यादव के शासन काल में भाजपा और जद(यू) उस शासन को ‘जंगल राज’ कहते रहे थे, जद(यू) और भाजपा के नेतागण आरोप लगाते रहे हैं कि उस समय अपराध बेलगाम हो गया था.

बहरहाल, राज्य अपराध रेकाॅर्ड ब्यूरो की वेबसाइट पर 2001 से 2019 तक के उपलब्ध आंकड़े खिाते हैं कि हर वर्ष अपराध के मामले बढ़ते गए हैं. जहां 2001 में कुल 95,942 संज्ञेय अपराध दर्ज किए गए, वहीं वर्ष 2004 में यह संख्या बढ़कर 1,15,216 हो गई. वर्ष 2005 में इस संख्या में 10,000 की कमी आई. लेकिन वर्ष 2019 में कुल 2,69,095 संज्ञेय अपराध के मामले दर्ज किए गए जो वर्ष 2004 की संख्या से 1,53,880 अधिक हैं.

हाल ही में एक सवाल का जवाब देते हुए डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने इस वृद्धि का कारण बताया कि पहले काफी कम एफआईआर दर्ज होते थे. उन्होंने कहा, “अब हर थाने को निर्देश दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति की शिकायत की अनदेखी न की जाए, और इसी वजह से बिहार में अपराध के अधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं.”

एनसीआरबी के आंकड़े भी दिखाते हैं कि बिहार में अपराध की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. इसके आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 में आइपीसी और राज्य कानूनों के अंतर्गत कुल 1,89,696 मामले दर्ज किए गए थे, जो वर्ष 2018 में बढ़कर 2,62,815 हो गए.               

दावा 4: बिहार में दंगे या जनसंहार नहीं हुए
वीडियो में भाजपा ने दावा किया है कि बिहार में कोई दंगा या जनसंहार नहीं हुआ, मगर एनआरसीबी के आंकड़े इस दावे का भी खंडन कर देते हैं. विडम्बना है कि आंकड़े दिखाते हैं कि साम्प्रदायिक अथवा धार्मिक हिंसा के मामले में बिहार शीर्षस्थ स्थान पर है.

एनआरसीबी पहले केवल दंगों के आंकड़े प्रकाशित किया करता था, मगर वर्ष 2017 से उसने साम्प्रदायिक और धार्मिक हिंसा के आंकड़ों को अलग से जारी करना शुरू कर दिया है. इन आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2018 में बिहार में 167 साम्प्रदायिक/धार्मिक दंगे हुए और वह सर्वोच्च स्थान पर था. इन दंगों के चलते 339 लोग प्रभावित हुए. उ साल बिहार में कुल मिलाकर 10,276 दंगे हुए थे जो किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा थे. 

वर्ष 2018 में रामनवमी का त्यौहार मनाने के दौरान नौ जिलों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की थी. पिछले साल फरवरी में सीतामढ़ी में साम्प्रदायिक हिंसा ने कुत्सित रूप ग्रहण कर लिया था जहां एक साम्प्रदायिक भीड़ ने दिन दहाड़े एक मुसलमान पुरुष को पीट पीट कर मार डाला और आग में जला दिया था. पिछले साल अक्टूबर में दुर्गा की मूर्ति भसान के दौरान भी साम्प्रदायिक दंगे हुए थे. इस टकराव में एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई थी. कई दुकानों को लूट लिया गया था जिनमें अधिकांश मुस्लिम समुदाय की दुकानें थीं. कहा जाता है कि यह हिंसा एक मुस्लिम बहुल इलाके में दुर्गा की मूर्ति पर पत्थर फेंके जाने की अफवाह के फैल जाने की वजह से हुई थी. ‘द वायर’ से बातचीत के दौरान जहानाबाद शहर के थानाध्यक्ष सत्येन्द्र शाही ने बताया कि “न तो दुर्गा मूर्तियों पर पत्थर फेंके गये थे और न ही उन मूर्तियों को कोई नुकसान हुआ था.”

इन दंगों के शिकार लोगों ने इन घटनाओं में हिंसा को रोकने के लिये जल्द ही कड़ी कार्रवाई न करने के लिये राज्य मशीनरी को ही दोषी ठहराया था. 

भाजपा यह भी दावा करती है कि ये फ्जनसंहारय् बिहार में नहीं हुए, क्योंकि वह संभवतः इस शब्द का इस्तेमाल केवल जातिगत हिंसा के लिये करती है. यह सच है कि एनडीए सरकार के शासन के दौरान कोई जाति आधारित जनसंहार की घटना नहीं हुई है लेकिन जातिगत हिंसा की घटनाएं तो अवश्य हुई हैं. एनआरसीबी के आंकड़ों के अनुसार बिहार में जातिगत हिंसा की 87 घटनाओं को दर्ज किया गया है जिनमें 142 लोग प्रभावित हुए हैं.

जातिगत हिंसा के मामलों के हिसाब से बिहार का स्थान सारे देश में दूसरे दर्जे पर है. 

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बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से दुगुनी
(रायटर, 16 जून 2020)

बिहार में, जो भारत के सबसे बड़े और सबसे गरीब राज्यों में गिना जाता है, जून 2019 को समाप्त होने वाले वर्ष में बेरोजगारी में तीखी वृद्धि हुई है और अब जब चुनाव को कुछ ही महीने बाकी बचे हैं, बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत बेरोजगारी दर की लगभग दुगुनी हो गई है.

राज्य में बेरोजगारी के जो ताजातरीन आंकड़े जारी किए गए हैं, वे तो महज सांकेतिक हें और बेरोजगारी की वर्तमान दर उससे कहीं ज्यादा होने का अनुमान है क्योंकि दसियों लाख की तादाद में बेरोजगार मजदूर कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिये किये गये राष्ट्रव्यापी लाॅकडाउन के चलते अपने घर लौट आये हैं.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जून 2019 को समाप्त होनेवाले वर्ष में बिहार में बेरोजगारी 3% बिंदु बढ़कर 10.2% हो गई जबकि देश की समग्र बेरोजगारी की दर एक साल पहले की दर 6.1% की तुलना में धीमी होकर 5.8% रह गई.

शिक्षित बेरोजगारी

बिहार में आप जितना ज्यादा शिक्षित होंगे आपके बेरोजगार रहने की संभावना उतनी ही बढ़ जायेगी (इंडिया स्पेंड टीम, 11 सितंबर 2015). हालांकि बिहार की गिनती सबसे कम नौजवानों की आबादी वाले राज्यों में होती है, उनमें (15-29 वर्ष के आयु समूह में) बेरोजगारी राष्ट्रीय औसत 13% की तुलना में कहीं ज्यादा 17.5% है.  

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रोजगार की बेताबी से तलाश के चलते प्रवासन मे बृद्धि
(द वायर, 22 जून 2020)

वर्ष 2005 में नीतीश कुमार ने वादा किया था कि बिहार के लोगों को अब से राज्य के बाहर प्रवास में नहीं जाना पड़ेगा. मगर उसके बाद से स्थिति बिल्कुल नहीं बदली है.

बिहार में पेशागत ढांचा बताता है कि यहां श्रम शक्ति का 56% हिस्सा कृषि में नियोजित है (भारत का औसत 44% है) 8% उद्योग में (भारत का औसत 23%) और 36% सेवा क्षेत्र में नियोजित है. कृषि में रोजगार बढ़ाने की क्षमता शून्य या नकारात्मक है.

इसके अलावा कई वर्षों से शहरी इलाकों में बढ़ते अनौपचारिकीकरण तथा रहन-सहन का खर्च बढ़ते जाने की वजह से धीरे-धीरे चक्रीय प्रवासन में वृद्धि हो रही है. 2017-18 में बिहार में आकस्मिक श्रमिकों का हिस्सा (32.1%) भारत के औसत (24.3%) से उल्लेखनीय रूप से ज्यादा था. पिछले तीन वर्षों के दौरान 10% से ज्यादा वृद्धि के साथ बिहार में भारत के औसत से ज्यादा वृद्धि दर रही है. मगर इसकी एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे है.

इसके अलावा बिहार के युवाओं का लगभग 40% हिस्सा बेरोजगार है और बेरोजगारी की दर 2011-12 में 2.5% से बढ़कर 2017-18 में 7.2% हो गई है.

कोरोना के फैलाव के बाद कई अखबारों ने बताया था कि लगभग 25 से 30 लाख प्रवासी मजदूर बिहार लौट आये हैं. एसीआईएमई के सर्वेक्षण में अप्रैल 2020 में बिहार में बेरोजगारी की दर 46.6% बताई गई (जो राष्ट्रीय औसत से 20% बिंदु ज्यादा है). एनएसओ द्वारा किये गये पीएलएफएस  सर्वेक्षण (2019) के अनुसार बिहार में बेरोजगारी (7.2%)  इससे पहले ही राष्ट्रीय औसत (6.1%) से ज्यादा थी. 

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बिहार ने गेहूं की सरकारी खरीद के लक्ष का 1% भी पूरा नहीं किया
(द वायर, 15 सितंबर 2020)

केन्द्र सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़े बताते हैं कि बिहार में सरकार केवल 1002 किसानों से ही फसल की खरीद कर पाई. (सूचना अधिकार कानून के जरिए ‘द वायर’ द्वारा प्राप्त किये गये आंकड़ों के अनुसार, 2020-21 के रबी फसल विक्रय मौसम में, केन्द्र और राज्य की खरीद एजेन्सियों द्वारा) बिहार में उत्पादित गेहूं की फसल के 1% से भी कम की खरीद की.

अनुमान के अनुसार इस साल राज्य में किसानों को 61 लाख मीट्रिक टन गेहूं का उत्पादन करना था, लेकिन सरकार ने केवल 5000 टन की खरीद की जो कुल अनुमानित उत्पादन का केवल 0.081% है. यह तो खुद बिहार सरकार द्वारा निर्धारित 7 लाख टन गेहूं की खरीद करने के लक्ष्य के भी 1% से कम है. (ठीक-ठीक कहा जाये तो उसका 0.71% है.) वास्तव में नीतीश कुमार ने पहले से निर्धारित 2 लाख टन की सरकारी खरीद के लक्ष्य को कोरोना वायरस महामारी तथा किसानों को अपनी फसल की बिक्री में हो रही दिक्कतों को देखते हुए बढ़ाकर 7 लाख टन कर दिया था.

मसलन, 2018-19 में बिहार के किसानों से 17,504 टन की खरीद की गई थी जबकि 2017-18 में 20,000 टन की खरीद की गई थी. यह मात्रा बिहार में उत्पादित गेहूं के फसल के 1% से भी कम है. मगर फिर भी इस साल हुई सरकारी खरीद की तुलना में तो यह ज्यादा है. 2019-20 में सरकारी एजेन्सियों ने इस साल से भी कम अनाज की खरीद की थी – मात्र 2,815 टन. 

इसके पीछे एक कारण है राज्य में सरकारी खरीद के केन्द्रों आई कमी – जो 2015-16 में लगभग 9000 से घटकर 2019-20 में मात्र 1,619 पर आ गई है. खरीद केन्द्रों की संख्या कम होने के कारण राज्य के किसानों का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा ही केन्द्र द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अपनी फसल बेच पाता है.

“हम बिहार में सरकारी खरीद के भरोसे नहीं रह सकते. आम तौर पर निजी आटा मिल और बिस्कुट निर्माता हमारे उत्पाद की खरीद करते हैं. मगर इस साल लाॅकडाउन की वजह से यह भी संभव नहीं हुआ. इसलिए हमको अपने अनाज को न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे दाम पर बेचना पड़ा.” – बिहार के मधुबनी जिले में गेहूं का उत्पादन करनेवाले किसान राजेश यादव ने बताया.

एपीएमसी को खत्म करने पर देश का भविष्य क्या होगा

एक और तथ्य को नोट किया जाना चाहिए कि बिहार में वर्ष 2006 में ही कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) को यात्म कर दिया गया है. संभवतः इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश का भविष्य क्या होगा, क्योंकि केन्द्र ने हाल ही में एक अध्यादेश जारी किया है जो राज्यों के एपीएमसी कानूनों को नकारा कर देती है जिसका विरोध करने के लिए देश के किसान सड़कों पर उतर आये हैं.

इस साल मई में ‘द हिंदू बिजनेस लाइव’ में खाद्य नीति विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा ने बताया था कि बिहार में एपीएमसी कानून को खारिज करने से किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ है. “बिहार को देखिये जहां 2006 में एपीएमसी कानून समाप्त कर दिया गया. सोचा गया था कि इससे बाजार के बुनियादी ढांचे में निजी निवेश को आकर्षित किया जा सकेगा जहां सक्षम बाजार बेहतर कीमत दे सकेंगे. दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.”