वर्ष - 30
अंक - 13
27-03-2021

 

1971 के लोकसभा चुनाव के समय मैं वोटर नहीं था, क्योंकि तब वोटर होने की उम्र इक्कीस साल होती थी. लेकिन उस चुनाव में अपने बूथ पर मैं अपनी पार्टी का पोलिंग एजेंट जरूर था. पोलिंग एजेंट होने के लिए उम्र सीमा नहीं थी. इसके लिए प्रिसाइडिंग अफसर के साथ संक्षिप्त बहस हुई और उसने मुझे पोलिंग एजेंट बनने की इजाजत दे दी थी. तब से अब तक पचास साल हो रहे हैं. और कह सकता हूं कि कम से कम इतने वक्त से बिहार की राजनीति को सक्रिय तौर पर देख-समझ रहा हूं. 1970 का दशक राजनीतिक रूप से बहुत जोरदार था. हमलोगों ने इंदिरा गांधी के समाजवादी तेवर को उभरते देखा, फिर उनकी मनमानी और तानाशाही भी देखी. आपातकाल के आतंक और मुल्क में छाई मुर्दनी को देखा और उसके पूर्व जयप्रकाश आंदोलन के ‘उलगुलान’ को भी. 1977 में इंदिरा गांधी के राजनीतिक अवसान और जनता पार्टी के निर्माण को देखा, तो साथ ही उसके पाखण्ड और बिखराव को भी. 1980 के दशक की भी राजनीति को देखा, जिसमें पंजाब और फिर पूरे देश में साम्प्रदायिक राजनीति का उभार हुआ. 1990 में उस मंडल दौर को भी देखा जब एक समय ऐसा लगा कि देश गृहयुद्ध की ओर बढ़ रहा है. और फिर हमारे सामने है तीस वर्षों का हालिया राजनीतिक इतिहास, जिसे मेरे साथ आप में से अधिकतर ने  इत्मीनान से देखा-भोगा है. हमने बाबरी मस्जिद को ढहते देखा. साम्प्रदायिक-जातीय दंगे देखे. भागलपुर, मुंबई और गोधरा देखा. इधर से उधर जाते विचारहीन-सत्तालोलुप राजनेताओं को देखा. समाजवाद के अवसान और पूंजीवाद के चढ़ते परवान को देखा. कांग्रेस और लेफ्ट को सिमटते और भाजपा को उभरते देखा. संक्षेप में इतना कि पिछली आधी सदी में बहुत कुछ देखा.

लेकिन कल बिहार के संसदीय इतिहास में जो हुआ, वह एक अजीब तनाव देने वाला अनुभव था. इमर्जेन्सी लगते वक्त मैं युवा था और तब अपना क्षोभ बर्दाश्त करने की ताकत थी. भिंडरावाले-प्रसंग चल रहा था और इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, तब भी क्षुब्ध हुआ था, लेकिन उन दिनों भी उम्मीद बनी हुई थी कि इस मुल्क और इसके लोकतंत्र को कुछ नहीं होगा, क्योंकि जनता सब कुछ समझती है. लेकिन कल जो बिहार विधानसभा में हुआ, वह हतप्रभ कर देने वाला अनुभव था. चूंकि अब चलती हुई कार्यवाही को मीडिया माध्यम से कोई भी देख सकता है. इसलिए उस पर नजर थी. जो हुआ, वह सब के सामने है. मामला यह था कि एक विधेयक सदन में प्रस्तुत किया जाना था. इसका नाम है ‘बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक 2021’. इसे लेकर सदन में विपक्ष द्वारा जोरदार प्रतिरोध हुआ. ऐसे प्रतिरोध पहले भी होते रहे हैं. मैं सदन का सदस्य रहा हूं. मेरे कार्यकाल में एक बार इतनी मारपीट हुई थी कि एक सदस्य के कपड़े पूरी तरह फट गए थे और वह केवल अंतर्वस्त्र  में रह गए थे. मार्शलों ने अपना काम किया था. लेकिन पुलिस नहीं बुलाई गई थी. कल सदन में पुलिस बुलाई गई. डीएम और एसपी पुलिस बल के साथ आए. वे सदन में घुस गए और फिर विधायकों की बुरी तरह पिटाई हुई. उन्हें जानवरों से भी बदतर तरह से पीटा-घसीटा गया. इसे सत्तापक्ष की सरकारी गुंडागर्दी के अलावे और क्या कहा जाए?

यह सब कैसे हो सकता है भला! विधानसभा कानून बनाने वाली सभा है. वहां पुलिस का प्रवेश वर्जित है. सदन के अपने सुरक्षाकर्मी होते हैं. उन्हें अध्यक्ष निर्देशित करते हैं. लेकिन वहां अफसर और पुलिस कैसे पहुंच गई. किसने उन्हें आने के लिए आमंत्रित किया? क्या यह सब पूर्वनियोजित था? कल जो सदन में हुआ है वह इतना गंभीर है कि बिहार विधानसभा अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री को नैतिकता के आधार पर तुरंत इस्तीफा करना चाहिए. मैं जानता हूं मेरे जैसे लोगों की ऐसी कामनाओं का कोई मोल नहीं है. क्षुब्ध होने और ऐसी इच्छाएं पालने के अलावे मैं और कर ही क्या सकता हूं.

मैंने आज उपरोक्त विधेयक को अच्छी तरह पढ़ा और उसके औचित्य को समझने की कोशिश की. वह पुलिस बल संबंधी एक विधेयक है, जिसे कल पारित घोषित कर दिया गया. गवर्नर के दस्तखत और गजट होते ही वह कानून हो जाएगा. इस कानून के तहत अब पुलिस को गिरफ्तारी-तलाशी के लिए कोर्ट के वारंट की जरुरत नहीं होगी. न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को सीमित करते हुए पुलिस के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया गया है. प्रथम दृष्टया यह विधेयक ऐसा है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यक्ति को इस पर क्षुब्ध होना चाहिए और इसका प्रतिरोध किया जाना चाहिए. यदि मैं सदन का हिस्सा होता तो निश्चय ही उस प्रतिरोध का भी हिस्सा होता, जो कुछ लोगों को अमर्यादित लग रहा है. जिन लोगों ने ब्रिटिश पार्लियामेंट का इतिहास जाना है, वे किंग चार्ल्स प्रथम का इतिहास भी जानते होंगे, जिन्हें लोकतंत्रवादियों ने 1649 में संसद में ही काट डाला था. लोकतंत्र के लिए हर जगह संघर्ष करना हुआ है. नया पुलिस अधिनियम लोकतंत्र विरोधी है.

बिहार में 1861 और 1895 का बना बंगाल सैन्य पुलिस कानून 2007 तक चल रहा था. नीतीश कुमार के शासनकाल में ही एक नए पुलिस कानून द्वारा उसे निरसित किया गया. लेकिन इतने कम समय में उसे निरसित करते हुए एक नए बिल की जरूरत क्यों आ गई? जबकि प्रदेश में किसी तरह की उग्रवादी या सामाजिक तनाव की स्थिति नहीं है. बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक तो जम्मू-कश्मीर के पब्लिक सेफ्टी एक्ट की तरह है, जिसमें नागरिकों के अधिकार पुलिस की मर्जी पर हैं. जिस नीतीश कुमार को मैं जानता हूँ, उनके दिमाग में ऐसी बातें कहां से आ रही हैं, यह सोच कर मुझे हैरानी होती है. कानून बन जाते ही वह अफसरों की थाती हो जाती है और वे उसका मनमाना अर्थ निकालते हैं. सत्ता पक्ष इसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करता है. इंदिरा गांधी ने जुलाई 1971 में मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) संसद द्वारा पारित कराया था. एक और एक्ट डीआईआर बना था. इन सब का उपयोग भारत की सुरक्षा में होना था. लेकिन कोई तस्कर, कोई कालाबाजारिया या डाकू-चोर इसकी गिरफ्त में नहीं आया. इन कानूनों की गिरफ्त में आए जयप्रकाश नारायण, मोरारजी, चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, जाॅर्ज फर्नांडिस और फिर लालू-नीतीश जैसे नौजवान जो नए समाज का स्वप्न देख रहे थे.

नीतीश कुमार अपने इस नए पुलिस कानून से बिहार की नई राजनीतिक नस्ल को कुचल देना चाहते हैं. उनकी तर्जनी कई दफा उन नौजवान कम्युनिस्ट विधायकों की तरफ उठी है, जो वाकई उनकी आंख की किरकिरी बने हुए हैं. कल भी अपने सम्बोधन में उन्होंने आसन से कहा कि इन नए विधायकों की ट्रेनिंग की व्यवस्था करें. मैं नीतीश कुमार को भी जानता हूँ और इन विधायकों को भी. पूरे जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं कि मुख्यमंत्री को इन विधायकों के साथ संवाद करना चाहिए. लोकतंत्र और राजनीति के कुछ अभिनव पहलुओं को वह उनसे सीख सकते हैं.

– प्रेम कुमार मणि
(पूर्व विधान पार्षद व  साहित्यकार)