वर्ष - 33
अंक - 9
01-03-2024
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सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आखिरकार मोदी सरकार की चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया है- हकीकत में यह योजना हाल के सालों में सबसे बेशर्म घोटालों में से एक रही है- यह देखना सुखद है कि सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार एक फैसला सुनाया जो आज के भारत में खासकर लोकतंत्र में कॉरपोरेट सत्ता के खिलाफ असमान लड़ाई में जनता के अधिकारों की हिमायत कर दिलासा देने वाला है. इस योजना को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 6 मार्च तक दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं की पहचान सहित अब तक भुनाए गए बॉन्डों के बारे में सभी विवरण चुनाव आयोग को सौंपने के लिए भी कहा है ताकि इस जानकारी को 13 मार्च तक सार्वजनिक किया जा सके.

चुनावी बॉन्ड के बारे में सभी कुछ संविधान और लोकतंत्र का खुल्लमखुल्ला मखौल है. इसे 2017 में ‘धन विधेयक’ के हिस्से के बतौर संसद में धोखाधड़ी से पारित किया गया था ताकि राज्यसभा में इस पर बहस न हो, क्योंकि भाजपा के पास वहां बहुमत नहीं था. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी मोदी सरकार ने न्यायिक संयम के सिद्धान्त का इस्तेमाल करने की दलीलें दी जो आर्थिक नीतियों के मामलों पर लागू होता है, और अदालतें आमतौर पर इसमें हस्तक्षेप नहीं करती हैं. इस योजना ने चुनावों में नकदी या काले धन के उपयोग को कम करने के बजाय धन की ताकत के असर को तेजी से बढ़ा दिया. साथ ही, असीमित कॉरपोरेट फंडिंग को गोपनीयता प्रदान कर इस योजना ने मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन और समझ-बूझ कर राजनीतिक विकल्प चुनने की क्षमता को पूरी तरह से कमजोर कर दिया.

चुनावी बॉन्ड योजना की शुरूआत के लिए कंपनी एक्ट- 2013, आयकर कानून-1961 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 सहित कई कानूनों में बड़े संशोधन आवश्यकता पड़ी. इससे पहले, कम से कम तीन वर्षों तक अस्तित्व में रहने वाली कंपनियां ही राजनीतिक चंदे के बतौर पिछले तीन वर्षों में अर्जित औसत लाभ का 7.5% तक दे सकती थी और यह विवरण संबंधित कंपनी के शेयरधारकों के साथ साझा किया जाना जरूरी था. कानून के मुताबिक राजनीतिक दलों को भी 20,000 रुपये से ऊपर के हर चंदे के बारे में विवरण प्रस्तुत करना जरूरी था. चुनावी बॉन्ड योजना ने विदेशी कंपनियों की भारतीय सहायक कंपनियों सहित किसी भी कंपनी द्वारा असीमित चंदा देने का रास्ता खोल कर इन सभी प्रतिबंधों को हटा दिया, और राजनीतिक दलों को कुल प्राप्त चंदा की राशि का जिक्र करने के अलावा अन्य विवरण साझा करने से छूट दी.

मोदी सरकार ने 5 फरवरी को लोकसभा को बताया कि इस योजना के शुरू होने के बाद से 30 किस्तों में 16,518 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड जारी किए गए हैं. राजनीतिक दलों द्वारा नवीनतम वार्षिक रिटर्न जमा करने तक उपलब्ध अंतिम आंकड़े वित्त वर्ष 2022-23 तक के हैं, और इन आंकड़ों के मुताबिक भाजपा को कुल 12,979 करोड़ रुपये में से 6,555.12 करोड़ रुपये मिले थे, जो कांग्रेस द्वारा प्राप्त राशि 1123.29 करोड़ रुपये का लगभग छह गुना ज्यादा है. नवीनतम आंकड़ों को शामिल करने के बाद यह अंतर और भी बड़ा होना तय है. भाजपा और कांग्रेस के बाद विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों जैसे पश्चिम बंगाल में टीएमसी, तेलंगाना में बीआरएस, ओडिशा में बीजेडी, तमिलनाडु में डीएमके और आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी को 350 करोड़ रुपये से अधिक की राशि प्राप्त हुई है.

इस तरह से चुनावी बॉन्ड सत्ता में पार्टियों के लिए कारर्पोरेट फंडिंग का गोपनीय साधन हैं और अधिकांश राज्यों में डबल इंजन सरकार चलाने वाली भाजपा इस योजना से अब तक सबसे ज्यादा फायदे में रही है. इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के चुनावी बॉन्ड खरीदे जा सकते थे. लेकिन जुलाई 2023 तक के आंकड़ों के अनुसार कुल बांड का 94% से अधिक एक करोड़ रुपये और 5 प्रतिशत से अधिक दस लाख के बॉन्ड के जरिये से बेचा गया था. साफतौर से चुनावी बॉन्ड के जरिये धन दान करने वाले बड़े कारपोरेट दानकर्ता हैं, न कि आम आदमी. हमें यह भी समझना चाहिए कि चुनावी बॉन्ड ने कारपोरेट फंडिंग या काले धन के लेनदेन के अन्य माध्यमों की जगह नहीं ली बल्कि, चुनावों और चुनावों के बाद बहुमत साबित करने के लिए खरीद-फरोख्त और सरकारों को गिराने में काले धन का इस्तेमाल हाल के वर्षों में बहुत बढ़ गया है.

चुनावी बॉन्ड के जरिये हासिल किया गया विशाल कारपोरेट चंदा साफतौर से कोई परोपकार या ‘कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी’ का काम नहीं है. एक बार जब विस्तृत आंकड़े प्रकाशित हो जाएंगे और दाताओं तथा प्राप्तकर्ताओं की पहचान सामने आ जाएगी, तो हम इन कारपोरेट चंदों और इसका फायदा उठाने वाले राजनीतिक दलों द्वारा सरकार में रहने के दौरान कारपोरेट्स को दिए जाने वाले पारस्परिक लाभों, और मोदी सरकार और खासतौर से भाजपा शासित राज्यों के बीच एक साफ संबंध देख पाएंगे. योजना की हिफाजत के नाम पर गोपनीयता का पर्दा हकीकत में इस पारस्परिक फायदेमंद संबंधों और सरकार से निकटता रखने वाले कारपोरेटों और उनके राजनीतिक साझेदारों के बीच बढ़ती दोस्ती को छिपाने के लिए है. चुनावी बॉन्ड योजना बुनियादी तौर से अनियंत्रित और असीमित कारपोरेट घूसखोरी को वैध बनाने का हथियार है, जिसने पहले ही भारत की चुनावी प्रक्रिया को बेहद विकृत कर दिया है. यह कुछ हाथों में धन के बड़े पैमाने पर केंद्रीकरण और भारत के बड़े कारपोरेटों की सबसे पसंदीदा पार्टी के पक्ष में चुनावी संतुलन के बढ़ते झुकाव का जरिया है.

अभी यह देखना बाकी है कि आज संवैधानिक भारत की हर संस्था को नियंत्रित करने वाली मोदी सरकार, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और चुनाव आयोग वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करती है या नहीं. सरकार की प्रतिक्रिया चाहे जो भी हो, भारत मे खतरे से घिरे लोकतंत्र के लिए देर से ही आये इस फैसले से हम भारत के लोगों की हौसला-अफजाई होनी चाहिए और गणतंत्र को पुनः हासिल करने की लड़ाई को तेज करना चाहिए. फासीवाद की सभी किस्मों की आधारशिला कारपोरेट सत्ता और राज्य सत्ता के बीच के रिश्ते को उजागर करने के लिए चुनावी बॉन्ड घोटाले के पर्दाफाश का उपयोग करना एक अहम तात्कालिक कार्यभार है. और इतना ही महत्वपूर्ण इस सरकार को वोट से बेदखल करना है जिसने इस असंवैधानिक योजना को जनता पर थोपा और सत्ता हासिल करने और अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने के लिए गलत तरीके से फायदा उठाया.