वर्ष - 31
अंक - 40
01-10-2022
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आरएसएस के प्रमुख सिद्धांतकार व भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने अपने हाल के एक लेख ‘डिकोलोनाइजिंग द इंडियन माइंडसेट’ में लिखा है कि भारत के प्रधानमंत्री औपनिवेशिक उत्पीड़न के संस्थाओं व प्रतीकों के पूरी तरह से उन्मूलन के अपने विचारों के प्रति दृढ़ संकल्पित हैं. भारतीय मानस के वि-औपनिवेशिकरण का उनका यह प्रोजेक्ट स्पष्ट और खास लक्ष्यों को केंद्रित है. फिर अपने चरित्र के मुताबिक राकेश सिन्हा नेहरू पर हमलावर होते हैं. वे कहते हैं कि नई दिल्ली में इंडिया गेट पर सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा की स्थापना स्वतंत्रता संग्राम के इस नायक के सम्मान से कहीं अधिक उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की प्रकृति के निर्धारण और भारत के अतीत को पारिभाषित करने के विभिन्न विचारों की लंबी लड़ाई के लिहाज से महत्वपूर्ण है. वे कहते हैं कि सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दों को लेकर कुलीनों और आम जनता के बीच धारणा के स्तर पर खाई रहती है, जो लगभग सभी उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में मौजूद है. यह खाई हमारे देश में भी मौजूद है.

आगे लिखते हैं कि पश्चिम की वैचारिकी ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के आख्यानों को प्रभावित किया. सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में गठित इंडियन नेशनल आर्मी के प्रति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अभिजात वर्ग लगातार उदासीन रहा क्योंकि इसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारत के लिए जर्मनी और जापान से समर्थन मांगा था. इसे फासीवाद और सैन्यवाद को वैध बनाने वाला माना जाता रहा – मानो ब्रिटेन भारत में दमन नहीं कोई परोपकार कर रहा हो.

वे कहते हैं कि आरएसएस भारत के अतीत को राष्ट्र का आधारभूत आधार मानता है और वह इतिहास को उसकी निरंतरता में देखता है. नेहरूवादियों और मार्क्सवादियों के विपरीत, आरएसएस के लिए भारत एक सभ्यतागत राष्ट्र है.

यूरोसेंट्रिस्ट विचारों को खत्म कर नरेन्द्र मोदी नए भारत को उस दिशा में ले जाना चाहते हैं जहां वह भारतीय ज्ञान परंपरा के संसाधनों का उपयोग करता है. यह परंपरा वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, महाभारत और तिरुवल्लुवर व तुलसीदास जैसे महान संतों और कवि-दार्शनिकों के लेखन से सामने आता है. 20 वीं सदी में भी भारतीयों ने कला, साहित्य और सामाजिक विज्ञान में उत्कृष्टता का प्रदर्शन किया था. इस युग का नेतृत्व टैगोर, लोकमान्य तिलक, बीसी पाल, महर्षि अरबिंदो और अन्य महापुरूषों ने किया था. यह सुधार लोगों की सामूहिक आकांक्षा है और इसे सामूहिक प्रयास से हासिल किया जा सकता है – विचारधारा और पार्टी की सीमाओं से परे. यह दर्शन, कला और संस्कृति के माध्यम से भारत की श्रेष्ठ स्थिति को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखता है. इसके बिना भारत की कल्पना की नहीं की जा सकती.

क्या सच में भाजपा और आरएसएस भारत में वि-औपनिवेशिकरण का विचार रखते हैं? तथ्यों की सिलसिलेवार प्रस्तुति ही उनके झूठ का पर्दाफाश कर देता है. 8 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट पर कर्तव्य पथ का उद्घाटन करते हुए कहा कि ‘राजपथ’ गुलामी का प्रतीक था. इसी तरह, आईएनएस विक्रांत की कमीशनिंग के दौरान, मोदी ने एक नए भारतीय नौसेना ध्वज का अनावरण किया जिसमें पुराने सेंट जॉर्ज क्रॉस को गिरा दिया गया और एक नया प्रतीक चिन्ह जोड़ा गया. प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि यह बदलाव भारत को औपनिवेशिक अतीत से दूर ले जाने का प्रयास है, लेकिन 9 सितंबर को अगले ही दिन मोदी सरकार उपनिवेशवाद और गुलामी के प्रतीकों के प्रति अपनी ऐतिहासिक वफादारी की असलियत छुपा न सकी. सरकार ने दुनिया भर में सैकड़ों वर्षों के औपनिवेशिक शोषण, गुलामी और लूट की प्रतीक ब्रिटेन और उत्तरी आयरलैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के सम्मान में 11 सितंबर को पूरे देश में राष्ट्रीय ध्वज आधा झुकाने का आदेश जारी कर दिया.

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय नेताओं में कई बहसें थीं. यह सच है. सुभाषचंद्र बोस गांधी जी के विरोध के बावजूद कांग्रेस के अध्यक्ष बने लेकिन उन्होंने हमेशा गांधी को ही अपना नेता माना. सुभाषचंद्र बोस द्वारा आजादी की लड़ाई के दौरान जर्मनी व जापान जैसी फासीवादी सरकारों से समर्थन मांगने से राष्ट्रीय नेताओं के इंकार को आरएसएस हथियार बनाता है. 1942 में आजादी के निर्णायक जंग का ऐलान करने वाले नेताओं को हिटलर व मुसोलिनी का खतरा अच्छे से पता था. हिटलर तो और कोई नहीं साम्राज्यवादी गिरोहों का ही सबसे पतित व घिनौना रूप था. आरएसएस उसी हिटलर व मुसोलिनी को अपना आदर्श मानते रहा है. दूसरी ओर, देश के अंदर उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उसने हमेशा नकारात्मक भूमिका निभाई. आरएसएस के बड़े विचारक गोलवलकर ने स्वतंत्रता संग्राम को विनाशकारी बतलाकर हमेशा उसकी भर्त्सना की. सावरकर द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य से बारंबार माफी मांगने का इतिहास आज हर किसी के पास है. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने में ब्रिटिश हुकूमत की मदद की. कुल मिलाकर इन ताकतों ने पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों व उपनिवेशवाद से मुक्ति की बजाए अपना पूरा ध्यान भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने की तरफ बनाए रखा.

पंडित नेहरू पर आरएसएस के हमले की जांच-पड़ताल हमारा बुनियादी बिंदु नहीं है. राकेश सिन्हा द्वारा उठाया गया यह तर्क कि अभिजात समुदाय व जनता के बीच उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर खाई मौजूद थी, हमारे लिए महत्वपूर्ण है. निसंदेह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक आंतरिक तनाव मौजूद थे, लेकिन वह औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ संघर्ष की ताकतों की व्यापक एकता के निर्माण में सफल रहा. यह उसकी खासियत रही. भारत के इतिहास में अंग्रेज वे पहली ताकत थे, जिन्होंने उसके पूरे सामाजिक ताने-बाने को झिंझोड़ दिया था. इसलिए अंग्रेजों से प्रभावित एक राष्ट्रवादी समूह था जिन्हें सच में लगता था कि भारत अपने उस अतीत से बाहर निकल सकेगा जहां लोगों को मानवविरोधी कट्टर जाति व्यवस्था में बांध दिया गया है. दूसरी ओर औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा भूमि संबंधों में किए गए बदलावों व जमींदारी व्यवस्था को जबरन थोप देने के खिलाफ आदिवासियों-किसानों व आम जनता के निरंतर विद्रोह का भी इतिहास है. सच कहा जाए तो हमारा राष्ट्रीय आंदोलन अपनी तमाम सीमाओं व आंतरिक तनावों के बावजूद अंततः विश्व का सबसे बड़ा उपनिवेशवादी विरोधी आंदोलन साबित हुआ. आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा इसे झुठलाने की कोशिश करते हैं.

यह सही है कि 1947 में आजाद हुए भारत ने अपने समक्ष रखे लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद जैसे मूल्यों के बावजूद कई औपनिवेशिक कानून जारी रखे. बिना किसी बदलाव के संपूर्ण नौकरशाही एवं सैन्य व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया. अब मोदी सरकार कह रही है कि वह औपनिवेशिक कानूनों को खत्म कर रही है. सच्चाई क्या है? क्या औपनिवेशिक काल के सारे कानून गलत हैं? मोदी सरकार का खेल देखिए. वह उन कानूनों को खत्म कर रही है जिसे देश की जनता व श्रमिकों ने औपनिवेशिक दौर में लड़कर हासिल किया था. वह श्रम कानूनों को खत्म कर रही है लेकिन राजद्रोह जैसे कानून को जारी रखे हुए है. इस काले कानून को खुद अंग्रेजों ने खत्म कर दिया. यूएपीए भी मोदी राज में जारी है. सच तो यह है कि इन काले कानूनों का पहले की तुलना में कहीं ज्यादा दुरूपयोग हो रहा है. इन्हीं कानूनों के तहत आज बहुत से आंदोलनकारियों को जेलों में डाल दिया गया है, जहां उन्हें मच्छरदानी तक के इस्तेमाल के लिए कोर्ट से इजाजत मांगनी पड़ती है. राजद्रोह जैसे कानूनों का सबसे गलत इस्तेमाल यदि भारतीय शासन के किसी कालखंड में हुआ है तो वह है मोदी का शासन काल. मोदी सरकार औपनिवेशिक माइंडसेट को ठीक करने के नाम पर नई शिक्षा नीति लेकर आई जो अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म कर हिंदी लागू करने की वकालत करती है. सच्चाई क्या है? यह हिंदी संस्कृतनिष्ठ हिंदी है, जिसमें धीरे-धीरे उर्दू के शब्द गायब कर दिए जा रहे हैं. गैरहिंदी भाषी क्षेत्रों पर हिंदी थोपने का प्रयास जारी है. स्पष्ट है कि भाजपा वि-औपनिवेशिकरण के नाम पर करना कुछ और ही चाहती है.

औपनिवेशिक सत्ता के वफादार-चाटुकार देश को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त क्या करेंगे? उनका इरादा कुछ और ही है. इस वि-औपनिवेशिकरण की ओट में आरएसएस वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, महाभारत आदि की परंपरा को (जब भारत उनके लिए सभ्य था) नए भारत का आधार मानता है. बहुत अच्छा, लेकिन राकेश सिन्हा बौद्ध-जैन-आजीवक ग्रंथों की चर्चा क्यों नहीं करते? वेदों के कर्मकांड के खिलाफ बुद्ध के नेतृत्व में उठ खड़े हुए सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण की चर्चा क्यों नहीं करते? तिरूवल्लुवर और तुलसीदास की चर्चा वे करते हैं; लेकिन कबीर, नानक और सूफी संतों की कोई चर्चा नहीं करते. जाहिर सी बात है कि प्राचीन भारत में हुए ब्राह्मणवाद विरोधी ऐतिहासिक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन और मध्यकाल में विकसित भारत की ऐतिहासिक गंगा-जमुनी तहजीब के विपरीत आरएसएस प्राचीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सभ्यता का आधार मानता है और भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को सैद्धांतिक आधार प्रदान करने वाला मनुस्मृति के विधान को ही देश का संविधान घोषित कर देने के लिए बेचैन है. इसके लिए वह वि-औपनिवेशिकरण की जुमेलबाजी कर रहा है. और इस उपनिवेशवाद में वह मध्यकाल को भी शामिल कर लेने का दुष्चक्र रच रहा है.

भारत में अंग्रेजों के साम्राज्य को उपनिवेशवादी क्यों कहा जाता है? क्या यही हम दिल्ली सल्तनत या मुगल शासकों या दूसरे देशों से आए अन्य शासकों के बारे में कह सकते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं. अंग्रेजों के पहले जितने भी लोग भारत में आए चाहे आर्य हों, शक हों, कुषाण या तुर्क या मुगल – यहीं के होते गए. लेकिन अंग्रेजों ने हमेशा भारत की कीमत पर लंदन के कारखानों का विकास चाहा. वे लगातार श्वेत नस्लवाद से ग्रस्त रहे. बंगाल के मैदानों को कब्रगाह बनाते रहे. मद्रास के बोर्ड आफ रेवन्यू के अध्यक्ष जॉन सुलिवन ने उसी वक्त टिप्पणी की थी कि “हमारी प्रणाली बहुत कुछ स्पंज की तरह काम करती है जो गंगा के तटों से सभी अच्छी चीजों को सोखकर टेम्स के तटों पर निचोड़ देती है.” भारत में अंग्रेजी साम्राज्य इसलिए उपनिवेशवादी है क्योंकि उसने भारत के कच्चे माल व संसाधनों से अपने देश का विकास किया और दुनिया के दूसरे देशों पर आधिपत्य जमाया और इसलिए भारत ऐतिहासिक तौर पर अल्पविकास का शिकार हुआ. मध्यकाल के शासकों ने जो भी कार्य किए वे देश के अंदर न कि वे खलीफा का साम्राज्य रौशन कर रहे थे.

18 वीं सदी में शुरू हुए सामाजिक आंदोलनों की प्रकृति की हम चर्चा करें. यह नवजागरण अतीत के प्रति मोहित नहीं था बल्कि तर्कणा व मानवतावाद पर आधारित था. सामाजिक रूढ़ियों व बंदिशों के खिलाफ उठी आवाज में राजा राममोहन राय से लेकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर, यंग आंदोलन के नेता डेरोजियो, केशवचंद्र सेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, बंबई में बाल शास्त्री जांबेकर आदि योद्धा थे. डच घड़ीसाज डेविड हेयर थे. इन समाज सुधारकों ने किसी प्राचीन काल की पुनर्वापसी का मसला नहीं उठाया, बल्कि सामाजिक सुधारों को अपने केंद्र में रखा. बाद के विचारकों व समाज सुधारकों में ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख, डीवी कर्वे, नारायण गुरू, पेरियार, तेलगूभाषी वीरेशलिंगम, रानाडे आदि ने तो और मूलगामी रूख अपनाया और कट्टर जाति व्यवस्था के खिलाफ अभियान पर अभियान चलाए. महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ी. शिक्षा का अलख जगाया. विवेकानंद ने भी जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना की. मुस्लिम व अन्य दूसरे धर्मों में भी सामाजिक सुधार के आंदोलन शुरू हुए.

ठीक इसी समय उपनिवेशवादी ताकतों ने भारत में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच संप्रदायवाद की चेतना भी जगाई. 1880 के पहले इस देश में शायद ही कभी सांप्रदायिक दंगे हुए हों. 1857 की क्रांति में हिंदू-मुसलमानों की चट्टानी एकता से घबराए अंग्रेजों ने समझ लिया था कि इस एकता को तोड़े बिना भारत में शासन करना संभव नहीं है. उपनिवेशवादी मानसिकता के इतिहासकार आर. कूपलैंड तो यहां तक कहते हैं कि भारत में ब्रिटिश शासन के बने रहने का कारण ही हिंदू-मुसलमान के बीच लगाए गए झगडे़ थे. 1880 के आस-पास ही हम सामाजिक सुधार आंदोलनों की एक धारा को पुनरूत्थानवाद में बदलते देखते हैं, जो वेदों की ओर लौट चलने का नारा दे रहे थे. विष्णु कृष्ण चिपलुणकर, दयानंद जैसे पुनरूत्थानवादियों ने आक्रामक हिंदू अस्मिता को जगाया. यही धारा आरएसएस का वैचारिक आधार बना. इस्लाम में भी पुनरूत्थानवादी प्रवृतियां थीं, जो हमेशा ब्रिटिशभक्ति करती रहीं, लेकिन इस्लाम की सुधारवादी प्रवृतियां ही प्रभावी साबित हुईं और आजादी के आंदोलन की मुख्य धारा से जुड़ती चली गई.

आजादी के बाद का नया राष्ट्र कैसा बनाना है, इसकी विस्तृत रूपरेखा हमारे संविधान ने खींच रखी है. एक संप्रभु-लोकतांत्रिक-समाजवादी-धर्मनिपरेक्ष भारत का स्वप्न आजादी की लड़ाई के गर्भ में ही पनप रहा था. राजनीतिक आजादी के साथ-साथ आर्थिक व सामाजिक आजादी भी. डॉ. अंबेडकर की चिंता का मुख्य सरोकार यह था कि अंग्रेज तो चले जाएंगे, राजनीतिक आजादी तो आ जाएगी लेकिन कट्टर जाति व्यवस्था व ब्राह्मणवाद की सामाजिक गुलामी से मुक्ति का क्या होगा? इस सामाजिक गुलामी से मुक्ति की पंरपरा बुद्ध व कबीर के सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण से जुड़ता है न कि वेदों से.

महारानी एलिजाबेथ की मौत पर राष्ट्रीय ध्वज को झुकाने का आदेश निर्गत करने वाले आरएसएस के लोग भारतीय जनमानस को अंग्रेजी मानसिकता से छुटकारा क्या दिलायेंगे, ये तो उनके वफादार उत्तराधिकारी हैं, जो खुद को ‘भूरे साहब’ के बतौर पेश कर रहे हैं जिसके प्रति भगत सिंह ने हमें बहुत पहले सचेत किया था. भारत को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक, धर्मनिपरेक्ष व समाजवादी राष्ट्र से बेदखल करके हिंदू राष्ट्र बनाने का उनका स्वप्न कभी कामयाब नहीं होगा.