वर्ष - 31
अंक - 52
24-12-2022

“हमारे मुल्क में जब नफरत के लंबरदार नंगा नाच रहे हैं, हर कहीं इंसान को इंसान से अलग करने की घिनौनी कोशिशें चल रही हैं, वहां प्याार और इंसानियत की बात करना, हाशियेे पर खड़े किसी की हक की बात करना जोखिम का काम हैं, पर हमें यह करना है. हमें सचेत रहना होगा कि जिस डिजिटल टेक्नोलाॅजी का इस्तेमाल अब बेहतरीन फिल्में बनाने में हो रहा है, उसी का इस्तेमाल मानव-विरोधी ताकतें हमारे जेहन में जहर फैलाने के लिए कर रही हैं, हमें इस माध्यम का इस्तेमाल इंसानियत को वापस लौटाने के लिये करना है. सत्ता की शह पर नफरतियों ने भी फिल्म तकनीक का इस्तेमाल औजार की तरह करना आरंभ कर दिया है, ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी जहरीली फिल्म इसी का उदाहरण है. लेकिन अच्छी बात यह है कि उम्दा कलाकार और फिल्मकार हमेशा सच और न्याय के हक में खड़े होते हैं, जैसा कि इजराइल के नामी प्रतिरोधी फिल्म निर्देशक लापिड ने इस फिल्म की सख्त शब्दों में आलोचना करके की.” हिरावल द्वारा 19 से 21 दिसंबर 2022 तक आयोजित तेरहवें ‘प्रतिरोध का सिनेमा: पटना फिल्मोत्सव’ का उद्घाटन करते हुये सुप्रसिद्ध कवि, वैज्ञानिक और विभिन्न सामाजिक सवालों से गहरे सरोकार रखने वाले प्रो. हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’ ने ये विचार व्यक्त किये.

लाल्टू ने कहा कि हमें एक दूसरे से जुड़ना है. अलग-अलग रंग हों, पर मकसद प्यार और बराबरी हो, तो हम सब एक हैं. वैचारिक बहसें और लड़ाईयां चलती रहेंगी, पर फिलहाल फासीवादी ताकतों को हराना प्राथमिकता होनी चाहिए. यदि अपने बिखराव की वजह से हमने फासीवादियों के हाथ में पूरी तरह नकेल दे दी, तो इस तरह के फिल्म उत्सव भी बंद हो जायेंगे. हमें ज्यादा से ज्यादा वह माहौल बनाना है, जहां ऐसी फिल्में बिना किसी भय-डर के दिखाई जा सकें. इसके लिए बड़े नागरिक मंच की जरूरत है, जो फासीवादी ताकतों के खिलाफ खड़ा हो. हमें अपने हर बिखराव को समेटना होगा.

फिल्मोत्सव स्वागत समिति के अध्यक्ष यादवेंद्र ने अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए कहा कि यह फिल्मोत्सव यथास्थिति को बदलने की एक कोशिश है. हमारे बीच ज्यादा से ज्यादा बेचैन करने वाला सिनेमा आना चाहिए. सिनेमा सामूहिक प्रतिक्रिया देता है. एक अच्छी फिल्म बदलाव की इच्छा को बढ़ा सकती है. इस बार फिल्मोत्सव का थीम ‘हाशिये की कहानी: सिनेमा की जुबानी’ रखा गया था और यह महान फिल्मकार गोदार और सुप्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार की स्मृतियों को समर्पित था.

उद्घाटन सत्र में फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण भी किया गया. सत्र का संचालन प्रीति प्रभा ने किया. इस मौके पर संजय कुमार कुंदन, मनोज झा, दीपक ठाकुर, द्दतेश कुमार, साकिब अहमद, सौरभ कुमार, फातिमा एन, विशाल पांडेय आदि भी मौजूद थे.

फिल्मोत्सव का पर्दा ऋतेश कुमार द्वारा निर्देशित ‘संवदिया’ फिल्म से उठा, जो रेणु जी की प्रसि( कहानी पर आणारित थी. पहले दिन द्दतेश कुमार द्वारा ही निर्देशित अरुण प्रकाश की कहानी ‘लौट रही है बेला एक्का’ पर आधाारित फिल्म का भी प्रदर्शन हुआ. ये फिल्में अलग-अलग वर्गों और समुदायों की महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता की बानगी थीं.

फिल्मोत्सव के दूसरे दिन तीन फिल्मों का प्रदर्शन हुआ, जो अल्पसंख्यकों के राज्य प्रायोजित दमन, मानवीय त्रासदी, स्त्रियों की अंतहीन पीड़ा और आदिवासियों की आजीविका आदि से संबंधित प्रश्नों और समस्याओं से संबंधित थीं. ‘इन द नेम ऑफ काउ: गाय के नाम पर की जाने वाली नृशंस राजनीति का विरोध करने वाली सशक्त फिल्म थी, जिसका निर्देशन शाहिद कबीर और प्रवीण सिंह ने किया है. पटना फिल्मोत्सव में ही इस फिल्म का प्रीमियर हुआ. कम अवधि की होने के बावजूद यह अत्यंत प्रभावी फिल्म थी. फिल्म का निर्देशन काफी चुस्त था. सोनल झा और ‘कोर्ट’ फिल्म में अपने अभिनय के लिये चर्चित स्मृतिशेष एक्टिविस्ट वीरा साथीदार ने इस फिल्म में जीवंत अभिनय किया है.

प्रभाषचंद्र निर्देशित फिल्म ‘आई एम नाॅट द रिवर झेलम’ इस बार के फिल्मोत्सव की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण फिल्म थी. इस फिल्म में शासकवर्गीय राजनीति के कश्मीर संबधी विमर्श से इतर वहां के लोगों के दमन, अंतहीन यातना, पीड़ा की सच्चाई का बयान था. वहां के बाशिंदों की आवाजें मानो शांत कर दी गयी हैं. घुटन, भय और उदासी की छाया लगातार बनी रहती है. फिल्म की नायिका के हवाले से प्रसिद्ध फिल्म आलोचक नम्रता जोशी ने ठीक ही लिखा है कि “इतिहास में कहीं भी, किसी भी संघर्ष की स्थिति में भुगतती हमेशा स्त्री ही है, वह चाहे अफगनिस्तान हो, फिलीस्तीन, सीरिया या फिर यूक्रेन. अफीफा और उनके निकट परिजनों द्वारा अनुभूत सच, व्यक्तिगत आघात के जरियेे कश्मीर में व्याप्त सतत अनिश्चितता, भय और चिंता को जिस तरह उभारते हैं, वह अद्भुत है.” फिल्म का स्पष्ट संदेश है कि जो अन्याय है, जो शोक है, उसे लोगों की स्मृतियों से मिटाया नहीं जा सकता.

युवा फिल्मकार रूपेश कुमार साहू निर्देशित फिल्म ‘रैट ट्रैप’ उन आदिवासियेों के जीवन-संघर्ष पर केंद्रित थी, जो आजीविका के लिए वैसे खदानों से कोयला निकालने को विवश होते हैं, जहां कोई सुरक्षा नहीं है, जिनके धंस जाने का खतरा रहता है और उसमें मृत्यु हो जाने पर उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता. फिल्म इस पर भी सवाल उठाती है कि आदिवासियों की जमीनें तो इस वादे के साथ कोयला खनन के लिए ली गयीं कि खनन के बाद गड्ढों को भरकर उन्हें वापस कर दी जायेंगी. लेकिन उन्हें अपनी जमीनें नहीं मिलीं. सरकारें उन पर गैरकानूनी ढंग से खनन का आरोप लगाती हैं, जबकि सच्चाई यह है कि खनन के इस पूरे धंधे का नियंत्रण कोयला-माफियाओं के हाथों में है. जाने-माने फिल्मकार मेघनाथ और बिज्जू टोपो इसके प्रोड्यूसर हैं.

फिल्मोत्सव के आखिरी दिन की “शुरूआत नई पीढ़ी के दो स्थानीय फिल्मकारों निर्देशित फिल्मों – ‘ट्रान्सफार्मेशन’ (प्रियस्वरा भारती) तथा ‘शी’ (शफा बारी) के प्रदर्शन से हुई. ‘ट्रान्सफार्मेशन’ ऐसे ट्रान्सजेंडर्स  पर केंद्रित फिल्म थी, जिन्होंने तमाम उपेक्षाओं और चुनौतियों का सामना करते हुए जीवन में गरिमापूर्ण मुकाम हासिल किया है. तेरह मिनट की अवधि की फिल्म ‘शी’ यौनहिंसा और बलात्कार पीड़िताओं के जीवन से जुड़े गंभीर सवालों को उठाने वाली फिल्म थी. सवाल है कि कुछ सहानुभूति, कैंडल मार्च, कुछ विरोध, कुछ रोष ही पर्याप्त है? क्या समाज पीड़िताओं को दाोषी मानना बंद कर देता है? क्या उन्हें न्याय मिलता है? यदि किसी को मिलता भी तो कितने दशक लग जाते हैं? बलात्कारियों को सजा मिल जाने के बावजूद पीड़िता को सवालों, नफरत और परेशानियों से भरा जीवन क्यों जीना पड़ता है? जाहिर है ऐसे मुश्किल सवालों के समाधान से भविष्य का जनतांत्रिक मानवीय समाज बन सकता है.

स्त्रियों के संदर्भ में ही समाज को बदलने के प्रयास से जुड़ा था फिल्मकार और रिसर्चर फातिमा एन. और प्रतिरोध का सिनेमा अभियान से जुड़े सौरभ कुमार द्वारा दर्शकों से किया गया संवाद – न्यू मीडिया इन्सिएटिव एंड जेंडर’. इस संवाद में लैंगिक समानता और संवेदनशीलता को लेकर न्यू मीडिया के क्षेत्र में हो रहे प्रयासों का विस्तार से जिक्र हुआ.

आम तौर पर सांप्रदायिक कत्लेआम और विध्वंस के बाद की तस्वीरें तो बार-बार दिखायी पड़ती हैं, पर पीड़ित लोगों के दर्दनाक अनुभव उनके साथ कम सुनायी पड़ते हैं. ऐश्वर्या ग्रोवर निर्देशित फिल्म ‘मेमोवायर्स ऑफ सायरा एंड सलीम’ गुजरात के गुलबर्ग सोसायटी में राज्य प्रायोजित कत्लेआम की पृष्ठभूमि में इसी विउम्बना को दर्शाती है.

गहरे राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों वाली फिल्म ‘मट्टो की साइकिल’ से तेरहवें पटना फिल्मोत्सव का पर्दा गिरा. इस फिल्म का प्रीमियर बुशान अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में हुआ था. ‘मट्टो की साइकिल’ फिल्म निर्देशक प्रकाश झा के जीवंत यथार्थपरक अभिनय के लिए तो चर्चा में है ही, यह अपने कंटेट के कारण भी मौजूं है. एम. गनी निर्देशित यह फिल्म ‘अच्छे दिन’ और तथाकथित विकास की राजनीति के शोर के विरोध में गरीब-अभावग्रस्त-मेहनतकश लोगों के कष्टों को अभिव्यक्ति देने की कोशिश है. मट्टो की पुरानी साइकिल मानो उसके साथ करोड़ों मजदूरों के मुश्किलों भरे जीवन का रूपक है.

फिल्मोत्सव की ओर से चर्चित कवि मुसाफिर बैठा ने निर्देशक प्रभाष चंद्र और वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी ने निर्देशक एम. गनी को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया. पूरे फिल्मोत्सव के दौरान राजधानी पटना समेत बिहार के अन्य हिस्सों से आये सैकड़ों सुधि दर्शकों न केवल इन फिल्मों को देखा, बल्कि निर्देशकों से सवाल भी पूछे.