वर्ष - 31
अंक - 31
30-07-2022

भारत का उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष, अथवा स्वतंत्रता आन्दोलन, भारत के इतिहास में एक दीर्घकालीन और वैविध्यपूर्ण अध्याय रहा है. यह अनेकानेक संघर्षों से गुंथा हुआ चित्रपट है जिसने आधुनिक भारत की खोज को गहरा और समृद्ध बनाया है. विभिन्न कालखंडों और विभिन्न अंचलों में तात्कालिक मुद्दे और संदर्भ भिन्न-भिन्न थे – सामंतवाद और सूदखोरी के खिलाफ संघर्ष, स्थानीय राजाओं के खिलाफ संघर्ष, जातीय व लैंगिक उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ संघर्ष, तथा भाषाई अधिकारों व सांस्कृतिक विविधता के लिए संघर्ष, इन सब ने मिलकर स्वतंत्रता आन्दोलन को आवेग प्रदान किया और उसके कैनवास को विस्तृत बनाया.

गोलबंदियों की विविध विधाएं और संघर्ष की पद्धतियां – जो गांधीवाद से लेकर अंबेडकरवाद तक, और साम्यवाद से लेकर सतरंगी समाजवाद तक – अनेक किस्मों की विचारधाराओं से निर्देशित हो रही थीं, इन सबको भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के महा-विमर्श की विविध लड़ियों के बतौर स्वीकार किया जाना चाहिए. विडंबना यह है कि एक धारा, जो स्वतंत्रता आन्दोलन से बिल्कुल गायब थी और जो हिंदू वर्चस्ववाद के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की अपनी खुद की परियोजना को लेकर मशगूल रही थी, आज उस वक्त भारत पर शासन कर रही है जब भारत स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं सालगिरह मना रहा है.

भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का उत्थान और प्रभुत्व का अपनेआप में तीन सदियों से भी ज्यादा लंबा इतिहास रहा है – पहले तो सत्रहवीं सदी के आरंभ ले लेकर पलासी के यूद्ध (1757) तक ईस्ट इंडिया कंपनी की वाणिज्यिक गतिविधियों और उसके नेटवर्क के विस्तार के रूप में, उसके बाद सौ वर्षों तक (1757-1857) की अवधिमें कंपनी शासन के रूप में, और अंततः 1858 से लेकर 1947 तक ब्रिटिश गद्दी की सीधी हुकूमत के रूप में. बर्बर लूट-खसोट से लेकर दमन और तिकड़मबाजी के संस्थागत राज तक, औपनिवेशिक शासन का यह गतिपथ निरंतर प्रतिरोध और समय-समय पर होने वाले विद्रोहों को जन्म देता रहा, जिसकी गाथा 1784 में तिलका मांझी की अगुवाई में आदिवासी विद्रोह से ही शुरू हो चुकी थी.

1757 में पलासी यूद्ध और 1764 में बक्सर की लड़ाई ने उत्तर भारत में कंपनी राज को काफी मजबूत बना दिया और कंपनी शासकों ने इसे और सुदृढ़ करने के लिए स्वामीभक्त जमींदारों की एक नई श्रेणी पैदा की और उसके लिए उन्होंने ‘स्थायी बंदोबस्ती’ या ‘काॅर्नवालिस कोड’ लागू किया. लेकिन इस उत्पीड़नकारी उपनिवेशवाद और जमींदारी प्रणाली, और उसके साथ जुड़े सूदखोरी के तत्व के खिलाफ व्यापक ग्रामीण आबादी, खासकर किसानों और आदिवासियों का गहरा विक्षोभ निरंतर उबलता रहा. समय-समय पर विद्रोह फूटते रहे और वे 1855 के संथाल हुल तथा 1857 के महान विद्रोह के रूप में नई उफंचाइयों तक जा पहुंचे, जिसके बाद ब्रिटिश गद्दी ने न केवल अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित कर लिया, बल्कि उसने अपनी रणनीति में काफी बदलाव भी लाए.

1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश शासकों के सामने दो बड़े खतरे खड़े कर दिए. हिंदू-मुस्लिम विभाजन और विखंडित भारतीय राज्यतंत्र की ब्रिटिश अपेक्षाओं के विपरीत, 1857 के विद्रोह ने राष्ट्रीय जागरण की महती संभावना को उजागर किया जिसके अंतर्गत हिंदू और मुस्लिम सैनिकों, किसानों, व्यापारियों और यहां तक कि अभिजात वर्गों ने भी विदेशी शासकों के खिलाफ हाथ मिला लिए थे.

इसीलिए 1857 के बाद ब्रिटिश शासकों ने ‘फूट डालो और राज करो’ को अपनी घोषित नीति के बतौर अपना लिया, और अपने विश्वस्त संश्रयकारियों के रूप में देसी रियासतों को स्थापित किया. निश्चय ही, स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रम में ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति के बरखिलाफ ‘एकताबद्ध हो और प्रतिरोध करो’ की नीति अपनाई गई थी, लेकिन उस नीति से बड़े पैमाने के खून-खराबे, जबरन विस्थापन व पलायन, विध्वंस और नुकसान से युक्त खौफनाक ‘विभाजन’ के अंतिम परिणाम को रोकने में कामयाबी नहीं मिल सकी. ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति का अंत ‘विभाजित करो और भाग जाओ’ के रूप में सामने आया.

आरएसएस, जो भाजपा के मार्फत अब भारत पर शासन कर रहा है और अपनी खुद की विचारधारा और दृष्टिकोण को शासक विचारधारा के बतौर लादने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा है, भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास को विभाजन के संत्रास तक सीमित कर देना चाहता है; जबकि मोदी शासन स्वतंत्रता आन्दोलन के तामाम किस्म के नेताओं को हड़प जाने और कुछ अन्य नेताओं की छवि को विकृत करने तथा उन्हें बदनाम करने में मशगूल है.

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान आरएसएस और हिंदुत्ववाद के अन्य पैरोकारों द्वारा निभाई गई वास्तविक भूमिका की घिनौनी हकीकत पर परदा डालने की यह एक चतुराई भरी चाल है. हिंदुत्ववादी समूह स्वतंत्रता आन्दोलन से दूर खड़ा रहा था – उसके सबसे बड़े प्रतीक-पुरुष सावरकर को अब ब्रिटिश शासकों को दी गई उनके आधे दर्जन माफीनामों के लिए ही ज्यादा याद किया जाता है, जबकि आरएसएस पर मुसोलिनी और हिटलर का रौब छाया हुआ था. गोलवरकर ने लिखा कि कैसे भारत को ‘नस्ली शुद्धता और गौरव’ पर आधारित हिटलर के नाजी जर्मनी माॅडल का अनुकरण कर लाभान्वित होना चाहिए, जबकि सावरकर ने ‘हिंदू भारत’ का माॅडल पेश किया जहां हिंदू लोग, जो आम तौर पर भारत में ही जन्मे और भारत में ही पैदा हुए धर्म के मानने वाले लोगों के रूप में परिभाषित होंगे, तमाम राजनीतिक और सैन्य सत्ता पर नियंत्रण रखेंगे.

आरएसएस भारत के बंटवारे के जवाब में ‘अखंड भारत’ का निर्माण करना चाहता है जिसमें सिर्फ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश – ये तीन देश ही नहीं, जो 1947 के बाद निर्मित हुए हैं – बल्कि उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान, उत्तर-पूर्व में म्यांमार, दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में नेपाल, भूटान और तिब्बत तक इसमें शामिल रहेंगे. इसे उस तरह के पुर्नएकीकरण की इच्छा नहीं समझा जाना चाहिए जैसे कि जर्मनी में पुर्नएकीकरण हुआ अथवा कि कोरिया के एकीकरण की इच्छा का मामला है, संघ की वैसे एकीकरण की कोई इच्छा नहीं. बल्कि यह उसी तरह का विस्तारवादी साम्राज्यवादी सपना है जैसा कि पुतिन का ‘विस्तृत रूस’ का सपना है जो यूरेशियन साम्राज्य के केंद्र में होगा. आरएसएस जिस ‘अखंड भारत’ की पैरोकारी करता है, वह इतिहास में कभी अस्तित्व में रहा ही नहीं है. यह सिर्फ पुराने मिथकीय गौरव वाले कल्पित अतीत की प्रस्तुति है जिसे नशीले सपने के बतौर उछाला जा रहा है ताकि लोगों का ध्यान उनकी वर्तमान की समस्याओं और तकलीफों के परे हटाया जा सके.

भारत और पाकिस्तान पचहत्तर सालों से अलग-अलग मुल्क के बतौर अस्तित्व में हैं, बांग्लादेश की उम्र भी पचास साल से ऊपर हुई. साझे अतीत और साझा हितों को ध्यान में रखते हुए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, ये तीन मुल्क निश्चित ही एक महासंघ के बारे में और अभी के निष्क्रिय और मृतप्राय ‘सार्क’ की जगह दक्षिण एशिया में आपसी सहयोग के ज्यादा गतिशील और ऊर्जावान ढांचे के निर्माण के बारे में सोच सकते हैं. लेकिन अखंड भारत का संघी सपना ऐसा पक्का नुस्खा है जिससे दक्षिण एशिया में लगातार टकराव बना रहेगा और भारत अपने सभी पड़ोसी देशों से और अधिक अलगाव में जा पड़ेगा. पुराने अविभाजित भारत को जिंदा करने की तो बात ही भूल जाइए, अगर कट्टर और सर्वसमांगी राजनैतिक हिंदुत्ववाद के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का प्रयास भी किया गया, तो भारत की मौजूदा राष्ट्रीय एकता भी खतरे में पड़ जाएगी.

हालांकि हमारा संविधान अपने वादे के अनुसार जनता के विस्तृत अधिकारों, लोकतंत्र की गहनता और स्वतंत्रता, बराबरी व भाईचारे की सुसंगत अवधारणा तथा मुकम्मल न्याय को साकार करने में पीछे रह गया, फिर भी हमारे संविधान की प्रस्तावना में आधुनिक लोकतांत्रिक गणतंत्र की मूल भावना की उद्घोषणा तो जरूर है.

पहले विश्वयूद्ध और विजयी रूसी क्रांति के बाद, और ठोस तरीके से कहिए तो दूसरे विश्वयूद्ध के दौरान और उसके बाद भारत की आजादी का आंदोलन अंतरराष्ट्रीय उपनिवेशवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी जागरण का हिस्सा बन गया था. 1947 में भारत से बरतानवी उपनिवेशवाद की विदाई और 1949 में नए चीन के उदय ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वैश्विक राजनैतिक नक्शे को पूरी तरह बदल कर रख दिया. इस बदले हुए अंतरराष्ट्रीय पृष्ठभूमि में ही एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में आधुनिक भारत की यात्रा शुरू हुई थी.

उस ऐतिहासिक ‘नियति से साक्षात्कार’ (ट्रिस्ट विद डेस्टिनी – 14 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि में जवाहरलाल नेहरू द्वारा संसद भवन में दिया गया ऐतिहासिक भाषण) के पचहत्तर सालों बाद आज भारत को एकदम अलग रास्ते और उल्टी दिशा में बढ़ाया जा रहा है. अब यह बिल्कुल स्पष्ट है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने और 2019 की उनकी फिर से जीत के बाद संघ-भाजपा गिरोह का मनोबल इतना मजबूत हो गया है कि अब वे भारतीय राज्य के ढांचे की मूलभूत चीजों को बदल रहे हैं – कार्यपालिका अब विधायिका और न्यायपालिका पर ढिठाई से अपना वर्चस्व कायम कर रही है, और संविधान के सिद्धांतों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. राज्य और नागरिकता से धर्म के विलगाव के सिद्धांत को पूरी तरह त्याग दिया गया है. नई संसद के निर्माण के साथ ही लोकतंत्र को एक नए कोटर में कैद किया जा रहा है, जहां आलोचना और विरोध की बुनियादी अभिव्यक्ति को ‘अ-संसदीय’ करार दिया जा रहा है. अगर ‘आपातकाल’ लोकतंत्र के दमन और निलंबन का पिछला दर्ज हुआ अनुभव था, तो आज हम खुद को स्थाई आपातकाल के हालात में पा रहे हैं. पुराने आपातकाल में सिर्फ राजसत्ता ही दमनकारी थी, इसका नया अवतार भाट (स्तुतिगान करने वाला) मीडिया और गलियों-चौराहों पर चिंघाड़ते हत्यारे गिरोहों को साथ लेकर आया है.

मोदी सरकार के लिए आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और फिर से लिखने का मौका भर है. हम भारत के लोगों के लिए आजादी के आंदोलन के इतिहास को फिर से याद करना जरूरी है, ताकि हम स्वतंत्रता और बराबरी के सपने की लौ फिर से जला सकें, ताकि हम बढ़ते हुए फासीवादी हमले का मुंहतोड़ जवाब दे सकें.