वर्ष - 31
अंक - 42
15-10-2022

वर्ष 1956 के अक्टूबर माह की 14वीं तारीख थी. बाबा साहब अंबेदकर ने उस दिन लाखों लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था. नागपुर शहर में अवस्थित वह जगह तब से दीक्षाभूमि के नाम से मशहूर हो गई. 18 दिसंबर 2001 को तब के राष्ट्र्रपति केआर नारायणन ने उसी जगह स्तूप का शिलान्यास किया. नागपुर की वह जगह आज व्यापक जनमानस में एक धरोहर की पहचान बना चुकी है. उस दिन अशोक विजयादशमी थी. ऐसा विश्वास है कि इस दिन सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध में तबाही से विचलित होकर हिंसा त्यागने और बौद्ध धर्म अपनाने की शपथ ली थी. अशोक विजयादशमी उसी की वार्षिकी का दिन है. संयोग से, अंबेदकर ने भारत में एक नये बौद्ध आंदोलन की शुरूआत के लिए जिस दिन का चयन किया और जिस दिन ने हमें एक बिलकुल नया अंबेकरवादी बौद्ध समुदाय दिया, वही विजयादशमी का दिन आरएसएस का भी स्थापना दिवस है और उसका मुख्यालय भी उसी नागपुर शहर में है. वह आरएसएस अपने स्थापना दिवस को शस्त्रों का सार्वजनिक प्रदर्शन व पूजन करते हुए मनाता है.

दोनों इतिहास इस तरह दो विरोधाभासी मार्ग दिखाते हैं – अंबेदकर का धम्मचक्र प्रवर्तन जहां स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारा के कठिन मार्ग पर चलने के संकल्प का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं आरएसएस की सैन्यवादी व पितृसत्तात्मक संस्कृति घृणा, हिंसा एवं दमन के मार्ग पर चलने का संकेत देती है. इस साल जब दिल्ली के अंबेदकर भवन पर कुछेक हजार लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने अंबेदकर की प्रसिद्ध 22 प्रतिज्ञाएं दुहराईं एवं बौद्ध संकल्प लिया, उसके बाद से देश की राजधानी दिल्ली में इस विरोधाभास में एक नई तीक्ष्णता आ गई है. खत्म होते-होते इस आयोजन ने आरएसएस में खीझ बढ़ा दी. और, संघ ब्रिगेड दिल्ली सरकार के समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम के खिलाफ द्वेषपूर्ण अभियान में कूद पड़ा तथा इस्तीफा देने के लिए उनपर दबाव बनाने लगा क्योंकि आयोजन में वह भी शामिल थे.

यह परिघटना आम आदमी पार्टी की राजनीति के ऊपर भी गंभीर सवाल उठाती है. जिस आम आदमी पार्टी ने दिल्ली एवं पंजाब के सभी कार्यालयों में भगत सिंह एवं अंबेदकर की तस्वीरें लगाना अनिवार्य कर रखा है उसने अपने ही मंत्री को विपत्ति में बेसहारा छोड़ दिया जब वह अंबेदकर का अनुकरण करता पाया गया. इसके अलावे और भी अनेक अवसरों पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी मुस्लिमों के खिलाफ नफरत, झूठ एवं हिंसा फैलाने के संघ ब्रिगेड के अभियान के समक्ष अपने मुस्लिम विधायकों व नेताओं से किनारा करते पाई गई है. धर्मांतरण कोई अपराध नहीं है बल्कि संविधान प्रदत्त अधिकार है. दलितों का पूरा पूरा हक बनता है कि वे हिंदुत्व के बंधन से मुक्त हो जाएं और उत्पीड़क जाति व्यवस्था से बाहर निकलने का रास्ता तलाशें. यह भी एक संयोग ही है कि उसी दिन मोहन भागवत अपने आरएसएस स्थापना दिवस संबोधन में कहते हैं कि जाति एवं वर्ण को अतीत की चीजें मानकर भारत उन्हें भूल जाए! दलितों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने एवं अंबेदकर की प्रसिद्ध 22 प्रतिज्ञाएं दुहराने के खिलाफ आरएसएस के द्वेषपूर्ण अभियान ने कुछ हमारे सामने प्रकट किया तो यही कि भारत में उत्पीड़नकारी जाति व्यवस्था बचाये रखने के लिए आरएसएस अभी भी किस हद तक समर्पित है. जाति का अंत हो चुका है कहने के ढोंग के जरिए उसका खात्मा नहीं होने वाला. 1936 में अंबेदकर द्वारा बताये गये जाति का विनाश के तरीके से ही जाति पर विजय पाई जा सकती है.

ऐसी धारणा बनाने की कोशिश की जा रही है कि एक व्यापक आधार वाले समावेशी संगठन में आरएसएस का कायांतरण हो गया है. पांच मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ भागवत की एक मीटिंग हुई. इस मीटिंग ने आरएसएस द्वारा भारत के मुसलमानों को भारतीय नागरिक मान लेने की ‘तैयारी’ का वास्तविक जैसा संकेत दिया. और, भागवत के एक मस्जिद एवं मदरसे में जाने को भी बदलाव के संकेत के रूप में प्रचारित किया गया. लेकिन इससे बड़ी झूठी खबर और कुछ नहीं हो सकती! भागवत एक मदरसा गये तो सही, लेकिन वे वहां छात्रों को केवल यह कहने गये कि उन्हें कुरान के साथ-साथ गीता भी पढ़नी है. क्या आरएसएस द्वारा संचालित विद्यामंदिर अपने विद्यार्थियों को अब से कुरान पढ़ने को कहेंगे? यदि उनकी इस यात्रा का निहितार्थ समझना हो, तो कर्नाटक में बिदर की उस घटना से सही-सही समझा जा सकता है जिसमें एक केसरिया दस्ता एक प्राचीन कालीन मस्जिद एवं मदरसे में दशहरा के दिन पूजा करने के वास्ते घुस गया.

मुसलमानों एवं दलितों को हाशिए पर धकेल देने की संघ-भाजपा परियोजना के बारे में तथ्य तो कोई गलतबयानी नहीं कर सकता! ‘मुसलमानों में डर व असुरक्षा फैलाई जाने वाली गलत समझ’ के बारे में जैसा कि हम मोहन भागवत की बातचीत सुनते हैं, उसके उलट हम दिल्ली में एक भाजपा सांसद को मुसलमानों के संपूर्ण बहिष्कार की खुली घोषणा करते पाते हैं जबकि उसी आयोजन में एक अन्य वक्ता मंच से मुसलमानों के जनसंहार की घोषणा दुहराता पाया जाता है. आने वाले गुजरात चुनाव के ठीक पहले हमने वहां नवरात्रि समारोहों एवं गरबा नृत्य आयोजनों को भी मुसलमान विरोधी नफरत व हिंसा के सार्वजनिक प्रदर्शन में तब्दील हो जाते हुए देखा. उन्हें सामाजिक उत्सवों में भाग लेने से रोका गया और यहां तक कि पुलिस व गुंडों द्वारा उनपर खुलेआम कोड़े बरसाए गए. पुलिस व गुंडों के इस हमले को भीड़ से उल्लासपूर्ण स्वीकृति भी मिली. ठीक उसी तरह, यह बिलकुल स्पष्ट है कि ‘अतीत में गुम जाति’ वाली बात का निशाना आरक्षण की नीति को उलट देने, जाति क्रूरता के गांभीर्य को कम कर देने और दलितों एवं आदिवासियों के धर्मांतरण के संवैधानिक अधिकार को नकार देने पर है.

यह धारणा बनाना भी कम भ्रामक नहीं है कि गहराते आर्थिक संकट पर आरएसएस की नजर है और वह किसी बहुत जरूरी सुधार के लिए मोदी सरकार पर दबाव बना रहा है. स्वदेशी जागरण मंच के एक आयोजन में गरीबी और बेरोजगारी के बारे में आरएसएस के महासचिव दत्तात्रोय होसबोले की टिप्पणियां मोदी के ही पैकेज का हिस्सा थीं. मोदी के उस पैकेज में है – लगातार ‘मुफ्त रेबरियां’ के खिलाफ में बोलना तथा ‘नौकरी खोजने वालों’ को खुद को ‘नौकरी देने वालों’ में बदल लेने की सलाह और नागरिकों द्वारा अधिकार मांगने की जगह कर्तव्य निभाने पर जोर. विजयादशमी के अवसर पर अपने संबोधन में, मोहन भागवत ने न केवल मोदी सरकार का गुणगान किया जैसी कि उम्मीद थी, बल्कि संघ ब्रिगेड द्वारा प्रचार की जानेवाली अपनी पुरानी बातों को दुहराया – भारत में धर्म आधारित आबादी संतुलन का काल्पनिक संकट, भारत में मुस्लिम आबादी के काल्पनिक घातीय वृद्धि दर के कारण हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने के डर को भड़काने के लिए कूट भाषा में बात करना! आरएसएस अपनी शतवार्षिकी मनाने से सिर्फ तीन साल दूर है. इस बात की बड़ी संभावना है कि शतवार्षिकी के अवसर पर संप्रभु, लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होने की भारत की संवैधानिक दृष्टि पर आरएसएस का हमला और तेज होगा.