वर्ष - 31
अंक - 50
03-12-2022

संविधान दिवस, 2022 ने एक बार फिर संविधान की भावना और मूल्यों की रक्षा करने की बड़ी चुनौती को जल्द ही स्वीकार करने की जरूरत को सतह पर ला खड़ा किया है. इधर हमें दो अच्छे संकमेत मिले हैं, हमने देखा कि प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े जेल में करीबन एक हजार दिन बिताने के बाद जमानत पर बाहर निकल आए हैं और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से अपनी जमानत के आदेश पर स्थगन हासिल करने के एनआइए के प्रयासों को धूल चटा दिया दिया; दूसरी ओर, हमने देश भर में किसानों को सड़कों पर मार्च करते देखा जो अपनी सभी फसलों के लिये उचित मूल्य प्राप्त करने के अधिकार तथा कृषि की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध थे. न्याय और लोकतंत्र के लिये “हम, भारत के लोग” की यह दावेदारी ही आधुनिक भारत की असली संवैधानिक भावना है.

लेकिन जहां जनता लोकतंत्र की रक्षा के लिये अपनी दावेदारी जता रही है, वहीं आज की सरकार और संघ ब्रिगेड संविधान पर निरंतर हमले भी कर रही है. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति और कार्यों के विभाजन के सिद्धांत – जो संवैधानिक शासन, और संसदीय लोकतंत्र के सांस्थानिक ढांचे की मर्यादा के मूल तत्व हैं – को उत्पाती कार्यपालिका के द्वारा रौंदा जा रहा है ताकि संविधान को उलट दिया जाए और विपक्ष मुक्त एकल शासन देश की जनता पर थोप दिया जाए.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी कुछ हालिया अिप्पणियों में कार्यपालिका से अपने बेलगाम मनमानी कार्रवाइयों के बारे में सवाल पूछे हैं. छह वर्ष पूर्व किसी संस्थागत सलाह-मशविरे या संसद की स्वीकृति के बगैर ही नोटबंदी का मनमाना फैसला लाद दिये जाने के खिलाफ दायर एक मुकदमे पर संविधान पीठ सुनवाई कर रही है. इस मामले में सरकार द्वारा किसी तरह बच निकलने के लिये दिए जा रहे जवाब से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अब किसी भी तरह की न्यायिक जांच-परख से कितना भय खाती है. तथाकथित ईडब्ल्यूएस कोटा पर आए विखंडित फैसले में अल्पमत विचार ने इस कोटे को संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करने वाला कृत्य बताया है.

निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर सुनवाई करने वाली संविधान पीठ ने निर्वाचन आयोग को उलट देने और उसकी संस्थागत स्वतंत्रता को नष्ट करने की सरकार की मंशा का खुलासा किया है. जब सर्वोच्च न्यायालय उस याचिका पर सुनवाई चला रहा था उसी दरम्यान सरकार ने मताधिकार की संवैधानिक हैसियत के बारे में भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपना तर्क रखते हुए उसे एक अनिवार्य अधिकार बना दिया. इस पर संविधान पीठ ने जवाब देते हुए सरकार को स्मरण कराया कि वह जनता को वोट देने से रोकने के लिये अपने अनर्हता मानदंडों का विस्तार नहीं कर सकती है, वोट देने के अधिकार को संवैधानिक नहीं, महज अनिवार्य अधिकार बताने का यह प्रयास नागरिकों के किसी भी तबके को मताधिकार से वंचित करने की ही पूर्व पीठिका है.

देश के विद्वान और लेखक की बंबई हाई कोर्ट द्वारा जमानत दिये जाने खिलाफ एनआइए की याचिका मानवाधिकारों के प्रति मोदी सरकार की घोर नफरत का एक दूसरा उदाहरण है. एनआइए और यूएपीए मोदी सरकार के हाथ जुड़वां हथियार बन गये हैं, जिसके सहारे सरकार जब चाहे तब विरोध की किसी भी आवाज को फंसाकर जेल में ठूंस दे सकती है. गृह मंत्रियों के साथ विडियो कांफ्रेंसिंग के दौरान ‘कलम चलाने वाले नक्सल’ के खिलाफ मोदी की हालिया टिप्पणी आने वाले दिनों में असहमति रखने वाले नागरिकों की और अधिक गिरफ्तारियों के लिये स्पष्ट निर्देश है, जहां विवेकशील कैदियों को न्यायालयों द्वारा बरी किया जाहा है या उन्हें जमानतें दी जा रही हैं, वहीं संघ ब्रिगेड और मोदी सरकार ऐसे विवेकशील कैदियों की रिहाई की मांग करनेवाले न्याय के इच्छुक लोगों को कानून की जाल में फंसा देने पर उतारू है. संयोगवश, सर्वोच्च न्यायालय में संविधान दिवस के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम के समापन सत्र में अपने भाषण के अंत में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने अनायास टिप्पणी करते हुए न्यायपालिका का ध्यान भारतीय जेलों में जगह से कहीं ज्यादा भीड़, और खासकर जेलों में वर्षों से पड़े समाज के अभिवंचित तबकों से आए कैदियों की ओर आकृष्ट किया है.

संविधान को उसकी मूल भावना और भविष्य दृष्टि से प्रणालीबद्ध ढंग से खोखला बना कर उस पर हमले मजबूत किये जा रहे हैं. हम यह नहीं भूल सकते हैं कि आरएसएस ने न केचल स्वंतत्रता आंदोलन में कोई भूमिका अदा नहीं की थी, बल्कि उसने न तो संविधान और न स्वतंत्रता आंदोलन की गर्भ से निकले तिरंगा ध्वज को ही मान्यता दी थी; बल्कि वह मनुस्मृति को भारत का संविधान तथा भगवा झंडे को राष्ट्र ध्वज बनाने की पैरोकारी कर रहा था. अब जबकि भाजपा सत्ता में है, तो वह खुद को स्वतंत्रता आंदोलन, संविधान और राष्ट्र ध्वज का अगुआ दिखाने की कोशिश कर रही है. लंकिन इसके लिये उसे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास तथा संविधान की मूल भावना और भविष्य दृष्टि को लगातार विकृत करने का रास्ता अपनाना पड़ रहा है. अधिकारों की बजाय कर्तव्यों पर प्रथम स्थान देकर मोदी संविधान के इस उलट फेर की अगुआई कर रहे हैं. इस वर्ष संविधान दिवस पर अपने संबोधन में उन्होंने आगे बढ़कर अगले 25 वर्षों को ‘कर्तव्य काल’ के बतौर परिभाषित किया है.

अब मोदी एक नया जुमला गढ़ रहे हैं और भारत को लोकतंत्र की जननी बता रहे हैं. इस बात से संकेत पाकर उनकी सरकार ने भारतीय इतिहास शोध परिषद द्वारा जारी एक ‘कंसेप्ट नोट’ को केन्द्र कर एक संगठित मुहिम छेड़ दी है. उस नोट में संविधान को ‘हिंदू राजनीतिक सिद्धांत’, ‘विदेशी संस्कृतियों और नृजातियों द्वारा आक्रमण के 2000 वर्ष के बरखिलाफ हिंदू संस्कृति और सभ्यता’ की उपज के बतौर पेश किया गया है. यह बयान भारत के उपनिवेशवाद-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम और संस्थाबद्ध वर्णाश्रम व लैंगिक अन्याय से मुक्त होकर सामाजिक न्याय व समानता की तलाश की बुनियाद पर भारतीय संविधान की वास्तविक निर्माण प्रक्रिया और उसके परिप्रेक्ष्य को खुले तौर पर नकार देता है. यह अंबेडकर के संविधान को सिर के बल खड़ा कर देने का ही एक प्रयास है. हमें मोदी शासन द्वारा संविधान को अपने हाथ का खिलौना बना लेने की इस साजिश से उसे बचाना ही होगा.