वर्ष - 31
अंक - 48
02-12-2022

– क्लिफ्टन डी. रोजारिया

(विगत अंक से आगे)

मजदूर तबके के बीच हिंदुत्व वर्चस्व की रजामंदी कायम करना

मजदूर तबके के ऊपर दूसरा हमला मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी दावेदारी को लगातार भोथरा करने के साथ हिंदुत्व के लिए रजामंदी बनाने की सघन और सतत कोशिश है. यह समझना लाजिमी है कि नवउदारवादी नीतियों के मंसूबों को पूरा करने के लिए जरूरी है कि मजदूर वर्ग और उनकी ट्रेड यूनियनों की संगठित और लड़ने की हैसियत को कुचल दिया जाए. अब यह हिंदुत्व जैसी विचारधारा के साथ मिल गई है जो वर्ग-सचेत लड़ाकू मजदूर वर्ग से दूर भागती है.

हम एक ऐसे दौर में पहुंच गए हैं जहां मजदूर तबके का एक हिस्सा सांप्रदायिक, मनुवादी और फासीवादी राजनीतिक विचारों और असरों का हिमायती है. अध्ययनों से जाहिर है कि औपनिवेशिक काल के दौरान भी मजदूर तबके का एक हिस्सा सांप्रदायिक हिंसा में भाग लेता था. ‘वर्ग चेतना’ के बजाय मजदूर तबके के एक हिस्से में कुछ हद तक ‘सांप्रदायिक चेतना’ दिखती थी, लेकिन यह मजदूर तबके की लड़ाई में उनकी एका को नहीं रोक सका. हालांकि, आज हमारे सामने चुनौती है कि मजदूरों का एक हिस्सा हिंदुत्व की विचारधारा से पूरी तरह से राजी है.

निश्चित तौर से संघ परिवार की लगातार कोशिशों ने हिंदुत्व विचारधारा के प्रसार और जनता की लामबंदी को आसान किया है, खास तौर से मजदूर तबके के बीच में. हमें यह नही भूलना चाहिए कि भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) दशकों से हिंदू राष्ट्रवाद के बैनर तले मजदूरों को लामबंद करने में लगा हुआ है. [6] बीएमएस की स्थापना 1955 में मजदूर तबके के बीच आरएसएस के आदर्शों के अनुरूप काम करने के लिए की गई थी. यह दावा करती है कि ‘भारतीय संस्कृति’ इसकी वैचारिकी की बुनियाद है और राष्ट्रीय हितों की पूर्ति तब तक नही हो सकती, जब तक दुश्मनी का अहसास मौजूद है. राष्ट्र के सभी घटकों को एका में काम करना चाहिए जो सिर्फ ‘औद्योगिक परिवार’ की अवधारणा को विकसित करने से हासिल होगी. इस अवधारणा के तहत बीएमएस वर्ग संघर्ष को बिल्कुल सिरे से खारिज कर ‘औद्योगिक परिवार’ की अवधारणा को बढ़ावा देता है. 5,000 से ज्यादा ट्रेड यूनियनों से सम्बंधित बीएमएस की सभी राज्यों में लगभग 1 करोड़ की सदस्यता है और यह देश की सबसे बड़ी सेंट्रल ट्रेड यूनियन है. इसने मजदूर तबके की वर्ग चेतना को भोथरा करने और हिंदू राष्ट्रवाद के लिए उकसा कर राजी करने में अहम भूमिका निभाई है.

इसके अलावा, पिछले दशकों से श्रम के अनौपचारिक बनाये जाने व गरीबी की मार और सांप्रदायिक दंगों का मुक्तभोगी मजदूर तबका अभी हो रहे फासीवादी वैचारिक हमले का आसानी से शिकार बन फासीवाद का हिमायती हो रहा है. अहमदाबाद के सांप्रदायिक दंगों का अध्ययन करते हुए जेन ब्रेमन यह तर्क देते हैं कि ‘शहरी अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र से श्रम के बड़े पैमाने पर निष्कासन और बीसवीं सदी के आखिर में सांप्रदायिक हिंसा के विस्फोट के बीच एक सीधा संबंध है.’

फासीवाद का मुकाबला

‘अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए एक भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा. हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक खतरा है. इस आधार पर लोकतंत्र के अनुपयुक्त है. हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए.’

– अंबेडकर

मजदूर वर्ग ने फासीवादी हमले के खिलाफ लड़ने की ऐतिहासिक जरूरत को बखूबी निभाया है. आजादी आंदोलन के दौरान मजदूरों ने विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति को बार-बार ठुकरा कर औपनिवेशिक ताकतों को जोरदार टक्कर देने के लिए एकजुटता कायम की. यहां तक कि फासिस्ट नाजी हुकूमत को भी मजदूरों से लड़ाई का सामना करना पड़ा था जिसे टिमोथी मेसन ने जर्मन मजदूर तबके का राजनीतिक प्रतिरोध कहा है.

हाल में हमने किसानों की साहसिक लड़ाई देखी जो आजाद भारत के सबसे बड़े जन-प्रतिरोधों में से एक है. केंद्रीय सरकार ने संसद को पैरों तले रौंदते और संविधान को नेस्तनाबूद करते हुए कारपोरेट हिमायती व किसान विरोधी तीन कृषि कानून पारित कर दिए, पर अभूतपूर्व किसान आंदोलन ने तानाशाह हुकूमत को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. केंद्रीय सरकार और इसके भोंपू मीडिया के जरिये किसानों को बदनाम करने और बांटने का हर हथकंडा नाकाम हो गया. सच तो यह है कि पराजित मोदी सरकार को कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

मजदूर तबके को किसानों के साहसिक संघर्ष से प्रेरणा लेकर फासिस्ट हमले के खिलाफ जुझारू प्रतिरोध खड़ा करना होगा. अर्थवाद के पफंदे में पड़े बिना जुझारू प्रतिरोध खड़ा करने को बुनियादी वसूल बनाना होगा. सेंट्रल ट्रेड यूनियनों द्वारा संयुक्त रूप से आहूत हड़तालें और विरोध जरूरी पर नाकाफी हैं. अर्थवाद के फंदे से बचने के लिए यह समझना जरूरी है कि वर्ग का सवाल सामाजिक भी होने की वजह से केवल आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष नहीं हो सकता है और ‘वर्ग संघर्ष’ बुनियादी तौर से वर्ग, जाति और लैंगिक सहित सभी आर्थिक और सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई है. खास तौर से लैंगिक समानता और जाति का उन्मूलन मजदूर वर्ग के संगठन और संघर्ष का एक अभिन्न अंग होना चाहिए. मजदूर तबके की एक अहम जिम्मेदारी सांप्रदायिक विभाजन से लड़ना है, इसलिए नहीं कि यह मजदूर वर्ग के लिए विभाजनकारी है, बल्कि इससे फासीवाद के भारतीय ब्रांड का वह पहलू जाहिर होता है जो पूरे देश के लिए तबाही है. मजदूर तबके को कोई भी इंसाफ पाने के लिए यह जरूरी है कि जम्हूरियत का सवाल उनकी लड़ाई का हिस्सा बने.

हमें ‘सांप्रदायिक चेतना’ के खिलाफ मजदूर तबके की वास्तविक एकता और भाईचारे के लिए कोशिश करनी चाहिए. शहीद भगतसिंह ने क्रांतिकारी मार्क्सवाद को सांप्रदायिकता के जबाब के बतौर देखा देखा था –

‘लोगों को एक-दूसरे से लड़ने से रोकने के लिए ‘वर्ग चेतना’ का होना आज की जरूरत है. गरीब मजदूरों और किसानों को साफ तौर से यह समझाया जाना चाहिए कि उनका असली दुश्मन पूंजीपति वर्ग है.’

मजदूर तबके के आंदोलन को असरदार बनाने के लिए इसे कारखाने की चहारदिवारियों और फाटकों से परे जाकर नगरिक जीवन जीते मजदूरों की बस्तियों व इलाकों में प्रभावी तरह से काम करना होगा.

बालगोपाल [7] ने कहा था –
‘जनता द्वारा बार-बार किये जा रहा खुला प्रतिरोध ही केवल एक आशा है, जो महज बेलगाम भड़क उठने की काबिलियत ही नहीं रखता बल्कि अनुशासित और संगठित भी है. ... यह विश्वास करना खुद को धोखा देना होगा कि प्रतिरोध फासीवादी हमले को दूर भगाने के लिए पर्याप्त मजबूत है; बल्कि साहसपूर्वक हमले का मुकाबला करने से ही प्रतिरोध खुद को ताकतवर बना सकता है.’

हक व मान-सम्मान की जिंदगी जीने की लालसा रखने वाले मजदूर तबके के पास इस हमले से लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. आइए हम देश भर में फासीवाद के खिलाफ बढ़ रहे संघर्षों से उम्मीद जगाएं!

आखिरकार, फासीवाद को रोका जा सकता है!

टिप्पणियां
6. ‘वर्कर्स एंड द राइट विंग – द सिचुएशन इन इंडिया’, स्मृति उपाध्याय, जाॅन्स हाॅपकिन्स यूनिवर्सिटी
7. उपरोक्त

(समाप्त)