वर्ष - 32
अंक - 13
25-03-2023

ढिंढोरा पीटे गए ‘गुजरात माॅडल’ की कहानी ज्यादा से ज्यादा अजीबोगरीब बनती जा रही है, और 2023 की शुरूआत से इसके यात्रा-पथ में जो घुमाव आ रहे हैं, वे भी कम सनसनीखेज नहीं हैं.

इस साल का आरंभ नाटकीय ढंग से ‘मोदी क्योश्चन’ नामक दो खंडों वाली डाक्युमेंटरी से होता है जिसे बीबीसी ने प्रसारित किया है. बीबीसी जैसे मुख्यधारा के वैश्विक मीडिया मंच पर मोदी के गुजरात में गोधरा के बाद मुस्लिमों के कत्लेआम की पुनः चर्चा होने से वे सारी बातें ताजे ढंग से सामने आ रही हैं जिसकी विस्तृत रिपोर्ट बीस वर्ष पूर्व प्रचारित हो चुकी थीं, जब भारतीय मीडिया अपने आज के गोदी मीडिया अवतार में रूपांतरित नहीं हुआ था. बीबीसी की उस वीडियो में अबतक के कुछ अनजाने तथ्य भी सतह पर आ रहे हैं, जैसे कि ब्रिटिश उच्चायोग द्वारा उस वक्त करायी गई एक जांच जिसमें नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा के लिए सीधे जिम्मेदार पाया गया था, जिस हिंसा में नस्ली सफाये के तमाम लक्षण मौजूद थे. इस तथ्य की संपुष्टि इंग्लैंड के तत्कालीन विदेश मंत्री जैक स्ट्राॅ ने की है. जैसा कि उस डाक्युमेंटरी में दिखया गया है, गुजरात के सीएम के बतौर मोदी ने सिर्फ इस बात पर अफसोस जताया था कि वे ‘मीडिया से सही ढंग से निपटने में असफल रह गए थे’, और बीस वर्ष बाद आज भारत के प्रधान मंत्री के रूप में वे यह स्पष्ट करते हैं कि मीडिया से सही ढंग से निपटने का उनका क्या तात्पर्य था, जब वे भारत के सोशल मीडिया पर इस वीडियो को ब्लाॅक करने के लिए आईटी ऐक्ट के तहत आपात्कालीन शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं और फिर दिल्ली व मुंबई में बीबीसी के कार्यालयों पर छापे डलवाते हैं.

अगर बीबीसी के ये डाक्युमेंटरी पूरी दुनिया के सामने मोदी सरकार के असली चरित्र को बेनकाब करते हैं, तो हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने अडानी साम्राज्य के लिए आर्थिक भूस्खलन पैदा कर दिया है. अडानी ग्रुप द्वारा अपने आर्थिक हितों को ‘भारत का गौरव’ तथा हिंडनबर्ग रिपोर्ट को भारत-विरोधी साजिश बताने के प्रयासों को भारतीय जनमत का कोई समर्थन नहीं मिल सका. अगर कुछ हुआ, तो यही कि अडानी घोटाले के बारे में कोई जांच चलाने से मोदी सरकार के हठीले इन्कार ने अडानी घोटाले के सबसे अहम पहलू – अडानी और मोदी के बीच संबंध – पर लोगों का ध्यान केंद्रित कर दिया. गुजरात माॅडल के दो स्तंभ – बेलगाम जनसंहारी राजनीति और निरंतर काॅरपोरेट धोखाधड़ी व लूट – पहले के किसी समय से ज्यादा बेपर्द हो गए हैं और चुनौतियां झेल रहे हैं.

अब हमारे सामने किरण जगदीशभाई पटेल के रूप में गुजरात माॅडल का एक तीसरा चौंकाने वाला आयाम भी है जिसे जम्मू कश्मीर पुलिस ने हाल ही में एक ठग के बतौर गिरफ्तार किया है. उसकी गिरफ्तारी तब हुई जब पिछले कुछ महीने के अंदर वह शख्स कई बार खुद को पीएमओ (प्रधान मंत्री कार्यालय) का अतिरिक्त निदेशक बताकर जम्मू कश्मीर के जेड-प्लस सुरक्षा वाले संवेदनशील इलाकों में जा चुका था! उसके सोशल मीडिया अकाउंट से पता चलता है कि पटेल भाजपा के साथ, और 2014 तथा 2019 में मोदी मुहिम के साथ जुड़ा रहा है, और वह दावा करता है कि वह इस उच्च सैन्यीकृत राज्य में ‘विकास और पर्यटन’ को बढ़ावा देने के जरिये कश्मीर में मोदी मिशन को आगे ले जा रहा है.

जो सरकार आदतन झूठे दावों के साथ जनता को धोखा देने और बेनकाब हो जाने पर उन्हें ‘जुमला’ कहकर चुपचाप खारिज कर देने में माहिर हो, जो अडानी घोटाला जैसे भारी-भरकम घोटाले पर खामोश रह जाती हो, वह सरकार निश्चय ही किरण पटेल घटना पर भी चुप्पी साधे रहेगी. लेकिन इस भारी सुरक्षा चूक से उठने वाले सवाल अपने जवाब की मांग तो करेंगे ही. गुजरात के किसी ठग के लिए खुद को पीएमओेे अधिकारी बता देना एक स्वाभाविक चालबाजी हो सकती है, लेकिन उसे जेड प्लस सुरक्षा कवच किसने प्रदान किया, और वह भी जम्मू कश्मीर जैसे राज्य में? या तो पूरी व्यवस्था ही इतनी नकारा है कि कोई भी आदमी बड़ी आसानी से किसी बड़े आदमी का नाम ले सकता है या खुद को प्रधान मंत्री से जुड़ा बता सकता है; और अगर यही जवाब है तो मोदी सरकार द्वारा तथाकथित सामरिक खुफिया तंत्र के बारे में किए जाने वाले दावे उतने ही झूठे हैं, जितना कि नोटबंदी के जरिये काले धन को खत्म करने का दावा था. अगर नहीं, तो हमें यकीन करना पड़ेगा कि किरण पटेल किसी गहरे राज्य षड्यंत्र का हिस्सा था. यह आरोप लगाया जाता है कि उसे गिरफ्तार करने के बावजूद उसके दो साथियों को छोड़ दिया गया.

हमलोगों को 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुए पुलवामा बम विस्फोट का भी कोई विश्वसनीय जवाब नहीं मिल सका है. कैसे घातक विस्फोटकों से लदा कोई वाहन उच्च सुरक्षा में चल रहे सीआरपीएफ काफिले में घुस गया और सीआरपीएफ के 40 जवानों की हत्या हो गई? पुलवामा हमले से उपजे अनुत्तरित सवालों की तरह ही हम यह नहीं जानते कि भारतीय राज्य ने डीएसपी दविंदर सिंह को सिर्फ सेवा से बर्खास्त करके ही क्यों छोड़ दिया जिसे आरोपी आतंकियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते समय गिरफ्तार किया गया था. आज कश्मीर पूर्णतः केंद्रीय शासन के अधीन अत्यंत सैन्यीकृत क्षेत्र है, और डीएसपी दविंदर सिंह प्रकरण अथवा किरण पटेल घटना जैसी बड़ी खुफिया या सुरक्षा चूक की जिम्मेदारी सीधे-सीधी गृह मंत्रालय अथवा खुद प्रधान मंत्री पर जाती है.

एक दूसरी परेशान करने वाली और उतनी ही संदेहास्पद घटनाक्रम अमृतपाल सिंह को केंद्र करके इस समय पंजाब में सर उठा रहा है. अमृतपाल के उत्थान को भिंडरवाले परिघटना की पुनरावृत्ति के तौर पर देखा जा रहा है. किरण पटेल के मामले में उसके साथियों को चले जाने दिया गया, जबकि अमृतपाल सिंह के मामले में उसके साथियों को गिरफ्तार किया गया है और खुद अमृतपाल गिरफ्तारी से बच निकला. इसे पंजाब के अभिनेता दीप सिद्धू का उत्तराधिकारी समझा जा रहा है, जिसने 2019 में भाजपा के लिए चुनावी मुहिम चलाई थी और जो 2021 के किसान आन्दोलन के दौरान लाल किले में हिंसा का एक प्रमुख अभियुक्त भी था जिसकी बाद में एक कार दुर्घटना में रहस्यमय ढंग से मौत हो गई. अमृतपाल के तेज उत्थान को पंजाब में 1980 और 1990 दशकों के जैसा सामाजिक व राजनीतिक उथल-पुथल पैदा कर देने की एक वृहत्तर साजिश के अंग के बतौर समझा जा रहा है, जब वह राज्य एक ओर खालिस्तानी आतंकवाद के हमलों और दूसरी ओर राज्य-प्रायोजित गैर-न्यायिक आतंक व दमन के अंतर्गत कराह रहा था.

जैसे जैसे ‘गुजरात माॅडल’ बेनकाब हो रहा है और भारत के लोग मोदी-अडानी गठबंधन के विनाशकारी अर्थतंत्र व राजनीति के प्रति सजग हो रहे हैं, संघ-भाजपा प्रतिष्ठान हर दरार का इस्तेमाल करके अपने हित में अस्तव्यस्तता फैलाने और टकराव व विभाजन को गहरा बनाने की हताशोन्मत्त कोशिश करेगा. वह भारत को और मजबूत तानाशाही नियंत्रण में ले आने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. भटकाव और विभाजन को इन्कार करने वाले शक्तिशाली और सचेत फासीवाद-विरोधी आन्दोलनों के जरिये ही इस साजिश को शिकस्त दी जा सकती है.